वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-38
From जैनकोष
व्यंतराणां च ।। 4-38 ।।
व्यंतर देवों की जघन्य स्थिति―और व्यंतरों की भी जघन्य स्थिति 10 हजार वर्ष की होती है । यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि यहाँ जितनी देवों की नारकियों की जघन्य स्थिति कही गई है उनकी उत्कृष्ट स्थिति पहले कही जा चुकी थी । इस कारण जघन्य स्थिति कहना ठीक है, किंतु व्यंतरों की उत्कृष्ट स्थिति अब तक बतायी ही नहीं गई थी । तो व्यंतरों की पहले उत्कृष्ट स्थिति बताना चाहिये, पश्चात् जघन्य स्थिति । ऐसा क्यों नहीं किया गया? समाधान यह है कि सूत्र प्रणाली में लाघव का बहुत ध्यान रखना पड़ता है और उस लघुता के लिये ये जघन्यादिक कहे गये हैं । उत्कृष्ट स्थिति आगे कहेंगे । यदि यहाँ उत्कृष्ट स्थिति पहले कह देते तो आगे जघन्य स्थिति कहने के लिये 10 वर्ष सहस्र यह शब्द दुबारा कहना पड़ता, और यहाँ कहने से वह पद न कहना पड़ा । इस तरह व्यंतरों की जघन्य स्थिति यहाँ ही कहना उत्कृष्ट रहा । व्यंतर देव भी कम से कम 10 हजार वर्ष की आयु को लिये हुये होते हैं । अब व्यंतरों की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं ।