वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-22
From जैनकोष
मारणांतिकी सल्लेखनां जोषिता ।। 7-22 ।।
(179) मरण समय सोत्साह सल्लेखना करने का कर्तव्य―मरण के समय में सल्लेखना को प्रीति सहित सेवन करे । जिसको ज्ञान जगा है और शरीर से भिन्न अपने आत्मा का स्वरूप जाना है वह जीवन भर तो व्रत का पालन कर रहा, पर अंत समय में जब कि अत्यंत वृद्ध हो गए अथवा कोई उपसर्ग आ गया, कोई अत्यंत कठिन बीमारी आ गई जिसमें यह दिखने लगा कि अब तो यह अंत समय है तो वह उस समय उस शरीर का मोह छोड़ देता है और समाधि मरण में अपना परिणाम लगाता है । वस्तुत: विचारे तो मरण में जीव को नुकसान कुछ भी नहीं है । जैसे कोई पुरुष अपनी तीन चार कोठियों में रहता है―रात को किसी हवेली में रहता, सुबह किसी गोदाम में, दोपहर को किसी कारखाने में, शाम को फिर किसी कोठार में । बताओ वहां कुछ नुक्सान है क्या? ऐसे ही यह शरीर भी इस जीव का घर है । कभी पशु के शरीर में रहा, कभी मनुष्य शरीर में, कभी देव शरीर में, कभी कीटपतिंगे के शरीर में । अब देख लो शरीर तो बदलते रहे पर जीव तो वही पूरा का पूरा है, इस शरीर के बदलने में जीव का नुक्सान क्या? पर ये मोही अज्ञानी जीव मरण से बड़ा भय मानते हैं । मरण समय में छूटते हुए धन वैभव कुटुंब परिजन आदि के समागम को देखकर बड़ा कष्ट मानते हैं । हाय मैंने बड़ा परिश्रम करके यह सब कुछ बनाया, आज यह सब हम से छूटा जा रहा है, यह सोच-सोच कर बड़ा दुःख मानते हैं । यदि मोहभाव न हो तो मरण समय में भी उसे ऐसा लगेगा जैसे कि मानो किसी टूटे फूटे घर को छोड़कर किसी नये घर में जा रहे हों । उसे दुःख नहीं होता बल्कि खुशी-खुशी से मरण करता है ।
(180) अज्ञान न रहने पर कष्ट की अनुपपत्ति―कष्ट जितना भी है वह सब अज्ञान में माना जाता है । नहीं तो इस जीवन में भी क्या कष्ट है सो तो बताओ । उस जीव की बात कही जा रही है जिसने आत्मा के स्वरूप को पहिचान लिया और उस ही आत्मा की भावना रख रहा कि मैं तो यह चाहता हूँ कि यह जो मात्र अकेला आत्मा है सो ही रह जाऊँ, मेरे साथ किसी बाहरी चीज का लाग लपेट न रहे, शरीर का लपेट रहे, न कर्म का । ऐसी स्थिति चाहता हूँ । ऐसी जिसकी भावना जगी है उस पुरुष को जीवन में भी कोई कष्ट नहीं है । आप कष्टों का नाम लीजिए, क्या कष्ट हुआ करते हैं? धन कम हो गया इसको लोग कष्ट कहते हैं । यह ज्ञानी सोचता है कि वे चीजें बाहर-बाहर पड़ी थीं । बाहर इतनी थीं इतनी रह गईं । मेरे में न कुछ अधिक हुआ, न कुछ कम हुआ । और किसमें कष्ट मानते हैं लोग? इज्जत बड़ी थी अब कम हो गई, हम देश में बड़े नेता थे, मंत्री थे, अब चुनाव में हार गए.....अरे कोई यदि ज्ञानवान है तो वह रंच भी कष्ट न मानेगा, क्योंकि यश नाम किसका? ये जो चलते फिरते सनीमा के जैसे चित्र नजर आ रहे इनको लोग सच समझ रहे अर उनके बीच अपने सम्मान अपमान आदि की कल्पना कर रहे और कष्ट मान रहे । जिनकी दृष्टि बाहर में लगी है उनको कष्ट है और जिनको अपने आत्मा में लगन लगी है उनको रंच भी कष्ट नहीं है और, कष्ट क्या है? मरण हो रहा है यही सबसे बड़ा कष्ट है । ज्ञानी जीव जानता है कि मैं आत्मा इस शरीर से निराला हूँ । अब इस घर को छोड़कर पूरा का पूरा जाऊंगा, मेरा कोई बिगाड़ हुए बिना, मेरे कोई प्रदेश कटे बिना, मेरे कोई गुण मिटे बिना यह मैं पू!रा का पूरा अपने में हूँ । जब मैं हूँ तो मेरा इसमें कोई बिगाड़ नहीं । जिसने मोह छोड़ा, आत्मा की अभिमुखता ग्रहण की उसको किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं है । तो व्रती श्रावक अंत में क्या करे? शरीर और कषाय इनको कृश करे ।
(181) अंत समय में अन्नादि के त्याग की संगतता―यह भी लोग सोचते हैं कि मरण समय में व्रतीजन, मुनिजन या अच्छे श्रावक लोग क्यों छोड़ दिया करते कि मेरे अन्न का त्याग, मेरे दूध का त्याग, मेरे अमुक चीज का त्याग । ये त्याग क्यों किया करते हैं? अंतरंग कारण तो यह है कि उसमें ममता छोड़ रहे हैं, पर बहिरंग कारण यह है कि ऐसा वृद्धावस्था वाला शरीर उन चीजों का त्याग करने में शांति से रहेगा और बुढ़ापे में ही खाया जा रहा है तो उसे तो अनेक रोग होंगे । अफरा चढ़ेगा, गैस फूटेगी, अनेक प्रकार की तकलीफ होंगी और त्याग में कोई तकलीफ नही होती । अनेक रोग ऐसे हैं कि जिनका आप इलाज न करें तो अपने आप रोग ठीक हो जायेगा । कुछ ही रोग ऐसे हैं कि जिनका इलाज करना जरूरी होता । मान लो किसी को बुखार आ रहा है उसका इलाज करना है, तो इलाज करते हुए भी करीब 15-20 दिन तो ठीक होने में लग ही जाते होंगे पर ऐसा भी हो सकता कि कोई यह संकल्प करके बैठ जाये कि जब तब बुखार ठीक नहीं होता तब तक न दवा लूंगा, न अन्न, सिर्फ प्यास लगने पर गरम जल या भूख लगने पर उचित फल ले लूँगा तो इस दृढ़ता से भी वह बुखार उतने ही दिनों के अंदर ठीक हो जायेगा । बल्कि उससे भी जल्दी ठीक हो सकता । दवा लेने पर यह तो अंदेशा है कि रोग बढ़ जाये, मगर दवा न लेने पर रोग बढ़ने का तो अंदेशा नहीं, बल्कि रोग का घट जाना अधिक संभव है । तो यह त्याग हर स्थिति में शांति का साधक बनता है । इन चीजों का बुढ़ापे में जो त्याग किया जाता है तो मरण समय में यह शरीर अपनी अवस्थावों के अनुसार स्वस्थ रहता है जिसमें कि धर्मध्यान बन सकता है । अभी कोई हट्टाकट्टा पुरुष भी खूब डटकर भोजन कर ले तो उसे भी बेचैनी होती है फिर ऐसी वृद्धावस्था में यदि उसे खूब खिलाया जाये तो उसके पेट में बड़ा विपरीत असर होगा । उसका धर्मध्यान में चित्त भी नहीं लग सकता । इसलिए शरीर को कृष करने का उपदेश है । और कषाय को कृष करना, क्षीण करना यह तो व्रतों का ध्येय ही है । तो यह श्रावक उस समय समाधिमरण का प्रीतिपूर्वक सेवन करता है ।
(180) सोल्लास सल्लेखना धारण करने के कर्तव्य के परिचय के लिये जोषिता शब्द का उल्लेख तथा आत्मबध के प्रसंग की अनुपपत्ति―इस सूत्र में कहा जा रहा है कि मरण के समय में उत्साह और उमंग के साथ सल्लेखना धारण करना चाहिए । यहाँ क्रिया शब्द दिया है जोषिता, उसके एवज में शंकाकार कह रहा है कि इतना कठिन शब्द क्यों रखा? सेविता यह शब्द रख देते । झट समझ में आ जाता कि सल्लेखना का सेवन करना चाहिए । उत्तर इसका यह है कि सेवन करना और जोदिना, जोषना और जोषिता के अर्थ में अंतर है । सेवन करना तो सामान्यरूप में है, मगर जोषिता शब्द में यह अर्थ बसा है कि विनयपूर्वक सेवन करना चाहिए । सेविता तो भोग की चीज में भी आता । भोग का विषय का सेवन करना । जोषिता शब्द केवल आदर की क्रिया में, कर्तव्य में आता है । तो इस सूत्र का अर्थ हुआ कि मरण के समय में सल्लेखना का प्रीतिपूर्वक सेवन करें । यहाँ एक शंका होती है कि समाधिमरण में लोग यही क्रिया तो करते हैं कि यह चीज छोड़ा, वह चीज छोड़ा, यों छोड़कर अपने प्राण नष्ट कर दिया, फिर यह व्रत कैसे रहा और इसके फल में सुहाति कैसे मिलेगी? तो उसके उत्तर में कहते है कि इस सूत्र में भी उस प्रमत्त योग की झांकी है । चूंकि यह व्रत का प्रकरण है, पाप का नहीं है । पाप में तो प्रमत्त योग से यह अर्थ किया था । यहाँ अर्थ करते कि प्रमत्त योग के बिना संन्यासमरण धारण करो । प्रमत्त योग का अर्थ है―रागद्वेष मोह, स्वार्थ, खोटे भाव ये न रखे जाये और संन्यासमरण हो तो वह सल्लेखना कहलाता है । सल्लेखना में उत्साह उमंग प्रभु की ओर भक्ति, आत्मस्वरूप की ओर विनय ये सब सद्गुण आते हैं । तो यों बड़े विनय से आदरभाव से सल्लेखना धारण करना । जिसको आत्मतत्त्व का परिचय है, आत्मा में ही जिसका प्रेम है, शरीर को लोथड़ा का पिंड जानकर उसके प्रति जिसको मोह नहीं है वह आत्मतेज में उपयोग रमाकर लुप्त हो रहा है । उसे और कुछ नहीं सुहाता । यह एक मरण समय की बहुत बड़ी विशेषता है । वैसे तो ज्ञानी जीव को बाहरी कोई बात भीतर सुहाती नहीं है । एक अंतःस्वरूप ही सुहाता है और फिर उस ज्ञानी का हो शरीर छूटने का समय तो उसकी इस प्रगति में और भी विशेषता बढ़ जाती है । वैसे बाहरी बातें तो कोई साधारण व्यक्ति हो तो उसे भी मरण समय में नहीं सुहाती । जैसे किसी को फांसी दी जा रही हो तो वह आत्महत्या ही तो है, खुद न की, दूसरे ने की । उसे वहाँ न खाना सुहावेगा, न कोई मौज । तो मरणसमय का प्रसंग ही ऐसा है, फिर जिस ज्ञानी को जीवन में भी कुछ न सुहाया उसको आत्मस्वरूप के अतिरिक्त मरण समय मे दूसरा सुहायेगा ही क्या? केवल आत्मस्वरूप की आराधना रहे तो वह तो प्रसन्न होकर सल्लेखना कर रहा है । वहाँ आत्महत्या का प्रसंग नहीं है ।
(183) सल्लेखनामरण में आत्मवध के असर की अनुपपत्ति के अन्य कारण―दूसरी बात यह है कि समाधिमरण करने वाले को भी मरण अनिष्ट है, वह मरण नहीं चाहता । लेकिन मरण आ ही जाये तब बे अपने वैभव की रक्षा करते हैं । जैसे कोई पुरुष दूकान में आग लग जाये, यह नहीं चाहता । कोई चाहता है क्या कि मेरी दूकान में आग लगे? और कदाचित् आग लग गई दूकान में और ऐसी आग लगी कि बचने का कोई साधन नहीं, देहाती स्थल है, कोई फायर वगैरह का प्रबंध नहीं है तो उस समय विवेकी का विवेक क्या करेगा कि जो धन है, जो मूल्यवान चीजें हैं उनको भंडार में से जल्दी निकाल लें, यह तो बच जाये । दूकान में आग लगती है तो लगे मगर भंडार में जो बहुमूल्य रत्न रखे हैं वे तो बच जायें । ठीक यही दशा समाधिमरण में है । शरीर में आग लग गई मायने मरण हो रहा, मृत्यु निश्चित है, मरण इष्ट नहीं है तो भी मरण आ रहा, तो उस समय विवेकी यह करता है कि मेरे भंडार में जो रत्न हैं―ज्ञान दर्शन चारित्र आत्मदृष्टि सम्यक्त्वादिक वे सब तो मैं बचा लूं, वे तो न नष्ट हो जाये । यह प्रीति बसी है भीतर । तो ऐसे एक उत्तम लक्ष्य को लिए हुए कोई समाधिमरण करे तो आत्महत्या कैसे कहला सकती? हां समाधिमरण का नाम लेकर अज्ञानी जीव कोई यदि आहार आदिक का त्याग करके मरे और नाम भले ही समाधिमरण का धरे, मगर लक्ष्य का जिसे पता नहीं है उसके लिए आत्मवध है मगर जिसको लक्ष्य का पता है और अपने सम्यक्त्वादिक गुणों की रक्षा के लिए ही वह संन्यासमरण कर रहा है तो वह आत्मवध नहीं है । तीसरी बात यह है कि संन्यासमरण करने वाले को न जीने की चाह है, न मरने की । उस ओर दृष्टि ही नहीं है । एक अपने गुण रत्न की रक्षा की दृष्टि है । जैसे कोई यह न चाहे मुनि या विवेकी कि मेरे को ठंड लगने का सुख पैदा हो या गर्मी लगने का दुःख पैदा हो और वे सुख दुःख के साधन जुट जायें तो सुख दुःख तो बने, मगर उनमें वह रागद्वेष नहीं करता । ज्ञाताद्रष्टा रहता है, मायने अपनी रक्षा करता है ।
(184) समाधिमरण की भावना की प्रतिक्षण आवश्यकता―वास्तविकता तो यह है कि समाधिमरण तो प्रतिक्षण करना चाहिए । मतलब क्या कि मरण दो तरह का होता है―एक तो आवीचिमरण और दूसरा तद्भवमरण । प्रतिक्षण हमारी आयु घट रही है । आयु का निषेक उदय में आकर दूर हो रहा तो हम प्रति समय मर रहे है । आयु के नाश होने का नाम मरण है । अब जो आयु का उदय आया उसका तो नाश हुआ । तो हम प्रतिक्षण मर रखे हैं, फिर ऐसा कह सकते ना जैसे कोई कहता है कि हम 50 वर्ष के हो गए तो उसके मायने यह हैं कि हम 50 वर्ष मर चुके । चाहे यह कहें कि हम 50 वर्ष के बड़े हो गए, उसका सीधा अर्थ है कि हम 50 वर्ष की आयु खो बैठे, मर चुके, अब थोड़ा समय और शेष रहा तद्भवमरण हो जायेगा । मायने इस भव से ही कूँच हो जायेगा । तो जब हमारा मरण प्रतिसमय हो रहा है तो हमारा कर्तव्य है कि हम प्रतिसमय अपनी भावना शुद्ध रखें ताकि हमारा प्रतिक्षण में समाधिमरण बना रहे और जो ऐसा प्रतिक्षण का समाधिमरण का अभ्यास नहीं रखता उसे अंतिम समय में भी मुश्किल पड़ेगा समाधिमरण करने में । तो जिसके न जीने का अभिप्राय है, न मरण का वह पुरुष मान लो मरण को प्राप्त हो रहा है, समय आ गया है तो उस समय वह मरण का दुःख न मानकर अपने गुणों की रक्षा में प्रसन्न रहता है, इस कारण संन्यासमरण करने वाले को आत्मवध नहीं होता है ।
(185) सल्लेखनामरण को किसी भी दार्शनिक द्वारा आत्मवध कहने की अनुपपत्ति―चौथी बात―जो दार्शनिक यह कहते कि यह तो आत्महत्या है तो ये दार्शनिकों के उत्तर स्वयं उनके शास्त्र से विरोध आता है अर्थात् सिद्धांत से विरोध आता है । जैसे आत्मवध कहने वाले कौन है? एक नाम लो । जैसे कहो कि बौद्ध हैं, जो मानते कि क्षण-क्षण में आत्मा नष्ट होता रहता है, एक क्षण को बना और नष्ट हो गया तो वह तो प्रतिक्षण नष्ट होता हो रहता है । वे तो आत्मवध कहने को जीभ भी नहीं हिला सकते । दूसरी बात यह है कि बध के बात कहने में चार बातें समझनी पड़ेगी―(1) एक तो सत्त्व प्राणी वध, (2) सत्त्व संज्ञा, (3) वध करने वाला, (4) वध का परिणाम । अब जो लोग पदार्थ को एक क्षण ठहरने वाला मानते, आत्मा एक क्षण ही रहता ऐसा मानते, उनके ये चारों ही बातें नहीं बन सकती । हुआ और गुजरा । कौन मारने वाला कहां वध का परिणाम और कोई चीज है ही नहीं वह बहुत समय रहने वाली । ऐसे लोग अगर आत्मवध की बात कहें तो इसमें वे जीभ भी नहीं हिला सकते । और हिलाये तो वे अपने सिद्धांत के खिलाफ गए । कुछ लोग ऐसे हैं कि जो आत्मा ही नहीं मानते ऐसों की संख्या बहुत भरी पड़ी है । चारुवाक, नास्तिक ये मानते कि आत्मा कोई चीज नही है, और जो मालूम पड़ता कि मैं जीव हूं, सो यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु का संबंध होने से एक करेन्ट बन गया है, जो समझता है, बोलता है, चलता है । आत्मा कुछ नहीं है, ऐसा भी मानने वाले लोग हैं, तो ऐसे लोग भी आत्मवध की बात मुख से बोल ही नहीं सकते । जब आत्मा ही नहीं है तो फिर किसके वध की बात बोले? अच्छा अब एक दार्शनिक और खड़ा कीजिए । नित्यवादी दार्शनिक कहता कि यह तो इन व्रतियों का आत्मवध है तो वे भी कुछ बोल ही नहीं सकते, स्ववचनविरोध है । नित्यवादियों का सिद्धांत है कि प्रत्येक पदार्थ निष्क्रिय होता है, क्रिया न हो, विकार न हो, अदल बदल तरंग न हो तब फिर वध नाम की चीज क्या रही तुम्हारे सिद्धांत में न मरना है, न जीना है, न सुख है, न दुःख । ऐसा नित्य मानने वाले सिद्धांतियों के भी आत्मवध की बात मुख से नहीं बोली जा सकती और बोलेंगे तो उनका सिद्धांत गलत हो गया, फिर वह निष्क्रिय कहां रहा? तो इन सब बातों से यह सिद्ध हुआ कि जो कषायभाव के बिना आत्मा के गुणों की रक्षा के अभिप्राय से जो काम और कषाय को छोड़ता है, कृश करता है, सल्लेखना करता है तो वह आत्मवध नहीं करता किंतु अपने आत्मा की रक्षा करना है ।
(186) सल्लेखना के समय आदि का निर्देशन―अच्छा तो सल्लेखना कब करना चाहिए यह एक जिज्ञासा हुई । उसका उत्तर-जब शरीर, बुढ़ापे से अत्यंत जीर्ण हो जाये, शरीरबल पूरा खतम हो जाये, क्षीण हो जाये, रोग से घिर जाये, जिन रोगों से बचना असाध्य है ऐसे वात आदिक विकारों से उत्पन्न हुए रोग से घिर जाये तो ऐसा पुरुष उस समय परिणामों में संक्लेश न आये, इस अभिप्राय से कोई प्रासुप साधारण चीजों का सेवन करता है, पश्चात् उसको भी त्याग आदिक विधियों से काय और कषाय जिनके कृश हो रहे हैं सो आत्मभावना का निरंतर ध्यान रखते हुए शास्त्रोक्त विधि से सल्लेखना का सेवन करें । धर्म की बात बताने और सिखाने से नहीं आती । जिसको आत्मा के धर्मस्वभाव की सुध है और आत्म- स्वभाव की अनुभूति होने से जिसमें एक अलौकिक आनंद जगा है वह अपने गुणों की रक्षा के लिए तुला हुआ है । उसे कब क्या करना चाहिए, यह कुछ नहीं सिखाना पड़ता । वह अपने आत्मा की भावना के बल पर कुछ भी सुगमतया कर लेगा जो कुछ किया जाना चाहिए । फिर भी शास्त्रोक्त विधि से जो जाननहार हैं उसको सुगमता रहती है कि हमको इस समय मरण समय में क्या करना चाहिए?
(187) निर्मोहता में कर्तव्यों का सुगम निर्वाह―इस जीव की विजय है मोह के दूर करने में । मोह को नष्ट करके घर में रहने वाला गृहस्थ निरंतर धर्म का आचरण किए हुए है । मोह मिट गया फिर भी घर में रहना पड़ता है ऐसी कोई परिस्थिति होती है । हां राग किए बिना घर में नहीं रह सकते, इतना तो है । पर मोह किए बिना कोई घर में रहे तो वह बड़े उत्तम विधि से घर में रहता है । वह जानता है कि मोह करने से लाभ क्या? घर में तो यों रहना पड़ता कि शरीर साथ लगा है, भूख प्यास आदि की अनेक बाधायें लगी हैं, उनको शांत करना जरूरी है तो उसका उपाय भी बनाना होता, घर में रहना पड़ता तो घर में रहना राग किए बिना नहीं बनता । कोई घर में लोगों को गाली बकता रहे कि तुम सब परपदार्थ हो, नारकादिक खोटी गतियों में पहुंचाने वाले हो, बस यह ही बात कहता रहे, राग के विरुद्ध बर्ताव बनाये रहे तो बताओ उसका घर में गुजारा हो सकता क्या? नहीं । उसे तो घर में भोजन पान भी ठीक-ठीक न मिलेगा । कोई बड़ा कमाऊ भी हो वह सबको गाली देता फिरे तो भले ही घर के बरदाश्त कर लें मगर उनके चित्त में उसके प्रति आदर न रहेगा । घर का रहना राग बिना नहीं बनता, पर मोह बिना तो बहुत अच्छा बनता है । जितनी अच्छी तरह से मोही जीव घर में नहीं रह सकते उससे भी अच्छी तरह से निर्मोह गृहस्थ घर में रहता है । घर में रहने वालों की दृष्टि में निर्मोही का बड़ा आदर रहेगा । उसके प्रति भीतर से सबकी विनय होगी, डर भी रहेगा । एक भी बात वह मुख से निकाले तो परिवार के लोग सिर पर धारण करेंगे । घर में निर्मोह बनकर रहे तो बड़ा सम्मानपूर्वक रहना बनता है और मोही जीव घर में रहता है तो उसके लड़के लोग स्वच्छंद हो जाते हैं । बाप का क्या डर? बच्चे लोग जानते कि बाप तो हम पर मर रहा है, हमारे मोह में आसक्त है, वह तो मेरे लिए सुख सुविधावों का प्रयत्न कर ही रहा है, यदि उससे उल्टा चले तो भी क्या डर है । देखिये मोह-मोह में ही रहकर गृहस्थी में रहना भला रहना नहीं बनता और निर्मोह बनकर गृहस्थी में रहे तो उसके प्रति सबका सद्व्यवहार रहेगा ।
(188) निर्मोह होकर जीवन को यापना से जीवन में व अंत समय में शांति सुयोग का लाभ―मोही रहकर जीवन गुजारना अपना जीवन खोना है । मोह न रखने का मतलब क्या कि सर्वजीवों को स्वतंत्र सत्ता वाला समझिये । घर में जितने प्राणी आये हैं इन सबका जीव स्वरूप निराला, इनके कर्म इनके साथ, इनका सब कुछ भवितव्य इनके कर्मोदय के अनुसार । इन पर मेरा कुछ अधिकार नहीं, इन पर मेरा कोई स्वामित्व नहीं, क्योंकि वस्तुस्वरूप ही यह है । जो जीव है वह अपने स्वामित्व में है, अपने द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव से परिणमता है, उस पर मेरा अधिकार नही है । सब स्वतंत्र-स्वतंत्र पदार्थ हैं, मेरे नहीं है, भिन्न हैं । एक यह निर्णय हो जाये कि जब इनकी सत्ता स्वतंत्र है, मेरे साथ इनका कोई संबंध नहीं है तो ये मेरे कैसे हैं? मेरा जगत में परमाणुमात्र भी नहीं है, ऐसा जिसका पक्का निर्णय है उसे कहते हैं निर्मोह । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष । तो जो निर्मोह है उसको संसार में आकुलता नहीं है । मरणसमय में केवल एक ही दृष्टि रहती है कि मेरे आत्मा की रक्षा हो, मेरे आत्म गुण विकृत न हो, मैं आत्मस्वभाव को लखता हुआ ही परभव को जाऊंगा । मरणसमय में जैसी दृष्टि रखकर जा रहा हूँ रास्ते में भी वही दृष्टि रहेगी, जन्म समय में भी उसी का लगार रहेगा । संस्कार रहने से फिरअगले जीवन में भी उस धर्म और ज्ञान की बात रहेगी । इसलिए सल्लेखना करना कितना उपकारी व्रत है और इसके विरुद्ध मानो कोई जीव हाय-हाय करके मर रहा और मरते समय वह कहे कि मेरी बेटी को बुला दो, बेटे को बुला दो या पोते को बुला दो, उसे देख लें तो मेरी छाती ठंडी हो जायेगी या लोग भी कह देते कि देखो इसके प्राण । तो अमुक में अटके हैं, उसे दिखा दो बस इनकी छाती ठंडी हो जायेगी तब प्राण निकलेंगे । मानो ऐसा ही कोई मर रहा हो तो बताओ वह जो कुछ ही मिनटों का समय जो छोटे परिणामों में खो दिया तो उसकी फल क्या होगा? यही कि उसका अगला भव तो सारा ही खराब हो जायेगा । अथवा जिसकी आयु खोटी बंध गई । उसके मरणसमय में संन्यासमरण का भाव हो ही नहीं सकता । जैसी गति होनी है वैसी गति हो जायेगी । मरणसमय का एक आध मिनट का तो फैसला और उसी समय प्राप्त समागमों में हो जाये ममता तो ऐसे भावों का जो मरण है वह अगले भव में एक दुःख को ही उत्पन्न करने वाला है ।
(189) सल्लेखनासेवन के सूत्र को अलग से कहने का प्रयोजन―यहां एक शंकाकार कहता है कि इससे पूर्व के 22 वें सूत्र के साथ इस सूत्र को जोड़ दिया जाता तो बहुत अच्छा होता । इसे अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है । इसके उत्तर में कहते हैं कि इस सूत्र को अलग कहने के तीन प्रयोजन है―(1) सात शील धारण करने वाले गृहस्थ के किसी के किसी समय सल्लेखना की अभिमुखता होती है, सबके नहीं होती । जैसे कि दिग्व्रत, देशव्रत आदिक 7 शील प्रतिसमय रहते हैं और वे समस्त श्रावकों के लिए अनिवार्य हैं उसकी तरह सल्लेखना व्रत सबके लिए अनिवार्य नहीं है । किसी के हो पाता है, किसी में सल्लेखना के कारण नहीं हो पाता । (2) श्रावक कभी-कभी घर छोड़कर भी किसी स्थल पर या सत्संग में रहे तो उसको जो सल्लेखना होगी वह भावरूप से ही, होगी, इस विशेष अर्थ की सूचना देने के लिए यह पृथक् सूत्र बनाया गया है । (3) सल्लेखना का विधान सप्तशीलधारी गृहस्थ को ही नहीं है याने केवल गृहस्थ ही सल्लेखना धारण करे, ऐसा नहीं है किंतु महाव्रती साधु के भी सल्लेखना होती है, इस नियम की सूचना के लिए भी पृथक् सूत्र बनाया गया है । अब जो आचार्यदेव ने कहा कि नि:शल्य, व्रती होता है तो उस शल्य में माया, निदान और मिथ्यात्व―इन तीन प्रकार के शल्यों का वर्णन किया । उनसे रहित व्रती को बताया जिसमें साबित किया कि व्रती सम्यग्दृष्टि ही हो सकता है। यह तो जाना । अब उस सम्यग्दर्शन के बारे में यह जिज्ञासा होती है कि उसमें भी कोई अपवाद होता है या न होते तो किसी के किसी मोहनीय अवस्था के कारण अतिचार भी हुआ करते या नहीं सो उन अपवादों को बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।