वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-43
From जैनकोष
वितर्क: श्रुतम् ।। 9-43 ।।
विशेष रूप से तर्क करना, चिंतन करना वितर्क कहलाता है अर्थात वह श्रुत ज्ञान है । वितर्क में पदार्थ के संबंध में विशेष और सूक्ष्म रूप से ज्ञान चलता है । एकाग्रचित्त होकर एक विषय में जो विशेष सूक्ष्म गुण पर्याय आदिक का निरीक्षण चलता है उसकी अवस्था, उसका अविभाग प्रतिच्छेद, उनके अनुभाग आदिक के विषय में जो ध्यान बनता है वह सब वितर्क है । ऐसे वितर्क शुक्लध्यान से पहले धर्म ध्यान में न रहा अथवा धर्म ध्यान में राग साथ चलता था, अब यहाँ मुनि राग द्वेषरहित हुआ है और राग की लपेट न होने से उसके विशुद्ध ध्यान बन रहा है । यद्यपि राग में 10वें गुणस्थान तक कहा गया है, किंतु श्रेणी में होने वाला राग बिल्कुल अव्यक्त है । बुद्धि में नहीं आता और न उसके प्रभाव में, ज्ञानधारा में अंतर आता, पर जो उस वितर्क के साथ परिवर्तन चलता है वह परिवर्तन ज्ञान की निर्बलता से चल रहा है क्योंकि वह क्षायोपशमिक ज्ञान है और धर्मध्यान के अनंतर ही हुआ है ऐसा वितर्क का पूर्ण अभ्यास नहीं हो पाया है सो प्रथम शुक्लध्यान में वीचार अर्थात परिवर्तन चलता है फिर भी वितर्क धर्मध्यान के चिंतन से विशेष बलवान है । अब वहाँ जिज्ञासा होती है कि वितर्क का तो लक्षण कह दिया, पर वीचार का क्या लक्षण है? तो उसके उत्तर में सूत्र कहते हैं ।