वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-44
From जैनकोष
वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्रांति: ।। 9--44 ।।
वीचार का विवरण―अर्थ वचन और योग इनके परिवर्तन को वीचार कहते हैं । अर्थ तो हुआ ध्येय, जिसका ध्यान किया जा रहा है द्रव्य हो अथवा पर्याय हो और व्यंजन कहलाता है वचन । जो ध्यान के साथ भीतर में अंत: शब्द रचना चल रही है वह है वचन और योग है मन, वचन, काय का कर्म । सो इन तीनों में परिवर्तन होना वीचार कहलाता है । जैसा प्रथम शुक्लध्यान वाला द्रव्य का चिंतन कर रहा था । अब उस ही पदार्थ के विषय में द्रव्य से हटकर पर्याय का चिंतन करने लगा । यद्यपि पर्याय कोई अलग वस्तु नहीं है । द्रव्य ही परिणमन है, पर ध्रुवपना आदिक दृष्टियों से विचार करना कि यह तो द्रव्य का चिंतन कहलाता है और पर्यायमुखेन उसी पदार्थ का चिंतन करना पर्याय का चिंतन कहलाता है । तो द्रव्य को छोड़कर पर्याय को प्राप्त हुआ ध्यान और पर्याय को छोड़कर द्रव्य को प्राप्त हुआ, ऐसे ध्यान में पदार्थ का परिवर्तन कहलाता है । इसी प्रकार जिस श्रुत वचन का ध्यान कर रहे थे उस वचन से बदल कर अन्य वचनों का आलंबन किया गया, फिर उनको भी बदल कर अन्य वचनों के सहारे ध्यान बनाया तो यह व्यंजन संक्रांति कहलाता है । योगसंक्रांति काययोग को छोड़कर अन्य योग को ग्रहण किया, अन्य योग को छोड़कर काययोग को ग्रहण किया इसी तरह उन तीन योगों में योग का पलटन होता रहना योग संक्रांति कहलाता है । इस प्रकार अर्थ व्यंजन योग में परिवर्तन होना वीचार कहलाता है ।
आत्मविश्वास सहित एकांत स्थान में क्षमतासहित ध्यान करने का अनुदेश―उक्त प्रकार सामान्य और विशेष रूप से कहा गया यह धर्मध्यान और शुक्लध्यान यह पहले कहे गये गुप्ति आदिक अनेक प्रकार के उपायभूत है । सो ये ध्यान क्यों ध्याये जाते हैं और कौन ध्याता है? सो ये संसार परिभ्रमण के दूर करने के लिये ध्याये जाते हैं और इनका मुनिजन ध्यान करते हैं । इस ध्यान का प्रारंभ करने के लिए कुछ तैयारी अपेक्षित होती है । उत्तम शरीर संहनन होने पर भी परीषह में आयी हुई बाधा को सहन करने की शक्ति आत्मविश्वास हुए बिना नहीं प्रकट हो सकती और जब तक आत्मविश्वास नहीं, परीषह सहने की क्षमता नहीं तब तक ध्यान साधना नहीं हो सकती । इस कारण ध्यान की सिद्धि के लिए कोई विशेष तैयारी अपेक्षित होती है । अन्य लोग भी तो प्राणायाम, आसन आदिक अंगों के द्वारा समाधि और ध्यान की सिद्धि करते हैं । सो अन्यत्र तो ऐसी शरीर चेष्टा पर ही विशेष ध्यान होता है किंतु जैन शासन की प्रक्रिया में तत्त्वचिंतन पर विशेष ध्यान दिया जाता हे । यह तत्त्वचिंतन किसी विशेष तैयारी पूर्वक चलता है । तो वह तैयारी क्या है, उसके विषय में कुछ वर्णन किया जाता है । मुनि किसी एकांत स्थान में अपना ध्यान बनाये हैं । पर्वत गुफा, पेड़ की खोह, नदी, श्मशान, उजड़ा हुआ बाग, सूना घर किसी भी एकांत स्थान में ध्यान की साधना करे । प्रथम बात तो यह अपेक्षित है । दूसरी बात, वह स्थान बाधाओं से रहित हो । ध्यान में बैठ जाने के बाद किसी सिंहादि क्रूर जीव के द्वारा बाधा आये तो वह तो सही जाती है, पर तैयारी में जानबूझकर किसी बाधा वाले स्थान पर ध्यान नहीं किया जाता है । सो वह स्थान बाधाओं से रहित हो । जैसे सिंह, मृग, पशु-पक्षी, मनुष्यादिक जहाँ आते जाते न हों, जंतुरहित स्थान हो, ठंड, गर्मी समान हो, अधिक तेज वायु न हो, वर्षा न हो, गर्मी न हो । ऐसे किसी योग्य स्थान में ध्यान करना चाहिये । भीतर बाहर कोई बाधायें न हों ऐसे पवित्र स्थान पर ध्यान करना चाहिए ।
ध्यानयोग्य आसनों में पद्मासन की प्रधानता―तीसरी बात―बड़े आराम से विश्रामसहित पलयंक आसन अथवा पद्मासन से बैठना चाहिए । आसन अनेक हैं, और अनेक आसनों से बैठकर ध्यान किया जा सकता है, पर ध्यान का उपक्रम एक पद्मासन से बैठने पर करने में सुविधा और सफलता होती है । सब आसनों में पद्मासन को क्यों विशेषता दी गई है इसका कारण यह है कि पद्मासन से बैठने पर एक तो कमर की रीढ़ सीधी होती है । दूसरे पद्मासन लगाकर ध्यान करने से ध्यान में सुगमता होती है । तो उसका पहला कारण तो यह है कि पद्मासन से बैठने पर श्वासनली, पीठ हड्डी सब सीधी रहती है जिससे श्वासोच्छ्वास सुगम होता है और पद्मासन में चूंकि पैर की तली और हाथ की तली ये किसी का स्पर्श नहीं कर रहे हैं इस कारण स्पर्श संबंधी बोध नहीं रहता । किसी चीज को जब छूते हैं तो प्राय: हाथ की हथेली से छूते है, अपना भी बुखार यदि समझना हो तो अपने ही हाथ की हथेली से छुवेंगे । कोई अपने आप हथेली से छुवे बिना बुखार नहीं जान पाते कि कितना गर्म शरीर है । तो यह हथेली किसी को छुवे नहीं यह स्थिति पद्मासन में होती है । इस कारण वहाँ व्यग्रता का अवकाश नहीं होता ।
ध्यान के लिये पद्मासन से बैठकर निश्चल अवस्थिति होने की प्रशंसनीयता―पद्मासन में बायें हाथ पर दाहिना हाथ रखकर बैठें और उस समय ऐसी समता की स्थिति हो शरीर में कि नेत्र न तो खुले हुये हों और न बंद हों, किंतु अपने आप आंखों की जो स्थिति हो सो रहो, उस समय दाँतों पर दाँत रखकर ध्यान न करें क्योंकि एक यह जान-बूझकर क्रिया हो रही है तो उस क्रिया में उपयोग चला जायेगा । वे स्वयं ही दाँतों के ऊपर दांत कुछ अंतर से रहा करते हैं । गंभीर गर्दन किए हुए हों, प्रसन्न मुख हों, स्थिर दृष्टि हो, निद्रा न हो, आलस्य न हो, किसी प्रकार का रागद्वेष रंज हास्य न हो, किसी बात में ग्लानि न आती हो ऐसे मंद-मंद श्वासोच्छ्वास लेने वाले साधु ध्यान की तैयारी करते । उस ध्यान के समय अपना चित्त भीतर के किसी हिस्से में लगा दें, जैसे नाभि के ऊपर चित्त रखें, हृदय में चित्त रखें, मस्तक में चित्त रखें, याने उपयोग यह मन किसी एक जगह लगाये ऐसा पहले प्रयत्न किया जाता है, फिर ऐसा उपयोग न रखना किंतु चित्त एकाग्र हो जाये इसके लिए एक और चित्त को रखना प्रथम आवश्यक होता है । ऐसा मुनि जो स्थिर आसन से एकांत में बाधारहित भूमि में बैठा है वह मोक्ष का उपशम कर बड़ी कुशलता से शरीर की क्रियाओं को रोक देता है । निश्चल शरीर रहे, कोई अंग न हिले, उस समय श्वास अपने आप मंद निकलने लगती है ।
शुक्लध्यान में सातिशय प्रगति का उत्साह―वह मुनि क्षमाशील होकर निश्चित लक्ष्य में उपयोग देता है वहाँ भी बहिरंग, अंतरंग पदार्थ का ध्यान करता है, पुद्गल का भी ध्यान करता उसके स्वरूप गुण पर्याय का भी ध्यान करता, आत्म पदार्थ का भी ध्यान करता । कैसा स्वरूप है, कैसी शक्ति है, कैसी पर्याय है इन सबका ध्यान करता है और ऐसे विशेष श्रुतज्ञान से करता है कि कि जिसमें सूक्ष्म चिंतन चले । एक प्रथम शुक्ल ध्यान में उस पदार्थ के द्रव्य, गुण, पर्याय अंशों का परिवर्तन चलता रहता है, और भीतर जो शब्द उठते हैं उनका भी परिवर्तन है मन, वचन, काय योग का भी परिवर्तन है । लेकिन इस परिवर्तन से वहाँ ध्यान की धारा में अंतर नहीं हो पाता । वह मुनि अपने भीतरी आत्मबल को बढ़ाता है, मन को उत्साहपूर्वक सबल बनाता है । सो जैसे कोई शस्त्र से वृक्ष को छेदता है ऐसे ही यह प्रथम शुक्ल ध्यान वाला कर्मप्रकृतियों को छेदता है । तो ऐसा यह मुनि मोह प्रकृतियों का उपशम या क्षय करने वाला है, उसके पृथक्त्व-वितर्क वीचार नाम का शुक्लध्यान होता है । इस शुक्लध्यान का यदि उपशम श्रेणी वाला जीव है तो विनाश होकर वह गिर जाता है । यदि क्षपक श्रेणी वाला जीव है तो दूसरा शुक्लध्यान होता है और तब इस शुक्लध्यान का अभाव हो जाता है ।
अविकार अविकल्प अंतस्तत्त्व के सातिशय ध्यान के प्रसाद मे सकल परमात्मत्व की अवस्था का अभ्युदय व सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान से अयोगत्व―एकत्व वितर्क शुक्लध्यानरूपी अग्नि से जिस भव्य आत्मा ने घातिया कर्मरूपी ईधन को जला दिया है उसके केवल ज्ञान सूर्य प्रकाशमान हो जाता है, इस ही को कहते हैं 13वां गुणस्थान । जैसे कि मेघ समूह को भेद कर निकला हुआ सूर्य अपनी किरणों से सर्व ओर भी समान होता है ऐसे ही भगवान तीर्थंकर या अन्य केवली घातिया कर्मरूपी मेघ को भेदकर ऐसा प्रकट होता है कि उनके ज्ञान में लोकालोक त्रिकालवर्ती सर्वपदार्थ प्रतिभासमान हो जाते हैं । ये सयोग केवली इंद्रों द्वारा, चक्रवर्तियों द्वारा अभिनंदनीय हैं, पूज्य हैं, और इनके उपदेश के अनुसार वे इंद्रादिक अपने भाव बनाते हैं । ये सयोग केवली कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक उपदेश देते रहते हैं । 84 लाख वर्ष का एक पूर्वांग, ऐसे एक करोड़ पूर्व तक किसी तीर्थंकर की आयु हो सकती है । उस आयु में जितनी जल्दी वे केवली बन जायें उतना समय कम कर दिया गया है, बाकी समय में दिव्यध्वनि के समय उनकी दिव्यध्वनि खिरती है । यह अधिक से अधिक समय है । जब सयोग केवली भगवान की आयु अंतर्मुहूर्त शेष रह जाती है और वेदनीय नाम गोत्र की स्थिति अधिक रह जाती है तो उस समय इनके केवली समुद्धात होता है, जिसके प्रताप से हजारों वर्षों की स्थिति के तीन कर्मों की आयु आयुकर्म के बराबर हो जाती है । केवली समुद्धात के बाद इनके वादर काययोग नष्ट हो जाता है, तब तक वचनयोग, मनोयोग नष्ट हो ही गए थे, अंत में वादर काययोग नष्ट हो जाता है । और सूक्ष्म काययोग रह जाता है । उस समय इनके सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान होता है । केवली समुद्धात में यदि कायोत्सर्ग से भगवान स्थित हैं अथवा पद्मासन से स्थित हैं तो जितना उनके शरीर का घेराव है उतने प्रमाण मोटे प्रदेश बनते हैं और ऊपर लोक के अंत तक और अधोलोक में लोक के नीचे तक फैल जाते हैं, इसे दंड समुद्धात कहते हैं । इस दंड समुद्धात के अनंतर ही वे प्रदेश अगल-बगल फैल जाते हैं और कपाट समुद्धात के रूप में हो जाते हैं, फिर आगे पीछे के वे प्रदेश फैलते हैं और कपाट समुद्धात हो जाता है । अनंतर ही जो वातवलय के स्थान बचे थे उनमें भी प्रदेश फैल जाते हैं तब इस समय लोकपूरण समुद्धात है । इस लोक समुद्धात में लोक के एक-एक प्रदेश पर आत्मा का एक-एक प्रदेश स्थित है । इसके अनंतर सिकुड़कर प्रतर समुद्धात होता है, फिर सिकुड़कर कपाट समुद्धात होता है और सिकुड़कर दंड समुद्धात होता है, इसके अनंतर शरीर में प्रवेश होता है, इस क्रिया के होने से बढ़े हुए तीन कर्म प्राय: आयु के बराबर होते हैं । जो थोड़ा सा कुछ अंतर रहता है तो वह स्वयं उसके बाद ही समाप्त हो जाता है । इसके बाद सूक्ष्म काययोग में जब ये सयोग केवली हैं तो वहां योगविनाश के लिये सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यान होता है ।
सकल परमात्मा की सहज ही अयोगी होकर निर्वाण का लाभ―सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती शुक्लध्यान के प्रताप से योग समस्त नष्ट हो जाते हैं तब अयोग केवली भगवान हो जाते हैं । अयोग केवली के व्युपरत क्रियानिवृत्ति नामक ध्यान होता है । सयोग केवली में श्वासोच्छ्वास नहीं, मन, वचन, काय का व्यापार नहीं, कोई भी योग परिस्पंद न होने से यह क्रिया से दूर हो गया है । फिर ये कभी योग में आ न सकें इस कारण इस ध्यान का नाम व्युपरतक्रिया निवृत्ति रखा गया है । इस ध्यान के प्रताप से शेष रहे समस्त सत्त्व का विच्छेद हो जाता है । निराश्रव हो जाता है । और ये 14वें गुणस्थान के समाप्त होते ही सिद्ध भगवान होते हैं । यहाँ संपूर्ण यथाख्यातचारित्र बन जाता है । जब कर्ममलकलंक जल गया तो जैसे सर्वमैल के जल जाने पर स्वर्ण अपने सही स्वरूप में आ जाता है ऐसे ही ये भगवान बाह्य मल के नष्ट होने पर शरीर के पृथक् हो जाने पर जैसा आत्मा का सहज स्वरूप है वैसा ही विकसित हो जाता है । यहाँ तक द्रव्य का वर्णन चला, जो संवर और निर्जरा दोनों का कारणभूत है । अब निर्जरा की विशेषता बतलाते हैं कि किन-किन भव्यात्माओं में निर्जरा कैसे अधिक-अधिक चलती है?