वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 8
From जैनकोष
भीसणणरयगईए तिरियगईए कुदेव मणुगइए ।
पत्तोसि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीव ।।8।।
(13) चतुर्गतिदुःख का स्मरण करा कर जिनभावना भाने का उपदेश―हे आत्मन् ! अब तक शुद्ध आत्मा की पहिचान बिना भीषण भयकारी नरकगति, तिर्यंचगति, कुदेव, कुमनुष्यगति में जन्म ले लेकर तीव्र दुःख पाये । नरकगति तो कुगति है ही, पूरी तिर्यंचगति भी दुर्गति ही है । देवगति में कुछ विवेकी देव होते, सम्यग्दृष्टि देव होते । तो ज्ञानी देव का भव नहीं पाया इस जीव ने । पाया होता तो यह भी कुछ ही भव पाकर मोक्ष चला जाता, इसलिए कुदेव की बात कही है । यहाँ के कुदेवों में तीव्र दुःख पाये । इसी तरह कुमानुष । भले मानुष होना, सम्यग्दृष्टि होना, भाव तपस्वी होना, ऐसे भव नहीं पाये । खोटे मनुष्य ही बने । जो अज्ञानी जीव हैं वे सब खोटे ही तो हैं । तो ऐसी दुर्गतियों में तीव्र दुःख प्राप्त किया है । उन दुःखों से छूटना है तो इस शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना भावो, इससे ही संसार मिटेगा । आत्मा के स्वरूप को देखो तो यह संसाररहित है । यह जीव संसार से अलग नहीं है । अभी संसारभाव का आक्रमण चल रहा है, मगर स्वरूप संसाररहित है । यदि आत्मा का स्वरूप ही संसारी हो जाये तो कभी मुक्त नहीं हो सकती । तो ऐसे निःसंसार ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व की उपासना में यह माहात्म्य है कि इसका संसार टलेगा । यह ही है आत्मतत्त्व की भावना और आत्मतत्त्व की भावना में अपनी सही पहुंच रहे, उसके लिए जब-जब आत्ममग्नता न हो तो परमात्मस्वरूप का स्मरण करो, भक्ति करो और-और प्रकार से भी ध्यान तपश्चरण करो, मगर प्रतीति आत्मतत्त्व की रहे कि मैं तो केवल ज्ञानानंद स्वभावमात्र परम पदार्थ हूँ । तो संसारसंकटों से छुटकारा पाने के लिए हे भव्य जीव ! तू शुद्ध अंतस्तत्त्व की भावना कर ।