वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-17
From जैनकोष
एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशते: ।। 9-17 ।।
मुनिराज में एक साथ संभावित अधिक से अधिक परीषहों की संख्या का निर्देश―एक जीव के एक साथ 1 से लेकर 19 परीषह तक हो सकते हैं । दो परीषह क्यों कम हो गए? शीत और उष्ण परीषह में से कोई 1 ही तो होगी । जब ठंड का दुःख है तो गर्मी का नहीं, जब गर्मी का दुःख है तो ठंड का नहीं तो एक परीषह तो यह कम हो जाता है और फिर शयन निषद्या चर्या अर्थात सोना, बैठना, चलना ये तीन काम एक साथ तो नहीं हो सकते । इन तीन में से कोई एक होगा । और जो होगा उस ही का परीषह है । तो इन तीन में कोई एक होने से दो नहीं हो सकते । तो दो ये घट गए । इस प्रकार तीन परीषह कम हो जाने से 19 परीषहों को बताया गया है कि किसी मुनि के साथ-साथ अधिक से अधिक परीषह होवें तो 19 परीषह तक हो सकते हैं । किसी के एक ही परीषह होता किसी के और अधिक होते, पर 19 परीषहों से अधिक किसी मुनि में नहीं हो सकते । परीषह विजय में सफलता का आधार सहज चैतन्य स्वरूप का ही अवलंबन है और इस आलंबन के प्रताप से कर्मों का संवर होता है ।
परीषह विजयों की संख्या में हीनाधिकल हो सकने की संभावना पर चर्चा समाधान―यहाँ एक शंकाकार कहता है कि जहाँ प्रज्ञा है वहाँ अज्ञान कैसे और जहाँ अज्ञान है वहाँ प्रज्ञा कैसे? तो जैसे चर्या, निषद्या, भैय्या इनमें विरोध है । ये तीनों एक साथ नहीं हो सकते हैं, उसी प्रकार प्रज्ञा और अज्ञान ये भी एक साथ नहीं हो सकते और इस कारण ज्यादह से ज्यादह 19 परीषह होते हैं, इस कथन के बजाये 18 परीषह होते हैं यह कहना चाहिये । समाधान―यह शंका युक्त नहीं है क्योंकि अपेक्षा लगाने से प्रज्ञा और अज्ञान में विरोध नहीं होता । वह अपेक्षा क्या है कि श्रुतज्ञान की अपेक्षा से प्रज्ञा बहुत अधिक होने पर भी अवधिज्ञान का अभाव है तो वहाँ अज्ञान बन जाता है । इस प्रकार एक मुनि में प्रज्ञा और अज्ञान दो परीषह हो सकते हैं और एक ही साथ दोनों परीषहों की संभावना की जाती है । यहाँ कोई यदि ऐसा समाधान दे कि दंशमशक परीषह में दो परीषह आ गए―दंस परीषह और (2) मशक परीषह । सो प्रज्ञा और अज्ञान को तो एक साथ मान लो, पर दंश और मशक दोनों परीषह एक साथ हो जाते हैं । डाँस भी काट रहे हैं और मच्छर भी काट रहे हैं सो यों 19 के 19 हो जायेंगे । इसके उत्तर में कहते हैं कि ऐसा समाधान करना भी ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ परीषह अलग नहीं है, मशक तो डांस की जाति का ही है, फिर मशक शब्द देने की क्या जरूरत थी? उपलक्षण करने के लिये प्रकार बताने के लिये कि जैसे डाँस काटते हैं ऐसे ही जितने भी जंतु काटने वाले हैं उनका यह एक परीषह बनता है । तब ही तो बिच्छू ततैया आदिक कुछ भी काटे तो वह दंशमशक परीषह है ।
परीषहों की बाईस संख्या के विषय में प्रश्नोत्तर―अब यहाँ कोई प्रश्न करता है कि चर्या आदिक तीन परीषह समान हैं । उन्हें तो एक में ही मान लेना चाहिये था । चाहे बैठने के परीषह हों चाहे लेटने के या चलने के, दुःख पीड़ा एक समान मानकर फिर कह लेना चाहिये कि वे एक साथ नहीं हो सकते, क्योंकि बैठने में परीषह आ जाये तो वह सो सकता है । सोने में परीषह आ जाये तो वह चल सकता है, पर सहन विधि एक जैसी है । सो इन 3 को तो एक परीषह मान लेवें और दंशमशक को दो परीषह मान लेवे सो यहाँ परीषहों की संख्या 21 कर देना चाहिए । फिर उनमें से छटनी बनाओ कि एक काल में शीत उष्ण में से एक परीषह मिलेगा । शय्या, चर्या, निषद्या के प्रतिनिधि एक होंगे, इस तरह दो परिषहों को कम करके 17 संख्या बताना चाहिये । एक मुनि में अधिक से अधिक 17 परीषह हो सकेंगे । उत्तर देखिये―प्रश्नकर्ता ने चर्या, शय्या के बतलाने में अरति कारण बताया है सो अरति यदि रहती है तो उसे परीषह जय नहीं कहा जा सकता । यदि साधु चर्या के कष्ट से उद्विग्न होकर बैठ जाता है या बैठने से उद्विग्न होकर लौट जाता है तो वह परीषहजय कैसे? परीषहजय तो वहाँ है जहाँ परीषह आने पर उनके विजय का संकल्प रहता है और विजय के मूल आत्मस्वरूप पर दृष्टि जाती है । उद्वेग से चलने, उठने, लेटने वाले साधु जिसके कि परिषहों को जीतूंगा इस प्रकार की रुचि नहीं है उसका वह परीषह विजय नहीं कहा जा सकता, इस कारण तीनों क्रियाओं के कष्टों को जीतना और एक के कष्ट के निवारण के लिए दूसरे की इच्छा न करना यह ही परीषहजय है । सो चर्या, निषद्या, शय्या ये तो स्वतंत्र परीषह हैं और दस मशक यह एक परीषह है, इस प्रकार 22 परीषह विजय होते हैं जिनमें एक साथ मुनि के 1ठ परीषह विजय होते है ।
संवर के हेतुभूत चारित्र के प्रतिपादक सूत्र की भूमिका―अब परीषहजय के बाद संवर के हेतुओं में चारित्र के वर्णन का क्रम आता है । चारित्रमोह के उपशम, क्षय और क्षयोपशम से होने वाली आत्मा की विशुद्ध दृष्टि से चारित्र एक ही है, क्योंकि चारित्र में चाहिए कषायरहित अपने स्वरूप में स्थिर होना, सो यह प्रयोजन सभी प्रकार के संयमों में है । इसलिए सामान्यतया चारित्र एक ही प्रकार का होता है, किंतु उसकी प्रवृत्ति का प्रकट रूप देखें तो प्राणि संयम और इंद्रिय संयम की अपेक्षा दो प्रकार का चारित्र है । संयम का अभ्युदय होने पर मुनिराज प्राणियों की हिंसा से बचते है और इंद्रिय विषयों की प्रवृत्ति से अलग रहते हैं, इस कारण संयम दो प्रकार का है और उस संयम को उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य विशुद्धि के भेद से परखा जाये तो वह तीन प्रकार का हो जाता है । (1) उत्कृष्ट संयम, (2) मध्यम संयम और, (3) जघन्य संयम । अब इस ही चारित्र से छद्मस्थ और सर्वज्ञों में निरखा जाये तो छद्मस्थों में दो प्रकार का चारित्र है―(1) सराग चारित्र और, (2) वीतराग चारित्र । सर्वज्ञों में दो प्रकार का चारित्र है―(1) सयोगचारित्र और, (1) अयोग चारित्र । सो इस दृष्टि से चारित्र 4 प्रकार का होता है, और इस ही चारित्र को भिन्न-भिन्न लक्षण के असंयम में निरखा जाये तो 5 प्रकार का होता है । चारित्र के वे 5 प्रकार अगले सूत्र में कहे जा रहे हैं ।
सामायिकछेदोपस्थापनापरिहार विशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातमिति चारित्रम् ।। 9-18 ।।
चारित्र के प्रकारों में प्रथम सामायिक चारित्र का प्रतिपादन―सामायिक संयम, छेदोपस्थापना संयम, परिहार विशुद्धि संयम, सूक्ष्मसांपराय संयम और यथाख्यात संयम, इस प्रकार चारित्र के 5 भेद हैं । सामायिक संयम का लक्षण है कि सभी सावद्य योगों का, पाप प्रवृत्तियों का अभेद रूप से याने अमुक-अमुक का त्याग करते हुये ऐसे भिन्न-भिन्न पापों का विकल्प न करके अभेद रूप से आजीवन त्याग करना अथवा यथोचित का नियत समय तक त्याग करना सामायिक संयम है । यहाँ एक शंकाकार कहता है कि सामायिक संयम तो गुप्ति ही है क्योंकि इस सामायिक में भी निवृत्ति बताया गया कि सर्व पापों से अलग रहना सामायिक है और गुप्ति में भी निवृत्ति कहा गया कि मन, वचन, काय की प्रवृत्ति हटा देना गुप्ति है । तो निवृत्ति परक होने से सामायिक गुप्ति रूप ही हो गई, फिर उसका अलग निर्देश क्यों किया गया? उत्तर―सामायिक को गुप्ति नहीं कह सकते क्योंकि इस गुप्ति में तो मन के व्यापार का भी निरोध हो जाता है, किंतु सामायिक में मानस प्रवृत्ति रहती है, याने रागद्वेष न करके मन में समताभाव आता है । यहाँ कोई कह सकता है कि जब सामायिक में मानस प्रवृत्ति है तब तो इसे समिति कह देना चाहिये यों भी सामायिक को अलग ग्रहण न किया जाना चाहिये । सो यह भी शंका उचित नहीं है, सामायिक चारित्र उत्तम तत्त्व है । जो सामायिक चारित्र में समर्थ है उस ही पुरुष को समितियों में प्रवृत्ति करने का अधिकार है और उसी को ही उपदेश है । सो इसमें कार्य कारण का भेद स्पष्ट जंचता है । सामायिक संयम कारण है और समिति कार्य है । अब एक शंकाकार कहता है कि धर्म 10 प्रकार के बताये गए हैं, उनमें उत्तम संयम भी कहा गया है । तो इस सामायिक का उत्तम संयम में अंतर्भाव हो जायेगा । यों सामायिक का निर्देश न करना चाहिये । उत्तर चारित्र का कथन अंत में किया गया है और उस चारित्र के पालन में सामायिक एक प्रधान संयम है यह समस्त कर्मों के क्षय का कारण है यह बात समझाने के लिये संयम चारित्र का वर्णन किया गया है । यद्यपि चारित्र धर्म में अंतर्भूत हो जाता है तब भी इस चारित्र को अलग बताया और अंत में बताया सो उसका कारण यह है कि यह समझ बने कि चारित्र मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् कारण है ।
छेदोपस्थापना नामक द्वितीय चारित्र का प्रतिपादन―छेदोपस्थापना चारित्र का लक्षण है यह कि प्रमादवश कोई अनर्थ का प्रसंग आ जाये तो उस प्रसंग को हटाने में, प्रमाद को दूर करने में जो सम्यक प्रतिकार होता है उसे छेदोपस्थापना कहते हैं । अथवा समता का छेद याने भंग हो जाये तो फिर से समता धारण करना उसे छेदोपस्थापना कहते हैं । त्रस स्थावर जीवों का उत्पाद और समता के स्थान चूंकि पदमस्थ जीवों को प्रत्यक्ष नहीं है इस कारण जो निषद्य क्रिया का पालन स्वीकार किया था उसमें प्रमादवश दूषण लग सकता है । सो उन दूषणों का सम्यक् प्रकार से प्रतिकार करना छेदोपस्थापना है । अथवा पाप कर्म 5 प्रकार के हैं―(1) हिंसा, (2) झूठ, (3) चोरी (4) कुशील और, (5) परिग्रह । इन पापों का त्याग करना, ऐसे अभिप्राय सहित जो पापों से निवृत्ति है उसे छेदोपस्थापना कहते हैं ।
परिहार विशुद्धि नामक तृतीय चारित्र का प्रतिपादन―परिहार विशुद्धि का लक्षण है―जिसमें प्राणिवध के परिहार के साथ ही साथ विशिष्ट शुद्धि हो वह परिहार विशुद्धि चारित्र है । परिहार विशुद्धि एक ऋद्धि होती है । इस ऋद्धि के प्रताप से ऋद्धिधारी साधु के परिहार विशुद्धि चारित्र बनता है । यह ऋद्धि किसके उत्पन्न हुई है सो सुनो जिस पुरुष ने तीन वर्ष से 9 वर्ष तक अर्थात पृथक्त्व वर्ष तक तीर्थंकर के चरण कमल की सेवा की हो और उस समय आयु उसकी 30 वर्ष की हो और उस चरण कमल की सेवा के समय में प्रत्याख्यानावरण नामक पूर्व का खूब पारंगत हो जिससे कि प्राणियों की हिंसा के त्याग से संबंधित काल परिभ्रमण जन्मयोनि, देश, द्रव्य स्वभाव, विधान आदिक को जानता हो, प्रमादरहित हो, महान् शक्तिशाली हो, जिसके कर्मों की बड़ी निर्जरा चलती हो, अत्यंत दुष्कर चर्या का अनुष्ठान करता हो, तीनों संध्याओं को देखकर दो कोष प्रमाण गमन किया करता हो ऐसे साधु के परिहार विशुद्धि नामक ऋद्धि होती है और उसके परिहार विशुद्धि नामक चारित्र होता है ।
सूक्ष्म सांपराय के चारित्र नामक चतुर्थ चारित्र का प्रतिपादन―सूक्ष्म सांपराय चारित्र―जो साधु स्थूल और सूक्ष्म प्राणियों के वध के परिहार में पूर्णतया सावधान हैं―प्रमादरहित हैं, उत्साहशील हैं, जिनका चारित्र अखंडित है, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानरूपी तेज हवा से धोकी गई अंत: चारित्ररूपी अग्नि की ज्वाला से जिसने कर्मरूपी ईंधन को जला दिया है, ध्यान विशेष के कारण जिसने कषाय के विष अंकुरों को मूल से उखाड़ दिया है, सूक्ष्म मोहनीय कर्म के बीज को भी जिसने नाश के मुख में ढकेल दिया है ऐसे सूक्ष्म लोभ कषाय वाले साधु के सूक्ष्म सांपराय चारित्र । होता है । सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान का क्या स्वरूप है उसे बताते समय अनेक लोग यह कहते हैं कि जहाँ सब कषायें दूर हो गई हों, सिर्फ सूक्ष्म संज्वलन लोभ रहा हो उसे सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान कहते हैं । पर बहुत अच्छी विधि तो यह है सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान का स्वरूप बताने की कि समस्त कषायें नष्ट होकर जहाँ केवल संज्वलन सूक्ष्म लोभ रहा हो उसके विनाश के लिये भी जिसका पौरुष चल रहा है, विशुद्ध परिणाम बन रहे हैं उसको सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान कहते हैं । यह ही बात सूक्ष्म सांपराय चारित्र में है । यह चारित्र में बताए हुए सूक्ष्म संज्वलन लोभ के लिये होता है । यह सूक्ष्म सांपराय चारित्र 10वें गुणस्थान में हुआ करता है ।
यथाख्यातचारित्र―चारित्र मोहनीय का संपूर्ण उपशम होने से या क्षय होने से आत्मस्वभाव के अनुकूल आविर्भाव होता है यथाख्यातचारित्र है । अथवा इसका दूसरा नाम अथाख्यातचारित्र भी कहा जा सकता । जैसा यह चारित्र प्रकट हुआ है ऐसा इस जीव ने कभी नहीं पाया मोह का क्षय उपशम होने से पहले । इस कारण इसका नाम अथाख्यात भी कह सकते हैं और यथाख्यात का सीधा अर्थ है―यथा मायने जैसे आत्मा का स्वभाव है उसी प्रकार ख्यात हो जाना, प्रकट हो जाना यथाख्यात कहलाता है । इस सूत्र में 5 चारित्रों का नाम देकर इति शब्द कहा है । इतिचारित्रं । सो इति कहने का अर्थ है कि चारित्र सब समाप्त हो याने यथाख्यात चारित्र जहाँ हो वहाँ समस्त कर्मक्षय की समाप्ति होती है । और चारित्र की पूर्णता भी यहीं हो जाती है । इसी कारण यथाख्यातचारित्र 11वें, 12वें, 13वें, 14वें गुणस्थान में बताया गया है । 14वें गुणस्थान में यथाख्यात चारित्र होता है और इसकी परिपूर्णता होते ही शेष बची हुई 85 प्रकृतियों का क्षय हो जाता है और इसके बाद ये सिद्ध प्रभु बन जाते हैं । तो यथाख्यात चारित्र का महत्व समझाने के लिए सूत्र में यथाख्यातचारित्र कहकर इति शब्द कहा है, यह सब चारित्र है । जैसे पहले सूत्र में बताया गया था कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का एकत्व मोक्षमार्ग है । यद्यपि वहाँ एकत्व शब्द नहीं दिया, पर सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि यह तो कहा गया बहुवचन में और मोक्षमार्ग: कहा गया एकवचन में । उससे ही सिद्ध होता है कि ये तीनों अलग-अलग मोक्षमार्ग नहीं हैं किंतु तीनों का समुदाय परिपूर्ण एकत्व मोक्ष का मार्ग है । तो ऐसे ही यहाँ संकेत किया गया है कि उन तीनों का एकत्व होने पर बात क्या गुजरती है? परमयथाख्यातचारित्र, सो यथाख्यात नाम देकर इसके आगे इति शब्द कहा है ।
चारित्र के प्रकारों के नामों का सूत्र में क्रम रखे जाने के कारण पर विहंगमदृष्टि, चारित्र के संवर हेतुत्व व तप के वर्णन की उत्थानिका―अब इन चारित्रों का जो क्रम रखा गया है उसका कारण देखिये―आगे आगे के चारित्र विशेष विशुद्ध हैं । यह क्रम ध्यान में रखकर इन चारित्रों के नाम से क्रम बताया गया है । सामायिक और छेदोपस्थापना की जघन्य विशुद्धि अल्प है । उससे परिहार विशुद्धि की जघन्यलब्धि अनंतगुणी है । फिर परिहार विशुद्धि की उत्कृष्ट लब्धि अनंतगुणी है । उससे अनंत गुणी सामायिक और छेदोपस्थापना की उत्कृष्ट लब्धि है । यथाख्यातचारित्र की संपूर्ण विशुद्धि अनंत गुणी है । यथाख्यातचारित्र की संपूर्ण विशुद्धि में जघन्य उत्कृष्ट विभाग नहीं होता, इस प्रकार इन 5 चारित्रों में इस उपलब्धि और विशुद्धि की तारतम्यता बताने के लिए यह समस्या रखी गई है । ये पांचों ही चारित्र शब्द की दृष्टि से संख्यात हैं, और आशय की दृष्टि से असंख्यात हैं और अर्थ की दृष्टि से अनंत भेद वाले हैं । ये चारित्र संवर के हेतुभूत हैं क्योंकि इन चारित्रभावों के प्रताप से कर्मों का आस्रव रुकता है, इस कारण ये चारित्र परमसंवर रूप हैं । इस प्रकार 9वें अध्याय के दूसरे सूत्र में जो संवर के हेतु बताये गये थे गुप्तिसमिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र, सो इन सभी भेदों का वर्णन हो चुका है । ये सभी चारित्र परम संवररूप हैं । अब संवर के उपायों के वर्णन के बाद जैसा कि तीसरे सूत्र में बताया है कि तपश्चरण से निर्जरा भी होती है और संवर भी होता है । तो तीसरे सूत्र के अनुसार तब तपों का वर्णन चलना चाहिये । तप कहते हैं इच्छानिरोध को । इच्छानिरोध यद्यपि आंतरिक तत्त्व है तो भी उसके बाह्य और आभ्यंतर दो रूप बन जाते हैं, क्योंकि भाव भी है और प्रवृत्ति भी है, और बाह्य तप के 6 भेद हैं और इसी प्रकार आभ्यंतर तप के भी 6 प्रकार हैं । इस प्रकार तप के 12 भेद होते हैं, जिनमें से अब बाह्य तपों के भेद कहे जाते हैं ।