वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-24
From जैनकोष
शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवंतश्च ।। 5-24 ।।
पुद्गल द्रव्य की द्रव्य पर्यायों का निर्देश―सूत्र का अर्थ है शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, भेद, अंधकार, छाया, आतप और उद्योत वाले पुद्गल हैं अर्थात पुद्गल में ये सब पर्यायें पायी जाती हैं । इस सूत्र में जिन पर्यायों का कथन है वे सब द्रव्य व्यंजन पर्यायें हैं । पर्याय दों प्रकार की होती हैं―(1) गुण व्यंजन पर्याय और, (2) द्रव्य व्यंजन पर्याय । गुण की दशा का नाम गुण पर्याय है और पदार्थ के प्रदेशों की विशेषता का नाम द्रव्य पर्याय है । इस सूत्र में दो पद हैं―अंतिम पद है च और शेष सारा पद एक है । इस पूर्व पद में पहले तो द्वंद्वसमास करके उन सबमें मतुप् प्रत्यय समासित किया है । ये सब 10 पर्यायें है । इन 10 शब्दों का द्वंद्व समास करके फिर उसमें मतुप् प्रत्यय से संबंध कराया गया है, जिसका अर्थ होता है कि पर्यायों वाला, पुद्गल होता है । इन सबका शब्दानुसार अर्थ देखा जाये तो उनका अर्थ एकदम स्पष्ट होता है ।
शब्द और बंध शब्द का निरुक्त्यर्थ―‘शब्द’ शब्द बना है शप धातु से, जिसकी निरुक्ति है शपयति अर्थं आह्वयति इति शब्द: । जो पदार्थ को जताये उसे शब्द कहते हैं पदार्थ के वाचक शब्द हुआ करते हैं । वही अर्थ इस धातु से बनता है । अथवा करण साधन से जो अर्थ किया जाये तो निरुक्ति बनती है―शप्यते येन इति शब्द: जिसके द्वारा व्यवहार किया जाये, संकेत किया जाये उसे शब्द कहते हैं अथवा भाव वचन से अर्थ किया जाये तो निरुक्ति बनेगी शपनमात्र इति शब्द: याने एक सूचन होना सो शब्द है । यह शब्दपर्याय अनेक स्कंधों के मिलने बिछुड़ने से होता है । मुख से भी जो शब्द बोले जाते हैं उनमें भी स्कंधों का मिलना बिछुड़ना मालूम पड़ता है । जैसे कंठ, ओठ, जिह्वा, मूर्धा, तालू दंत आदिक साधन हैं, उनका संबंध होने से संबंध करके वियोग करने से इन सब शब्दों की उत्पत्ति होती है । तो शब्द पुद्गल की द्रव्य व्यंजन पर्यायें हैं । बंध का अर्थ है बंधन, जो बाँधे उसे बंध कहते हैं । यह अर्थ निकला, कर्तृ साधन से । बध्नाति इति बंध: जो बाँधे उसे बंध कहते हैं । बंध ही तो बाँधे रहता है अथवा करण से अर्थ निकला बध्यते असौ इति बंध: । जो बंधा करे वह बंध है । निश्चय से तो बंध ही बंध रहा है अथवा भाव साधन से अर्थ है बंधनमात्र इति बंध:, बंधने का नाम बंध है । दो पुद्गल स्कंध बंध जायें या दो परमाणु बंध जायें तो उसे बंध कहते हैं । बंध होता है मिलने से । और यह मिलना बना है प्रदेशों में इसलिये बंध गुण पर्याय नहीं है किंतु द्रव्य व्यंजन पर्याय है ।
सौक्ष्म्य और स्थौल्य शब्द का निरुक्त्यर्थ―तीसरी पर्याय है सूक्ष्मता । सूक्ष्म शब्द बना है सुच धातु से, जिसकी निरुक्ति है लिंगेन आत्मानं सूचयति इति सूक्ष्म:, चिन्ह से जो अपनी सूचना दे उसे सूक्ष्म कहते हैं । सूक्ष्म पदार्थ स्पष्ट तो दिखते नहीं किंतु किन्हीं चिन्हों से युक्तियों से उसकी पहिचान की जाती है और इसी कारण इसका नाम सूक्ष्म रखा, या करण साधन से अर्थ किया तो सूच्यते असौ इति सूक्ष्म: जो सूचित किया जाये संकेतों के द्वारा परिचय में आये उसे सूक्ष्म कहते हैं । सूक्ष्म पदार्थ स्पष्ट परिचय में नहीं आते किंतु किन्हीं चिन्हों के द्वारा उनका परिचय किया जाता है, युक्तियों से जाना जाता है तो यह कहलाता है सूक्ष्म । अथवा भावसाधन अर्थ करें तो निरुक्ति होगी―सूचनमात्रं इति सूक्ष्म:, सूक्ष्म हुआ वह पदार्थ जो स्पष्ट तो नहीं जाना जा सकता किंतु किन्हीं चिन्हों के द्वारा सूचनमात्न है । सूक्ष्म के भाव को सौक्ष्म्य कहते हैं याने सूक्ष्मता अर्थात सूक्ष्मपना होना यह पदार्थ के गुण की पर्याय नहीं किंतु यह प्रदेश में ही पायी जाती है । कभी प्रदेशों का इस रूप से परिणमन हो कि वह सूक्ष्म हो जाये तो प्रदेश परिणमन होने के कारण सूक्ष्मता पुद्गल की द्रव्य व्यंजन पर्याय है । स्थूलपना, यह भी पुद्गल द्रव्य की द्रव्य व्यंजन पर्याय है । यहाँ निरुक्ति होती है स्थूलयते परिवृंहयति इति स्थूलः, जो सहज मोटा हो उसे स्थूल कहते हैं । और स्थूल के भाव को स्थौल्य कहते हैं । यह स्थूलपना प्रकट ही समझ में आ रहा है कि द्रव्य के प्रदेशों का परिणमन है । पुद्गल में प्रदेश शब्द कहने से परमाणुओं का अर्थ लेना चाहिये । अनेक परमाणु इस रूप से परिणमें कि वह वस्तु मोटा (स्थूल) हो जाये तो वह कहलाता है स्थूलपना ।
संस्थान और भेद शब्द का निरुक्त्यर्थ―संस्थान आकार का नाम है । इसकी निरुक्ति है संतिष्ठते इति संस्थानं अथवा संस्थीयते अनेन इति संस्थान अथवा भावसाधन में संस्थिति: इति संस्थान, जो ठहरता है, वह संस्थान है । यह बात आकार में पायी जाती है । अनेक पदार्थों को जो कुछ रहते हुये, ठहरते हुये देख पा रहे हैं वे आकार रूप से देखे जा रहे हैं । तो संस्थान तो आकार प्रदेश का ही परिणमन है । अनेक प्रदेश किस प्रकार से फैले हैं उन परमाणुओं का किस तरह से विस्तार बना है वही कहलाता है आकार । तो आकार भी पुद्गल की पर्याय है, द्रव्य व्यंजन पर्याय है । भेद अर्थात भेदना, मिली हुई चीजों के खंड करने का नाम पर्याय है, इनकी निरुक्ति है भिनत्ति भिंद्यते भेदनमात्रं व भेद:, भेद होना या जो भेद किया जाये, जो भेद कर डाले वह भेद कहलाता है । भेद भी पुद्गल स्कंधों में प्रदेशों का हुआ, परमाणुओं का हुआ । अनेक परमाणु मिलकर स्कंध बने हुये थे उनका बिलगाव हो गया, यही भेद कहलाया । तो यह भेद नामक पर्याय भी पुद्गल की द्रव्य व्यंजन पर्याय है, क्योंकि यह प्रदेशों में प्रकट हुई है ।
तम: और छाया शब्द का निरुक्त्यर्थ―अंधकार के पर्याय का यहाँ शब्द दिया है तम: अर्थात अंधकार उसका तम: शब्द बना है तमु धातु से, जिसका अर्थ है ताम्यति अथवा आत्मा+दम्यते अनेन अथवा तमनमात्रं तम:, अशुभ कर्मोदय से जो आत्मा को तम दे, जो खिन्न कर दे, अभिभूत कर दे उसे तम कहते हैं, या जिसके द्वारा पदार्थ तिरस्कृत हो जाये, ढक जाये, लुप्त सा हो जाये उसको तम कहते हैं । अंधकार प्राय: इस जीव को प्रिय नहीं है । अंधकार में यह जीव राजी भी नहीं रहता । इस कारण से इसका नाम तम रखा गया है । यह अंधकार पुद्गल की द्रव्य पर्याय है । अर्थात ये ही सब प्रदेश जो अभी प्रकाश रूप से परिणम रहे थे वे ही कारण पाकर प्रकाश परिणमन को छोड़कर अंधकार परिणमन रूप हो गये । तो यह बात प्रदेशों में ही तो हुई, इस कारण इसे कहते हैं द्रव्य व्यंजन पर्याय । छाया―जैसे पेड़ की छाया, मनुष्य की छाया । यह छाया एक तरह की एक नई प्रतिमूर्ति है । पृथ्वी आदिक घन परिणामी के संबंध से देहादिक पर प्रकाश का आक्रमण बनने से उसी के समान आकार द्वारा जो आत्मा को दो रूप कर दे वह छाया है । यहाँ आत्मा से मतलब उस मूर्ति से है, उस देह से है, जिसकी प्रतिमूर्ति हुई है उसे कहते हैं छाया । छाया की निष्पत्ति होती किस तरह है कि प्रकाश में कोई पदार्थ रखा है, या कोई पुरुष ही खड़ा है और उस प्रकाश के निमित्तभूत पदार्थ और उस मनुष्य के बीच में कोई कपड़ा या पाटिया वगैरह आड़े आ जायें तब तो छाया नहीं होती, किंतु उस देह पर प्रकाश पड़ने से उसके उत्तर की ओर जो पृथ्वी आदिक घन पदार्थ पड़े हैं वे उस आकार रूप परिणम जाते हैं । तो मानो वहाँ दो से बन गये, एक खड़ा हुआ पुरुष और एक छाया का बना हुआ पुरुष । तो छाया शब्द में जो धातु है उस धातु से यह अर्थ ध्वनित होता कि वहाँ मानो दो से बन गये । यह छिदिर द्वेधी करने धातु से बनता है जिसकी निरुक्ति है छिनत्ति आत्मानं इति छाया ।
आतप और उद्योत शब्द के निरुक्त्यर्थ―आतप―असाता वेदनीय के उदय से जो आत्मा को सब ओर से तपाये अथवा जिसके द्वारा तपा जाये या तपनमात्र आतप कहलाता है । इसकी निरुक्ति इस प्रकार है―आनयति आत्मानं अथवा आतप्यते अनेन अथवा आतपनमात्रं इति आतप: । आतपन द्रव्य पर होता है, वह प्रदेशों पर ही तो होता है, गुणों में नहीं होता, इस कारण आतप गुण पर्याय नहीं है किंतु द्रव्य पर्याय है, और यह आतप पुद्गल स्कंध की द्रव्य पर्याय है । उद्योत जो उद्योत करे अथवा जिसके द्वारा उद्योत किया जाये या उद्योतनमात्न उद्योत कहलाता है । उद्योतन शीतल प्रकाश को कहते हैं । इसका निरुक्ति अर्थ यह है कि जो निरावरण उद्योत करे, निरावरणं उद्योतयति अथवा उद्योत्पते अनेन अथवा उद्योतनमात्रं इति उद्योत: । ये सब निरुक्तियाँ कर्तृं साधन, करणसाधन व भावसाधन की दृष्टि से की गई हैं । उद्योत अर्थात शीतल प्रकाश द्रव्य पर हुआ है वह प्रदेशों पर हुआ है गुणों में नहीं, इस कारण उद्योत पुद्गल स्कंध की द्रव्य व्यंजन पर्याय है ।
शब्द के भेद प्रभेद―अब इस सूत्र में सर्वप्रथम कहे शब्द के संबंध से कुछ विवरण करते हैं । शब्द दो प्रकार का होता है―(1) एक भाषा रूप और एक अभाषात्मक याने भाषा से विपरीत । भाषात्मक शब्द दो प्रकार के होते हैं―एक अक्षरीकृत दूसरे जो अक्षरीकृत नहीं हो । अक्षरीकृत शब्द शास्त्र को प्रकट करने वाला है और वे शब्द संस्कृत भाषा हैं तो आर्य पुरुषों में व्यवहार के कारण बनते हैं, और यदि संस्कृत से विपरीत भाषा में है तो वे म्लेच्छजनों के व्यवहार के कारण बनते हैं । अब जो अनक्षरीकृत भाषात्मक शब्द हैं अर्थात अवर्णात्मक शब्द हैं जिनमें वर्ण जाहिर नहीं होते वे दो इंद्रिय आदिक जीवों के हैं और उनके कुछ ज्ञान का या उनके भाव का अंदाजा होता है । तो ये भाषात्मक शब्द सभी प्रायोगिक हैं । जिह्वा आदिक स्थानों से प्रयोग किया गया है । अब जो अभाषात्मक शब्द हैं वे दो प्रकार के हैं―(1) प्रायोगिक और, (2) वैश्रसिक । प्रायोगिक का अर्थ है जो किसी वस्तुओं के प्रयोग से संयोग वियोग से कराया जाता है वह प्रायोगिक है, और वैश्रसिक का अर्थ है कि जो किसी पुरुष आदिक के द्वारा प्रयोग तो किया नहीं जाता, किंतु सहज ही संयोग वियोग होने से शब्द बनते हैं वे वैश्रसिक हैं । वैश्रसिक शब्द के उदाहरण हैं कि मेघ आदिक के रगड़ से जो आवाज आती है तड़कना आदिक वे सब वैश्रसिक शब्द हैं । उनका कोई पुरुष प्रयोग तो कर नहीं पाता है । प्रायोगिक शब्द चार प्रकार के होते हैं―(1) तत्, (2) वितत, (3) घन और, (4) सुषिर । ये सब शब्द भाषात्मक नहीं हैं अर्थात किसी ने जीभ कठ आदिक से नहीं बनाया है किंतु अजीव पदार्थों के संयोग वियोग से ये शब्द उत्पन्न होते हैं । जिन्हें मनुष्यादिक करते हैं वे शब्द प्रायोगिक हैं और ये चार प्रकार के कहे गये है । तत नामक शब्द वे हैं जो चमड़े के ढोल आदिक के पीटने से निकलते हैं । वितत शब्द वे हैं जो तारों से उत्पन्न किये जाते हैं जैसे वीणा, तार, वायलन आदिक से जो उत्तम इष्ट प्रिय घोष निकलते हैं वे वितत हैं । घन शब्द घंटा आदिक के बजाने से उत्पन्न होते हैं । सुषिर शब्द बाँसुरी शंख आदिक के निमित्त से उत्पन्न होते हैं । ये सब शब्द पुद्गल द्रव्य की द्रव्य व्यंजन पर्यायें हैं यह प्रसिद्धि की जा रही है ।
शब्द के संबंध में कुछ कल्पित धारणाएं और उनका निरसन―कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि शब्द आकाश का गुण है, पर यह बात युक्त नहीं होती क्योंकि शब्द का टेप आदिक में भरना, भींट आदिक से अभिघात होना, बिजली आदिक के तारों से उसे बढ़ी आवाज में फेंकना ये सब पुद्गल में ही हो सकते हैं । आकाश तो अमूर्तिक है, उस पर यह प्रयोग नहीं चल सकता । कुछ लोगों को यह संदेह है कि शब्द ध्वनियां जो क्षणिक हैं और क्रम से उत्पन्न होती हैं और प्रत्येक शब्द केवल अपनी ही ध्वनि में अपने ही स्वरूप को बता पाता है । तो वे शब्द मिलकर भी किसी अन्य अर्थ को बता नहीं सकते । जैसे किसी ने कमल शब्द कहा तो पहले क फिर म फिर ल बोला गया । जिस समय क बोला तो लोगों ने क समझ लिया और वह ध्वनि खतम हो गई, फिर म बोला गया तो म समझ गया, ल बोलने पर ल समझा गया । अब कोई तालाब में उत्पन्न होने वाले कमल को इन शब्दों से कहे―यह कैसे समझा जाये? यदि इन शब्दों में यह सामर्थ्य है कि वे किसी पदार्थ का संकेत कर सकते हैं तो यह सामर्थ्य प्रत्येक वर्णों में हो गई, फिर प्रत्येक वर्णों से ही पदार्थ का ज्ञान हो जाये और जब एक वर्ण के द्वारा पदार्थ का बोध हो जायेगा तो अन्य वर्णों का बोलना या ग्रहण करना निरर्थक हो जायेगा । तो ये ध्वनियाँ, क्रम से उत्पन्न होती है । इन ध्वनियों का एक साथ मिल जाना यह संभव ही नहीं हो सकता । जब वे ध्वनियाँ क्रम से निकलती हैं, एक साथ हो नहीं सकती तो उनसे अर्थ का ज्ञान कैसे हो सकेगा । इस कारण उन ध्वनियों से प्रकट होने वाले शब्द अर्थ के प्रतिपादन में समर्थ नहीं । अतींद्रिय निरवयव निष्क्रिय कोई शब्द स्फोट स्वीकार करना चाहिये । ऐसा कोई संदेह करते हैं या मानते हैं उनका यह मानना युक्त नहीं है, क्योंकि ध्वनि और स्फोट में कोई संबंध नहीं । जिस शब्द स्फोट को वे व्यंग्य मानते हैं अर्थात ये प्रकट किये जा सकते हैं वे क्या अपने स्वरूप में हैं या नहीं? यदि वे अपने स्वरूप में हैं, तो यह ध्वनि निकलने से पहिले या बाद में वह स्फोट क्यों नहीं पाया जाता, आदिक विचार करने पर यह मानना चाहिये कि शब्द ध्वनि रूप हैं और जिन भाषा वर्गणाओं से ये शब्द निकले हैं उनके मूलभूत अणु नित्य है और ध्वनि अनित्य है । वे पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से नित्य हैं और शब्द पर्याय की दृष्टि से अनित्य हैं ।
वैश्रसिक बंध का विवरण―बंध नामक जो दूसरी द्रव्य व्यंजन पर्याय कही गई है वह बंध दो प्रकार का है―(1) प्रायोगिक और, (2) वैश्रसिक । जो किन्हीं पुरुषों के द्वारा प्रयोग करके बंधन किया जाता है वह प्रायोगिक है और जो सुगम स्वयं बंधन बन जाता है वह वैश्रसिक है । वैश्रसिक बंध दो प्रकार का है―(1) आदिमान और, (2) अनादिमान । स्निग्ध रुक्ष गुण के निमित्त से बिजली, उल्का, जलधारा, इंद्रधनुष आदिक हो जाना यह बंध तो आदिमान है। और जो अनादि वैश्रसिक बंध है वह 9 प्रकार का है―(1) धर्मास्तिकाय बंध अर्थात जितने धर्मास्तिकाय द्रव्य हैं उस विस्तार में स्वयं वह अनादि से बना हुआ है और वह उसका प्रायोगिक रूप है बिखर नहीं सकता, (2) धर्मास्तिकाय देश बंध, (3) धर्मास्तिकाय प्रदेश बंध, (4) अधर्मास्तिककाय बंध, (5) अधर्मास्तिकाय देश बंध, (6) अधर्मास्तिकाय प्रदेश बंध, (7) आकाश अस्तिकाय बंध, (8) आकाश अस्तिकाय देश बंध, ( 9) आकाश धर्मास्तिकाय प्रदेश बंध । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य ये तीनों नित्य अवस्थित द्रव्य हैं । और जितने विस्तार में है उतने ही विस्तार में सतत रहते हैं । यहाँ जो प्रत्येक अस्तिकाय में तीन-तीन बंध भेद किये गये हैं सो बात तो एक ही है द्रव्य अखंड है किंतु दृष्टि और कल्पना के अनुसार संपूर्ण वस्तु को देखना वह संपूर्ण धर्मास्तिकाय है । उसका आधा देश कहलाता है और उस देश का आधा प्रदेश कहलाता है । अथवा और भाग भी प्रदेश कहलाते हैं । इसमें यद्यपि विछोह कभी नहीं होता और इस कारण ये बंध भी क्या कहा जाये, लेकिन ये सब इतने विस्तार में हैं इस दृष्टि से निरखकर ये अनादि वैश्रसिक बंध कहलाते हैं । काल द्रव्य में बंध नहीं होता । हाँ वह आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालद्रव्य है और जहाँ है वहीं ही सदा रहता है, ऐसा वैश्रसिक संबंध अनादि है । जीव के भी जितने प्रदेश हैं उनका यद्यपि संकोच विस्तार हुआ करता है ऐसा स्वभाव है तो भी परस्पर वियोग नहीं देखा जाता । इस दृष्टि से वह भी अनादि बंध है इसी तरह नाना जीवों की दृष्टि से देखा जाये तो । यह सारा लोक अनंत जीवों से खचित है और पुद्गल द्रव्यों में भी सामान्यतया स्कंधों की दृष्टि से देखें तो वह भी खचित है, इस कारण वहाँ भी अनादि बंध कह सकते हैं, पर व्यक्तिगत रूप से नहीं कहा जा सकता । किंतु कोई जीव कहीं भी है, कहीं जन्म लिया, कहीं विहार करता है पर कहीं भी विहार करे, जीव का खाली क्षेत्र में तो विहार होता नहीं । यों मनुष्य देव आदिक जीवों की अपेक्षा कहा गया है । इस तरह सभी द्रव्यों में बंध संभव है, पर यहाँ प्रकरण है पुद्गल द्रव्य का । यह बंध पुद्गल द्रव्य में घटित करना है अभी ये सब वैश्रसिक बंध कहे गये । विश्रसा का अर्थ है स्वभाव, जो स्वतः हो वह वैश्रसिक है याने स्वाभाविक ।
प्रायोगिक बंध का विवरण―प्रायोगिक का अर्थ है किसी जीव के द्वारा प्रयोग करके जो विधि बने अर्थात शरीर, वचन, और मन के संयोग से जो बंधन बनाया जाये वह प्रायोगिक है । और प्रायोगिक बंधन दो प्रकार का होता है । एक तो अजीव और अजीव में ही बंधन होना, दूसरा जीव और अजीव में बंधन होना । जैसे काष्ठ में लाख का बंधन किया, दो कागजों को गोंद से चिपकाया आदिक अजीव-अजीव में जो बंधन किया जाता है वह है अजीव विषयक बंधन । कर्मों में भी परस्पर ही बंध होता है और वह है अजीव विषयक बंधन । पहले से सत्ता में स्थित कार्माण वर्गणा में नवीन कार्माण वर्गणायें बंध जाती हैं तो वह भी वस्तुत: अजीव । अजीव में ही बंधन हुआ । शरीर में भी शरीर की ही वर्गणाओं का बंधन है । वे वर्गणायें भी अजीव हैं वह शरीर विषयक बंधन है । ये सब बंधन जो प्रयोग में आते हैं ये पाँच प्रकार के हैं। शरीर बंध की दृष्टि से मूल भेद तो औदारिक वैक्रियक आहारक तैजस और कार्माण इस प्रकार पाँच हैं, पर इन्हीं को संयोगज ढंग बनाकर भेद बनते हैं 15 । औदारिक शरीर नोकर्म का अन्य औदारिक शरीर का नोकर्म से बंध होने पर (1) पहला भंग बना औदारिक, औदारिक शरीर नो कर्म बंध, (2) दूसरा भंग औदारिक और तैजस शरीर परस्पर संबंध से बनता है औदारिक तैजस शरीर नोकर्म बंध । (3) तीसरा भंग बनता है, औदारिक कार्माण शरीर बंध और (4) चौथा औदारिक तैजस कार्माण शरीर बंध यहाँ तीन का संबंध लिया गया है । (5) 5वां बनता है वैक्रियक वैक्रियक शरीर बंध, (6) छठा होता है, वैक्रियक तैजस शरीर बंध (7) सातवां होता है वैक्रियक कार्माण शरीर बंध और (8) 8वाँ हुआ वैक्रियक तैजस कार्माण शरीर बंध (9) नवाँ हुआ आहारक आहारक शरीर बंध (10) दसवां हुआ आहारक तैजस शरीर बंध ( 11) ग्यारहवाँ हुआ आहारक कार्माण शरीर बंध ( 12) बारहवाँ हुआ आहारक तैजस कार्माण शरीर बंध (13) तेरहवाँ होता है तैजस तैजस शरीर बंध (14) चौदहवाँ हुआ तैजस कार्माण शरीर बंध और ( 15) हुआ कार्माण कार्माण शरीर बंध । जैसे कि हम आप मनुष्यों की जो आज स्थिति है, जो शरीर बंधन हैं । उसमें औदारिक तैजस, कार्माण इन तीन शरीरों का बंधन है । किसी स्थिति में कुछ दृष्टि लेकर दो शरीर का संबंध बनाया, इस तरह शरीर के आहार वर्गणाओं का परस्पर में एक दूसरे से बंधन होना यह शरीर बंध कहलाता है ।
बंध के विषय में स्फुट ज्ञातव्य―अब इसके अतिरिक्त शारीरिक बंध के विषय में देखिये―बंधन है उस दृष्टि से दो विकल्प बनते है कि यह शरीर बंध कोई अनादिमान है कोई आदिमान है । जैसे जीव असंख्यात प्रदेशी है तो उन असंख्यात प्रदेशों में बीच के प्रदेश 8 बैठते हैं । कोई संख्या समान है चारों तरफ से समान है तो उसका बीच एक न बैठेगा । जैसे संख्या आठ है तो उसके बीच एक नहीं बैठ सकता । 7 संख्या का बीच एक हो जाएगा क्योंकि चौथा, तीन एक तरफ तीन एक तरफ किंतु जो समान संख्या होगी वहां बीच एक नहीं हो सकता । चारों ओर से बीच देखते हैं तो जीव के मध्य प्रदेश 8 रहेंगे । वे 8 मध्य प्रदेश ऊपर नीचे 4-4 रूप से स्थित हैं और वे सदा इस ही तरह रहते हैं । तो यह हो गया अनादि बंध, पर जीवों के अन्य प्रदेशों में संकोच विस्तार चलता रहता है । इस संकोच विस्तार निमित्त कारण कर्मविपाक है, पर संकोच तो जीवों के प्रदेशों का हुआ, तो यह संकोच विस्तार रूप जो बंध है वह आदिमान बंध है । यहाँ कर्म और नो कर्म के संबंध में यह समझना कि जो ज्ञानावरणादिक कर्म हैं वे आत्मा को विकृत परतंत्र बनाने का मूल कारण हैं और कर्म के उदय से होने वाले जो औदारिक शरीर आदिक हैं, जो कि आत्मा के सुख दुःख में बाधक होते हैं वे नोकर्म कहलाते हैं । कर्म और नोकर्म में स्वरूप से भेद हैं, स्थिति से भेद है । नोकर्म की स्थिति तो आयु के अनुसार है और कर्मों की स्थिति शास्त्रों में जुदी बताई ही गई हैं वह सागरों पर्यंत है । औदारिक शरीर अधिक से अधिक तीन पल्य तक टिक सकता है । वैक्रियक शरीर 33 सागर तक टिक सकता है, आहारक शरीर केवल अर्ंतमुहूर्त रहता है । तैजस शरीर 66 सागर प्रमाण टिकता है । कर्मो की स्थिति करोड़ों सागर तक हो जाती है । तो बंध के प्रकरण में ये सारे बंधन दृष्टि में आ जाते हैं । कर्म का कर्म से बंधन, शरीर का शरीर से बंधन, जीव का कर्म शरीर से बंधन, ये सभी प्रकार के बंध हुआ करते हैं, पर यहाँ बंध पुद्गल द्रव्य का ही दिखाया जा रहा रहा है । ये पुद्गल स्कंध की द्रव्य व्यंजना पर्यायें हैं ।
सौक्ष्म्य स्थौल्य संस्थान के भेद पर्याय के विषय में स्फुट ज्ञातव्य―तीसरी और चौथी पर्याय बताई है सूत्र में सूक्ष्मता और स्थूलपना । ये दोनों ही 2-2 प्रकार के हैं । एक अंतिम दूसरा आपेक्षिक । अंतिम सूक्ष्मपना परमाणु में है, आपेक्षिक सूक्ष्मपना बेर, आँवला, आम वगैरह में है । जहाँ अपेक्षा से जाना जाता कि यह इससे सूक्ष्म है, इस प्रकार स्थूलपना तो महास्कंध में है सारा लोक, उससे बड़ा और क्या । आपेक्षिक स्थूलपना बेर आँवला आदिक में पाया जाता है । जब मोटाई की ओर दृष्टि होती है तो आपेक्षिक स्थूलता होती है । जब सूक्ष्मता की ओर दृष्टि होती है तो आपेक्षिक सूक्ष्मता विदित होती है । संस्थान दो प्रकार का है―(1) इत्थं लक्षण ( 2) अनित्थं लक्षण । इत्थं लक्षण का अर्थ है कि जिसके बारे में बताया जा सकता, मुख से कहा जा सकता कि यह ऐसे आकार का है । जैसे गोल, तिकोण, चौकोण, लंबा आदिक किसी भी प्रकार का आकार बता सके, वह आकार तो इत्थं लक्षण हे और जिसका आकार बताया न जा सके किंतु है, दिखता है वह आकार, अनित्थं लक्षण है । जैसे मेघों का आकार । मेघ ऊपर दिखते हैं, उड़ते हैं, उनका क्या आकार बताया जा सकता? भिन्न-2 ढंग के हुआ करते हैं । इस प्रकार ये आकार 2 प्रकारों में पाये जाते हैं । पुद्गल द्रव्य का एक द्रव्य पर्याय है भेद याने मिले हुये में से अलग हो जाना । यह भेद 6 प्रकार का है―(1) पहला भेद है उत्कर जैसे काठ को करोंती आदिक से चीरकर टुकड़े किये जाते हैं वह उत्कर नाम का भेद है । (2) दूसरा भेद है चूर्ण । जैसे जवा गेहूँ आदिक अन्नों का आटा सतुआ आदिक रूप से चूर्ण किया जाता है वह है चूर्ण नाम का भेद । (3) तीसरे भेद का नाम है खंड । जैसे घड़े की खपरिया बन जाती, अटपट अनेक टुकड़े हो जाते, वे खंड कहलाते हैं । (4) चौथा भेद है चूर्णिका । मूंग उड़द जैसी दालों का जो खंड होता है, दाल बनती है । कुछ चूरा भी निकलता है वह चूर्णिका कहलाती है । (5) पांचवें भेद का नाम है प्रतर । जैसे मेघ पटल हैं और उसमें ही कुछ मेध टूटकर दूसरी ओर चले गये तो ऐसा जो बादलों का बिखराव हो जाता है वह कहलाता है प्रतर । (6) छठवां भेद है अणुचटन । जैसे कि कोई तपा हुआ लोहे का पिंड हो और उस पर घन मारे जाते हैं कोई स्फुलिंग से निकलते हैं या कभी आग कोयला में से चटकर स्फुलिंग बनता है वह अणु चटन नाम का भेद है ।
अंधकार व छाया आतप व उद्योत पर्याय के विषय में स्फुट ज्ञातव्य―पुद्गल द्रव्य की एक द्रव्य व्यंजन पर्याय अंधकार कही गई थी । अंधकार नाम है उसका जो दृष्टि का प्रतिबंधक हो, जिसमें देख न सके और इस अंधकार का अपहरण करने वाले कोई प्रकाशक पदार्थ ही होते हैं । यह अंधकार वस्तु के प्रदेश का ही परिणमन है । प्रकाशमान पदार्थ का सान्निध्य पाकर वस्तु प्रकाश रूप में थी । प्रकाशक का अभाव होने पर वस्तु अंधकार रूप में परिणम गई तो यह अंधकार इसी कारण द्रव्य पर्याय कहलाता है । छाया भी पुद्गल की द्रव्य पर्याय है । छाया निष्पन्न कैसे होती कि जहाँ प्रकाश हो और उस प्रकाश का कोई आवरण आ जाये तो जो आवरण रूप है उसका आकार उस सामने की भूमि छाया रूप हो जाती है । जैसे कोई मनुष्य दीपक के आगे, खड़ा हो गया था पुरुष खड़ा था, उसके एक ओर दीपक जला दिया तो उस दीपक प्रकाश का आवरण वह शरीर बन गया और उस शरीर की छाया पड़ती है । छाया दो प्रकार की होती है (1) उसी वर्णादिक के विकार वाली (2) प्रतिबंध मात्र । जैसे दर्पण में या दर्पण जैसे कोई भी निर्मल पदार्थ में मुख आदिक की जो छाया पड़ती है सो उस ही वर्णादिक रूप परिणति होती है । बाल काले हैं तो वे काले ही दिखेंगे । रूप जैसा है वैसा ही दिखेगा । जिस रंग का कपड़ा है उस रंग का ही दिखेगा, तो यह तो है वर्णादि विकार वाली छाया और जो प्रकाश के आवरण मात्र से जो भूमि पर छाया पड़ती है वह केवल एक प्रतिबंध मात्र है उसका केवल आकार रहता है । वर्ण नहीं आता । चाहे लाल रंग का कपड़ा हो, किसी रंग की वस्तु हो उसकी छाया में रंग न आयेगा । केवल एक उतना अंधकार जैसा होगा । यहाँ एक बात जानना चाहिये कि छाया जो पड़ती है सो वह विपरीत मुख वाली पड़ती हे । जैसे कोई मनुष्य पूरब दिशा की ओर मुख करके खड़ा हो और सामने दर्पण को देखे तो दर्पण का प्रतिबिंब पूरब की ओर मुख वाला न रहेगा । अगर ऐसा होता तो प्रतिबिंब में मुख दिख ही न सकता था । प्रतिबिंब में मुख पश्चिम की ओर हो जाता है । इसी प्रकार सभी आकार प्रकार विपरीत दिशा में छाया रूप में रहते हैं । ऐसा क्यों होता है? यह एक निर्मल दर्पण आदिक पदार्थ का परिणमन ही इस प्रकार है । यहाँ एक दार्शनिक शंका करता है कि दर्पण देखने से कहीं दर्पण की छाया नहीं दिखी, किंतु देखने वाले पुरुष के नेत्र से किरणें निकली और दर्पण से टक्कर खाकर वापिस आती हैं तो वे ही वापिस आयी हुई किरणें सीधे अपना मुख देख लेती हैं । दर्पण में कोई प्रतिबिंब नहीं होता । इस शंका के समाधान में प्रथम तो यह कहना है कि यदि वे किरणें वापिस आयें और वे अपना सही मुख देख लें तो वह मुख विपरीत न दिखना चाहिये । जिस दिशा में है उसी दिशा में रहते हुए दिखना चाहिए । पर प्रतिबिंब वाले दर्पण में तो मुख दूसरी ओर दिखता है । मनुष्य का मुख पूर्व में है । दर्पण में मुख पश्चिम को हो जाता है, तो मुख दर्पण में ही दर्पण के ढंग से, दर्पण के परिणमन विशेष से प्रतिबिंब रूप हुआ है, और यदि किरणें टक्कर खाकर लौटे और वे अपना मुख देख लें तो भींट आदिक से ये नेत्र की किरणें टक्कर खाकर क्यों नहीं अपने को देख लेती, क्योंकि नेत्र की किरणों का आघात तो भींट से भी हो सकता है । तो इससे सिद्ध होता है कि नेत्र से किरणें नहीं निकलती किंतु ये नेत्र तो बिना भिड़े ही दूर ठहरे हुए पदार्थ को देखते हैं । तो पुद्गल द्रव्य की द्रव्य व्यन्जनपर्याय है छाया । जो प्रतिबिंब वाले दर्पण में छाया हुई है वह दर्पण के प्रदेशों की पर्याय है। जो छाया का प्रतिबंध रूप है वह जमीन पर आदि पर है वह जमीन आदि का परिणमन है आतप भी पुद्गल द्रव्य की द्रव्य पर्याय है । यह सूर्य के निमित्त से उष्ण प्रकाश रूप पुद्गल परिणाम होता है । इसी को ही आतप कहते हैं । उद्योत―चंद्रमणि, खद्योत, जुगुनू आदिक का प्रकाश उद्योत कहलाता है । उद्योत उष्ण प्रकाशरूप नहीं होती, किंतु मात्र एक प्रकाश ही उत्पन्न करता है ।
क्रिया रूप पर्यायों का कथन―यहाँ एक शंकाकार कहता हैं कि जब पुद्गल द्रव्य का परिणमन इस सूत्र में बताया जा रहा है और वह भी प्रदेश की मुख्यता से तो क्रिया भी तो पुद्गल द्रव्य का परिणमन है । उसका यहाँ नाम क्यों नहीं लिया गया? इसका उत्तर यह है कि इस संबंध में पहले ही संकेत दे दिया था । जब धर्म अधर्म द्रव्य को निष्क्रिय बतला रहे थे तो स्वयं ही यह बात सिद्ध सो गई थी कि पुद्गल द्रव्य निष्क्रिय नहीं है । उसमें क्रिया होती है । कोई यहाँ यह शंका न करे कि जब धर्म अधर्म आकाश इन 3 द्रव्यों में क्रिया का निषेध किया, बताया कि ये निष्क्रिय हैं इनमें क्रिया नहीं है और उससे यह अर्थ निकाला गया कि पुद्गल में क्रिया होती है । तो यह भी अर्थ निकाल लेना चाहिये कि काल द्रव्य में भी क्रिया होती है । यह शंका यों न करना कि पंचम अध्याय के कुछ पहले प्रकरण में जिन जिनका नाम दिया गया उन्ही में से छटनी की गई है । सूत्र में कहा गया था―अजीवकाया: धर्माधर्माकाश पुद्गला: । धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल 4 की ही चर्चा थी और उस प्रसंग में पुद्गल ही तो रहा । तो उससे पुद्गल में ही क्रियावानपने की सिद्धि हुई । यदि काल को सक्रिय मानना यहाँ इष्ट होता तो जहाँ द्रव्याणि व, जीवा: इतना शब्द दिया था वहाँ काल शब्द भी दे देते, पर काल वहाँ न देकर जो इस अध्याय के अनेक सूत्र निकलने के बाद कालश्च कहा जायेगा, करीब-2 अंत में तो उससे काल द्रव्य की बात सबसे निराली ही समझी जाती है ।
क्रियाओं की दशविधता―क्रिया 10 प्रकार की होती हैं । (1) पहली क्रिया है प्रयोग गति जैसे वाण, चक्र आदि प्रयोग किये जाते हैं या कोई पत्थर आदिक फेंक दिया, यह सब प्रयोग गति कहलाती है । (2) कोई क्रिया बंधाभावगतिरूप होती है । जैसे तेदू के बीज, एरंड के बीज । इनके ऊपर का छिलका जब फटकता है तो बीज की अपने आप गति हो जाती है । (3) कोई क्रिया छिन्न गति नाम की है । जैसे मृदंग, भेरी, शंख आदिक के शब्द जो दूर तक जाते हैं वह छिन्नगति कहलाती है । (4) एक क्रिया अभिघात गति नाम की है । जैसे गेंद को पटक दिया तो पहली बार जो गेंद फेंका वह तो प्रयोगगति में आया मगर जमीन से, भींट से टक्कर खाकर जो गति करती है वह अभिघात गति रूप क्रिया कहलाती है । (5) एक क्रिया है अवगाहन गति । जल में नौका आदिक तैरते हुए जाते हैं वह अवगाहन गति क्रिया कहलाती है । (6) एक क्रिया है गुरुत्वगति । जो वजन दार पदार्थ है ईट पत्थर आदिक उनका जो नीचे की ओर गमन है वह गुरुत्व गति कहलाती है । (7) एक क्रिया है लघुगति । जो अत्यंत हल्के हैं तूमड़ी, रुई आदिक जो कि हवा से उड़ जायें उनकी गति लघुगति कहलाती है । (8) एक गति है संचारगति । जैसे पानी पर तैल गिर गया तो उस ही पर संचरण करता यहाँ वहाँ डोलता है । (9) एक गति है संयोग गति । संयोग से जो गति होती, जैसे वायु के संयोग से मेघ की गति होती, हाथी के संयोग से रथ को गति होती, गाड़ी में बैल जुते हों तो गाड़ी भी चलती है । हाथ के संयोग से मूसल आदिक की भी गति होती है । कोई गेंद का बल्ला हाथ से चला रहा है या कोई मुद्गर घुमा रहा है तो हाथ के संयोग से गति है । ( 10) एक गति है स्वभावगति । जैसे ज्योतिषी देवों की गति, परमाणु का गमन, मुक्त जीव का गमन हवा और अग्नि का गमन । अग्नि में जो ज्वाला चलती है वह उसके स्वभाव से है । इन्हीं सब क्रियाओं के अंतर्गत अनेक क्रियायें हैं । एक क्रिया है तिर्यक्गति । यह वायु में होती है, वायु कभी सीधी गमन नहीं करती, किंतु यथा तथा किसी भी प्रकार तिरछी गमन करती है । एक क्रिया है ऊर्द्धगति । जैसे अग्नि की ज्वाला का गमन ऊपर ही होता है । हां कोई कारण मिला, हवा मिले या किसी घन द्रव्य का रुकाव हो जाये तो वह ज्वाला अन्य दिशाओं में जाती है किंतु स्वयं अपने आपे ज्वाला ऊपर ही चलती है । एक गति है नियतिगति । जैसे, पंप से हवा भरना, किसी वस्त्रादिक से वायु चलाना यह नियत गति है । एक गति है अनियत गति । परमाणुओं की गति अनियत है,, मुक्त जीवों की गति ऊर्द्धगति है । ज्योतिषों का नृलोक में नित्य भ्रमण है ऐसी अनेक प्रकार की क्रियायें हैं, वे सभी द्रव्य व्यंजन पर्याय हैं, क्योंकि वे सब क्रियायें प्रदेशों में ही हुई हैं ।
पर्यायों का द्रव्य से अन्यत्व व अनन्यत्व का प्रकाशन―यहाँ एक शंका होती है कि इस सूत्र में मतु प्रत्यय लगाया गया है और यह प्रत्यय लगता है भिन्न चीजों के साथ जैसे धनवान, छत्ता वाला । ऐसे जो पदार्थ जुदे हों उनके साथ यह प्रत्यय लगता है तो क्या ये पर्यायें पदार्थ से भिन्न चीज हैं? यदि भिन्न हों तब तो ठीक है, अगर नहीं है भिन्न तो यहाँ मतुप् प्रत्यय कैसे लगाया ? भिन्न हो तो यह है नहीं, क्योंकि इससे अलग कोई पुद्गल नहीं दिखता । इस शंका का समाधान यह है कि यह प्रत्यय अभिन्न अर्थ में भी लगता है । जैसे ज्ञानवान । ज्ञान आत्मा से जुदी चीज नहीं है फिर भी प्रयोजनवश स्वरूप से कुछ निराला परखकर वान शब्द लगा दिया है । जैसे सारवान लकड़ी तो लकड़ी का जो सार है वह अलग चीज नहीं है फिर भी वान शब्द लगा है । या आत्मवान पुरुष, पुरुष अलग चीज न होने पर भी यहाँ प्रत्यय लगा है । इसी तरह ये पर्यायें पुद्गल से अलग न होने पर भी यहाँ मतुप् प्रत्यय लग सकता है । और दूसरी बात यह है कि पर्याय का लक्षण है अनित्यपना और पुद्गल द्रव्य का लक्षण है नित्यपना । द्रव्यदृष्टि से पुद्गल नित्य है, पर्याय दृष्टि से चूंकि ये पर्यायें सदा नहीं रहती इस कारण अनित्य हैं । तो कुछ तो भेद पाया गया और इस भेद दृष्टि में उन पर्यायों को जुदा परख लिया । फिर तो मतुप् प्रत्यय लगाने में शंकाकार के भाव के अनुसार भी कोई शंका न रहना चाहिये ।
पुद्गल के चिह्नों को बताने के लिए पृथक् दो सूत्र कहे जाने के प्रयोजन―यहां शंका होती है कि इस सूत्र से पहले सूत्र में कहा गया कि स्पर्श, रस गंध, वर्ण वाले पुद्गल है और प्रकृत सूत्र में शब्द बंध आदिक वाले बताया, तो इन दोनों सूत्रों को एक ही क्यों नहीं कर दिया गया? इसका उत्तर यह है कि सूत्रों को जुदा-जुदा कहने का कोई रहस्य है, और इससे अनेक बातें प्रसिद्ध होती हैं । जैसे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण जो इससे पूर्व सूत्र में बताये हैं वे परमाणुओं के भी होते हैं । और स्कंधों के भी होते हैं, किंतु इस सूत्र में जो शब्द बंध आदिक बताये गये हैं वे स्कंधों के ही होते हैं । अणु के नहीं होते । थोड़ा कोई यह सोच सकता है कि जो ये 10 पर्यायें बताई गई हैं इनमें सूक्ष्मपना तो परमाणु में भी पाया जा सकता, पर उन्हें यह समझना चाहिए कि यहाँ जो सूक्ष्म शब्द दिया है वह आपेक्षिक है । बड़े से छोटा सूक्ष्म है । उससे छोटा हो तो वह सूक्ष्म है । और फिर स्थूलपना तो बताया ही था, वह तो स्कंध में ही होता है । स्थूल का प्रतिपक्षी होने से सूक्ष्म भी बताया गया है । तो समझना यह चाहिये कि जो आत्यंतिक सूक्ष्मता है वह । तो परमाणु में है और जो आपेक्षिक सूक्ष्मता है वह स्कंधों में है । इसके अतिरिक्त यह भी समझना चाहिए कि इससे पूर्व सूत्र में तो गुणों की बात कही गई है और इस सूत्र में द्रव्य पर्यायों की बात कही है । इन दो सूत्रों को पृथक कहने का यह भी कारण है कि यह प्रसिद्धि करना था कि स्पर्शादिक गुणों का एक उस ही जाति में बदल होता है । जैसे स्पर्श गुण अभी कोई शीत पर्याय में है तो प्राय: शीत पर्याय में ही कम शीत अधिक शीत आदिक रूप से परिवर्तन चलेगा और कभी उष्ण रूप से भी परिवर्तन हो जाता उस पुद्गल जाति का तो भी स्पर्श जाति को छोड़ता नहीं, इसी प्रकार रस में भी प्रथम तो किसी एक रस का उसी की डिग्रियों में परिवर्तन चलेगा, कभी अन्य रस रूप भी हो तो रस रूप ही तो हुआ, रस गुण का परिणमन किसी अन्य गुण के परिणमनरूप न होगा, ऐसे ही गंध गुण का परिणमन सुगंध है तो प्रथम तो सुगंध की ही डिग्रियों में कमी बेशी होती रहेगी और कभी दुर्गंध रूप भी वह पुद्गल बन जाये तो गंध जाति का उल्लंघन नहीं किया । ऐसे ही कोई भी वर्ण-वर्ण जाति का उल्लंघन करके नहीं परिणमता । वह विशेषता भी सूत्र के पृथक कहने से ज्ञात होती है । यह भी एक तथ्य है कि पूर्व सूत्र में तो लक्षण कहा गया है जो सब पुद्गलों में पाया जाता । इस सूत्र में पर्यायें कही गई हैं जो कभी किसी के होती हैं ।
सूत्रोक्त च शब्द से अवशिष्ट पर्यायों का ग्रहण―यहां यह भी सोचा जा सकता कि पुद्गल के और भी तो परिणाम शेष रह गये हैं जिनका सूत्रों में उल्लेख नहीं है । जैसे लोचना, लुच जाना, अभिघात होना, दब जाना आदिक भी अनेक परिणमन हैं जो सूत्र में नहीं किए गये हैं । तो यह समझना चाहिए उन सबके संबंध में कि जो भी परिणमन और शेष रह गए हैं उनका च शब्द से ग्रहण हो जाता है । इस प्रकृत सूत्र के अंत में च शब्द दिया है । तो जो और भी ऐसे प्रादेशिक परिणमन शेष रह गये हैं अब उनका यहाँ ग्रहण कर लेना चाहिये । सामान्यतया इतने वर्णन के बाद यह जिज्ञासा होती है कि जब ऐसा योग करण बताया गया है, प्रदेश का परिणमन, स्पर्शादिक गुणों का परिणमन बताया गया है वह जिसके परिणमन है वह क्या केवल परमाणु ही है अथवा स्कंध भी है, ऐसा उन पुद्गलों के संबंध में भेद रूप वर्णन करने के लिये सूत्र कहते हैं ।