वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 84
From जैनकोष
अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाइं करेदि गिरवसेसाइं ꠰
तह बि ण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो ꠰꠰84꠰꠰
(248) आत्मस्वरूप का तिरस्कार ही संसार परिभ्रमण का कारण―जो आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ है वह समस्त पुण्य को करता हुआ भी सिद्धि को नहीं पाता । संसारभ्रमण ही करता है । पं0 दौलत रामजी कहते हैं कि ‘‘मैं भ्रम्यो अपन को बिसरि आप अपनाए विधिफल पुण्य पाप ।’’ मैं अपने आपको भूलकर पुण्य पाप को अपनाता फिरा । मैं क्या हूँ, इसका कुछ ज्ञान नहीं किया । किंतु जो पुण्य और पाप का उदय है उसको ही अपनाया । यह शरीर धन वैभव आदि पुण्य और पाप का फल है । इसके कारण ही पुण्य और पाप हुआ करते, इसके कारण ही संक्लेश होते, इसके कारण ही आर्त और रौद्र ध्यान होते । इनसे ही हर्षविषाद होते । कदाचित् पुण्योदय में कभी स्वर्ग भी मिले तो वहां भी ऊंचे देवों के वाहन हाथी, घोड़ा आदि बनना पड़ता और चय करके एकेंद्रिय आदि में जन्म लेकर अनंत संसार का पात्र होता यह सब आत्मस्वरूप को बिसारने का फल है । इस अपने को छोड़कर बाकी जो भी संयोग संबंध सब पुण्य पाप का ही फल है । आत्मस्वभाव के परिचय बिना कितने ही विधान करो पुण्य का आचरण करो संसार भ्रमण ही होगा ।