वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-15
From जैनकोष
बह्वारंभपरिग्रहत्वं नारकस्यायुष: ।। 6-15 ।।
(71) नरकायु के आस्रवों के कारणों का दिग्दर्शन―बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह रखना नरकायु के आस्रव का कारण है, यहां बहु शब्द का प्रयोग संख्या अर्थ में भी होता है और विपुलता अर्थ में भी होता है । बहु शब्द अनेक जगह संख्या के विषय में भी प्रयुक्त होता है । जैसे―एक, दो, बहुत, और बहु शब्द विपुल परिमाण में भी आया करते हैं, जैसे बहुत भात, बहुत दाल आदि को तो यहां दोनों प्रकारके बहु का ग्रहण है अर्थात् विशाल, विपुल, आरंभ होना और अनेक आरंभ होना नरकायु के आस्रव का कारण है । इसी प्रकार बहुत
व विपुल परिग्रह होना । आरंभ का अर्थ है हिंसा वाला कार्य जो हिंसा की प्रकृति रखता है उसे हिंस्र कहते हैं और उसके काम को हैन्स्र अर्थात् आरंभ कहते हैं । बहुत आरंभ जिसके हो वह पुरुष नरकायु का आस्रव करता है । परिग्रह का अर्थ है यह वस्तु मेरी है, मैं इसका स्वामी हूं, इस प्रकार का परिणाम का अभिमान का संकल्प होना परिग्रह है । बहुत आरंभ बहुत परिग्रह जिसके होता है उसका यह परिणाम नरकायु का आस्रव कराता है । इस परिणाम को कुछ विशेष स्पष्ट करते हैं और जो कुछ ऐसे ही अन्य परिणाम हैं उनको भी बताते हैं ।
(72) नरकायु के आस्रव के कारणों का संक्षिप्त प्रपंच―मिथ्यादर्शन का परिणाम नरकायु का आस्रव कराता है । जहां स्वपर का यथार्थ बोध नहीं है, परपदार्थों से अपना स्वरूप समझते हैं, अपने प्राण समझते हैं, ऐसे अज्ञान अंधेरे वाले पुरुष नरकायु का आस्रव करते हैं । अशिष्ट आचरण जो असभ्य आचरण है, जो लोक व्यवहार में उचित नहीं है ऐसी प्रक्रिया करना बहुत अधिक मान रखना, पत्थर की रेखा के समान क्रोध भाव करना, जैसे पत्थर की रेखा अनेकों वर्षों तक नहीं मिटती ऐसे ही जिसका क्रोध अनेकों वर्षों तक न मिटे, उसकी
वासना बनी रहे, ऐसा क्रोध, तीव्र लोभ का परिणाम, दयारहित परिणाम, क्रूरता ये सब परिणाम नरकायु का आस्रव कराते हैं । दूसरे दुःखी हो तो उसमें खुश होना, दूसरों के परिताप आदि में खुश होना, जैसे अनेक लोग मनुष्यों को तंगाते हैं या चूहा पक्षी आदि को बांधकर उनको सताने में खुश होते हैं ये सब नरकायु का आस्रव कराने वाले भाव हैं । दूसरे को मारने का अभिप्राय करना, जीवों की सतत हिंसा करना, झूठ बोलने की प्रकृति रखना, दूसरे का धन हरण कर लेना, छुपे-छुपे राग भरी चेष्टायें करना, मैथुन विषयों में प्रवृत्ति रखना ऐसे ये परिणाम नरकायु का आस्रव कराते हैं । महान आरंभ होना, इंद्रिय के आधीन बनना, काम भोग की तीव्र अभिलाषा रखना, शील स्वभाव व्रत आदिकसे रहित रहना, पापाजीविका करके भोजन करना, किसी से बैर बांधना, क्रूरता पूर्वक रोना, चिल्लाना, ऐसी चेष्टावों के परिणाम नरकायु का आस्रव कराते हैं, जिससे नरकायु के उदय होने पर नियम से नरकगति में जन्म लेना पड़ता है और वहां सागरों पर्यंत ठहरकर कष्ट भोगना पड़ता है । दयारहित स्वभाव होना, साधुसंतों में फूट पैदा कराना, तीर्थंकर गुरुजनों की आसादना करना, उनकी मूर्ति का निरादर अथवा उनमें दोषों का लगाना, कृष्ण लेश्यारूप रौद्र परिणाम रखना, क्रूरभाव सहित मरण करना, ये सब नरकायु के आस्रव कराने वाले भाव है, अर्थात् ऐसे कार्यों से नरकायु प्रकृति का बंध होता है और उसके उदय में इस जीव को नारकी होना पड़ता है । अब तिर्यंचायु के आस्रव का वर्णन करते हैं ।