वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 59
From जैनकोष
तवरहियं ज णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो ।
तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ꠰꠰59꠰।
तपरहित ज्ञान व ज्ञानरहित तप की अकृतार्थता―जो ज्ञान तप से रहित है वह ज्ञान व्यर्थ है और जो तप ज्ञान से रहित है वह तप व्यर्थ है । तब क्या होना चाहिए? ज्ञान और तप से युक्त होना चाहिए । जो पुरुष ज्ञान और तप से युक्त हो वही निर्वाण को प्राप्त करता है । तपरहित ज्ञान अकार्यकारी है ꠰ कोई कहे कि ज्ञान से मोक्ष होता है, मुझे ज्ञान हो गया और प्रवृत्ति भी ऐसी रखे कि जो चाहे जब चाहे खाये-पिये, जरा भी कष्ट सहना पसंद न करे तो ऐसा जीवन गुजरे तो वह जीवन तपरहित जीवन है । जिसको ज्ञान हो गया कि मैं आत्मा भोजनपान, पुण्यपाप से रहित हूँ वह फिर विषयों में क्यों प्रीति करेगा? आत्मा का स्वरूप चैतन्यमात्र है । भोजन करे तो आत्मा की सत्ता रहे ऐसी बात नहीं है, वह तो मनुष्यपर्याय पायी या और पर्याय पायी तो शरीर का ढांचा ऐसा रहता कि ये खाये बिना जीवन नहीं रहता, मगर जीव का जो स्वरूप है वह तो सर्व विकारों से जुदा है, भोजनपान आदिक उसमें कुछ भी ऐब नहीं होते । तो जो ज्ञान तपरहित है वह ज्ञान व्यर्थ है और जो तप ज्ञानरहित है वह तप व्यर्थ है, इससे ज्ञान और तपश्चरण इन दोनों से युक्त होना चाहिए । ज्ञान तो देवों को भी हो जाता मगर तपश्चरण और संयम उनमें नहीं है तो निर्वाण उन देवों का नहीं होता । कर्मभूमिया मनुष्य के ज्ञान भी है और तप भी है तो उसका निर्वाण होता है । इन सब बातों को सुनकर तो क्या बोध लेना कि वर्तमान में जो धन वैभव पाया उसको नगण्य तुच्छ मानना, उससे मेरे आत्मा का संबंध क्या? भले ही आज दुनियां में जिसके पास धन है उसको लोग आदर से देखते हैं मगर आदर से देखने वाले लोग भी मायारूप हैं और बाह्य धन से अपने को महान मानने वाले भी मायारूप हैं, परमार्थ दोनों ही नहीं है, परमार्थ तो आत्मा का चैतन्यस्वरूप है । तो, बाहरी पदार्थों को महत्त्व न देना और जिसके पास धन आता है वह पुण्योदय से आता है, और नहीं रहना है पास, पाप का उदय है तो उसके जाने के अनेक बहाने हैं । तो धन वैभव पास रहा तो उससे आत्मा को क्या लाभ और न रहा तो उससे आत्मा को क्या हानि? यदि ज्ञान अपने आत्मा की सुध नहीं रख रहा, बाहरी-बाहरी विकल्पों में ही दौड़ रहा तो उस समागम से अहित ही तो बना, लाभ कुछ न मिला, और न मिला समागम तो उससे आत्मा को नुक्सान कुछ नहीं हुआ, पर उनके प्रति अज्ञानभाव रखा तो वह कर्मबंध करेगा । इससे ज्ञानभाव जगा रहेगा तो आपत्तियों से दूर रहेंगे और ज्ञानभाव न जगा तो आपत्तियों से दूर नहीं हो सकते ।