वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-34
From जैनकोष
अप्रत्यवेक्षिताप्रमोर्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ।।7-34।।
(206) प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत नामक शील के अतिचार―प्रोषधोपवास व्रत के 5 अतिचार इस प्रकार है―(1) अप्रत्यवेक्षिता प्रमार्जितोत्सर्ग―चक्षु से न देखे गए को अप्रत्यवेक्षित कहते हैं और कोमल उपकरण से शुद्ध न किए गए को अप्रमार्जित कहते हैं । सो बिना देखी । बिना शोधी वस्तु को रख देना यह प्रोषधोपवास व्रत का पहला अतिचार है । प्रोषधोपवास व्रत में कुछ निर्बलता होने से ऐसा प्रमाद करने लगना कि चीजों को अगर कहीं धरने की आवश्यकता है तो जमीन शोधे बिना, ठीक तरह देखे बिना उस चीज को यों ही रख देना यह प्रोषधोपवास व्रत का पहला अतिचार है । बिना देखे शोधे जमीन में मलमूत्र क्षेपण करना यह प्रथम अतिचार है । (2) बिना देखे, बिना शोधे उपकरणों का ग्रहण कर लेना यह प्रोषधोपवास व्रत का दूसरा अतिचार है । जैसे अरहंतदेव की, आचार्य की पूजा करते हुए उन पूजा के उपकरणों का या अपने वस्त्रादिक वस्तुवों का बिना देखे, बिना शोधे ग्रहण कर लेना यह प्रोषधोपवास व्रत का दूसरा अतिचार है । इसमें प्रमाद बसा है और अहिंसा की उपेक्षा की गई है, इस कारण यह दोषरूप है । (3) बिना देखे, बिना शोधे बिस्तर, चटाई आदिक का बिछा देना यह प्रोषधोपवास व्रत का तीसरा अतिचार है । इसमें प्रसाद का और अहिंसा के प्रति उपेक्षा का दोष बनता है। (4) प्रोषधोपवास व्रत में जो कुछ प्रवृत्तियाँ आवश्यक हैं उनमें आदर न होना, निरुत्साह होकर व्रत करना, सो अनागत नामक । चौथा अतिचार है । प्रोषधोपवास में क्षुधा आदिक की तो वेदना होती है उस वेदना से मलिन होकर प्रमाद करना, योगक्रिया में आदर करना सो यह दोष है । (5) स्मृत्यनुपस्थान―प्रोषधोपवास में की जाने वाली योग्य क्रियावों का भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान कहलाता है । ये 5 प्रोषधोपवास व्रत के अतिचार हैं । अब भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार कहते हैं ।