वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - गाथा 10-9
From जैनकोष
क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधित ज्ञानावगाहनांतरसंख्याल्पबहुत्वत: साध्या:।।10-9।।
क्षेत्र की अपेक्षा सिद्धों का परिचय―क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येक बुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहन, अंतर, संख्या और अल्प बहुत्व । इस अपेक्षा से सिद्ध भगवान में विशेषता जानना चाहिए । यहाँ क्षेत्र की अपेक्षा उनका विशेष कैसे जाना जाता, सो कहते हैं । क्षेत्र तथा अन्य अपेक्षाभूत प्रज्ञापननय और प्रत्युत्पन्ननय इन दो दृष्टियों से विशेषता बतायी जायेगी अर्थात वर्तमान में इस अपेक्षा से क्या बात है और पूर्वकाल में इस अपेक्षा से क्या बात थी? क्षेत्र की अपेक्षा वर्तमान दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रश्न होगा कि वे किस क्षेत्र में विराजे हैं? तो उसका उत्तर है कि वे सिद्ध क्षेत्र में विराजे हैं । इससे अधिक और गहरी दृष्टि से उत्तर दें तो वे अपने प्रदेशों में विराजे है । वहाँ आकाश का भी उत्तर न आयेगा, क्योंकि निश्चय दृष्टि से एक द्रव्य उस ही में निहारा जाता है । अन्य द्रव्य में नहीं देखा जाता हैं और जब भूत प्रज्ञापननय से उत्तर दिया जाये तो वहाँ भी दो दृष्टियों से उत्तर आयेगा । एक जन्म की दृष्टि से दूसरा कोई उपसर्ग करे, उठा ले जाये और कहीं पटक दे तो ऐसे संहरण की दृष्टि से । तो जन्म की दृष्टि से तो 15 कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए मनुष्य सिद्ध होते हैं । अब ऐसा कहने से भोगभूमिया छूट गए, समुद्र के स्थान छूट गए । यह तो हुआ जन्म की अपेक्षा, पर संहरण दृष्टि से जवाब दिया जाये तब तो समस्त मनुष्यलोक से सिद्ध हुए हैं क्योंकि 15 कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए इन पुरुषों को मुनि अवस्था में, साधना की स्थिति में कोई देव उठाकर ले जाये । समुद्र में पटक दे, अन्यत्र डाल दे तो ढाई द्वीप के अंदर ही मनुष्यों की गति है । बाहर तो देव भी नहीं ले जा सकते । तो यों मनुष्य क्षेत्र से सब जगह से सिद्ध हुये । यहाँ एक प्रश्न हो सकता कि मेरु पर्वत के भीतर से कैसे गमन होगा? वहाँ के ऊपर का जो सिद्ध क्षेत्र है वह तो खाली होगा । वहाँ सिद्ध न होंगे, पर उत्तर यह है इसका कि मेरु पर्वत के भीतर के क्षेत्र से भी सिद्ध हुये हैं । बल्कि जो मेरु पर्वत की चोटी है वहाँ के प्रदेशों से भी सिद्ध हुये हैं । वे इस प्रकार हुये कि कोई मुनि ऋद्धिधारी हुये कि वे किसी भी जगह प्रवेश कर जाते हैं । मेरु पर्वत के भीतर वे जा रहे हों और किसी भी जगह मेरु के बीच की जगह उनकी साधना और शुक्लध्यान बन जाये और वहीं से मुक्त हो जायें तो शरीर तो कपूरवत् उड़ ही जाता है जो मोक्ष जाता है, वे तो वहाँ से सिद्ध हो गये ।
काल की अपेक्षा से सिद्धों का परिचय―यहां दो नयों की अपेक्षा बात चल रही है । एक तो वर्तमाननय, यह तो ऋजु सूत्रनय और शब्दों की दृष्टि से देखा जाता है और भूतनय से सभी नय का कथन कर सकते हैं । उन्हीं दोनों नयों से अब काल की अपेक्षा सिद्धों में विशेषता कहते हैं कि किस काल में मुक्ति होती है । वर्तमाननय से देखा जाये तो एक समय में ही सिद्ध होता हुआ सिद्ध हो जाता है । कर्ममुक्त होकर एक समय में ही वह सिद्ध क्षेत्र में विराजमान होता, तो मुक्त होने का, सिद्ध होने का समय एक है । भूतप्रज्ञापन नय से देखा जाये तो उसका भी उत्तर दो दृष्टियों से आयेगा । (1) जन्म की दृष्टि से और (2) संहरण की दृष्टि से । जन्म की अपेक्षा तो सामान्यतया यह उत्तर है कि उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्पन्न हुये पुरुष सिद्ध होते हैं किंतु उत्सर्पिणी के सारे समयों में नहीं होता और न अवसर्पिणी के सारे समयों में सिद्ध होता । तो विशेष की अपेक्षा इस प्रकार है कि अवसर्पिणी काल में तीसरे काल के अंतिम भाग में और चौथे काल में उत्पन्न हुये सिद्ध होते हैं ओर चौथे काल में उत्पन्न पंचम काल के प्रारंभ में भी सिद्ध हो जाते हैं, किंतु पंचम काल में उत्पन्न हुआ किसी भी समय सिद्ध नहीं होता । तथा उक्त काल के अतिरिक्त अन्य कालों में सिद्ध नहीं होते । अवसर्पिणी काल में 6 काल होते हैं । पहले में उत्कृष्ट भोगभूगि, दूसरे में मध्यम भोगभूमि, तीसरे में जघन्य भोगभूमि है, चौथे में भले प्रकार मुक्त होना, पांचवें में कर्मभूमि । चौथा काल भी कर्मभूमि का है, पर पंचम काल में बहुकर्मता है तथा इस कल में उत्पन्न हुआ जीव मुक्त नहीं होता । छठे काल में बहुत बिगड़ी स्थिति होती है अग्नि, धर्म, ये कुछ नहीं होते । पशुवत जीवन होता है तो इनमें से चौथे काल में सिद्ध होते हैं । ऐसे ही उत्सर्पिणी काल में चौथे काल में सिद्ध होते हैं । संहरण की दृष्टि से सभी कालों में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में सिद्ध हो जाते हैं । इसका प्रयोजन यह है कि विदेह आदिक क्षेत्रों में कोई मुनिराज हैं और कोई देव उनको उठाकर उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के प्रथम काल में यहाँ भरत ऐरावत क्षेत्र में पटक गया, और वह मुक्त हो जाता है तो इस काल में सिद्ध हुये कहलाये ।
गति की अपेक्षा से सिद्धों का परिचय―अब गति की अपेक्षा वर्णन करने हैं कि किस गति में सिद्ध होते हैं । वर्तमाननय की अपेक्षा तो यों ही कहो कि वे सिद्ध अवस्था में ही सिद्ध होते हैं, और भूतनय की अपेक्षा कहो तो वहाँं दो दृष्टियाँ होती हैं―एक तो अनंतर गति और दूसरी एकांतर गति अर्थात वे सीधे किस भव से मोक्ष गए? एक तो इस प्रकार प्रश्न होगा । दूसरे जिस भव से वे मोक्ष गए उस भव से पहले उनका कौन भव था? एक इस प्रकार प्रश्न होगा । तो अनंतर गति की दृष्टि से प्रत्येक सिद्ध मनुष्यगति में ही सिद्ध हुये हैं अर्थात मनुष्य भव में मुनि निर्ग्रंथ होकर श्रेणी माड़कर शुक्ल ध्यान के बल से आगे बढ़कर अरहंत होकर मोक्ष जाते हैं । एकांतर गति की दृष्टि से चारों गतियों में उत्पन्न हुये सिद्ध होते हैं अर्थात नरक गति से निकलकर मनुष्य होकर मोक्ष जाते हैं । तिर्यंच गति से निकलकर मनुष्य होकर सिद्धि पाते हैं, देवगति से चय कर मनुष्य होकर सिद्ध हो जाते हैं और मनुष्य गति से ही निकलकर पुन: मनुष्य होकर सिद्ध होते हैं ।
लिंग की अपेक्षा से सिद्धों का परिचय―अब लिंग की अपेक्षा बतलाते हैं कि किस लिंग से सिद्ध होते हैं । लिंग का अर्थ यहाँ वेद है । तो वर्तमाननय से देखा जाये तो अपगत वेद से सिद्ध है याने वेद नहीं है । अब वहाँ, इस प्रकार सिद्ध अवस्था है । और, भूत विषयक नय से देखा जाये तो तीनों वेदों से सिद्धि है, यह बात आती है । यद्यपि शरीर की अपेक्षा से तो पुरुष वेद से ही सिद्धि है, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद से नहीं हैं, किंतु भाव वेद की दृष्टि से पुरुष वेद 9वें गुणस्थान तक चलता है । स्त्री वेद नपुंसक वेद भी 9वें गुणस्थान तक होते हैं । और छठे 7वें गुणस्थान से ही निर्ग्रंथ दिगंबर दशा होती है सो यह पुरुष ही भाव वेद की अपेक्षा कोई मुनि स्त्रीवेद में है, कोई नपुंसक वेद ये है, कोई पुरुष वेद आदि किसी में है, फिर ध्यान बल से उन वेदों से रहित होकर सिद्ध हो जाते हैं अथवा दूसरी तरह से परखिये लिंग दो प्रकार का होता है । तो निर्ग्रंथ लिंग और सग्रंथ लिंग याने दिगंबर अवस्था और श्रावक अवस्था । तो वर्तमान विषयकनय से तो निर्ग्रंथलिंग से ही सिद्धि होती है । श्रावकलिंग वस्त्रधारी लिंग से सिद्धि नहीं होती पर भूतविषयकनय से देखा जाए तो सग्रंथलिंग से सिद्धि है । श्रावक था, बाद में मुनि हुआ । और वह मोक्ष गया । अथवा नग्न अवस्था में ही जन्म से रहा और मुनि बन गया, सिद्ध हो गया । 8-9 वर्ष की उम्र तक कोई बालक मुनियों के पास अध्ययन कर रहा तो नग्न ही अध्ययन कर रहा, पश्चात् उसे आत्महित की प्रेरणा हुई और मुनि दीक्षा ले ली । तो लो ऐसे भी अनेक पुरुष सिद्ध हुये हैं कि जिन्होंने जन्म से कपड़े पहना ही नहीं ।
तीर्थ की अपेक्षा से सिद्ध भगवंतों का परिचय―अब तीर्थ की अपेक्षा सिद्ध का वर्णन करते हैं । जब तीर्थ की अपेक्षा वर्णन करेंगे तो वहाँ दोनों विकल्प होते हैं । तीर्थंकर के तीर्थ से मुक्त हुये हैं या उस तीर्थंकर के न होने पर सिद्ध हुये हैं । दूसरा वर्णन इस तरह से चलेगा कि ये तीर्थंकर होकर सिद्ध हुये हैं या तीर्थंकर हुये बिना सिद्ध हुये हैं? तो कोई मुनि तीर्थंकर के सद्भाव में सिद्ध हुये हैं और कोई मुनि तीर्थंकर के अभाव में अर्थात तीर्थंकर हुये, अब नहीं हैं । वे मुक्त हो चुके तो यों तीर्थंकर के अभाव में सिद्ध हुये, और तीर्थंकर होकर सिद्ध हुये ऐसे प्रत्येक उत्पर्सिणी अवसर्पिणीकाल में 5 भरत और 5 ऐरावत क्षेत्रों से सिद्ध होते हैं और विदेह क्षेत्र में तो सदैव तीर्थंकर रहा करते हैं । चाहे कुछ नगरियों में रहें चाहे सब नगरियों में रहें पर 20 से कम तीर्थंकर कभी नहीं रहते । वे तीर्थंकर होकर सिद्ध हुये । और अन्य अनेक मनुष्य त्रेसठ सलाका के पुरुषों में से अथवा साधारण पुरुषों में से अनेक सिद्ध हुये हैं । इस प्रकार तीर्थ की अपेक्षा वहाँ सिद्ध में अंतर जानना चाहिए । यह बात पहले ही कह दी गई कि सिद्ध में परस्पर वास्तव में अंतर नहीं है । भूतकाल में वे कहाँ से मुक्त हुये । कब मुक्त गए, किस स्थिति में मुक्त गए, इस अपेक्षा से उन सिद्धों का वर्णन किया जाता है । तीर्थ तीर्थंकर का तब तक कहलाता है जब तक कि दूसरा तीर्थंकर उत्पन्न न हो । इस अपेक्षा से भी तीर्थ में सिद्ध हुए हैं यह बात तो है ही पर जिन तीर्थंकरों के अंतराल में इसके बाद अंतर हो जाता है कि वहाँ धर्म तीर्थ की प्रवृत्ति नहीं रह पाती । वहाँ तब सिद्ध होना भी नहीं होता, पर कुचित किसी का ऐसा ही विशेष क्षयोपशम और थोड़ा पुराना सत्संग हो और रहे आये साधना में तो ऐसा कोई मुनि मुक्त हो जाए, यह भी संभव हो सकता है । इस प्रकार तीर्थ की दृष्टि से इन सिद्ध भगवंतों में परस्पर विशेषता की बात कही गई है ।
प्रत्येक बुद्धबोधित की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―प्रत्येक बुद्धबोधित की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों में भूतपूर्व न्याय से विशेषता समझी जाती है । कोई मनुष्य दूसरे के उपदेशों का लाभ पाये बिना अपनी ही बुद्धि से ज्ञान विशेष में आया और तपश्चरण करके मुक्त हो गया वह तो कहलाता है प्रत्येक बुद्ध सिद्ध और जो दूसरे का उपदेश पाकर उससे समझा गया और निर्ग्रंथ दिगंबर होकर तपश्चरण कर सिद्ध हुये वे कहलाते हैं बोधित बुद्ध सिद्ध । प्रत्येक बुद्ध बोधितों को जो विरक्ति बुद्धि उत्पन्न हुई सो कभी मेघपटलों को देखा, कोई मंदिर के आकार में बने थे, थोड़ी देर को नीचे गए कागज पेन्सिल लेने, कि इस मंदिर का चित्र बना लूं, आने पर देखा तो वह शिखर विघट गया । वह तो बादलों का आकार था, उसे ही देखकर विरक्त हो गए । तो उसमें दूसरे के उपदेश बिना अपने ही शक्ति से वह ज्ञान जगा । बोधित बुद्धों को जो कि बहुत कामभोग आदिक में आसक्त चित्त रहे वे दूसरों के द्वारा समझाया जाने पर काम भोग आदिक से विरक्त बने । उनकी यह बुद्धि परोपदेश पाकर जागृत हुई, ऐसे बोधित बुद्ध हुए हैं, प्रत्येक बुद्ध कुछ विशेष अतिशय वाले माने जाते हैं, जिनको ज्ञान अपने आप ही शक्ति से जगा, पर का उपदेश प्राप्त करने की आवश्यकता न हुई उनकी शक्ति विशेष समझिए, और जो समझाने से समझे, शक्ति उनके भी है, किंतु समझाने से समझे इस कारण कुछ उनमें ज्ञान बल अपने आप नहीं जगा सो कुछ ये परोपदेशजज्ञान वाले समझे जाते हैं ।
ज्ञान दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―ज्ञान की अपेक्षा सिद्ध में क्या अंतर है? तो वर्तमान में तो सिद्ध में कोई अंतर नहीं । सिद्ध भी हुए हैं तो केवल ज्ञान से ही सब सिद्ध हुए हैं, पर भूतपूर्व न्याय से देखने पर यह विशेषता लगती है कि कोई दो ही ज्ञान विशेषों से सिद्ध बने, कोई तीन ज्ञान विशेषों से सिद्ध बने, कोई चार ज्ञान विशेषों से सिद्ध बने । जैसे किसी मुनि के मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दो ही ज्ञान थे और इसी ही में आराधना बनाया कि उनके केवलज्ञान हुआ और सिद्ध हो गए । कोई मुनिराज, मतिज्ञान श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान के धारी थे अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मन: पर्ययज्ञान के धारी थे और उनके तपश्चरण समाधि भाव बढ़ा, जिसके प्रताप से केवलज्ञान पाया और सिद्ध हो गए । यहाँ यह विशेष जानना कि केवलज्ञान जब होता है तब सिर्फ वही एक ज्ञान रहता है । केवलज्ञान के साथ अन्य मति आदिक ज्ञान नहीं होते, क्योंकि ज्ञानावरण के क्षय से ही तो केवलज्ञान हुआ, और ये चार ज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, सो केवलज्ञान होने पर वही एक ज्ञान रहता है । कोई मुनिराज चार ज्ञान के धारी थे―मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन: पर्ययज्ञान, सो इन चार ज्ञान के धारी मुनिराज तपश्चरण द्वारा केवलज्ञान पाकर मुक्त हुए, इस प्रकार भूतपूर्व न्याय की दृष्टि से ये चार ज्ञान के धारी सिद्ध हैं, ऐसा कहा जाता है ।
अवगाहन की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―अवगाहन की दृष्टि से उन सिद्धों में क्या अंतर है सो सुनो―अवगाहन तीन प्रकार से निरखा जाएगा―(1) उत्कृष्ट, (2) मध्यम और, (3) जघन्य । उत्कृष्ट अवगाहना तो एक ही होती है, जघन्य अवगाहना भी एक ही मिलेगी । मध्यम अवगाहना के अनेक भेद हो जाते हैं । यहाँ अवगाहना से मतलब आत्मप्रदेशों में रहना । सो आत्मप्रदेशों में यह रहना कितने विस्तार में है, उसकी दृष्टि से अवगाहना कही जा रही है । उत्कृष्ट अवगाहना तो 522 धनुष की है । अवसर्पिणी काल के चतुर्थ काल के आदि में जो सिद्ध हुये हैं उनमें अनेक ऐसे हुये जो 525 धनुष की अवगाहना वाले थे । जघन्य अवगाहना है साढ़े तीन हाथ प्रमाण । चतुर्थ काल के अंत में उत्पन्न हुए पंचम काल में जो मोक्ष गये ऐसे अनेक मुनि साढ़े तीन हाथ की अवगाहना वाले हो सकते हैं अथवा बाल्यावस्था में ही जिसे केवलज्ञान हो गया, 8-9 वर्ष की आयु में ही केवलज्ञानी जो बने हैं वे साढ़े तीन हाथ की अवगाहना वाले हो सकते हैं । तो अनेक सिद्ध साढ़े तीन हाथ की अवगाहना में हैं और अवगाहना के मध्यम विकल्प अनेक हैं, साढ़े तीन हाथ से कुछ ही बाद फिर और बाद ऐसे कुछ कुछ बड़े होकर जब तक 525 धनुष की अवगाहना है उससे पहले के ये अनेक भेद हो जाते हैं । वर्तमान में सिद्ध भगवान कितनी अवगाहना में हैं? तो जिस शरीर से मोक्ष गए उस आकार से कुछ न्यून आकार में हैं ।
अंतर की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―अब अंतर की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों की विशेषता निरखिये । अंतर का यहाँ अर्थ यह है कि एक सिद्ध भगवान बने उसके बाद कितने समय तक सिद्ध भगवान न बनना और बाद में बनेंगे तो एक सिद्ध से दूसरे सिद्ध के बीच में कितना काल बीत गया उसे अंतर कहते हैं । यहाँ यह जानना कि अंतर से ही सिद्ध हुये यह बात नहीं है अनेक अनंतर सिद्ध भी हैं याने लगातार सिद्ध बनते रहें, ऐसा भी कुछ समय आता है । तो अनंतर की दृष्टि से जघन्य रूप से तो दो समय सिद्ध होते हैं पहले समय में सिद्ध हुये, अगले में सिद्ध हुये । अगर वे तीसरे समय और सिद्ध हो जायें तो वे जघन्य न कहलायेंगे, अनंतर और उत्कृष्ट अनंतर की दृष्टि से 8 समय तक सिद्ध होते हैं । जब कभी 6 महीने तक का अंतर पड़ जाये कि कोई सिद्ध नहीं हो रहा सारे ढाई द्वीप में, उसके बाद 8 समय तक लगातार सिद्ध होते हैं और 608 सिद्ध हो जाते हैं तो वे 8 समय लगातार सिद्ध हुये हैं तो अनंतर सिद्ध का उत्कृष्ट समय 8 है, फिर 8 और 8 के बीच में जो समय लगे वह सब मध्यम अनंतर है । अंतर की दृष्टि से जघन्य अंतर तो एक समय पड़ता है । कोई अभी सिद्ध भगवान हुआ एक समय को नहीं हुआ, फिर सिद्ध हुआ तो यह अंतर एक समय का रहा और ज्यादह अंतर पड़ा कि कोई सिद्ध नहीं हुआ तो वह अंतर का समय 6 माह तक हो जाता है ।
एक समय में सिद्ध होने की संख्या की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―अब संख्या की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों में विशेषता देखिये इस संख्या से मतलब यह है कि कितने सिद्ध हो जाते हैं । तो एक समय में कितने सिद्ध होते हैं यह बात बताने का प्रयोजन है इस संख्या का अनुयोग । तो एक समय में जीव जघन्य से तो एक सिद्ध हुआ अर्थात किसी एक समय में केवलज्ञानी ही सिद्ध भगवान बना तो वह एक समय की जघन्य संख्या है, और अधिक से अधिक कितने सिद्ध हो जायेंगे एक समय में? उनकी संख्या है 108 । जब 6 माह का अंतर पड़ता है और उसके बाद सिद्ध होना प्रारंभ हुआ तो वहाँ पहले समय में कम सिद्ध हुये, दूसरे समय में अधिक संख्या में सिद्ध हुये, ऐसी उस धारा में 8वें समय में सिद्ध की संख्या 108 हो जाती है । तो ऐसे ही समझना कि किसी भी एक समय में अधिक से अधिक 108 मुनि महाराज अरहंत देवसिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं । वैसे सिद्ध भगवंतों की समस्त संख्या अनंत है । करणानुयोग में बताया गया है कि निगोद जीवों को जोड़कर जितने भी संसारी जीव हैं । उन सब जीवों से अनंत गुने सिद्ध भगवंत हैं । तो अनंत सिद्ध होने पर भी वे सब सिद्ध एक निगोद के शरीर में पाये जाने वाले जीव के अनंतवें भाग प्रमाण हैं पर यहाँ सिद्ध होने की संख्या कही जा रही है । उस अपेक्षा से बताया गया कि एक समय में होने वाली संख्या जघन्य से एक है । उत्कर्ष से 108 है । अब अल्प बहुत्व की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का विशेष परिचय सुनो―अल्पबहुत्वगत अनेक बातें सामने रख कर यह बताते कि यह इससे अधिक है यह इससे अधिक है । तो पहले क्षेत्र की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का वर्णन ।
क्षेत्र संबंधित अल्प बहुत्व की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―अब क्षेत्र की अपेक्षा अल्प बहुत्व देखिये―वर्तमाननय से तो सभी सिद्ध क्षेत्र में ही सिद्ध हैं । वहाँ तो अल्प बहुत्व कुछ नहीं बताया जा सकता, पर भूतपूर्वनय की अपेक्षा विचार किया जाये तो क्षेत्रसिद्ध दो प्रकार के होते हैं―(1) जन्म की अपेक्षा और (2) हरे जाने की अपेक्षा । तो उनमें संहरण सहित तो अल्प हैं । अर्थात जिन मुनियों को देव आदिक ने हरा, उठा ले गये और कहीं का कहीं रख दिया और वहाँ से सिद्ध हुए तो ऐसे संहरणसिद्ध तो थोड़े हैं और जन्मसिद्ध उनसे संख्यातगुने हैं । संहरण भी 2 प्रकार से होता है―(1) एक तो अपने आप और (2) दूसरा दूसरों के द्वारा । अपने आपके संहरण का क्या अर्थ है? क्या कोई खुद का भी हरण कर लेता है? तो संहरण का अर्थ है कि जन्म तो हुआ किसी क्षेत्र में और ऋद्धिबल से अन्यत्र चले जाते और कहीं अन्यत्र ही वहाँ ध्यान बना, केवलज्ञान हुआ, और सिद्ध हो गये तो उसे कह सकते कि ऋद्धियाँ उनको हरकर ले गई । यों स्वकृत संहरण की बात कही गई है । परकृत संहरण का अर्थ यह है कि देव ने या विद्याधरों ने हरण किया और कहीं दूसरी जगह रख दिया और वहाँ ही सिद्ध हो गये तो यह परकृतसंहरण है । सो दोनों ही तरह के संहरणों से जो सिद्ध हुए हैं वे जन्म दृष्टि से होने वाले सिद्धों से कम हैं । अब क्षेत्र का विभाग देखिये―और उनमें अंतर परखिये तो क्षेत्र का विभाग 7 प्रकार से रखिये―कर्मभूमि का क्षेत्र, भोगभूमि का क्षेत्र, समुद्र, द्वीप, ऊपर नीचे और तिरछे । अब इन 7 में से ऊर्द्धलोक से जो सिद्ध हुए हैं वे सबसे थोड़े हैं । ऊर्द्धलोक से मतलब यहाँ स्वर्ग से नहीं है । किंतु यहाँ ही ऊपर से, अधोलोक से जो सिद्ध हुए हैं उनसे संख्यातगुने हैं । यहाँ अधोलोक से मतलब इन नारकादिक से नहीं है, किंतु इस जमीन से नीचे मेरुपर्वत की जड़ तक मध्यलोक कहलाता है । और यहाँ की दृष्टि से वे नीचे हैं तो वहाँ से कोई सिद्ध हुए हों वे अधोलोक सिद्ध कहलाते हैं । वे ऊर्द्धलोक सिद्ध से संख्यातगुने हैं । तिर्यक लोक से जो सिद्ध हैं वे संख्यातगुने हैं । अब समुद्र और द्वीपों की अपेक्षा देखिये―समुद्र से जो सिद्ध हुए हैं वे द्वीपसिद्ध से कम हैं, द्वीपों से जो सिद्ध हुए हैं वे समुद्र सिद्ध से संख्यातगुने हैं । अब इन्हीं द्वीप समुद्रों में कुछ विशेष भेद बनाकर इनका अंतर समझिये । लवण समुद्र से जो सिद्ध हुए हैं वे इनमें सबसे थोड़े हैं । कोई देवादिक हर ले गया और समुद्र में जाकर पटक दिया और वहीं ही ध्यान किसी मुनि का बना, केवलज्ञान हुआ और सिद्ध भगवान बन गये तो ऐसे लवण समुद्र से हुए सिद्ध सबसे थोड़े हैं । उनसे संख्यातगुने कालोद समुद्र से हुए सिद्ध हैं । उनसे संख्यातगुने जंबूद्वीप से हुये सिद्ध हैं । धात की खंड के दूसरे द्वीप से जो सिद्ध हुए हैं वे जंबूद्वीपसिद्ध से संख्यातगुने हैं । पुष्करार्द्ध द्वीप से अर्थात पुष्कर द्वीप नाम के तीसरे द्वीप के आधे भीतर भाग से जो सिद्ध हुये हैं वे दूसरे द्वीप से होने वाले सिद्ध से संख्यातगुने हैं ।
काल संबंधित अल्पबहुत्व की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―अब काल की दृष्टि से सिद्ध में विशेषता देखिये―काल को 3 भागों में बाँटिये―(1) उत्सर्पिणी (2) अवसर्पिणी और (3) दोनों से रहित । सबसे कम सिद्ध हुए हैं उत्सर्पिणी काल से । इन तीनों की अपेक्षा से बात कही जा रही है । उससे अधिक सिद्ध हुए हैं अवसर्पिणी काल से । यहाँ जो इतना अंतर मिला है उसका कारण यह है किए उत्सर्पिणी काल में तो पंचमकाल के बाद चौथा काल आया, सो चौथे काल में सिद्ध होने की वृत्ति कम रही, वहाँ उत्पन्न हों, उसके बाद सिद्ध हों और पंचमकाल जैसे हीन काल के बाद तपश्चरण दीक्षा आदिक का कम चला और फिर उस चतुर्थकाल के बाद भोगभूमि लग जायेगी । तो इन सब कारणों से उत्सर्पिणी काल में हुए सिद्ध कम हैं । किंतु अवसर्पिणी काल में तीसरे काल के बाद चौथा काल आता है । जहाँ बड़ी आयु का शरीर, बुद्धि भी एकदम विशेष याने योग्यता विशेष रहती है वहाँ सो तीसरे काल के अंत में ही उत्पन्न हुये जीव सिद्ध होने लगते हैं । तो वह भी काल बहुत बड़ा है, फिर सारे समस्त चतुर्थ काल में सिद्ध हुये हैं । और चतुर्थ काल में उत्पन्न हुये पंचमकाल में भी सिद्ध हुये हैं । इससे अवसर्पिणी काल में जो सिद्ध हुये उनकी संख्या अधिक है । इससे संख्यातगुना दोनों से रहित काल में है । जहाँ न उत्सर्पिणीकाल है न अवसर्पिणीकाल है ऐसा क्षेत्र है विदेह । वहाँ से जो सिद्ध हुये हैं वे सबसे अधिक हैं ।
गति संबंधित अल्प बहुत्व की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―अब गति की दृष्टि से इनका अंतर समझिये―ये सब अंतर भूतपूर्वनय से हैं । वर्तमाननय से नहीं । वर्तमाननय से तो 1 अवगाहन का तो अंतर हो सकता है, पर और अंतर नहीं है । भूतपूर्वनय से गति को देखें तो 2 दृष्टियों से देखा जायेगा । अनंतरगति और एकांतरगति । तो अनंतर गति दृष्टि से तो सभी सिद्ध मनुष्यगति में ही हुए हैं । वहाँ अल्प बहुत्व नहीं कहा जा सकता । एकांतर गति से अल्प बहुत बनेगा । जैसे कोई जीव तिर्यक्गति से मनुष्य होकर मोक्ष गया तो ऐसे इन सब में कम जीव हैं । उनसे संख्यातगुने वे सिद्ध हैं जो मनुष्यगति से आकर मनुष्य होकर मोक्ष गये हैं । उनसे संख्यातगुने वे सिद्ध हैं जो नरक गति से आकर मनुष्य होकर मोक्ष गये है, और उनसे संख्यातगुने वे सिद्ध हैं जो देवगति से आकर मनुष्य होकर मोक्ष गए हें । इस प्रकरण से यह बात प्रसिद्ध होती है कि सिद्ध के बहुभाग में संख्या देव जीव की है, जो देवगति से चलकर मनुष्य होकर मुक्त हुए हैं । लगता भी यही भला है । जो जीव सिद्ध बनेगा वह खोंटी गति से आकर मनुष्य होकर सिद्ध हो यह अधिकतर न हो पायेगा । हाँ देव गति से आकर मनुष्य होकर सिद्ध हुये हैं, उनके बाद दूसरा नंबर उन सिद्धों का है जो मनुष्यगति से आकर मनुष्य होकर सिद्ध हुये थे । जो सिद्ध होंगे उन आत्माओं के पुण्य प्रताप विशेष रहा करता है पहले सेही । और उस पुण्य प्रताप से यही बात अधिकतर होती है कि कोई भव्य जीव किसी देव गति में जाये और वहाँ से चलकर मनुष्य होकर मोक्ष पाये । तीर्थंकरों की भी इससे अधिक संख्या है कि जो देवगति से आकर मनुष्य तीर्थंकर हुए हैं । इस प्रकार गति की अपेक्षा सिद्ध में विशेषता कही है ।
लिंग तीर्थ व चारित्र की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―लिंग की अपेक्षा से वर्तमान में तो कोई लिंग है ही नहीं, इस कारण अपगत वेद की दृष्टि से सिद्ध में कोई अल्प बहुत्व नहीं है । भूतनय की अपेक्षा नपुंसक बेद से श्रेणी चढ़कर सिद्ध होने वाले अल्प हैं, उनसे संख्यातगुने स्त्रीवेद से श्रेणी चढ़कर होने वाले सिद्ध हैं और उनसे संख्यातगुने पुरुष वेद से श्रेणी चढ़कर सिद्ध हुए वे सबसे अधिक हैं । तीर्थ की अपेक्षा तीर्थंकर सिद्ध थोड़े हैं अर्थात जो तीर्थंकर होकर सिद्ध हुए उनकी संख्या अल्प है । और जो तीर्थंकर न होकर सिद्ध हुये हैं उनकी संख्या संख्यातगुनी है । चारित्र की अपेक्षा वर्तमाननय से तो न चारित्र न अचारित्र किंतु सबसे रहित स्थिति में सिद्ध हुये हैं, इसलिये वहाँ इनका अल्प बहुत्व नहीं । भूतनय की अपेक्षा दो तरह से सोचा जायेगा । एक अनंतर की दृष्टि से और एक व्यवधान की दृष्टि से । अनंतर चारित्र की दृष्टि से तो सभी जीव यथाख्यात चारित्र वाले ही सिद्ध हुये हैं इसलिए अनंतर चारित्र की दृष्टि से उनमें अल्प बहुत्व नहीं होता, किंतु व्यवधान की दृष्टि से भूतनय से उनमें अंतर है, पाँचों ही चारित्र धारण कर के सिद्ध होने वाले सिद्ध थोड़े हैं, अर्थात जिन जीवों के सामायिक छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्म सांपराय, यथाख्यात चारित्र पाँचों ही चारित्र हुये हैं और सिद्ध होते हैं, ऐसे सिद्ध अल्प हैं, और जो चार चारित्र से सिद्ध हुये हैं वे संख्यातगुने है अर्थात जिनके परिहार विशुद्धि नहीं हुआ और शेष चारित्र पाकर मोक्ष गए वे अधिक हैं । चार से कम चारित्र से सिद्ध होते ही नहीं । सामायिक छेदोपस्थापना होना अति आवश्यक है, और जब यह चारित्र में बढ़ते हैं तो सूक्ष्म सांपराय चारित्र भी जरूर होता है और यथाख्यात चारित्र पाये बिना तो उनकी मुक्ति ही नहीं है । सो चार चारित्र से जो सिद्ध हुये हैं उनकी संख्या अधिक है ।
प्रत्येक बुद्ध बोधित और ज्ञान की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―प्रत्येक बुद्ध बोधित की दृष्टि से प्रत्येक बुद्ध अल्प हैं अर्थात जिन मुनियों को दूसरों के उपदेश के बिना स्वयं अपनी शक्ति से ज्ञान वैराग्य जगा है और वे सिद्ध हुये ऐसे सिद्ध थोड़े हैं और उनसे संख्यातगुने बोधितबुद्ध सिद्ध हैं, अर्थात दूसरों के उपदेश को पाकर जिनका ज्ञान वैराग्य जगा और तपश्चरण कर सिद्ध हुये हैं ऐसे सिद्ध संख्यातगुने हैं । ज्ञानानुयोग में वर्तमाननय की दृष्टि से देखा जाये तो सभी केवलज्ञान ज्ञान में हो सिद्ध हैं । इसलिए उनके अल्प बहुत्व नहीं है कि ये केवली कम है या ये ज्यादह हैं? सभी केवलज्ञानी हैं । हां पूर्व भाव को दृष्टि से देखा जाये तो वहाँ यह देखना होगा कि कौन मुनि कितने ज्ञान वाले थे और वे तपश्चरण कर सिद्ध हुये हैं तो कोई दो ज्ञान पाकर सिद्ध हुवे हैं कोई चार ज्ञान पाकर सिद्ध हुये, कोई तीन ज्ञान पाकर सिद्ध हुये । यहाँ केवलज्ञान को नहीं कहा जा रहा । केवलज्ञान से तो सिद्ध होते ही हैं, उसकी बात पहले कह दी है, पर शेष बचे जो चार ज्ञान उनकी चर्चा चल रही है । जो केवल दो ज्ञान पाकर केवली होकर सिद्ध हुये हैं वे सबसे थोड़े हैं, उनसे संख्यातगुने चार ज्ञान पाकर, केवली होकर होने वाले सिद्ध हैं उनसे संख्यातगुने तीन ज्ञान पाकर श्रेणी में चढ़कर केवली होकर सिद्ध हुये हैं । जो दो ज्ञान से सिद्ध हुये हैं वे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान है, जो चार ज्ञान से सिद्ध हैं वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान वाले हैं । जो तीन ज्ञान से सिद्ध हुये हैं वे या तो मति, श्रुत, मन: पर्यय से बढ़कर हुये हैं या मति, श्रुत, अवधि से बढ़कर हुये हैं । इन सबको अगर विशेष दृष्टि से अल्प बहुत्व में देखा जाये तो सबसे कम है मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन तीन ज्ञानों को पाकर होने वाले सिद्ध । उनसे संख्यातगुना हैं मतिज्ञान ओर श्रुतज्ञान से होने वाले सिद्ध । उनसे संख्यातगुने हैं मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान इन चार ज्ञानों से होने वाले केवली । और सबसे अधिक हैं मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान से होने वाले सिद्ध । इस विशेष में ओर पहले कहे गये सामान्य में यों विरोध नहीं है कि पहले तीन ज्ञानों से सिद्ध होने वालों को बात कही थी, अब वे तीन ज्ञान कौन से हैं? सो वे दो विकल्प वाले हैं इसलिए यह विशेष बताना पड़ा ।
अवगाहना अंतर व संख्या की दृष्टि से सिद्ध भगवंतों का परिचय―अवगाहना की दृष्टि से सबसे कम जघन्य अवगाहना से होने वाले सिद्ध हैं । उनसे संख्यातगुने उत्कृष्ट अवगाहना से होने वाले सिद्ध हैं और उनसे संख्यातगुने मध्य की अवगाहना से होने वाले सिद्ध हैं । उस मध्य में भी यवमध्यसिद्ध उत्कृष्ट अवगाहना से होने वाले सिद्ध से संख्यातगुने हैं । उनसे संख्यातगुने हैं नीचे के यवमध्य सिद्ध, उनसे संख्यातगुने हैं ऊपर के यवमध्य सिद्ध । यव के आकार में एक रचना बतायी जाती है, उसमें संकेत रहता है नीचे मध्य और ऊपर के यव के । उसके अनुसार इनकी संख्या कही गई है । अंतर की दृष्टि से अंतर व अनंतर दो दृष्टियों से परखा जावेगा । अनंतर की दृष्टि से वे सिद्ध सबसे कम हैं जो 8वें समय के अनंतर सिद्ध हुये हैं । यदि 6 महीने तक कोई सिद्ध न हो तो 8 समयों में 608 सिद्ध हो जाते हैं । तो ऐसे कभी 8 समय में सिद्ध हुये हैं तो उसके बाद सिद्ध होने का नंबर बहुत समय तक नहीं आ पाता है, और कोई 8 समय के बाद ही सिद्ध हुये हैं तो बहुत कम हैं । उससे संख्यातगुने 7 समयों के अनंतर होने वाले सिद्ध हैं । जैसे कि 8 समयों में 608 जीव बताये हैं, उनमें से यह 7वाँ समय कहा जा रहा है और उसके बाद जो सिद्ध हैं याने 8वें समय में जो सिद्ध हुये हैं वे संख्यातगुने हैं ही । इस प्रकार छठवें समय के अनंतर होने वाले सिद्ध संख्यातगुने हैं, ऐसा घटित कर दो समय तक जानना चाहिये । यह तो अनंतर सिद्ध की बात कही गई है । अब अंतर सिद्ध का बात सुनो, अर्थात बीच में कुछ समय का अंतर देकर जो सिद्ध हुये हैं उनकी चर्चा सुनिये―6 माह के अंतर से जो सिद्ध होते हैं वे सबसे कम हैं । उससे संख्यातगुने एक समय के अंतर से होने वाले सिद्ध हैं । उनसे संख्यातगुने भवमध्य के अंतर से होने वाले सिद्ध हैं, उनसे संख्यातगुने नीचे के भवमध्य के अंतर से होने वाले सिद्ध हैं । उनसे विशेष अधिक ऊपर के भवमध्य के अंतर से होने वाले सिद्ध हैं । अब संख्या की दृष्टि से सिद्धों में अल्प बहुत निरखिये इस संख्या से प्रयोजन यह है कि एक समय में कितने जीव सिद्ध होते हैं? तो एक समय में 108 सिद्ध होने वाले सबसे कम हैं । अर्थात यह मौका कभी-कभी आता है कि 6 महीने का अंतर पड़े और जीव 8 समय में मुक्त जायें, उनमें 108 सिद्ध 8वें समय में जाते यह ऐसा अवसर बहुत कम हाता है, इस कारण एक ही समय में 108 सिद्ध हुये हों, ऐसे मिलकर जितने भी सिद्ध हैं वे सबसे कम हैं । फिर 108 से लेकर 50 तक जो एक समय में सिद्ध हुआ करते हैं वे उनसे अनंतगुने हैं और 49 से 25 तक होने वाले सिद्ध असंख्यातगुने हैं और 24 से 1 तक सिद्ध होने वाले संख्यातगुने हैं, इस प्रकार क्षेत्र, काल आदिक अनुयोगों में अल्प बहुत्व बताया गया है ।
चार घातिया कर्मों के विप्रमोक्ष से आर्हत अवस्था का लाभ―इस दशम अध्याय में मुख्यतया यह बात बतायी गई है कि तत्त्व का परिज्ञान करके विरक्त आत्मा जब आश्रव से रहित हो जाता तो नवीन कर्म संतति तो आयेगी नहीं और इसी संवर निर्जरा के कारणों से पूर्व के उपार्जित कर्मो का क्षय होता जाता है । तो एक समय वह आता है कि संसार का बीजभूत मोहनीय कर्म पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है । मोहनीय के नाश हुये बाद जिसका कि पूर्ण विनाश 10वें गुणस्थान में है उसके पश्चात् 12वें गुणस्थान में आकर अंतराय ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये तीनों कर्म एक साथ नष्ट होते हें । सो मोहनीय के क्षय होते ही शेष घातिया कर्म नष्ट हो गये । इसके अनंतर ही वे केवली भगवान हो जाते हैं, उनके चार घातिया कर्म नहीं है, यथाख्यात संयम है । मूल कोई बंधन रहा नहीं, परमेश्वर है और परिपूर्ण ज्ञान में स्नान किये हुये है । यद्यपि उनके शेष अघातिया कर्म का उदय है तो भी ये परिपूर्ण हैं शुद्ध हैं, सर्वज्ञ हैं, अठारह प्रकार के दोषों से रहित हैं, ये जिनेंद्र कहलाते हैं ।
अघातिया कर्मों का क्षय होते ही निर्वाण लाभ व लोकांत तक पहुंच―अरहंत भगवान शेष अघातिया कर्मों का क्षय होने पर निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं । जैसे जली हुई अग्नि यदि ईंधन आदिक उपादान न रहे तो वह बुझ जाती है ऐसे ही वे अघातिया कर्म उनके पनपने का अब कोई भाव न रहा तो वे नष्ट हो जाते हैं, और सर्व कर्मों के नष्ट होते ही वे निर्वाण को प्राप्त होते है । जैसे बीज जल जाये, खाक हो जाये तो क्या उस बीज से अंकुर उत्पन्न हो सकता? नहीं हो सकता, इसी प्रकार कर्म बीज के जल जाने पर क्या संसाररूपी अंकुर उत्पन्न हो सकता? नहीं हो सकता । सो जैसे ही अष्ट कर्म नष्ट हुये कि ऊर्द्धगमन स्वभाव के कारण ये सिद्ध भगवान लोक के अंत तक गमन करके पहुंच जाते हें, और उसमें कारण बताया गया है पूर्व का प्रयोग, संग से रहित होना, बंधन का छेद हो जाना और ऊर्द्धगमन का स्वभाव रहना, इसके लिये चार उदाहरण बताये गये हैं, जिससे यह सिद्ध है कि सिद्ध भगवान निर्लेप होने से, बंधन रहित होने से अथवा ऊर्द्धगमन स्वभाव से ऊपर ही जाकर लोक के अंत तक पहुंचते हैं, वहाँ विराजमान रहते हैं । संसार में जो टेढ़ी-तिरछी गतियाँ देखी जा रही हैं ये आयु कर्म से प्रेरित होने से हो रही हैं । कर्म दूर होने पर ऊर्द्धगमन ही होता है, जैसे परमाणु में भीतो लोक के अंत तक पहुंचने की शक्ति होती है, गति भी होती है । तो वह परमाणु जब अकेला रह गया तब उसमें इतनी शक्ति प्रकट हुई है, ऐसे ही यह जीव जब तक कर्म और शरीर के बंधन में था तब तक तो यह गौरव युक्त था, संसार में रुलता था । जहाँ यह कर्म और शरीर का संबंध छूटा और एक परमाणु की तरह अकेला ही रह गया तो इस मुक्त जीव में भी ऊर्द्धगमन की बात बनती है ।
कृत्स्न कर्म विप्रमोक्ष होते ही परमात्मा का ऊर्ध्वगमन से सिद्ध शिला―कर्म का विनाश पहले हुआ या निर्वाण पहले हुआ? यद्यपि कहने में ऐसा आता है कि कर्म का विनाश पहले हुआ, निर्वाण बाद में हुआ, पर यथार्थतया कर्म का विनाश जिस समय हुआ उसी समय निर्वाण कहलाया । जैसे प्रकाश उत्पन्न हुआ और अंधकार नष्ट हुआ, तो उनमें पहले क्या हुआ? क्या प्रकाश पहले पैदा हुआ फिर अंधकार नष्ट हुआ या अंधकार पहले नष्ट हुआ, प्रकाश बाद में हुआ? कहने में ऐसा ही आयेगा कि प्रकाश पहले हुआ, अंधकार बाद में नष्ट हुआ, पर यथार्थतया जो उसका समय प्रकाश होने का है वही समय अंधकार के नष्ट होने का है । ऐसे ही जो समय निर्वाण होने का है वही समय कर्म के विनाश का है । इस ढाई द्वीप के ऊपर लोक के शिखर पर अतीव मनोज्ञ सुरभित पवित्र देदीप्यमान प्रागभारा नाम की पृथ्वी है, जिसका दूसरा नाम सिद्धशिला है, इस पर सिद्ध नहीं विराजे होते, किंतु इस ही की सीध में थोड़े ही ऊपर तनुवातवलय में सिद्ध भगवंत विराजे हैं, सो सिद्ध भगवान के स्थान से नीचे सबसे पहले यह प्रागभारा पृथ्वी आती है । इसका दूसरा नाम अष्टम भू है 8वीं पृथ्वी । यह मनुष्य लोक के बराबर विस्तार वाली है । जितना ढाई द्वीप का क्षेत्र है उतना ही विस्तार इस 8वीं पृथ्वी का है । शुभ है, शुक्ल वर्ण है और छत्र के समान इसका आकार है । इस पृथ्वी से ऊपर सिद्ध विराजे होते हैं, जो कि इस पृथ्वी से अंतर पाकर विराजे हैं । ये सिद्ध भगवान केवलज्ञान, केवलदर्शन, सम्यक्त्व और सिद्धपना इनसे युक्त है और अब इनका क्रिया नहीं होता, ये अनंत काल के लिये निष्क्रिय हो गये । सिद्ध भगवंतों का इस लोक के बाहर क्यों गमन नहीं है इसके लिये सूत्र बताया गया है कि धर्मास्तिकायाभावात् चूंकि लोक से बाहर धर्मास्तिकाय का अभाव हें इस कारण है इस कारण यहीं तक गति है । यद्यपि समस्त द्रव्य अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता से अपने में परिणमन करते हैं, पर यह निमित्त नैमित्तिक भाव संसार में स्पष्ट दिख रहा है । उस निमित्त को पाकर उपादान अपनी योग्यता से अपने आपमें परिणति करता है ।
सिद्धों के अविनाशी अनंत आनंद की निरूपमता―जो बात नवीन हो पहिले से विलक्षण हो उसमें कोई निमित्त कारण अवश्य होता । सिद्ध सुख अविनाशी है । विषयों से अतीत है, उत्कृष्ट है । वहाँ विषय वेदना रंच नहीं है । पूर्ण निराकुलता है, इस कारण कर्म और क्लेश के मोक्ष होने से मोक्ष का सुख अनुपम कहलाता है । कोई दार्शनिक इस सुख को सुषुप्त अवस्था के समान मानते हैं । जैसे कोई मनुष्य सोया हुआ है, अचेत है, उसके विकल्प नहीं जग रहे हैं । ऐसे ही सिद्ध भगवान के सुख को समझते हैं । सोये हुए को जैसे कोई दुःख नहीं है । पर इनका कहना यह ठीक नहीं है, क्योंकि सोई हुई अवस्था में दर्शनावरण कर्म के उदय से एक ऐसी बेहोशी जैसी दशा हुई है और वह तो मोह के विकार रूप है । वहाँ सुख नहीं कहा जा सकता और कितने ही लोग तो सोये हुए की स्थिति में ही दुःखी होते हैं । स्वप्न निरखते हैं । पर सिद्ध भगवंतों में तो उत्कृष्ट परम आत्मीय आनंद है । निराकुल स्थिति है । संसार में कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं जिससे सिद्ध भगवंतों के सुख की उपमा दी जाए । न उनके सुख का अनुमान किया जा सकता हो, न उनके सुख का कोई चिह्न दिखाकर बताया जा सकता । उनका सुख तो निरूपम है । ये भगवान अरहंत देव के वचन हैं । और हम आप सब छद्मस्थ अरहंतों के वचन प्रामाण्य से उनके अस्तित्व को समझते हैं और भीतर अनुभव से भी हम सिद्ध भगवंत का परिचय पाते हैं । इस प्रकार इस दशम अध्याय में मोक्षतत्त्व का वर्णन किया । अब इस संपूर्ण मोक्ष शास्त्र में किस तत्त्व का प्रारंभ किया था और किस तरह ये निर्वाण को प्राप्त होते हैं, उसका प्रायोजनिक वर्णन संक्षेप में किया जा रहा है ।
तत्त्वार्थ सूत्र ग्रंथराज में संसार-संकटों से छुटकारा पाने के मार्ग का दिग्दर्शन―इस ग्रंथ में संसार के संकटों से सदा के लिए छुटकारा पाने का मार्ग बताया गया है, वह मार्ग है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का एकत्व होना । सम्यग्दर्शन का अर्थ है―जीवादिक 7 पदार्थों का सही श्रद्धान होना, सहज आत्मस्वरूप का अनुभव पूर्वक प्रतीति होना । सम्यग्ज्ञान का अर्थ है―जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसको उसी रूप से जानना । सम्यक्चारित्र का अर्थ है―निज सहज आत्म स्वरूप में उपयोग का मग्न होना । तो यह जीव निसर्गज अथवा अधिगमज इन दो सम्यक्दर्शनों में से किसी प्रकार का सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है । जिसमें शंका आदिक कोई दोष नहीं होते । प्रशम संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य की जहाँ अभिव्यक्ति होती है । ऐसे विशुद्ध सम्यग्दर्शन की उपलब्धि से ज्ञान भी निर्मल होता है । यो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान दोनों को यह जीव एक साथ प्राप्त कर लेता है । सम्यग्दर्शन द्वारा यह आत्मा निक्षेप, प्रमाण, निर्देश सत् संख्या आदिक उपायों से जीव के भावों को जानता है, जो भाव 5 प्रकार के कहे गए―(1) औदयिक (2) औपशमिक (3) क्षायिक (4) क्षायोपशमिक (5) पारिणामिक । इनको जान कर औदयिक आदिक भावों के आश्रयभूत चेतन अचेतन भोगों के साधनों का परिहार करता है ।
सम्यग्ज्ञानी का वैराग्य में वृद्धि हो होकर अंत में संकट मुक्त होकर निर्वाण―इस सम्यज्ञानी के ज्ञान में यह बात स्पष्ट बसी है कि ये समस्त भोग साधन उत्पन्न होते, विलीन होते, स्थिर नहीं रहते । अत: वे सभी भोग साधनों से विरक्त रहते हैं । इनके किसी भी बाह्य पदार्थ के विषय में तृष्णा नहीं जगती । ये 3 गुप्तियों से सुरक्षित रहते हैं । पंच समितियों का पालन करते हैं । इस लक्षण धर्म का धारण करते है, और धर्म के फल तीर्थंकर आदिक के देख लिए जाने से वे निर्वाण की प्राप्ति के उपाय में प्रयोगात्मक विशिष्ट दृढ़ होते हैं । इनका श्रद्धा सम्वेग भावना प्रबल रहती है । अनुप्रेक्षाओं के द्वारा ये अपने चित्त को स्थिर करते हैं । ऐसा ये संवरस्वरूप आत्मस्वभाव के आश्रय से निराश्रव होते हैं अर्थात नवीन कर्म का आस्रव नहीं आता, ये साधु परीषहों के जय से अंतरंग बहिरंग तपश्चरणों के अनुष्ठान से यह पूर्व उपार्जित कर्मों की निर्जरा करता रहता है । सामायिक छेदोपस्थापना चारित्र को धारण करना इसी की ही वृद्धि के फल में सूक्ष्मसंवरण चारित्र प्राप्त करना होता है । यह संयम में उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है । और पुलाक आदिक मुनिजनों के संयम के साधन वृद्धि को प्राप्त होते है । इस भव्यात्मा के आर्त रौद्र ध्यान तो रंच भी नहीं रहें और धर्मध्यान के द्वारा यह मोक्षमार्ग में विजयशील हो रहा है, समाधि का बल प्राप्त कर लेता है । वहाँ शुक्लध्यान के प्रथम 2 पायों में से प्रथम ध्यान में रहता हुआ नाना प्रकार के ऋद्धि विशेष से युक्त होता हुआ और उन ऋद्धि विशेष में रंच भी चित्त न देता हुआ मोह आदिक कर्मों का क्षय कर लेता है ।
जीव अजीव आस्रव बंध संवर निर्जरा मोक्ष तत्त्व का निर्देश―जीव कैसे निर्वाण प्राप्त करे उसके निर्वाण आदिक लाभ में कैसे तत्त्वज्ञान की आवश्यकता है, जिस तत्त्वज्ञान के पूर्व क्या-क्या ज्ञान चाहिए, उन सबका वर्णन इस ग्रंथ में किया गया है । जब तक लोक व्यावहारिक बातों का स्पष्ट परिचय न प्राप्त कर ले तब तक दिलचस्प होकर परमार्थ तत्त्व के जानने का उपाय करने को उत्साहित नहीं हो पाते । मुख्य दो तत्त्व हैं जीव और अजीव, और जब आत्मा के विषय में उन्नति की पद्धति से जीव और अजीव इन मौलिक दो विषयों में परिचय पाना है तो यहाँ अजीव के मायने कर्म हुआ । जीव एक स्वतंत्र पदार्थ है । कार्माण वर्गणाएं जिसमें अनेक अनंत परमाणु हैं, प्रत्येक परमाणु द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व है । परमाणुओं में पुद्गल में ऐसा ही स्वभाव है कि वे परस्पर बंध होकर एक स्कंध दशा में भी आ जाते हैं । सो अब यहाँ 2 बातें सामने हुईं जीव और कर्माणवर्गणाएं दोनों का अपने आप में परिणमन है, पर ऐसा निमित्त नैमित्तिक योग है परस्पर कि जीव के अशुद्ध भावों का निमित्त पाकर कार्माणवर्गणाएं स्वयं कर्मरूप से परिणम जाती हैं और उन बद्धकर्मों के उदय का निमित्त पाकर जीव स्वयं विकाररूप परिणम जाता है । यह प्रकृति ऊनादि से चली आ रही है । इस प्रक्रिया को समाप्त करने में बड़ा आत्मपौरुष चाहिए । तब आत्मपौरुष का वर्णन संवर और निर्जरा तत्त्व के वर्णन में बताया गया है । चूंकि संवर निर्जरा का कारणभूत शुद्धभाव है । अशुभोपयोग पूर्वक नहीं होता, उससे पहले शुभभाव का होना अनिवारित है । इसी कारण शुद्धभाव होने से पूर्व होने वाले वृत आदिक शुभभावों का इसमें वर्णन किया गया है जैसे कर्मबंध और विकार परस्पर निमित्त नैमित्तिक योग से फलते रहते हैं ऐसे ही शुद्धभाव और संवर निर्जरा इन दोनों में भी परस्पर निमित्त नैमित्तिक भाव है । जीव के शुद्ध भावों के अभ्युदय का सुयोग पाकर पूर्वबद्ध कार्माणवर्गणाएं अपनी कर्मरूप अवस्था को तजकर अकर्मरूप दशा में आती है और जैसे ही ये कार्माणवर्गणायें कर्मरूप दशा को तजकर अकर्म दशा में आ जाती हैं । सो इस स्थिति का सुयोग पाकर शुद्ध गुणों में विकास हो जाता है।
प्रभु के ज्ञान लक्ष्मी का विलास―कर्मो का क्षय और आत्मा के शुद्ध परिणाम का अभ्युदय इन दोनों में उत्पत्तिकाल में परस्पर निमित्त नैमित्तिक योग है । हाँ एक बार शुद्ध गुण विकास हो जाने पर आगे अब निमित्त की आवश्यकता नहीं रहती । हाँ सामान्य कालद्रव्य निमित्त है । सो वह तो सभी पदार्थों के परिणमन का सामान्यतया निमित्त है । धर्मादिक अनादि सिद्ध द्रव्यों के परिणमन में भी कालद्रव्य का परिणमन निमित्त है, अतएव उस सामान्य निमित्त की चर्चा की नहीं जाती, क्योंकि वह तो सर्वत्र निमित्त है ही, पर जो कभी निमित्तरूप बन जाये, कभी न बने, कभी नष्ट हो जाये उस निमित्त को चर्चा की जाती है । यह जोव मोह का विनाश करके सर्वज्ञ को ज्ञान लक्ष्मी का अनुभव कर लेता है । लक्ष्मी नाम वास्तव में ज्ञान का ही है । आत्मा की लक्ष्मी ज्ञान है । लक्ष्मी का अर्थ है चिह्न । लक्षण लक्ष्म लक्ष्मी तीनों एक ही धातु से बने । एक ही अर्थ को उद्योतित करते हैं । तो आत्मा का लक्षण क्या है? ज्ञान । उस ज्ञान का जो संपूर्ण विकास है उसको ज्ञानलक्ष्मी कहते हैं । तो प्रभु सर्वज्ञ देव परिपूर्ण ज्ञानलक्ष्मी से शोभायमान हैं । प्रभु का सर्वज्ञता का जिसे श्रद्धान है उसे कहीं अधीरता नहीं जगती । जो जो बात हुई है, जो घटनायें होगी, जो वर्तमान घटनाएं चल रही हैं तीन लोक तीन काल संबंधी समस्त पदार्थ प्रभु के ज्ञान में ज्ञात हो रहे हैं । यह एक आत्मा का स्वभाव है कि ज्ञान लक्षण जब पूर्ण विकसित होता है तो समग्र पदार्थ ज्ञान में ज्ञेय होते ही हैं । हाँ जहाँ मोह न रहा, विकल्प न रहा वहाँ सर्व ज्ञेयवों को जानकर कोई तरंग नहीं उठती, विकल्प नहीं जागता । इसलिए जैसा कि हम लोग जाना करते हैं उस प्रकार का ज्ञान तो वहां नहीं चल रहा जिससे कि लौकिकजन शीघ्रता से उस सर्वज्ञता के स्वरूप को जान सके, पर ज्ञान सबका है, विकल्प तरंग रंच नहीं है । इसलिए समझिए कि वह एक सामान्य रूप से सब कुछ ज्ञात हो रहा है । ज्ञात सब हो रहा है । तब यह ज्ञानी पुरुष यह धीरता रखता है कि जो कुछ होगा वह सब ज्ञान में ज्ञात हो चुका है और वह होगा, ज्ञात हो चुका इस कारण न होगा । न भगवान ने स्वयं मर्जी से ऐसा जाना कि जैसा जाने वैसा होने लगे । याने वहाँ होने न होने का कुछ आधार न हो और ज्ञान में जाना गया इसलिए हो रहा यह बात रच नहीं है, किंतु अपने कारणकलाप से जो घटना जिस प्रकार होगी वह उन कारण कलापों पूर्वक उस प्रकार चलेगी । बस ज्ञान स्वच्छ है इसलिए ज्ञान में सब ज्ञात हो गया है अर्थात सर्व पदार्थ मात्र विषयभूत हैं । तो उस सर्वज्ञ की ज्ञान लक्ष्मी में ऐसा बल है ऐसी स्वच्छता है कि जिसके प्रताप से ये प्रभु सहज अनंत आनंद का अनुभव करते रहते हैं ।
सिद्ध सदृश अवस्था की उपादेयता―भव्यात्मा अपने बारे में ऐसी ही शुद्ध अवस्था को चाहता है । उस शुद्ध अवस्था से पूर्व संसार की इन विकार दशाओं में कुछ भी तत्त्व नहीं है । यह ही जीवों के लिए संकट है जो विकारभाव जग रहे । चाहे थोड़ा इष्ट समागम मिलकर कल्पित सुख की दशा बने या कल्पित इष्ट का वियोग हाकर यह अपने में कष्टरूप दशा बनाये पर यह सब एक कल्पना से ही कर रहा है । बाहरी पदार्थों से इसमें कोई परिणति नहीं आ रही है इस कारण इन किन्हीं भी दशाओं में आनंद नहीं है । आनंद तो आत्मा के निज आनंद में है । सो ऐसे आनंद का पूर्वकाल में अनुभव किया, समाधि दशा में, जिसके फल से अब प्रभु के अनंत आनंद प्रकट हुआ है । उसी आनंद के बल से शेष कर्मों का क्षय जब हो जाता है तो संसार का बंधन सर्व समाप्त हो जाता है । फिर जैसे अग्नि को ईंधन न मिले तो उपादान रहित होकर अग्नि अर्थात जिस पदार्थ का आश्रय कर के अग्नि बढ़ती रहती थी बहुत ईंधन न मिलने से अग्नि स्वयं शांत हो जाती है ऐसे ही बुरे परिणाम किये हुए भव इसको कष्टरूप अग्नि के लिए ईंधन बन रहे थे । अब उन समस्त भवों का वियोग हो गया । कर्मों का भी विनाश हो गया, तो कारणों का अभाव होने से अब आगे न इसकी शरीर का संयोग होने का है और न कर्मों का संयोग होने का है । सो संसार के समस्त दुःखों का उल्लंघन कर देता है, विनाश कर देता है और अब इसको अनंत निरूपम मोक्ष सुख प्राप्त होता है । किसी भी इंद्रिय का जहाँ प्रयोग नहीं है । इंद्रिय हैं ही नहीं । जहाँ मन के विचार का रंच प्रयोग नहीं है । मन सिद्ध में है ही नहीं, किसी भी प्रकार के रागद्वेष का उठाव जहाँ नहीं है, कर्मरहित होने से सिद्ध में विकार है ही नहीं । तो ऐसी स्थिति में जो आत्मीय आनंद प्रकट होता है वह परम कल्याणरूप है ।
निकट भव्य आत्मा की इंद्रिय ज्ञान व इंद्रियज सुख में अनास्था―कल्याणार्थी जनों को चाहिए कि इंद्रियजंय सुख और इंद्रिय जन्य ज्ञान में आस्था न करके अतींद्रिय सुख और अतींद्रिय ज्ञान के स्वरूप में उपयोग देवें जिससे निर्विकल्प अवस्था प्राप्त हो और सदा के लिए संसार के सारे संकट टल जाएं । इंद्रिय जन्य सुखों को जो हेय मान लेता है वही पुरुष मोक्ष मार्ग में गमन करने का अधिकारी है । इंद्रियाँ भी मिटेगी । ये विषय भी मिटेंगे । और उनमें सुख की कल्पना करने वाला यह परिणमन भी मिटेगा । कुछ भी तो नहीं रहना है । तो जहाँ सर्वत्र माया-माया ही चल रही है । उस सुख में उपादेय की कल्पना होना बहुत बड़ा पाप का उदय समझिये । इंद्रिय जन्य ज्ञान भी हेय है । छुटपुट ज्ञान जो इंद्रिय द्वारा प्राप्त होता है हो से तुच्छ ज्ञानों का आदर होना यह भी एक पाप का उदय है । कोई बड़ा धनी पुरुष जिसका किसी पर लाखों रुपये का कर्जा है और उसको बहुत-बहुत माँगने पर, बड़ा बड़ा दबाव डालने पर वह कहे कि भाई 100-50 रुपये लेकर हमारा सब कर्जा माफ कर दो, तो वह कहता है कि भाई हट ये सौ पचास रुपये भी नहीं चाहिये । जहाँ सब गये वहाँ समझो ये भी गये । चाहिये तो उसे संपूर्ण, नहीं तो तुच्छ में संतोष नहीं करता । ऐसे ही ज्ञानी पुरुष जिन्होंने जान लिया है कि मेरे में ज्ञान अनंत है । उस अनंतज्ञान का आज आवरण है और ये कर्म हमारे इस ज्ञान गुण को ढक कर क्षयोपशम के अनुसार थोड़ा छुटपुट ज्ञान मानो दे रहे हैं तो यह भव्यात्मा इन छुटपुट ज्ञानों में संतोष नहीं करता । मुझे नहीं चाहिये ये ज्ञान, बल्कि ये छुटपुट ज्ञान हमारे दुःख के कारण बनते हैं । जो यहाँ थोड़ा ज्ञान चल रहा है उससे अच्छा तो यह होता कि इन बाह्य पदार्थों का ज्ञान जरा भी नहीं रहता । आत्मा का ज्ञान तो छुड़ाये भी नहीं छूटता । तो यह भव्यात्मा इंद्रियजंय सुखों में और इंद्रिय जन्य ज्ञानों में रंच भी आस्था नहीं करता । इसकी दृष्टि अनंत ज्ञान के निधान आत्मस्वभाव पर रहती है ।
ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व के निरखने से श्रेयोलाभ―यह भव्य आत्मा अपने में निरखता है कि मैं ज्ञानमात्र हूँ । अन्य किसी रूप नहीं हूँ । अनादि अनंत ज्ञान स्वभाव मेरे में तन्मय है । मैं ज्ञानघन हूँ । अपने समस्त प्रदेशों में ज्ञान से ठोस भरा हूँ । है यह अमूर्त पर इसका स्वरूप ज्ञान ज्ञान ही है । ज्ञानमय है यह आत्मा और इसी ज्ञानमात्र ज्ञानघन के अनुभव के प्रसाद से यह भव्यात्मा अपने को आनंदमय अनुभव करता है । मेरे में कुछ कष्ट नहीं, क्यों व्यर्थ अधीर बनूँ । मेरा सर्वस्व मेरा आत्मस्वरूप है । ऐसे स्वभाव की भावना के बल से यह भव्यात्मा वीतरागता की ओर बढ़ता है । परम वीतराग हो जाता है । अरहंत हो जाता है । और अरहंत होने पर आयुकर्म के क्षय होते ही तत्काल शेष तीन अघातिया कर्म से भी निवृत्त हो जाता है और सदा के लिए यह निर्वाण सुख को प्राप्त करता है । इस प्रकार इस ग्रंथ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के उपायों के स्पष्टीकरण से भव्यात्मा को यह प्रेरणा दी गई है कि हे भव्यजनो ! अब मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र को तजकर अपने स्वभाव के श्रद्धान ज्ञान आचरण में आओ और सदा के लिए संसार के समस्त संकटों से छुटकारा पाओ ।
इति मोक्ष शास्त्र प्रवचन, 22,23, 24वां भाग समाप्त ।