वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 7
From जैनकोष
आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण ।
झाइज्जइ परमप्पा उवइट्ठं जिणवरिदेहिं ꠰꠰7꠰꠰
त्रिविध मिथ्याध्यवसायो क्रियागर्भाध्ययवसाय का निर्देश―मन से, वचन से, काय से बहिरात्मापन को छोड़कर अंतरात्मा में आरूढ़ होकर परमात्मपद का ध्यान किया जाता है । ऐसा जिनेंद्रदेव ने उपदेश किया है । बहिरात्मापन अनर्थक्रियाकारी है । जैसा यह मूढ़ जीव समझता है वैसा वस्तुस्वरूप ही नहीं है । जैसा यह चाहता है वैसा इसके चाहने से होता नहीं है । तो ये सब अनर्थक्रियाकारी भाव हैं तथा मिथ्याभाव हैं । ये मिथ्याभाव तीन प्रकारों में विभक्त हैं―(1) क्रियागर्भ अध्यवसाय (2) विपाकमय अध्यवसाय और (3) ज्ञेयमान अध्यवसाय । मैं अमुक को पालता हूँ, मारता हूँ, दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ, मैंने ऐसा कार्य किया, मैं ऐसा कर दूंगा आदिक परपदार्थों के बारे में क्रियागर्भित अध्यवसाय मिथ्यात्व है । यह सब अनर्थक्रियाकारी है । जैसा सोचा वैसा होता नहीं और कदाचित् होने का योग भी मिल जाये तो इसके सोचने से हुआ नहीं, इस कारण परपदार्थों के बारे में क्रियागर्भित विचार मिथ्याभाव है ।
त्रिविध अध्यवसायों में विपाकमय अध्यवसाय का निर्देश―दूसरे प्रकार का मिथ्यात्व है विपाकमय । जैसे मैं मनुष्य हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं नारकी हू̐, इस प्रकार पुद्गलकर्म के विपाक में आत्मत्व का स्वीकार होना यह विपाकमय अध्यवसाय है । इसका भी फल कष्ट है । एक बार रुड़की में एक अजैन महिला ने हमसे कहा―महाराज ! मुझे एक बात का ख्याल बहुत हैरान करता है कि मैं स्त्री हूँ, स्त्री पर्याय में रहकर धर्मसाधना के मार्ग में मैं कैसे बढ़ सकती हू̐ ? बड़ा पराधीनता का और बड़ा निंद्य पर्याय है यह स्त्री का । कैसे मैं धर्मसाधना के मार्ग में बढूं, इस बात का चिंतन करके मुझे भारी खेद रहा करता है । तो वहाँ उस स्त्री से हमने यही कहा कि जरा तुम अपने आपमें मनन करके यह बताओ कि तुम एक ज्ञानमय पदार्थ हो या नहीं । जो चेतन है, जाननहार है, वह एक पदार्थ है । अमूर्त है, इंद्रिय से अगम्य है, मन कुछ विचार कर ले, तो अमूर्त ज्ञानमय आत्मा में क्या स्त्रीपना बसा हुआ है ? नहीं बसा । तो यह विपाकमय अध्यवसाय है । जैसे उस स्त्री ने सोचा कि मैं स्त्री हूँ और उस पर खेद माना तो ऐसे ही यह विपाकमय अध्यवसाय पुरुषों पर लगा है । पुरुष लोग मानते कि मैं पुरुष हूँ, तो यह उनका मिथ्याभाव है । न कोई पुरुष है न कोई स्त्री है । आत्मा की बात कह रहे हैं । वह तो ज्ञानमात्र एक चेतनपदार्थ है । ये सब पौद्गलिक कर्मविपाक हैं । नारकी हुआ, तिर्यंच हुआ, मनुष्य हुआ, और की तो बात क्या, यदि कोई यह माने कि मैं श्रावक हूँ तो यह भी विपाकमय अध्यवसाय है । और यहाँ तक कि कोई माने कि मैं साधु हूँ, मुनि हूँ तो यह भी विपाकमय अध्यवसाय है ꠰ परिस्थिति है, मोक्षमार्ग में बढ़ने वाले जीव की ये स्थितियां हैं कि कोई श्रावकधर्म से गुजर रहा, अपने लक्ष्य में बढ़ना चाहता है तो कोई सर्वबाधावों को मिटाने के ख्याल से सर्व परिग्रहों का त्याग करके मुनिधर्म में गुजर रहा है लक्ष्य में बढ़ने के लिए, पर सम्यग्दृष्टि श्रावक की यह श्रद्धा नहीं है कि मैं श्रावक हूँ । किंतु यह श्रद्धा है कि मैं चेतन हूँ, चिदानंदस्वरूप आत्मतत्त्व हूँ, पर जब उस आत्मा की वृत्ति के लिए प्रयास करते हैं तो हम इतने ही प्रयास से गुजर पाते कि श्रावक धर्म का पालन कर लूं । कोई विशेष बलवान है, ज्ञानबल अधिक है तो वह इस प्रयास तक पहुंचे कि वह मुनिव्रत से गुजरता हुआ आत्मध्यान कर रहा है । पर अपने को श्रद्धा में चैतन्य सिवाय अन्य किसी रूप अनुभवना, मानना यह विपाकमय अध्यवसाय है ।
त्रिविध मिथ्याध्यवसायों में ज्ञेयमयाध्यवसाय का निर्देश―तीसरा है ज्ञेयमय अध्यवसाय । जिस पदार्थ को हम जान रहे हैं बस उस ही रूप अनेकों मान लेना, उस ही विकल्परूप रह जाना यह ज्ञेयमय अध्यवसाय है । जैसे भैंसे का चिंतन किया, भैंसा, झोंटा इतना महान, जिसके इतने बड़े सींग । और ध्यान करते-करते मैं यह फंसा हूँ, झोंटा हूँ, इतने बड़े सींग वाला हूँ, ऐसे ही कुछ चिंतन में लग गया तो उसको एक बार यह भी समस्या उलझ गई कि मैं इस कमरे से कैसे निकलूंगा ? गरुड़ का ध्यान किया जाता है । जिसके यहाँ मैं गरुड़ हूँ, इस प्रकार का ध्यान करते-करते अपने को गरुड़ मान लेना यह अपने आपमें गरुड़पने का अध्यवसाय हुआ । अमूर्त द्रव्य का भी ज्ञान कर रहा हो कोई तो वहाँ भी यह अध्यवसाय चलता रहता है । अन्यथा धर्मादिक द्रव्यों की चर्चा करते हुए गुस्सा क्यों आ जाती प्रतिकूल बात सुनकर ? उसने यह माना कि धर्मादिक द्रव्यों का जो हमारा ज्ञान है, विकल्प है सो ही मैं हूँ । कोई कहता कि गति स्थिति में धर्मद्रव्य कारण नहीं । तो धर्मद्रव्य का समर्थन चिंतन करने वाला उसको सिद्ध करने के लिए कुछ रोश में आ गया या वह दूसरा रोष में आ गया । तो धर्मादिक द्रव्यों के विषय में जो यहाँ ज्ञान चल रहा, जो यहाँ विकल्प चल रहा उस विकल्पमात्र अपने को समझ रहा तो यह ज्ञेयमय अध्यवसाय बन गया ।
बहिरात्मपन को छोड़कर अंतरात्मत्व के आरोहण में व्रतविधान का कर्तव्य―उक्त तीन बातों के सिवाय और बात ही क्या होती है अज्ञानी के । या तो परपदार्थों में करने का भाव व भोगने का भाव या जो अन्य परिस्थिति परिणति पर्याय में गुजर रही, उस रूप अपने को मानने का भाव । या जिस पदार्थ का ज्ञान कर रहा है उस रूप अपने को समझने का भाव । इन तीन प्रकार के अध्यवसायों को छोड़कर अंतरात्मा पर आरोहण करे । अंतरात्मा क्या ? जो अपना वास्तविक सहज अपने ही सत्त्व के कारण अपना स्वरूप है उस रूप अपने को मानना, मैं यह हूँ, यह है अंतरात्मत्व ꠰ मान लिया ऐसा ही है । अपने आपका निर्णय बन गया कि मैं यह चैतन्यमात्र हूँ ꠰ सर्व से विविक्त हूँ, ऐसी प्रतीति हो तो योग्य सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ꠰ अब यह सम्यग्दृष्टि क्या करे कि इस अंतस्वरूप की धुन में रहेगा । उसके प्रयोग का पौरुष करेगा, ऐसा ही अपने को अनुभवना । मगर इस पौरुष करने में उसको अस्थिरता है । बारबार ख्याल आ जाता है घर का, कुटुंब का ꠰ कोई बीमार पड़ा तो उसका, दूकान का, यों कितने ही विकल्प चलते हैं ꠰ और अब तो और भी अधिक बन गए विकल्प ꠰ ढंग से कोई कमाये तो कमाये तो भी उतने से अब गुजारा नहीं चल रहा ꠰ अब तो उसकी लिखा-पढ़ पक्की होती है, प्रतिदिन की लिखा-पढ़ी होना, प्रतिदिन के हिसाब-किताब का लेखा-जोखा रखना, अपना लेखा-जोखा इन्कमटैक्स व सेलटैक्स में जमा करना, अब तो बिना मुनीम रखे किसी का काम नहीं चलता । तो कितने ही विकल्प बढ़ गए, ये सब विकल्प बाधक बन गए अपने अंतरात्मस्वरूप के । तब इस अंतरात्मा ने क्या सोचा कि भाई ! अब तो परिग्रह का परिमाण करना चाहिए । यदि परिमाण का ध्यान नहीं है तो तृष्णा का तो कोई ठिकाना ही नहीं । कितना ही कमाते जावें पर तृष्णा पूरी ही नहीं होती । तो इस परिषह का परिमाण करता है । अब यह अणुव्रत में आया, अब यह श्रावक हुआ और उसी के साथ-साथ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य इन अणुव्रतों का नियम लिया । यह नियम किसलिए लिया गया कि मेरे को ऐसा अवसर प्राप्त हो कि मैं इस सहज ज्ञानस्वभाव अंतस्तत्त्व के ध्यान में सफलता पाऊं । जो विश्वरूप थे उन बाह्य साधनों को दूर करूं, इंद्रियविषयों का राग, मोह, कामवासना आदिक ये बाधक थे । इनको दूर करने के लिए ही अंतरात्मा ने ब्रह्मचर्य अणुव्रत लिया ताकि अन्य परस्त्री आदिक विषयक विकल्प ही न उठें । उन बाधावों से दूर रहें, ऐसे ही नाना विकल्पों को दूर करने के लिए इस अंतरात्मा ने श्रावक व्रत ग्रहण किया ।
सामायिक प्रतिमा, प्रोषधप्रतिमा व सचित्तत्याग प्रतिमा का अंतस्तत्वध्यान में सहयोग―जो भी इसने संयमासंयम पाया उसका ध्येय है अपने अंत:स्वरूप की आराधना में सफलता पाना । इस पर भी बाधायें आ रही तो उत्तरोत्तर बाह्य पदार्थों का त्याग और अपने इंद्रियविषयों का संयमन में अब यह बढ़ता जा रहा है । दूसरी प्रतिमा से तीसरी प्रतिमा में आया । कुछ अभ्यास बन गया अंतस्तत्त्व के ध्यान का । तीन बार सामायिक करुंगा । तीन बार सामायिक के लिए बैठूंगा ही इसलिए कि मैं अपने अंत:स्वरूप की आराधना बना सकूं । अब यह उस ही अंतस्तत्त्व की धुन में बढ़ रहा है । कुछ मिली इसको सफलता तो इसने सोचा कि अब तक रोज-रोज तीन बार हम इसका पौरुष करने आये हैं पर कोई दिन ऐसा भी तो होना चाहिए कि समूचा दिन हम इस ज्ञानानुभव के लिए बनायें । तो चौथी प्रतिमा है प्रोषधोपवास की । उपवास के दिन आरंभ के कार्य न करना, किसी मंदिर या स्वाध्यायशाला में उपस्थित होकर आत्मचर्चा या आत्मध्यान में अपना समय बिताना । देखो, सम्यग्दृष्टि अंतरात्मा कैसा मोक्षमार्ग में गमन करने का प्रयास कर रहा है गृहस्थी में रहते हुए भी । यह चतुर्थ प्रतिमा है । अभी तक खाने-पीने का कुछ अधिक नियंत्रण उसका न था, सचित्त पदार्थों के भक्षण का त्याग न था । वह भी एक विकल्प चलता था । तो उसका यह विकल्प भी निकल गया । उसने नियम ले लिया कि मैं सचित्त पदार्थों का भक्षण न करुंगा । रसना इंद्रिय का विषय एक बहुत भीतर का शल्य बनाता है । घर में रह रहा था तो उसने अपने को नियंत्रण में किया ।
रात्रिभुक्तित्यागप्रतिमा ब्रह्मचर्यप्रतिमा व आरंभत्याग प्रतिमा का अंतस्तत्त्व वे ध्यान में सहयोग―घर में तो बहुत-बहुत प्रकार की बातें चलती हैं । कोई रात को आया उसका सत्कार उसके खिलाने-पिलाने का प्रबंध । यद्यपि वह स्वयं रात्रि को नहीं खाता लेकिन दूसरे को खिलाने का आदेश करना, बताना यह गृहस्थी में चल रहा था । यह विकल्प भी उसको खटका । सोचा कि क्यों हम इनको रात्रिभोजन कराते, क्यों हम रात्रि को इन बाहरी विकल्पों में फंसते, इनके पीछे हम रात्रि को ध्यान नहीं कर पाते सो उसने नियम ले लिया कि हम रात्रि में भोजन किसी को न खिलायेंगे, न खाने का आदेश देंगे, न उसकी अनुमोदना करेंगे । तो मोक्षमार्ग में गमन करता हुआ श्रावक आत्मध्यान की वृद्धि के लिए कैसा बाह्यविकल्पों से छूट रहा है । अब तक इसको स्वस्त्री का त्याग न था । अब उसने विचारा कि यह भी ठीक नहीं, परस्त्री का तो त्याग पहले से ही था, अब उसने स्वस्त्री का भी त्याग कर दिया । रह रहा है वह घर में, पर कैसा वह आत्मध्यान के बाधक कारणों को दूर कर रहा है । यह सब गृहस्थ की बात चल रही है । वह दूकान पर भी जाता, कमाई भी करता, अनेक प्रकार के लेन-देन भी करता, बड़े-बड़े विकल्प भी करता, पर अब उसे ये विकल्प भी सहन नहीं हो रहे, सो उसने यह नियम किया कि जो मैंने थोड़ी बहुत संपदा जोड़ रखी है उसी को ही भोगूंगा । उसी से ही अपना गुजारा करूंगा । मैं नया काम दूकान का, आरंभ का, कमाई-धमाई का अब कुछ नहीं चाहता, उन सबका त्याग कर दिया ।
परिग्रहत्यागप्रतिमा, अनुमतित्यागप्रतिमा व उद्दिष्टत्यागप्रतिमा का अंतस्तत्त्व के ध्यान में सहयोग―कोई सोच सकता है कि नई कमायी का तो त्याग कर दिया इस आत्मध्यान के इच्छुक ने और जो कुछ रखा है उसे ही भोगता जाये तब तो कुछ ही दिन में उसका सारा धन साफ हो जायेगा, फिर कैसे गुजारा चलायेगा ? तो भाई उस समस्या का हल भी उसने पहले से ही सोच रखा, न रहेगा कुछ तो आगे वह त्याग में बढ़ेगा । उसको इसकी कोई शल्य नहीं है । और न भी खतम हो तो भी अब वह सोच रहा आगे बढ़ने के लिए । जो कुछ घर में संपदा रखी उससे हम भोजन निर्माण कराते । कुछ भी करते, तो यह भी एक प्रबंध है । यह भी तो एक आरंभ है । यह भी उसको सहन नहीं होता । तो आत्मध्यान में बढ़ने का इच्छुक गृहस्थ अब कुछ वस्त्र और कुछ बर्तन रखकर बाकी सब परिग्रह का त्याग कर देता है । जो उसे बुलाये, निमंत्रण कर जाये वहाँ चले गये । परघर भोजन हो गया 9वीं प्रतिमा से । अभी तक तो लोग उसे निमंत्रण करते थे । पूछते थे कि आपको क्या चीज आपकी प्रकृति के अनुकूल बननी चाहिए । जो चीज कहो सो बना दें, यह ठीक रहेगा ना आपको । ऐसी बातें सुन सुनकर उनका जवाब दे देता था । अब यह आत्मध्यान का इच्छुक ऐसी फोकट वार्ता को भी नहीं चाह रहा । तो उसने अपना निमंत्रण लेना बंद कर दिया । समय पर पता नहीं जो ले जाये वहाँ चले गए 10वीं प्रतिमा में । यहाँ अनुमोदना का भी त्याग हो गया । यह श्रावक की बात चल रही है कि आत्मध्यान के इच्छुक पुरुष आत्मध्यान की वृद्धि के लिए जिन-जिन बातों को बाधक और विकल्प समझता था उनका त्याग करते हुए बड़े चले जा रहे हैं । अब इसमें भी घर जाना नियत है वह इतना तो सोच लेता था कि अमुक घर जा रहा हूँ, भले ही वह अनुमोदना न करता था तो भी थोड़े विकल्प चलते थे अथवा अन्य कुछ धार्मिक बात, घर में रह रहा था 10वीं प्रतिमा तक । यद्यपि घर का त्याग 9वीं प्रतिमा में हो गया था फिर भी अपने पुत्रों के विनय पर सोच रखा था कि मैं इस घर के इस कमरे में रह जाऊंगा । अब यह भी उसे मंजूर नहीं है । तो सर्व प्रकार का संबंध छोड़कर अब यह क्षुल्लक ऐलक पद में आया । जिसे कहते हैं उद्दिष्टत्याग । उद्दिष्टत्याग के मायने है मन से, वचन से, काय से, कृतकारितअनुमोदन से, इन 8 कोटियों से आहार का समर्थन न करना, इसे कहते हैं उद्दिष्टत्याग । और उद्दिष्ट से कोई बनाता है तो यह गृहस्थकृत दोष है, इसकी निवृत्ति है । 9 कोटि से विशुद्ध हो जाने से वह दोष मुनि को, इस विशिष्ट त्यागी को नहीं होता । तो अब यह इस प्रतिमा की साधना करने लगा ।
मुनिव्रत का अंतस्तत्त्व के ध्यान में सहयोग―जब वह कुछ और आगे बढ़ा तो उसका ऐसा विचार बना कि ये वस्त्र, यह लंगोट, यह चद्दर, ये भी बड़े विकल्प के कारण हैं । इनको कहां धरना, कहां सुखाना, ये सब विकल्प करने पड़ते हैं ꠰ तो सर्व प्रकार के परिग्रहों का त्यागकर वह मुनि हुआ । मुनिव्रत में पंचमहाव्रत हो गया, पूर्ण हिंसा का त्याग हो गया, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह का, सर्वथा त्याग हो गया । पंच समितियों की प्रवृत्तियों से चलना, बोलना, आहार करना और उठना-बैठना, चीज ग्रहण करना, मलमूत्र का क्षेपण निर्जंतु स्थान पर करना, ये प्रवृत्तियां चलने लगेंगी । इसने अपने को सर्वथा निःशल्य अनुभव किया, बस एक ही काम रह गया? आत्मध्यान । तो इस अंतस्तत्त्व की बुनियाद से अब यहाँ तृप्ति हुई । अब अन्य कुछ काम नहीं, बढ़ता चला जा रहा, कभी अप्रमत्त दशा भी प्राप्त करता फिर प्रमत्त-अप्रमत्त इस तरह यहाँ दोनों गुणस्थानों में झूल रहा साधु अपने आत्मतत्त्व की आराधना बना रहा है । इस प्रकार जिन परिस्थितियों से गुजरकर आत्मतत्त्व की आराधना में बढ़ रहा, उन परिस्थितियों को यह आत्मस्वरूप नहीं समझता । मैं श्रावक नहीं, मैं मुनि नहीं, एक चैतन्यमात्र तत्त्व हूँ, । इस प्रकार के भावों में यह अंतरात्मा बढ़ता है । तो आज तो ज्यादह बढ़ाव है नहीं । अधिक-से-अधिक सप्तम गुणस्थान, मगर जिस काल में संहनन ऊ̐चा होता था उस काल में इस गुणस्थान से भी ऊपर भाव होते थे और क्षपक श्रेणी में चढ़कर चारित्रमोह का क्षय किया तो वे निर्ग्रंथ साधु बन जाते थे । यहाँ निर्ग्रंथ से मतलब चौथे नंबर का मुनि पुलाक, वकुश, कुशील ओर निर्ग्रंथ । इसके पश्चात् केवलज्ञान हुआ और वे अरहंत परमेष्ठी हुए । अब वे कहलाये परमात्मा ।
व्यवहारमार्ग से गुजरकर अंतस्तत्त्व के ध्यान की पूर्णता का लाभ―तो परमात्मा का जो स्वरूप है वह ध्यान में लाया गया और उसके आलंबन से उपयोग करके अंत:स्वरूप कारण-समयसार सहज परमात्मतत्त्व अविकारस्वरूप चैतन्यभाव, उसका ध्यान किया । तो यह ही बात जिनेंद्र देव ने बतलाई है कि विविध योग से बहिरात्मापन को छोड़े, अंतरात्मापन का आलंबन लें और परमात्मस्वरूप का ध्यान करें । यह एक व्यवहारमार्ग है, जिसमें चलकर लोगों को सुध रहती है कि किस तरह से चलना, कैसे बैठना, कैसे भोजन करना, कैसी परिस्थितियों से गुजरना जिससे कि अंतस्तत्त्व के ध्यान के विरुद्ध वातावरण न बने कि जो हम आत्मा की सुध से भी हट जायें । इसके लिए प्राणिसंयम और इंद्रिय-संयम दो प्रकार के संयमों में यह ज्ञानी पुरुष बढ़ता है । तो ये बाह्य बातें उसके लिए ढाल की तरह हैं और अंतस्तत्त्व का ध्यान, आराधना कर्मशत्रु के छेदने के लिए शस्त्र की तरह है । तो जैसे कोई योद्धा ढाल और तलवार लेकर युद्ध करता है ऐसे ही यह ज्ञानी व्यवहारधर्म या संयमरूपी ढाल को लेकर और अंतर में अंतस्तत्त्व के ध्यानरूप शस्त्र से इन कर्मशत्रुवों को छेदता है और उन पर विजय पाता है ꠰ जैसे ढाल और तलवार इन दोनो के बिना गुजारा नहीं, ऐसे ही व्यवहारधर्म के बिना गुजारा नहीं और निश्चय अंतस्तत्त्व के बिना गुजारा नहीं । इस तरह इस अंतस्तत्त्व का प्रधान ध्येय रखकर यह जीव मोक्षमार्ग में गमन करता है ।