वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-16
From जैनकोष
मैथुनमब्रह्म ।। 7-16 ।।
(152) कुशील पाप का लक्षण―मैथुन कर्म को अबह्म कहते हैं । स्त्री-पुरुषविषयक शरीर सम्मिलन होने पर सुख की प्राप्ति की इच्छा से जो रागादिक भाव होता है वह मैथुन कहलाता है । मिथुन के भाव को मैथुन कहते हैं । शब्द की व्युत्पत्ति तो यह है, पर उसका भाव यह नहीं है कि दो द्रव्य जहाँ इकट्ठे हों वह मैथुन हो गया । अर्थ यह है कि परस्पर मिलकर जो कामविषयक भाव किया जाता है वह है मैथुन । यदि दो का एक जगह रहना कुशील कहलाने लगे तो जो उदासीन वृत्ति से घर में रहते हैं स्त्री पुरुष, जिनके ब्रह्मचर्य का नियम है, अलग रह रहे है, राग भी नहीं है कामविषयक तो उनके रहने मात्र से फिर मैथुन कह दिया जायेगा, इसलिए यह अर्थ नहीं किया जा सकता कि जो दो का कार्य है सो मैथुन है । मिथुनस्य कर्म मैथुनं, यह भी अर्थ नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि किसी कार्य को दो पुरुष मिलकर कर रहे हैं―दुकान करना, भोजन बनाना या कोई एक ट्रंक का दोनों के द्वारा ले जाना तो ये दो पुरुषों के द्वारा किए गए हैं, ये भी मैथुन कहलाने लगेंगे । इस कारण यह भी अर्थ न करना कि जो दो का काम हो सो मैथुन है । एक तीसरा यह अर्थ भी न करना कि स्त्री पुरुष का जो काम हो सो मैथुन है । दो पुरुष के किए हुए काम को मैथुन नहीं कहा किंतु स्त्री पुरुष मिलकर कार्य करते हों वह मैथुन होता―यह भी अर्थ न करना क्योंकि अनेक कार्य ऐसे होते कि स्त्री पुरुष मिलकर कर रहे । कभी भोजन बनाना आदिक भी स्त्री पुरुष मिलकर कर रहे हैं तो क्या वह कार्य मैथुन कहलायेगा? अथवा स्त्री पुरुष दोनों किसी साधु को नमस्कार कर रहे, प्रभु की पूजा कर रहे तो क्या ये कार्य मैथुन हो जायेंगे? नहीं । तब यह तीसरा अर्थ भी ठीक नहीं है कि स्त्री और पुरुष का जो कार्य है सो मैथुन है, किंतु मैथुन का अर्थ क्या है? चारित्रमोह का उदय होने पर स्त्री पुरुष का परस्पर शरीर संसर्ग पूर्वक सुख चाहने वाले उन दोनों में जो राग परिणाम होता है वह मैथुन है । सो यह तो मैथुन है ही, पर इतना ही न समझना, किंतु एक पुरुष यदि हस्तादिक क्रियावों से अपने शरीर के वीर्य को खोता है तो ऐसे समय के परिणाम भी । मैथुन कहलाते हैं, ऐसे किसी भी प्रकार के रागभाव को कुशील परिणाम कहते हैं ।
(153) कामचेष्टाओं में मैथुनत्व की प्रसिद्धि―कामासक्त पुरुष अकेला ही कामपिशाच के वशीभूत होकर वही दो रूप बन गया है, इस कारण चारित्रमोह के उदय से प्रकट हुए काम पिशाच के वशीभूत होने से वह अकेला ही पुरुष जो कामासक्त है वह दूसरे के साथ हो गया, इस कारण भी उसकी क्रियावों को मैथुन कह सकते हैं । यद्यपि कुशील अपने कामविषयक खोटे भाव को कहते हैं, फिर भी इस कुशीलता की प्रसिद्धि मैथुन शब्द से यों बनी है कि लोक में और शास्त्रों में उसकी प्रसिद्धि स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न हुई रति विशेष में हुई । लोक में तो चरवाहे तक भी स्त्री और पुरुषविषयक रति कर्म को मैथुन कहा करते हैं । शास्त्र में भी व्याकरण तक में मैथुन शब्द का इसी भाव से प्रयोग है, इस कारण मैथुन में कुशील परिणाम का नाम रखा गया है । मिथुन शब्द से प्रसिद्धि तो स्त्रीपुरुषविषयक है पर कभी दोनों पुरुषों में भी परस्पर काम चेष्टा हो जाती है तो वह पुरुष चारित्रमोह के तीव्र उदय से घिरी हुई स्थिति में है । सर्व शंकाओं का समाधान प्रमत्तयोग शब्द से हो जाता है । जहाँ-जहाँ प्रमत्तयोग है उसके कारण जो मिथुन का कर्म है, जो कामपिशाच के वश हुई चेष्टायें हैं वे सब मैथुन कहलाती हैं । यहाँ शब्द दिया है अब्रह्म । जो ब्रह्म नहीं सो अब्रह्म । ब्रह्म किसे कहते हैं? अहिंसा आदिक गुण जिसके पालन करने पर बढ़े उसका नाम ब्रह्म है । आत्मशील की दृष्टि करने से अहिंसा आदिक गुणों का विकास होता है, इस कारण शील की दृष्टि से विषयों से विरक्त होना ब्रह्म कहलाता है । और जो ब्रह्म नहीं है वह अब्रह्म है । अब्रह्म में, मैथुन प्रवृत्ति में उसके हिंसा आदिक दोष पुष्ट होते हैं । जो मैथुन सेवन कर रहा है वह पुरुष योनिगत चराचर प्राणियों की हिंसा कर रहा है और वह उस राग में झूठ भी बोलता है और इस काम की पीड़ा के वश होकर कभी यह अदत्त वस्तु को भी ग्रहण करता है । इसके परिग्रहभाव मूर्छाभाव तो निरंतर चलता रहता है । कामी सचेतन और अचेतन परिग्रह का ग्रहण करता है । अब्रह्म पाप एक महान पाप है, वहाँ तो अब्रह्म व्यभिचार हिंसा को भी कह सकते हैं, झूठ आदिक को भी कह सकते हैं किंतु व्यभिचार की प्रसिद्धि क्यों कुशील नामक चौथे पाप में हुई है कि इस कुशीलसेवन करने वाले के आत्मा की सुध होना बड़ा कठिन होता है । इस कारण कुशील आत्मशील से एकदम विपरीत भाव है । यहाँ तक हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील―इन चार पापों का वर्णन किया गया, अब परिग्रह का वर्णन क्रम प्राप्त है । सो अब परिग्रह का लक्षण बतलाते हैं ।