वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-14
From जैनकोष
कषायोदयात्तीब्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य ।। 6-14 ।।
(67) चारित्रमोह के आस्रवके कारणों का दिग्दर्शन―कषाय के उदयसे तीव्र बुरे परिणाम होना चारित्रमोहनीय के आस्रव के कारण हैं । जो कषायकर्म पहले बांध रखे थे उनके द्रव्य, क्षेत्र आदिक का निमित्त पाकर उदय होता है वह फल दे लेता है, इसका नाम है उदय । सो ऐसे कषायों के तीव्र उदय से जो संक्लेश परिणाम होते हैं उनसे ऐसे कर्मों का आस्रव होता, बंध होता कि जिसके उदय में आगे भी चारित्रहीन दुःखी रहता है । अब कुछ चारित्रमोहनीय के अलग-अलग विशेषों के कारण बताते हैं, चारित्रमोहनीय दो रूपों में बंटा हुआ है―1-कषायमोहनीय और 2-नोकषायमोहनीय । फिर नोकषायमोहनीय हास्य रति आदिक अनेक रूपों में बंटे हैं । तो पहले कषायमोहनीय आस्रव के कुछ कारण विशेष बतलाते हैं ।
(68) कषायमोहनीय नामक चारित्रमोहनीयकर्म के आस्रव के कारणों का संक्षिप्त प्रपंच―जो तपस्वी जगत का उपकार करने वाले हैं, उत्तम शीलव्रत का पालन करते हैं उन तपस्वियों की निंदा करना चारित्रमोह के आस्रव का हेतु है । धर्म का ध्वंस करना, कोई धार्मिक प्रोग्राम होते हों उनको बिगाड़ना अथवा अपना परिणाम ऐसा कायर और क्रूर करना कि जिससे आत्मधर्म का घात होता हो, ऐसे कार्यों से कषाय मोहनीय का आस्रव होता है । धार्मिक कार्यों में अंतराय डालना, दूसरों की धर्मसाधना में अंतराय डालना, सामूहिक धार्मिक कार्यों में विघ्न करना, अपने आपमें धर्मपरिणाम होने के प्रति प्रमाद रखना याने अपने धर्म का भी अंतराय करना, इसमें कषाय प्रवृतियों का आस्रव होता है । कोई पुरुष शील गुणवान हो, देशसंयमी हो, महाव्रत का पालन करने वाला हो तो उसको ऐसे वचन बोलना, उसके प्रति ऐसा परिणाम बनाना कि वह अपने संयम से च्युत हो जाये तो यह क्रिया कषाय प्रकृतियों का आस्रव करती है । जो जीव मद्य मांस आदिक के त्यागी हैं उनको ऐसे वचन कहना, ऐसा ही वातावरण बनाना कि वे अपने संकल्प से हट जायें, पिचक जायें, अपने नियम में ढील करने लगें, ऐसी कोशिश वाले परिणामोंसे कषाय प्रकृतियों का आस्रव होता है । कोई पुरुष निर्दोष चारित्र वाला है तो भी उसमें दूषण लगाना, उनके दोषों को प्रकट करना ये कषायप्रकृतियों का आस्रव करते हैं । स्वयं ऐसे भेषों को धारण करे, जो संक्लेश को उत्पन्न कराये तो यह क्रिया, ऐसे परिणाम कषायप्रकृतियों का आस्रव करते हैं । खुद कषाय करना, दूसरे में कषाय उत्पन्न कराना, ऐसा कषाय के जागरण का जितना परिणाम है, व्यवहार है वह सब कषायप्रकृतियों का आस्रव कराता है ।
(69) हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा नोकषायमोहनीयनामक चारित्रमोहनीय कर्म के आस्रवों के कारणों का प्रयत्न―अब हास्य वेदनीय नामक नोकषायकर्मप्रकृतियों के आस्रव के हेतु सुनो―किसी का विशेष मजाक करना, दिल्लगी करना, जिससे वह दुःखी होवे और यह खुद उसका मौज लेवे तो ऐसे उत्प्रहास से हास्य प्रकृति का आस्रव होता है । हीनता पूर्वक हंसना या कामविकारपूर्वक हंसना, इस प्रकार की बनावटी, विकृत हंसी का भाव हास्य प्रकृति का आस्रव करता है । बहुत बोलना जिस प्रलाप से स्वयं का सामर्थ्य भी बिगड़े, दूसरों को भी बुरा लगे, अट्ट-सट्ट वचन भी निकल जाये ऐसा प्रलाप करना जिसकी चाहे हंसी मजाक करना, ऐसी चेष्टायें ऐसे परिणाम हास्य प्रकृति का आस्रव करते हैं । नाना प्रकार के पर के साथ क्रीड़ा करना दूसरें के चित्त को अपनी ओर आकर्षित करना, ऐसे कार्यों में रति प्रकृति का आस्रव होता है, दूसरे को अप्रेम, द्वेष उत्पन्न कराना प्रीति का विनाश करना, पापशील पुरुषों का संसर्ग करना, खोटी क्रियावों में, पाप व्यसन आदिक को उत्साह दिलाना, उत्साह रखना, ऐसे भावों से अरतिप्रकृति का आस्रव होता है स्वयं शोक करना, प्रीति के लिए दूसरे का शोक
करना, दूसरे पुरुषों को दुःख उत्पन्न कराना, जो शोकसे व्याप्त हो उसे देखकर खुश होना, इस भाव से शोक प्रकृति का आस्रव होता है, जिसके उदय में इस, जीव को स्वयं अनेक शोक उत्पन्न होने लगते हैं । खुद भयभीत रहना, दूसरों को भय उत्पन्न करना, निर्दयता के परिणाम रखना, दूसरे को त्रास देना, ऐसे परिणामों से भय प्रकृति का आस्रव होता है, जिसके उदय में स्वयं यह बहुत भयशील रहेगा । जो धर्मात्मा पुरुष हैं, जो उत्तम लोग हैं उनकी
क्रियावों में, कुल में, आचरण में ग्लानि करना । ऐसा आचरण करने वाले पुरुषों से घृणा करना यह जुगुप्सा प्रकृति के आस्रव कराने वाला भाव है । जुगुप्सा की प्रकृति रखने वाले पुरुष दूसरे की बदनामी करने की प्रकृति वाले हो जाते हैं और यही एक घृणा की बात है । तो ऐसे पाप परिणाम वाले पुरुष जुगुप्सा प्रकृति का आस्रव करते हैं ।
(70) स्त्रीवेद पुंवेद नपुंसकवेद नोकषायमोहनीय नामक चारित्र मोहनीयकर्म के आस्रव के कारणों का प्रपंच―अब स्त्रीवेद के आस्रव के कारण कहते हैं, अत्यंत क्रोध के परिणाम होना, बहुत अधिक भीतर घमंड रहना, दूसरों से बहुत बड़ी ईर्ष्यायें रखना मिथ्या वचन बोलते रहना, छल कपट करना, जालसाजी छल कपट में प्रपंच में अपना दिल बनाये रहना, बहुत तीव्र राग करना, दूसरे की स्त्री के साथ काम सेवन करना, स्त्री जैसे परिणामों में प्रीति रखना, ऐसे भाव स्त्रीवेद प्रकृति का आस्रव करते हैं, जिसके उदय में वे जीव भी स्वयं ऐसा ही आचरण करने लगते हैं जैसे ईर्ष्या करना, मिथ्यावचन बोलना, घमंड होना, क्रोधविशेष आने लगना, ऐसा दुःख पाते हैं और स्त्री पर्याय मिलती है । पुरुषवेद के आस्रव के कारण हैं साधारण क्रोध होना, मायाचारी न होना, घमंड न होना, लोभरहित वृत्ति होना, अल्पज्ञान होना, अपनी स्त्री में ही संतोष होना, ईर्ष्या न होना, स्नान आभरण आदिक के प्रति आदर न होना, ऐसी चेष्टायें, ऐसा परिणाम पुरुषवेद प्रकृति का आस्रव कराता है । अब नपुंसकवेद के आस्रव के हेतु बतलाते हैं तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ होना, गुप्त इंद्रिय का विनाश करना, जैसे इंद्रिय का आपरेशन, बैल आदिक का बधिया करना, स्त्री पुरुषों की अनंग क्रीड़ा का विनाश करना, जिन अंगों से क्रोड़ा न की जाये उनसे भी तीव्र क्रीड़ा करने की आदत बनाना । शीलव्रतधारी पुरुषों को बिचकाना उत्साहहीन करना, दीक्षाधारी पुरुषों को बिचकाना, उनका उत्साह भंग करना, दूसरे की स्त्री पर आक्रमण करना, तीव्र प्रीति होना, आचरणहीन हो जाना, ये सब परिणाम नपुंसकवेद का आस्रव कराते है । अब मोहनीय कर्म के आश्रवों के हेतुवों को बताकर क्रम प्राप्त आयुकर्म का वर्णन करेंगे, जिसमें सर्वप्रथम नरक आयु के आस्रव का कारण बतलाते हैं ।