वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 2
From जैनकोष
णमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्ध ।
वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ।।2।।
मंगलवचन, प्रतिज्ञापन व संप्रदाननिर्देश―इस गाथा में पुन: मंगलाचरण नमस्कारपूर्वक अपना अभिप्राय बतला रहे हैं कि मैं अमुक ग्रंथ को कहूंगा । नमस्कार किसको किया गया ? पुन: उन्हीं सिद्ध देव को । बार-बार सिद्ध का ध्यान करते जाइये, वह सब नया-नया ध्यान नया-नया नमस्कार कहलायेगा । इसका कारण यह है कि सिद्ध का एक बार ध्यान करने के बाद यदि चित्त में निर्बलता कषाय न जगे तब तो पुन:-पुन: ध्यान की जरूरत नहीं । लेकिन ध्यान किया सो किया जा चुका, फिर विकार आने लगे । फिर भूल होने लगी, फिर यहाँ वहाँ चित्त-संकल्प चलने लगे, तो पुन: सिद्धों का ध्यान भी एक नया और प्रभाव लाता है । जैसे एक दिन खा लिया, भाई ! खा लिया सो खा लिया, अब खाने की जरूरत क्यों रही ? लेकिन खा चुके, वह जीर्ण हो गया, समय निकल गया । पुन: भूख लगी और फिर नया भोजन करते और नया लगता है, ऐसा लगता है कि हम कुछ नयासा काम कर रहे हैं । तो सिद्ध भगवंतों का ध्यान जीवन में करते जाइये और वहाँ निरंतर नई बात, नया प्रभाव, नया परिणाम चलता रहेगा । तो यहाँ अनंत उत्कृष्ट ज्ञानदर्शन से युक्त निर्मल स्वरूप सिद्ध देव को नमस्कार करके आचार्यदेव कहते हैं कि परम योगियों के लिए परम पदरूप परमात्मा का कथन करेंगे । जैसे यह मोक्षपाहुड ग्रंथ है ऐसे ही समयपाहुड, नियमसार आदिक भी ग्रंथ कुंदकुंदाचार्य द्वारा रचित हैं । जैसे यहाँ यह व्रतलाया कि मैं परम योगियों को परमपदस्वरूप परमात्मा की बात कहूंगा, वह परमात्मस्वरूप कारण समयसार है और व्यक्तरूप कार्यसमयसार है । किन को लक्ष्य करके ग्रंथ बनाया जा रहा? परमयोगियों को । समयसार आदिक ग्रंथ भी मुनिवरों को लक्ष्य करके कुंदकुंदाचार्य ने रचा है ।
मुनिवरों को दिये गये उपदेशों से गृहस्थों को भी यथोचित प्रतिबोधन―यह बात साथ की है कि जो मुनिवरों को उपदेश किया है वह हमारे लिए भी लाभदायक है । फिर भी थोड़ा यह अंतर रहता है कि मुनिवर उस उपदेश को निर्ग्रंथ दिगंबर होने के कारण, गृहस्थी के मायाजाल से दूर होने के कारण उनके उपयोग में और भांति उतरता है, तो गृहस्थों के प्रेक्टिकल और प्रयोगरूप से यह कथन अन्य प्रकार से अंदर उतरता है । श्रद्धान में लक्ष्य तो एक रहता है । श्रद्धान दो नहीं हो पाते, जो तत्त्व है सो ही है, मगर परिस्थिति के कारण ध्यान में आने की बात मुनियों में और श्रावकों में भिन्न-भिन्न रूप से होती है । तो यहाँ यह बात जानना कि यह सब समझाया जा रहा है मुनियों को, तब ही तो बड़ी लतार के साथ यह कहा जाता है कि जो द्रव्यलिंग में रमते हैं वे अज्ञानी हैं, संसारपरंपरा बढ़ाने वाले हैं । तो जो द्रव्यलिंग धारण किए हुए हों उन्हीं को ही तो समझाया गया है । एक तीसरे व्यक्ति को याने गृहस्थ को समझाने के प्रसंग में कुंदकुंददेव गृहस्थ प्रतिबोधन जैसे समझायेंगे, मुनिवरों को प्रयोगविधि में जैसे समझाया जाता है, अगर तीसरे लोग उसे प्रधानतया ग्रहण करें तो उनके लिए वह उचित न बैठेगा । हां जो उस मार्ग पर चल रहे हैं उनको लतार है कि अरे ! तू इस द्रव्यलिंग में क्यों रमता है, तू जो यह मानता है कि मैं मुनि हूँ, इस प्रकार का जो तेरा राग है तू उस राग को छोड़ । अब उस शिक्षा से गृहस्थ अपने में यह शिक्षा लें कि जो गृहस्थलिंग में रम रहे हैं कि मैं गृहस्थ हूँ, मैं अमुक का दादा हूँ, बाबा हूँ, पूजा करने वाला हूँ मैं इनका नेता हूँ, इस प्रकार से जो अपनी इस पर्याय में रम रहे, जो गृहस्थ के योग्य परिणति बनती है इनको वहाँ लतार होनी चाहिए कि तू इस गृहस्थ के लिंगों में क्यों रमता है, क्यों विष का वमन नहीं करता है ?
मुनिवरों के सभी प्रयोगोपदेश को गृहस्थ द्वारा प्रयोग किये आने की असंगतता का दिग्दर्शन―जहाँ मुनियों को यह शिक्षा दी है कि देखो प्रमादवश यह छठा गुणस्थान यह प्रमत्त अवस्था हेय है, इसे छोड़ो ꠰ महाव्रत समिति रूप जो प्रवृत्ति है उसे कहते हैं प्रमाद और महाव्रत और समिति रूप जहाँ प्रवृत्ति नहीं रहती, मात्र आत्मध्यान रहता है उसे कहते हैं अप्रमाद । अब शब्द तो दिया है प्रमाद का । जहाँ यों लगता है कि आलस्य की हीन आचरण की बात कही जा रही है । तो मुनियों को यह संबोधा जा रहा है कि तू इस प्रमाद का परिहार कर । यह महाव्रत और समितिरूप जो विकल्प है यह तेरे लिए बंधन है । तू इन विकल्पों को करके प्रगति न कर पायेगा, महाव्रत समिति प्रवर्तन के विकल्प परिणाम को त्याग । तो मुनि लोग चल रहे हैं महाव्रत और समिति में, उनको त्याग का उपदेश किया गया है कि तू इन्हें छोड़ । अब उनको सुनकर जो गृहस्थ गृहस्थ के योग्य काम भी नहीं कर पाते, जिसे यों कहेंगे कि गृहस्थ अपनी जिम्मेदारी से बिल्कुल हट गया । गृहस्थ को बताया है कि केवल कपड़ा या अन्य ऐसा व्यापार जिसमें हिंसा की कोई बात नहीं आती उनको छोड़कर अन्य व्यापार मत करें, या जो भी गृहस्थ के परकर्म के उपदेश किए जाते हैं उनसे तू अभी विमुख मत हो । ऐसा तो होना चाहिये गृहस्थ का कर्तव्य और कर रहे हो जूतों की दूकान या मिलेटरी के लिए मांस आदिक का ठे का या अन्य-अन्य कार्य और वह गृहस्थ उस उपदेश को ले कि महाव्रत समिति इनसे हटे, तो यह क्या उनके लिए संगत बात होगी ? इस प्रकार का जो उपदेश है उसको मुनिजन अपनी योग्यता की तरह से उतारें, उस उपदेश को सुनकर ठीक उसी तरह उतारें जैसा कि उनके लिए उपदेश है, और गृहस्थ अन्य तरह से उतारें । कैसे ? गृहस्थों पर जो बातें बीत रही हैं जैसे स्त्रीपुत्रादिक से मोह हो रहा, घर से राग चल रहा, अपनी कषाय जिनकी कषाय से मिल गई उनमें प्रेम बढ़ गया । अरे ! तू इन विषयों को दूर कर ꠰ जो विष गटक रहा है उस पर तो हमारी दृष्टि न हो, उनको तो दूर करने का हम में भाव न आये और बड़े-बड़े मुनिवरों को जब जो उपदेश किया है आचार्यों ने उस पर हमारी एकदम दृष्टि जाये और हमें अपने आपके आचरण पर कुछ भी दृष्टि न जाये तो यह एक जीवन में असंगतसी बात है । और हम उस क्रम का पालन नहीं कर रहे हैं कि जिस क्रम से हम इस उपाधि से दूर होकर आत्मध्यान के पात्र हो सकें । तो यहाँ शब्द दिया है कि परम योगियों को हम उस परमात्मतत्त्व की बात कहेंगे ।
मंगल और प्रतिज्ञापन का तथ्य―इस गाथा में मंगल और प्रतिज्ञा दोनों वाक्यों का उल्लेख है । सर्वज्ञ वीतराग को नमस्कार है । आत्मा का पवित्र और उत्कृष्ट पद सर्वज्ञता और वीतरागता है । उसे नमस्कार करके आचार्य कहते हैं कि परम योगियों को अर्थात् दिगंबर गुरुवों के लिए कुछ परमात्म ध्यान का कथन कहूंगा, क्योंकि इसमें सर्व विकल्पों का परिहार कराकर आत्मा के ध्यान की बात कही गई है, उसका निभाव परिग्रहत्यागी कर पाते हैं, जिसके परिग्रह का संस्कार लगा है वह अपने आपमें खुद चिंतन करे कि क्या हम निःशल्य होकर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं ? जहाँ तक परिग्रह का लगाव है वहाँ तक यह शल्य है और जहाँ त्याग और विकल्प की बात है वहाँ प्रत्येक गृहस्थ अपने आप पर अपनी परिस्थितियों से जिन विकल्पों में घिरा है उन विकल्पों से अपने आपको दूर करने की भावना भाये । जिन विकल्पों से घिरा है, जिनका हम पर आक्रमण है उनसे दूर होने की तो हमारी भावना नहीं और श्रेणियों में रहने वाले मुनियों के सूक्ष्म राग की चर्चा करके उनको दोषी देखने की आदत से हमें दूर होना है, उस सूक्ष्म राग से ऐसा यहाँ भाव बनाया जा रहा । अरे ! भाव यह बनना चाहिए कि जो गृहस्थपद में विकट राग लग रहा है उस राग से मैं दूर होऊँ । मैं उससे रहित एक ज्ञानस्वभाव मात्र तत्त्व हूँ । तो यहाँ आचार्य कह रहे हैं कि परमात्मा का ध्यान या उस सहज अंतस्तत्त्व का ध्यान मुनियों के ही घटित होता है, गृहस्थी में सहज शुद्ध परमात्मतत्त्व का ध्यान संगत नहीं हो पाता । अतएव उनके लिए दान, पूजा, उपवास, सम्यक्त्व, शील, व्रत आदिक जो गृहस्थ धर्म है उनके उपदेश कार्यकारी हैं उस पद में ꠰ इसीलिए यहाँ कुंदकुंदाचार्य देव ने परमयोगी शब्द दिया है । जो बड़े के लिए कहा जाये उसमें छोटों को भी शिक्षा मिलती है, मगर बड़ों के लिए कहे जाने की शैली और होती है, और गृहस्थजनों को कहा जाने की शैली और होती है आचरण के रूप में, तत्त्वज्ञान में नहीं । तत्त्वज्ञान दोनों के लिए एक समान है, जो आत्मा का स्वरूप है सो मुनि समझें सो ही गृहस्थ समझें, जो सत्तासिद्ध बात है वह सबको समान समझना चाहिए । पर जहाँ आचरण वाली बात आती है तो मुनियों को संबोधने की पद्धति और होती है, गृहस्थों को संबोधने की पद्धति और होती है । तो यहाँ आचार्य इसलिए ही स्पष्ट कह रहे हैं कि परमयोगियों से मैं परमात्मतत्त्व कहूंगा । जो गृहस्थ होकर भी जहाँ आत्मा की भावना, आत्मा की अनुभूति, ज्ञानानुभूति की भावना रंच नहीं हो पाती, और ऐसा विकल्प किए हुए हैं कि हम ध्यानी हैं और दूसरों को साधुवों को, साधर्मियों को अज्ञानी बोलते हैं वे जिन धर्म के विराधक हैं क्योंकि मुनि आचार वहाँ है नहीं और गृहस्थाचार जो दान, पूजा, त्याग, उपवास, शील उनको छोड़ बैठे हैं, उस अंतस्तत्त्व के ध्यान की बात कहने से तो वे न वहाँ महाव्रत का लाभ पाते हैं न अणुव्रत का लाभ पाते हैं और न नियंत्रण का लाभ पाते हैं ꠰ इस कारण यहाँ कह रहे हैं कि परम योगियों को हम परमात्मतत्त्व की बात कहेंगे ।