वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 7
From जैनकोष
भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे ।
गहि उज्झियाइं बहुसो बाहिरणिग्गथरूवाइं ।।7।।
(14) भावरहित पुरुषों द्वारा बाह्मनिर्ग्रंथमुद्रावों का अनगिनतेवार ग्रहण कर डालने की निष्फलता―हे सत्पुरुष, आत्मभावना बिना इस जीवन अनादिकाल से अब तक इस अनंत संसार में निर्ग्रंथ मुद्रायें बहुत बार धारण की हैं और छोड़ी भी है । अगर द्रव्यलिंग से सिद्ध होती तो उन्हें कभी के मोक्ष चले जाना चाहिए था । यह बताया जाता कि इस जीव ने इतनी बार मुनिपद धारण किया, द्रव्यलिंग धारण किया कि यदि प्रत्येक भव का एक-एक कमंडल जोड़ा जाये तो मेरु पर्वत जैसे अनेक पहाड़ खड़े हो जायेंगे । तो यह तो एक मन की हवस है, इच्छा है, शौक है । किसीने इसी तरह से मनका विषय जोड़ा कि इस तरह रहना चाहिए, दुनिया में बड़प्पन इसी भेष से है । तो अपने मन के विषयों के पोषण के लिए द्रव्यलिंग धारण किया, पर भावरहित होने के कारण इसने असंख्याते बार द्रव्यलिंग धारण किया हो तो भी भावरहित होने के कारण कुछ लाभ नहीं होता । इससे अपने आप में शांति चाहिए तो एक इस ज्ञानस्वभाव का आदर करिये । यह मैं स्वयं आनंदमय हूँ, किसी भी बाह्य पदार्थ से आनंद नहीं आया करता । यह तो जीव का भ्रम है कि अमुक बाह्य पदार्थ मिले तो आनंद आये । आनंद तो आत्मा का स्वयं गुण है ओर आनंदमय अंतस्तत्त्व का कोई आश्रय करे तो उसके आनंद प्रकट होगा । तो हे सत्पुरुष, उस भाव का आदर करो जिस भाव के कारण ही मोक्षमार्ग मिलता है ।