वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 60
From जैनकोष
विशेषसामान्यविषक्तभेद-
विधिव्यवच्छेदविधायि वाक्यम् ।
अभेदबुद्धेरविशिष्टता स्याद᳭
व्यावृतिबुद्धेश्च विशिष्टता ते ।।60।।
(204) पद और वाक्य की विधिप्रतिषेधोभयविधायकता―इस छंद में यह बतलाया है कि वाक्य किसका प्रतिपादक है? वाक्य वस्तुत: विशेष और सामान्य को लिए हुए जो भेद है, कोई पदार्थ है उसकी विधि ओर प्रतिषेध दोनों का विधायक होता है अर्थात् वाक्य से सामान्यविशेषात्मक पदार्थ जाना गया और उसके बारे में ही विधि और प्रतिषेध समझा जाता है । जैसे कोई कहे कि घट लावो तो विधिरूप तो अर्थ यही है कि घट लावो, पर प्रतिषेधरूप अर्थ यह है कि घट के सिवाय बाकी पदार्थ मत लावो । शब्द-शब्द में अंतर होगा, व्यवच्छेद पड़ा हुआ है । चाहे कोई पुरुष दोहरी भाषा में प्रतिषेध की बात नहीं कह पा रहा, पर सुनने वाले के और कहने वाले के दोनों के चित्त में शब्द का अर्थ विधि और प्रतिषेध परक है । कोई भी शब्द बोला जाये, उसके साथ अन्य अर्थ का निषेध बसा हुआ है । कोई कहे कि मैं मंदिर जाता हूँ तो उसका ध्वनित यह अर्थ भी है कि मैं अन्य कहीं नहीं जाता हूँ । तो इस तरह कोई भी वाक्य बोला जाये उसमें विधि और प्रतिषेध दोनों का अर्थ बसा हुआ होता है । यदि उसमें दोनों अर्थ बसे हुए नहीं हैं, मानो केवल विधिरूप ही अर्थ है और प्रतिषेध अर्थ बसा हुआ नहीं है तब उसका निश्चय बनाने के लिए दूसरे वाक्य का प्रयोग करना चाहिए । जैसे कहा कि घट लावो और इसमें अर्थ अगर यह नहीं बसा कि अघट मत लावो तो उसका पूरा निश्चय करने के लिए दूसरे वाक्य का प्रयोग करना चाहिए कि अघट न लावो ꠰ फिर तो अघट न लावो, ऐसे वाक्य का प्रयोग किया तो उसके प्रतिपक्षी काम न बने, इस वास्ते तीसरे वाक्य का प्रयोग करो । यों प्रतिपक्ष वाक्यों का प्रयोग करते ही जावो, कभी भी जो विधि बताना है उसे बताने का अवसर ही नहीं आ सकता है । तो यह समझना चाहिए कि प्रत्येक शब्द में, पद में, वाक्य में विधि और प्रतिषेधक विधायक अर्थ बसा हुआ है, और शब्द इस तरह से प्रतिपादक है इसके लिए शब्द कैसे मना करें?
(205) पद और वाक्य की विधिप्रतिषेधोभयविधायकता का कारण वस्तु की विधिप्रतिषेधोभयात्मकता―तत्त्व ही इस प्रकार है कि जो भी पदार्थ है वह भावात्मक स्वरूप है । किसी भी वस्तु की सिद्धि करनी हो तो वह अन्य वस्तु में अभावरूप है, यह बात चित्त में भले प्रकार जमी हुई होती ही है और उस वस्तु का भले प्रकार से निरीक्षण करने पर दोनों ही तत्त्व ध्यान में आते हैं । चौकी पर पुस्तक रखी है, पुस्तक को जानना है तो पुस्तक पुस्तक है, पुस्तक चौकी आदिक नहीं है । यह बात तो इस पुस्तक में स्वभावत: ही बसी हुई है, अन्य सबसे अछूती है, निराली है और अपने आपके स्वरूप में उसका अस्तित्व है । स्वयं बात का सुनने वाला भी अनुभव कर सकता है कि मैं मैं ही हूँ, मैं अन्य कोई दूसरा नही हूँ । यदि यह मैं अन्य सब रूप हो जाऊं तो मैं ही क्या रहा, विचार ही क्या रहेंगे? अर्थक्रिया ही क्या बनेगी? कैसा दर्शनमोह का आक्रमण है जीवों के कि सामान्यविशेषात्मक वस्तु का सीधा स्वरूप है और वह परख में नहीं आ रहा उनके और कभी सत्ताद्वैत और कभी शून्याद्वैत जैसे अटपट विचार भी चित्त में आ जाते हैं । भला अपने आपके बारे में ही सोचकर देख लो―मैं मैं ही हूँ, मैं अन्य रूप नहीं हूँ, यह बात बनी हुई है कि नहीं? अगर नहीं है तो बोलचाल, प्रतिपादन, समझना, समझाना; यह सब व्यर्थ है । कुछ अर्थक्रिया ही न बन सकेगी । तो जिसे अपने आपका भले प्रकार निर्णय है कि मैं मैं हूँ, मैं अन्य नहीं हूँ और मेरा यह सिद्धांत है, विचार है तो ऐसे ही सर्व पदार्थों का निर्णय है, आंखों दिख रहे ये समस्त पदार्थ । कैसे मना किया जा रहा कि ये कुछ नहीं हैं? इनकी सत्ता तो है । हां, जो समाधिभाव में आ गया है ऐसे उत्कृष्ट योगी के ध्यान में केवल वह ज्ञानाकार तत्त्व है । उसकी कोई स्थिति बताये कि इस समाधिनिष्ठ योगी की क्या परिस्थिति होती है तो उसकी विशेषता बताने के लिए ये शब्द काम दे सकते हैं, पर उसका अर्थ यह नहीं है कि पदार्थ का सत्त्व ही नहीं है । पदार्थ; अनंतानंत जीव हैं, अनंतानंत पुद्गल हैं, एक धर्मद्रव्य है, एक अधर्मद्रव्य है, एक आकाशद्रव्य है और असंख्यात कालद्रव्य हैं । उनकी कमी कैसे की जा सकती है? तो पदार्थ हैं, सब हैं और वे सभी तब हैं जब एक में अन्य सब पदार्थों का अभाव हो । इस तरह जैसे प्रमाण के द्वारा वस्तु का भाव जाना जाता है उसी प्रकार प्रमाण के द्वारा वस्तु का अभाव भी जाना जाता है । यों पदार्थ भावाभावात्मक है । तो हे जिनेंद्र देव ! आपके शासन में तत्त्व-व्यवस्था है, मोक्षमार्ग-व्यवस्था है और जीव के उद्धार का वहां उपाय है ।