वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 59
From जैनकोष
भवत्यभावोपि च वस्तुधर्मो
भावांतरं भाववदर्हतस्ते ।
प्रमीयते च व्यपदिश्यते च
वस्तुव्यवस्थांगममेयमन्यत् ।।59।।
(199) शून्याद्वैतवादियों द्वारा तुच्छ अभावैकांत के समर्थन का निष्फल प्रयास―यहाँ शून्याद्वैतवादी कहते हैं कि जो उक्त छंद में यह आपत्ति दी है कि साधन के बिना साध्य की स्वयं सिद्धि नहीं होती, इस न्याय के अनुसार संवेदनाद्वैत में जब कोई साधन ही नहीं है याने कुछ द्वैत ही नहीं है तो संवेदनाद्वैत की भी सिद्धि नही हो सकती, ऐसा प्रसिद्ध किया था जो यह सही है । संवेदनाद्वैत की भी सिद्धि न होवे, परंतु शून्याद्वैत का तो अपने आप पक्ष सिद्ध हो गया याने कुछ भी न रहा । न संवेदनाद्वैत रहा, न पदार्थ रहा । शून्य ही शून्य सर्व कुछ रहा याने सबका अभाव विचारबल से प्राप्त हो जाता है । शून्य का परिहार तो नहीं किया जा सकता, इस कारण शून्याद्वैत तत्त्व मान लेना चाहिए । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यह कथन संगत नहीं है, क्योंकि स्याद्वादशासन में अभाव भी वस्तुधर्म होता है । प्रत्येक अभाव अन्य के सद्भावरूप हुआ करता है, पर वहाँ प्रतियोगी दृष्टि से देखें तो प्रत्येक पदार्थ में अन्य पदार्थ का अभाव बना हुआ है । सो हे वीर जिनेंद्र ! आपके मत में कहीं भी असंगतता नहीं आती । जैसे शून्याद्वैतवादियों का ख्याल है कि न तो कोई बाह्य वस्तु रही और न अभ्यंतर ज्ञानरूप वस्तु रही । तो सर्व प्रकार की वस्तुओं का अभाव होने से शून्यता ही तत्त्व बन जायेगा, सो यह संभव नहीं हो सकता, क्योंकि स्व धर्म के असंभव होने पर किसी भी धर्म की प्रतीति नहीं बन सकती । जब धर्म की प्रतीति है तो उसका कोई धर्मी भी होना चाहिए ।
(200) भाव के बिना अभाव की सिद्धि की असंभवता―शून्याद्वैतवादी कहते हैं कि शून्य तत्त्व है । तो देखो यह शून्य तब ही तो मालूम पड़ेगा कि जब कोई पदार्थ भी हो । तो कहीं पदार्थ है, कहीं पदार्थ नहीं है तो वहाँं मालूम हो जायेगा कि यहाँ शून्य है, सद्भाव के साथ अभाव लगा है । किसी न किसी का सद्भाव है तो वहाँ किसी का अभाव कहा जा सकता । तो जब अभाव धर्म की प्रतीति मान ली है तो उसका कोई धर्मी ये बाह्य-अभ्यंतर पदार्थ होना चाहिए, इस कारण सर्व शून्यता भी घटित नहीं होती । सर्व ही नहीं तो सर्व शून्यता कैसे? शंकाकार का कहना है कि सब शून्य है, तो वह सब क्या चीज है कि जिससे शून्य है? वह सर्व भी तो बतलाना चाहिए । और बतलाये तो शून्य कहाँ रहा, और न बतलायें तो सर्वशून्य कहाँ रहा? जैसे तत् ही नहीं तो तद्भाव कैसा, घट ही न कभी होता हो तो घट का अभाव कैसा, जब भाव ही नहीं तो अभाव किसका? यदि कदाचित् शंकाकार यह सोचे कि अभाव तो है और वह स्वरूप से है तो ऐसा कहने में भी उसके वस्तुधर्मपने की सिद्धि तो हो गई, क्योंकि स्वरूप का ही नाम वस्तुधर्म है । अनेक धर्मों में से किसी धर्म का अभाव हो तो वह अभाव अन्य धर्मरूप कहलायेगा । जैसे पुदगल में अमूर्तत्व का अभाव है तो मायने मूर्त रूप कहलाया वह ꠰ जीव में मूर्तत्व का अभाव है तो इसके मायने हैं कि सब जीव अमूर्तरूप कहलाये । अभाव की ऐसी प्रक्रिया पदार्थों में भी घटित होती । जैसे कहते हैं कि इस कमरे में घड़े का अभाव है तो वह अभाव घटरहित समस्त मकानरूप हो गया, कमरेरूप हो गया जहाँ कि घड़े का अभाव बतला रहे अथवा घट में पट का अभाव है तो पट का अभाव वह घटरूप पड़ गया । तो अभाव मानने पर भी भाव सिद्ध होता है ।
(201) स्वरूप से अभाव मानने पर अभाव के अभाव की सिद्धि―यदि शंकाकार यह कह बैठे कि अभाव स्वरूप से नहीं है तो इसके मायने अभाव ही नहीं है, और अभाव का अभाव होने पर भाव की विधि बढ़ जाती है । तो भले प्रकार विचार करने पर शून्याद्वैत सिद्धांत की व्यवस्था नहीं बनती । यदि शंकाकार यह कहे कि वह अभाव धर्म का अभाव न होकर धर्मी का अभाव है, सीधा पदार्थ का अभाव है तो वह भी भाव की तरह भावांतर बन जायेगा । जैसे जब कभी बताये कोई कि घड़े का अभाव है तो इसके मायने वह भूभाग है । जहाँ घड़ा नहीं पाया गया उस भूभाग का दिखना होता है वहां, सो वह भावांतर ही तो है । एक पदार्थ का अभाव पदार्थांतर है । निष्कर्ष यह है कि अभाव यदि धर्म का है तो वह धर्मांतररूप पड़ने से वस्तुधर्म बन गया, और यदि अभाव धर्मी का कहा जाये तो वह दूसरे धर्मरूप पड़ गया । अभाव तुच्छरूप नहीं होता, किंतु अन्य सद्भावरूप हुआ करता है । अभाव तुच्छाभाव नहीं है, यह इस तरह जाना गया कि चूंकि अभाव प्रमाण से जाना जाता है और वस्तु की व्यवस्था करने में अभाव भी एक अंगरूप है । जैसे कहा कि घट है तो घट स्वरूप से है, पररूप से नहीं है तो जैसे घट की सिद्धि अस्तित्व अंग से है इसी प्रकार घट की सिद्धि नास्तित्व अंग से भी है । स्वरूप से अस्तित्व है, पररूप से नास्तित्व है । शंकाकार यदि यह कहे कि धर्म अथवा धर्मी के अभाव को किसी भी प्रमाण से नहीं जाना जा सकता, है ही नहीं तो जब किसी भी प्रमाण से जाना ही नहीं जा सकता तो बतलाये शंकाकार कि अभाव तत्त्व है, यह भी कैसे समझा जा सकता? यदि अभाव किसी प्रमाण से जाना जाता है तो धर्म धर्मी के स्वभावभेद की तरह वह भी वस्तुधर्म बन गया, अभाव जाना गया और वह भावांतररूप जाना गया, तो अभाव है । अगर अभाव संज्ञा ही नहीं है, अभाव तत्त्व ही नहीं है तो उसका प्रतिपादन भी कैसे किया जा सकता? अभाव का प्रतिपादन सब करते हैं और सबके अनुभव में है यह बात कि इस भावांतर में अमुक पदार्थ के अभाव का व्यपदेश किया जा रहा है । तो अभाव तो वस्तुव्यवस्था का अंग है, नहीं तो अभाव की कल्पना से नतीजा ही क्या निकलेगा? अभाव भावांतररूप होता है, यह सिद्धांत है और तब ही प्रमाण से जैसे भाव की व्यवस्था की जाती, इसी प्रकार अभाव की भी व्यवस्था की जाती है । जैसे घट में पट आदिक का अभाव है तो पट आदिक का परिहार बताकर अभाव को घट व्यवस्था का कारण कल्पित किया गया है, जाना गया है । पट आदिक का अभाव न हो तो घट का सद्भाव हो ही नहीं सकता, अन्यथा वस्तु में संकर दोष हो जायेगा । कोई भी पदार्थ सर्व पदार्थरूप बन गया तो पदार्थ ही क्या रहा, इसलिए पदार्थ में भाव और अभाव की व्यवस्था बनी ही है और उसी के आधार पर पदार्थ का अस्तित्व जाना जाता है, अत: अभाव वस्तुव्यवस्था का अंग है और भाव की तरह अभाव भी वस्तुधर्म है ।
(203) अस्तित्व नास्तित्व दोनों की वस्तुव्यवस्था―कोई भी पदार्थ हो वह अस्ति-नास्तिरूप हुआ करता याने अपने स्वरूप से है और पररूप से नहीं है, इसमें किसी भी अंग का प्रतिषेध नहीं हो सकता । वस्तुस्वरूप से है, इसका अगर प्रतिषेध किया गया तो वस्तु ही क्या रही? वस्तु पररूप से नहीं है । अगर पररूप से नास्तित्व का प्रतिषेध किया गया तो वह समस्त पररूप बन गया, सो वस्तु ही क्या रही? तो वस्तुव्यवस्था में अस्तित्व और नास्तित्व ये दोनों अंग साधन बनते हैं । इस प्रकार हे वीर जिनेंद्र ! आपके सिद्धांत में भाव की तरह अभाव भी वस्तु का धर्म है । सर्वथा अभाव तत्त्व मायने सर्वशून्य वस्तुव्यवस्था का अंग नहीं बन सकता । जैसे अनेकांत तथ्य नहीं है इसी प्रकार अभावैकांत भी तथ्य नहीं है । सत्ताद्वैतवादी भावैकांत को मानते हैं तो सर्वरूप हो गया, सारभूत मात्र रह गया तो अर्थक्रिया क्या हो? अर्थक्रिया तो वस्तु में होती है और वस्तु वही होती है जो अपने स्वरूप से हो, पररूप से न हो । जहां अनेक व्यक्तियां हैं वहाँं ही वस्तु समझ में आयेगी । तो जैसे भाव वस्तु का अंग है ऐसे ही अभाव भी वस्तु का अंग है । जैसे भावैकांत कोई तत्त्व नहीं है, इसी प्रकार अभावैकांत याने सर्व शून्यता यह भी अप्रमेय ही है । किसी भी ज्ञान का विषय नहीं है, अभावैकांत अर्थात् सर्व शून्यता । उक्त प्रसंग में यह बताया गया कि जैसे एक नित्य सर्वगत सामान्य तत्त्व नहीं, सत्ताएं तत्त्व नहीं, इसी प्रकार सामान्यरहित विशेष भी तत्त्व नहीं, और परस्पर निरपेक्षसामान्य विशेष भी तत्त्व नहीं, इसी तरह वाक्य का अर्थ भी यह कुछ नहीं है, किंतु सामान्यविशेषात्मक पदार्थ वाक्य का अर्थ है ।