वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - गाथा 10-8
From जैनकोष
धर्मास्तिकायाभावात ।। 10-8 ।।
धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोक के बाहर मुक्तात्मा की गति का अभाव―गति के उपग्रह का कारणभूत धर्मास्तिकाय लोक के ऊपर नहीं, इस कारण मुक्त जीवों का अलोक में गमन का अभाव है । यदि धर्मास्तिकाय द्रव्य न माना जाए तो लोक और अलोक का विभाग नहीं हो सकता है । लोक उसे कहते हैं जहाँ छहों द्रव्य हों । अलोक उसे कहते हैं कि जहाँ केवल आकाश हो । तो गमन करने वाले तो जीव और पुद्गल ये 2 द्रव्य हैं । तो ये आगे गमन क्यों नहीं करते कि धर्मास्तिकाय है । धर्मास्तिकाय लोकाकाश प्रमाण ही है । असंख्यात प्रदेशी है । वह जितने में है वह लोकाकाश है । यहाँ एक जिज्ञासा की जा सकती है कि प्रत्येक पदार्थ अपनी योग्यता से परिणमते हैं । किसी भी पदार्थ को अन्य पदार्थ परिणमाता नहीं है । फिर धर्मास्तिकाय ने जीव पर क्या प्रभाव डाला । या धर्मास्तिकाय ने मुक्त जीव पर क्या प्रभाव डाला? समाधान उसका यह है कि यदि एक द्रव्य को ही देखा जाये तो वहाँ यह ही दिखेगा कि यह मुक्त जीव अपनी योग्यता से यहाँ तक गमन कर रहा और यहाँ से आगे गमन नहीं कर रहा और कोई नई बात बनती है तो वह निश्चित है कि किसी निमित्त को पाकर बनती है ।
निमित्तसान्निध्य में अपूर्व अवस्थारूप परिणमने को उपादान में कला का उद्भव―यद्यपि निमित्तभूत द्रव्य उपादान में अपना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, प्रभाव कुछ भी नहीं डालता, लेकिन उपादान में ऐसी ही कला है कि योग्य उपादान किस प्रकार के निमित्त का सन्निधान पाकर किस प्रकार परिणम जाता है । यह उपादान की कला है । सो जीव और पुद्गल में एक कला यह है कि वह धर्मास्तिकाय के सद्भाव का निमित्त पाकर गमन करता है जैसे कि जल में रहने वाली मछली गमन करती है तो जल गमन नहीं कराता, किंतु उस मछली में ही शक्ति है, योग्यता है सो वह अपनी परिणति से ही चलती है, मगर मछली ने यह कला जल का सन्निधान पा कर के खेला है । जहाँ जल का सन्निधान नहीं है । वह मछली कहीं बाहर पटक दी जाए जहाँ पानी नहीं है तो वहाँ वह नहीं चल सकती है । तो जैसे जल ने मछली की गति नहीं करायी और उस गति क्रिया में जब मछली परिणमन कर रही है तो वह परिणमन दूसरे के अधीन नहीं है, पर मछली में वह गतिकला जल के सन्निधान में बनी है, ऐसे ही धर्मास्तिकाय जीवद्रव्य को चलाता नहीं है अधर्मास्तिकाय जीव को ठहराता नहीं है किंतु उस जीव में ही ऐसी कला है कि वह धर्मास्तिकाय के सद्भाव में ही गमन करे । अधर्मास्तिकाय का निमित्त पाकर वह ठहरेगा । तो ये मुक्त जीव कर्मों से मुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन करते हैं और ये जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक गमन करते हैं । आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से उनका गमन नहीं है ।
सिद्ध भगवंतों के विशेष परिचय की जिज्ञासा―अब यहाँ यह जिज्ञासा होती हैं कि जो ये जीव मोक्ष को प्राप्त हुए हैं सो इनके कार्माणशरीर रहा नहीं, औपशमिक आदिक भाव रहे नहीं, तब इसका कुछ स्वरूप, स्वभाव कुछ जानने में व्यक्त रूप से आता नहीं तब यह किसी भी रूप से कुछ बताया जाने के योग्य नहीं है क्या, याने इन सिद्ध भगवंतों के संबंध में कुछ भी व्यपदेश, चर्चा क्या नहीं की जा सकती है? क्या ये सभी सिद्ध हमारे वचन व्यवहार से अतीत हैं? याने हम लोग उनका कुछ वर्णन नहीं कर सकते । इसका स्पष्ट कारण होना चाहिए । तो स्पष्ट कारण यह है कि किसी अपेक्षा से सिद्ध का वर्णन किया जाना शक्य है । वह किस प्रकार, उस ही को अगले सूत्र में कहेंगे । यह जिज्ञासा क्यों हुई कि मुक्त जीव अमूर्त, अखंड स्वभाव जैसा है उसके अनुरूप उनका विकास है । और उस विकास की दृष्टि से एक सिद्ध का दूसरे सिद्ध में कोई अंतर नहीं है । चाहे कोई तीर्थंकर होकर सिद्ध हुआ हो या सामान्य मुनि होकर सिद्ध हुआ हो, पर सिद्ध होने पर वहाँ उनमें परस्पर कोई भेद नहीं है । उसी सिद्ध लोक में रामचंद्र भव का आत्मा भी विराजमान है । हनुमान आदिक का आत्मा भी विराजमान है और ऋषभदेव आदिक तीर्थंकरों का आत्मा भी विराजमान है । सब ज्ञानज्योति हैं । सब अनंत आनंदमय हैं । एक का दूसरे में कुछ भी अंतर नहीं है । इस कारण यह जिज्ञासा हुई । सो सही रूप से, परमार्थ ढंग से तो उनमें अंतर नहीं बताया जा सकता मगर कुछ अपेक्षा है जिससे वहाँ अंतर बताया जाता है वह कौन सी अपेक्षा है उसके लिए सूत्र कहते हैं ।