वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 85
From जैनकोष
एयं जिणेहि कहियं सवणाणं सावयाण पुण सुणसु ।
संसारविणासयरं सिद्धियरं कारणं परमं ꠰꠰85।।
रत्नत्रयधर्म से संसारसंकटविनाश―जिनेंद्रदेव ने जो अपने उपदेश में कहा है उस पर चलना यह श्रावकों को और मुनियों को अपनी सिद्धि का कारण है । वह मार्ग है सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र का एकत्व । इससे ही संसार-संकट नष्ट होते हैं । सद्बुद्धि आना बहुत दुर्लभ वैभव है । मान लो जो कुछ परिग्रह का ढेर है, जिसका जितना पास पड़ा है, पड़ा है, वह मान ही तो रहा है कि यह मेरा वैभव है । कहीं स्वरूप से तो वैभव न बन जायेगा उसका, और वह वैभव काम भी नहीं आने का है । मनुष्य के काम तो दो रोटी और तन ढांकने को दो कपड़े―ये ही काम आ रहे, इसके अतिरिक्त जो कुछ किया जाता है वह तो स्वच्छंदता है, उद्दंडता है । बड़ी कोठी चाहिए, बड़ा साज-सामान चाहिए, मोटर चाहिए, कभी कहीं गए कभी कहीं ꠰ स्त्रियों को देख लो, उन्हें बीसों साड़ी चाहिए, दिनभर में अनेक बार ड्रेस बदलना चाहिए । यदि सुबह की साड़ी दोपहर को न बदल सकें तो इसमें अपना अपमान महसूस करती, तो यह सब क्या है? यह तो मन का ऊधम है । और आवश्यक कितनी बात है? वह इतनी बात है कि इतने साधन बना लिए जायें कि जीव टिका रहे । जीवन भी किसलिए टिके कि धर्मसाधना करते रहें । अपनी ओर से तो ऐसा विचार होना चाहिए कि कुछ पूर्वकृत पुण्य का उदय आया, और जितना जिसको समागम मिला, वैभव मिला वह उसकी व्यवस्था रखता है, पर आवश्यकता न जानें कि इतना वैभव हो तब मेरा कार्य बनेगा । मेरा कार्य वैभव से नहीं बनता किंतु सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र से बनता है ।
परोपकार से लोकप्रतिष्ठा की संभवता―बताओ, धन जोड़कर लोग चाहते क्या हैं? लखपति बनना, करोड़पति बनना, यह ही तो चाहते हैं कि दुनियां में मेरा नाम हो, या यह ख्याल बनाते हैं कि मुझे दो रोटी, दो कपड़े चाहिए? अरे ! उनके मन में तो यह बात है कि दुनियां में मेरा नाम बढ़े । सो अगर कोई भी धनी अपने काम में जितना आये उतना परिमाण रखकर और बाकी जितना अधिक वैभव हो उसे एक ट्रस्ट जैसा मानकर उसे परोपकार में लगाये तो बताओ परोपकार में धन खर्च करने से नाम बढ़ता है या जोड़ने से? अरे ! नाम बढ़ता है परोपकार में धन खर्च करने से, सो विवेक की बात है । पहले कुछ राजा लोग हुए ऐसे जो ऐसा करते थे कि अपना जीवन चलाने के लिए थोड़ीसी खेती रख लिया या कोई छोटा-सा दस्तकारी का काम कर लिया, बाकी राज्य का सारा कोष प्रजा के लिए । उसमें से अपने लिए कुछ नहीं लेते थे, प्रजा का धन प्रजा के लिए खर्च करते थे । तो बताओ ऐसा करने से उनके यश में कुछ कमी आयी क्या? बल्कि उनका यश और भी अधिक बढ़ा । तो यश कहीं धन-वैभव जोड़ने से नहीं बढ़ता किंतु परोपकार में लगाने से बढ़ता है । तो विवेक रखकर परोपकार में धन को लगाने से लाभ है । सो ये सब बातें भी जिनेंद्रदेव ने भूमिकानुसार बतायी हैं । 5 अणुव्रत कहे है उनमें यह ही त्यागचर्या बसी हुई है । मुनियों को 5 महाव्रत कहा है उनकी इससे भी ऊ̐ची चर्या है कि सर्व परिग्रह का त्याग करें, सर्व चिंताओं को त्यागें, अकेला अपना आत्माराम है । अपने आत्मतत्त्व की उपासना है सो जिनेंद्र भगवान के द्वारा कहे हुए वचन मुनियों और श्रावकों को संसार के नष्ट कराने वाले, दुःखों को दूर करने वाले हैं और सिद्धि को प्राप्त कराने वाले हैं ।
स्याद्वाद और अहिंसा के आश्रय का महत्त्व―अहिंसा―यह तो है आचरण की चीज और स्याद्वाद यह है विचार की चीज । विचार और आचार के अलावा मनुष्य करता क्या? दो में ही तो बात बनाते हैं और दो ही करते हैं । विचार करेंगे, आचरण करेंगे,तो विचार तो स्याद्वादमय होना चाहिए । किसी एकांत का हठ न हो किसी पक्ष में न जायें, सबका निर्णय निश्चय दृष्टि से बनाना है; सामान्य दृष्टि से यों; विशेष दृष्टि से यों विवाद वहाँ जरा भी नहीं रहता । द्रव्यदृष्टि से जीव नित्य, पर्यायदृष्टि से जीव अनित्य । स्याद्वादी को तो कहीं भी विवाद नहीं है और यह तो सर्व शासनों का राजा है ꠰ जिस किसी के भी पास पहुंचे, कोई भी दार्शनिक है । स्याद्वाद के सामने उस एकांती दार्शनिक को झुकना पड़ेगा, मानना पड़ेगा कि वस्तुस्वरूप यह ही है । इस वक्त भी बहुत-सी बातें सुनने में आती हैं, विरोध की बातें भी सुनने में आती हैं । कोई कुछ कहता कोई कुछ, मगर अपना कर्तव्य उनके वचनों में जूझकर कल्पनाओं में खो देना नहीं किंतु उनकी दृष्टि पहिचानकर कि यह इस दृष्टि से ऐसा कह रहा है, बस मध्यस्थ हों, विवादरहित हों और अपने आपके ध्यान में आवे । तो विचार में तो स्याद्वाद और आचार में अहिंसा, अहिंसा में सब आ गया । घात का त्याग, आरंभ-परिग्रह का त्याग, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन आदि ये सब अहिंसा में आ गए, क्योंकि अहिंसा का अर्थ है―अपने आपमें विकार न उत्पन्न होना, जिन विकारों से दर्शन ज्ञान चारित्र का घात होता है, वे कोई भी विकार न होने देना―यह है अहिंसा । तो झूठ, चोरी, कुशील आदिक सारे पाप विकारमूलक हैं । जब अविकार स्वभाव ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व की दृष्टि की कि अविकार ज्ञानस्वरूप को ही आपा माने तो वहाँ उसको कोई प्रकार का पाप नहीं रहता, तो ऐसे पापरहित मार्ग के प्रवर्ताने वाले मुनिराज को और श्रावकों को जिनेंद्रवचन सिद्धि प्रदान करने वाले हैं । अगर वीर प्रभु की वाणी और उससे चले आये हुए ये समस्त उपदेश आज न मिलते तो हम आप सब अंधेरे में थे । अनादि से जैसे विषयकषायों में जीव पलते हैं वही एक स्थिति थी, लेकिन आज हम आपका बड़ा सौभाग्य है कि श्रेष्ठ कुल में जन्मे हैं और श्रेष्ठ शासन का समागम मिला है, तो अपने को ममत्व से दूर करें और जैसा आत्मा का स्वरूप है एकाकी स्वरूपमात्र उसकी श्रद्धा करिये और इस ही स्वरूप में रमकर संतुष्ट होने का निर्णय बनाइये । बाहर कहीं भी रम-रमकर संतुष्ट नहीं हो सकते । मैं खुद-खुद में समाऊं इससे तो संतुष्टि है, ये सब बातें जिनेंद्र भगवान के वचनों से प्राप्त होती हैं, सो यहाँ आचार्यदेव कह रहे कि सिद्धि का परम कारण है जिनेंद्र भगवान के वचन, सो उस जिनवाणी को बड़े आदर से निरखते हुए उन वचनों पर चलने का प्रयास करना चाहिए ।