वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 20
From जैनकोष
जिणवरमएण जोई झाणे झाएइ सुद्धमप्पाणं ।
जेण लहइ णिव्वाण ण लहइ किं तेण सुर लोयं ꠰꠰20꠰।
शुद्धात्मतत्त्व के ध्यान से सुगति―जो योगी अपने ध्यान में जिनेंद्रदेव के मतानुसार शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं वे स्वर्गलोक को प्राप्त होते हैं, इसमें तो आश्चर्य ही क्या, क्योंकि जिस ध्यान से निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है उससे स्वर्गलोक प्राप्त होना क्या कठिन है ? शुद्ध अंतस्तत्व का ध्यान करते हुए यदि आयु का बंध होता है तो इस मनुष्य को देवायु का ही बंध होगा और यदि राग उसमें है विशिष्ट संहनन है जो कि आजकल संभव नहीं है, पर चतुर्थकाल में या चतुर्थकाल में उत्पन्न होने से पंचमकाल में यह संहनन ठीक था, ध्यान ठीक था, वहाँ निर्वाण हो जाता था, पर आज निर्वाण नहीं, किंतु जो मनुष्य सम्यक्त्व के रहते हुए आयु का बंध करते हैं वे देवायु का ही बंध करते हैं । शुद्ध आत्मा का ध्यान अर्थात् केवल आत्मा का ध्यान । निर्मल पर्याय में रहने वाले आत्मा के ध्यान की बात नहीं कही जा रही है । यद्यपि वह भी शुद्ध आत्मा हैं, जो वीतराग हैं, परमात्मा हैं, पर निर्मल पर्याय परिणत आत्मा के ध्यान की बात नहीं ली गई, किंतु अपने आपके सत्त्व के कारण जो कुछ मैं हो सकता हूँ उतने मात्र का ध्यान करने की बात कही जा रही है । तब एक समस्या सामने आती है कि पर का ध्यान करने से मुक्ति नहीं होती, तो पर हैं अरहंत और सिद्ध भगवान । ये निज आत्मा नहीं है, ये परमपवित्र निर्मल पर्याय परिणत उत्कृष्ट आत्मा हैं, तो ये दूसरे आत्मा हैं कि आप ही स्वयं हैं ? ये दूसरे आत्मा हैं । तो जो पवित्र आत्मा हैं वे तो दूसरे हैं, सो दूसरे का ध्यान करने से मोक्ष नहीं मिलता और खुद हैं अपवित्र रागीद्वेषी, सो रागीद्वेषी का भी ध्यान करने से मोक्ष नहीं मिलता । तो अब उपाय क्या रहा ? जो पवित्र है वह तो है परजीव, सो यह भी कहा हे कि पर आत्मा के ध्यान से मोक्ष नहीं है, क्योंकि वहाँ भेद है और वह भिन्न है । उस ध्यान का विषय स्व नहीं है और खुद हैं रागीद्वेषी, कर्ममलकलंक से पूरित । तो खुद के भी ध्यान से याने उस अशुद्ध पर्याय वाले खुद के भी ध्यान से मोक्ष नहीं होता, तो अब मोक्ष का रास्ता क्या रहा ? तो उसका समाधान इसमें मिलेगा । यद्यपि यह मैं आत्मा अशुद्ध पर्याय में रह रहा हूँ, रागद्वेष चल रहे हैं पर पर्याय से जुदा निरखते हैं । अपना जो स्वभाव है, अपने सत्त्व के कारण आपका जो स्वरूप है वह स्वरूप कहा गया है शुद्ध आत्मा । इस निज शुद्ध आत्मा का ध्यान करने से मोक्ष मिलता है ।
परमात्मभक्ति का कारण―अच्छा तो जब अन्य आत्मावों के ध्यान से मोक्ष नहीं, चाहे वे भगवान ही क्यों न हों, तब फिर भगवान की भक्ति हम क्यों करते हैं ? तो भगवान की भक्ति का कारण यह है कि प्रभु का स्वरूप और अपना स्वरूप एक समान है द्रव्यदृष्टि से । और प्रभु का स्वरूप जैसा है वैसा साफ स्वच्छ प्रकट हो गया है, हमारा स्वरूप साफ स्वच्छ प्रकट नहीं हुआ है तो हम उस स्पष्ट प्रकट हुए परमात्मा के स्वरूप का ध्यान करते हैं तो उस समय ध्यान करते-करते वह निर्मल पर्याय उनका गौण हो जाता है और स्वरूपदृष्टि मुख्य हो जाती है । तो परमात्मा का ध्यान करने से अभी हमारी पहुंच यहाँ तक बनी कि निर्मल परिणति चूंकि स्वभाव के अनुरूप है सो निर्मल पर्याय का ध्यान करते-करते हम पर्याय से तो हट गए और स्वभाव में आ गए । इतनी बात होने के पश्चात् जब स्वभावदृष्टि हमारी बनी तब वहाँ पर जीव विषय न रहा । स्वभाव तो स्वभाव है और स्वभाव ज्ञेय बन गया, पर वहाँ अरहंत का ध्यान कर रहा हूँ या सिद्ध का ध्यान कर रहा हूँ, यह विकल्प नहीं रहता । सो प्रभु का ध्यान करने से हम अपने स्वभाव पर आ जाते हैं, इस कारण प्रभुभक्ति करना हमारा कर्तव्य है । दूसरी बात यह है कि खुद रागद्वेष में पग रहे हैं । रागद्वेष से ऊबकर रागद्वेष से निवृत्ति के उद्देश्य से इसका ध्यान रागद्वेष रहित प्रभु पर जाता है, अपने को निंद्यता है और प्रभु को सराहता है । धन्य हैं ये पवित्र आत्मा जो स्वच्छ स्वभाव के अनुरूप परिणम रहे हैं, सो हमें जैसा बनना है उसकी सुध, उसकी खबर जरूर ही की जाती है । इसलिए प्रभु का ध्यान है और वह परंपरया मोक्ष का कारण है ।
साक्षान्मोक्ष का साधन सहजसिद्ध अंतस्तत्त्व का अभेदध्यान―साक्षात् मोक्ष का कारण कौन ? जो गुण-पर्याय से परे, देहकर्म आदिक से न्यारे, नित्य, अंतरंग में अचल, सदैव सुरक्षित ज्ञानस्वरूप अविकार यह चैतन्यतत्त्व यह है शुद्ध अंतस्तत्व जिसके ध्यान से, जिसके अध्ययन से इस प्रभु की मुक्ति का मार्ग मिलता है । सो जिनवर मत के अनुसार जो योगी ध्यान में इस शुद्ध आत्मा को ध्याता है तो उसको जब निर्वाण मिलना ही हो जाता है तो फिर स्वर्ग की प्राप्ति क्या उसके लिए दुर्लभ है? यहाँ यह बताया जा रहा है कि कहीं स्वर्ग उपादेय है और वहाँ पहुंचना चाहिए, जन्म लेना चाहिए, यह उमंग नहीं बतायी जा रही है, किंतु सम्यग्दृष्टि पुरुष यदि आयु बांधता है अगले भव की,उस भव से मोक्ष नहीं जाता है तो वह मरकर वैमानिक देव होगा । सो यह सब आत्मध्यान का प्रभाव बताया जा रहा है । इस मनुष्य को क्या चाहिए ? खूब वैभव । तो विशिष्ट वैभव का अर्जन परिश्रम से नहीं बनता किंतु विशिष्ट पुण्य का उदय हो तो बनेगा । तो सम्यग्दर्शन के रहते हुए यदि रागद्वेष भाव चल रहा है तो विशिष्ट पुण्य का बंध होता है । पुण्यबंध सम्यक्त्व से नहीं होता । हुआ राग से मगर सम्यक्त्व के साथ रहते हुए राग से पुण्यबंध हुआ है इतना विशेष है । जैसे किसी मिनिस्टर के साथ रहते हुए चपरासी का भी प्रभाव बढ़ जाता है ऐसे ही सम्यक्त्व के साथ रहते हुए राग का भी ऐसा प्रभाव बढ़ जाता है कि उस राग से चक्रवर्ती तीर्थकर आदिक विशिष्ट महापुरुषों के वैभव प्राप्त होते हैं । तात्पर्य यह है कि सभी सिद्धि वाले आत्मा का परिचय और आत्मा की रुचि साधक है । लोक में अच्छी तरह रहना चाहो तो आत्मध्यान चाहिए । मोक्ष जाना चाहें तो आत्मध्यान चाहिए, परमशांति चाहिए तो आत्मध्यान चाहिए । सर्व सिद्धियों का मूल है आत्मध्यान ।