वर्णीजी-प्रवचन:योगिभक्ति - श्लोक 5
From जैनकोष
छज्जीवदयावण्णे छडणायदण विवज्जिदे समिदभावे।
सत्तमयविप्पमुक्के सत्ताणभयंकरे वंदे।।5।।
योगियों की षंगकायजीवदयाप्रधानता- योगी, साधु 6 प्रकार के जीवों की दया करने में तत्पर रहते हैं। जीव 6 काय में विभक्त हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस। इनमें पहिले 5 तो एकेंद्रिय हैं और त्रस जीव में दो इंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पंचेंद्रिय ये चार तरह के जीव हैं। ये साधु महाराज षटकाय की जीवों की दया पालते हैं। योगियों ने षट्काय की हिंसा का पूर्ण रूप से त्याग किया है, इससे वे अब सर्व प्रकार के आडंबरों को भी छोड़ देते हैं। वे न घर बनाते हैं, न पृथ्वी खोदते हैं, न जल भरते हैं, न जल गरम करते हैं, न आग जलाते हैं, न पंखा चलाते हैं, न साग भाजी आदिक विदारण करते हैं। त्रस जीवों की हिंसा का तो गृहस्थ के भी त्याग रहता है, पर गृहस्थ के केवल संकल्पी हिंसा का त्याग रहता है याने गृहस्थ त्रस जीवों की संकल्प से हिंसा नहीं करता, लेकिन रोजगार करने में सावधानी रखते हुए भी जो हिंसा होती है उसको गृहस्थ कहां से टाले? या रसोई, चक्की, चूल्हे आदिक में भी जो सावधानी रखने पर भी हिंसा होती है उसका त्यागी गृहस्थ नहीं है या कोई बैरी या पशु आदिक जानवर जान लेने आया हो तो उस समय यह गृहस्थ उससे मुकाबला भी करता है और उसमें दूसरे की हिंसा भी हो जाती है। इस विरोधी हिंसा का भी त्यागी गृहस्थ नहीं हो सकता, किंतु साधु महाराज सब प्रकार की हिंसा से विरक्त हैं। न वे रोजगार करते हैं, न आरंभ चक्की, चूल्हा आदिक करते हैं और कोई हिंसक जीव या बैरी प्राण लेने के लिए आये तो उसका मुकाबला न करके समस्त जीवों पर दया धारण करते हैं। इन योगियों की स्वात्मदृष्टि इतनी गहरी है कि अपने ही जीव के समान समस्त जीवों को मानते है और दु:ख के संबंध में भी मानते हैं कि जिस प्रकार थोड़ासा भी कांटा चुभने पर पीड़ा हमें होती है इसी प्रकार सब जीवों में होती है और स्वरूपदृष्टि से भी समान मानते हैं। जैसा शुद्ध चैतन्यस्वरूप मेरा है ऐसा ही शुद्ध चैतन्यस्वरूप इन समस्त जीवों का है। तो दोनों ही दृष्टियों से वे जीवों की दया पालते हैं। चूँकि जिस प्रकार हमें दु:ख होता है उसी प्रकार सब जीवों को दु:ख होता है। तो दु:ख न देना चाहिये। यह तो एक साधारण दृष्टि है। इसमें सूक्ष्म दृष्टि यह भी है कि मेरे ही समान ये सब चैतन्यस्वरूप भगवान हैं। ये जीव अपनी छोटी-छोटी दशावों से निकलकर यहां कुछ अच्छी अवस्था में आये हैं। यदि मेरे कारण इन्हें पीड़ा होगी, संक्लेश परिणाम होगा तो यह जीव संक्लेश मरण करेगा, इससे यह नीची गति में जन्म लेगा और विकास से अधिक दूर हो जावेगा, यह भी उनकी आंतरिक करुणा समझें तो ऐसी दोनों दृष्टियों से योगीश्वर समस्त जीवों पर दयाभाव धारण करते हैं।
योगियों की षडनायतनविवर्जितता- ये योगी 6 अनायतन से दुर रहते हैं। आयतन कहते हैं स्थान को। 6 धर्म के स्थान हैं। जिनमें धर्म पाया जाय उन्हें आयतन कहते हैं। देव, शास्त्र, गुरु ये धर्म के आयतन हैं और इनके मानने वाले भक्त ये धर्म के आयतन हैं क्योंकि देव स्वयं धर्मस्वरूप हैं। आत्मा का धर्म जो चैतन्य है, ज्ञानदर्शन है वह पूर्ण प्रकट हो गया है। देव धर्ममूर्तिे हैं। शास्त्रों में भी इस ही धर्म का वर्णन है। तो शास्त्र भी धर्म के स्थान हैं। गुरु महाराज धर्म का प्रयोग कर रहे हैं। वे धर्म में बढ़ रहे हैं और सफल हो रहे हैं। वे भी धर्म के स्थान हैं, और उनके मानने वाले जो भक्तजन हैं वे भी धर्म के स्थान हैं। इसके विपरीत कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु ये धर्म के आयतन नहीं हैं, ये अधर्म के साधन हैं जिनमें रागद्वेष भरा है, अज्ञान भरा है फिर भी अपने को देवरूप में प्रसिद्ध करवाते हैं या उनमें देवरूप में कल्पना की जाय तो उस ही का नाम कुदेव है। जिन शास्त्रों में विषयकषाय की बातें भरी हैं, भगवान का चरित्र भी ग्रंथों में लिखते हैं तो राग भरे चरि9 लिखते हैं। भगवान ने इतनी स्त्रियों में रमण किया। उनके साथ इतनी सखियां रहती थीं। आदिक विषयकषायों से भरा हुआ वर्णन होता है तो वे शास्त्र कुशास्त्र हैं। जिनमें राग की प्रेरणा मिले, वीतराग आत्मस्वभाव की बात न की जाय तो वे सब कुशास्त्र हैं, और इसी तरह के यदि देवशास्त्र का आधार मानकर जो संन्यास धारण करते हैं वे कुगुरु हैं। गुरु तो नहीं हैं, आरंभ परिग्रह उनके लगा हैं, पर अपने को लोक में गुरुपने की बात कहलवा रहे हैं तो वे कुगुरु हैं। जो आत्मस्वभाव का परिचय नहीं रखते, नाना प्रकार के विडंबित तपश्चरण करते, लोगों में अपनी महत्ता बनाने के लिए भस्म रमाना, शस्त्र रखना आदिक अनेक प्रकार के कुभेष धारण करते हैं वे सब कुगुरु हैं, और ऐसे कुदेवभक्त, कुशास्त्रभक्त और कुगुरुभक्त भी अनायतन हैं। इन 6 प्रकार के अनायतनों से ये योगिराज दूर रहा करते हैं।
संयत योगियों की इहलोकभयरहितता- इन सब योगियों के भाव संयत हैं, वे अपने मन का नियंत्रण रखते हैं, उनके विषयकषायों में प्रवृत्ति नहीं जाती है। उन्हें ऐसे अपने भीतर बसे हुए परमात्मतत्त्व का दर्शन होता है कि मन वही बँध गया है। अब मन उनका किसी भी बाह्यविषय में रमण नहीं करता, ऐसा जिनका भाव संयत हो गया है वे योगी सच्चे योगी हैं। योगियों के 7 प्रकार का भय नहीं रहता। जब अपने स्वरूप की संभाल नहीं है तब शंकायें हुआ करती हैं। पहिला भय है कि इस लोक में मेरा कैसे गुजारा चलेगा, आगे भी यह धन रहेगा या न रहेगा, फिर मेरी जिंदगी किस तरह होगी? इस लोक संबंधी नाना शंकायें करके भय बनाना यह इहलोकमय है। जिस ज्ञानी पुरुष ने अपने आत्मा को समस्त जगत से निराला तका है और यह निरखा है कि यह मैं अकेला अनादि से था, अनंतकाल तक रहूंगा, इस मेरे का कोई दूसरा साथी नहीं है, मैं हूं ही इतना। जिसने अपना स्वरूप अंदर में लखा है उसको ये भय कहाँ सताते? निंदा करते हैं करें लोक में मेरा नाम नहीं है न रहे, जो भी समागम मिले हैं वे सब वियुक्त होते हैं हो जायें, कुछ भी नहीं रहता है न रहे, मैं अकेला ही सर्वत्र रहूंगा। तो फिर मैं इस लोक का भय क्या करूँ कि क्या होगा, कैसे होगा? जो पदार्थ सत् है उसका किसी न किसी ढंग में गुजारा होता ही है। यहीं मनुष्यों में जो अति हीन हैं जो भीख मांगने वाले लोग हैं उनका भी तो गुजारा चल ही रहा है। तो जो भी है सबका अपनी सत्ता के कारण गुजारा है। गुजारे की चिंता सम्यग्दृष्टि पुरुषों को नहीं होती, योगियों को तो होगी ही क्या? जो योगी वन में रहते हैं, आहारचर्या को किसी दिन समय पर आते हैं, अंतराय हो जाता है, आहार नहीं होता है, अनेक तरह की बातें उत्पन्न होती हैं लेकिन उन्हें रंच भी भय नहीं है। आहार मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। हर स्थितियों में वे प्रसन्न रहते हैं। वे अपने आपके अंत:स्वरूप को निरखते हैं। तो योगियों को इहलोक भय नहीं रहता है।
योगियों की परलोकभयविवर्जितता- दूसरा है परलोकभय। मैं मरकर न जाने किस गति में जाऊँगा, न जाने मेरा क्या हाल होगा? इस प्रकार की चिंता करना परलोकभय है। यद्यपि ऐसा भय करना थोड़ा यों ठीक समझा जा सकता है कि परलोक का भय बना रहेगा तो खोटी प्रवृत्तियों से बचेगा, न्यायनीति से तो रहेगा, लेकिन परलोक का भय यदि अज्ञानता में रहता है तब तो बड़ी विह्वलता रहती है, वह सच्चे मायने में धर्म नहीं धारण कर सकेगा। परलोक क्या है? मेरा जो यह चैतन्य है यह तो आगे भी रहेगा। तो परलोक क्या रहा? यही मैं परलोक कहलाता हूं, यही मैं इहलोक कहलाता हूं और इस दृष्टि से देखो तो आत्मा का जो सत्य ज्ञानानंदस्वरूप है वही तो आत्मा की उत्कृष्ट दुनिया है। मेरी दुनिया क्या? मेरा जो परिणाम हो सो मेरी दुनिया है। जिसको अपनी दुनिया में ही विषाद मचा हुआ है उसे बाहर भी विषाद का वातावरण दिखता है, और जो अपनी दुनिया में खुशी बसाये हुए है उसको बाहर में भी खुशी का वातावरण नजर आता है। तो अपनी दुनिया बाहर कहाँ? खुद का आत्मा यह ही खुद की दुनिया है। हम सभी प्रसंगों में केवल अपना ही कुछ करते हैं बाहर कहीं कुछ नहीं करते। भले ही ऐसा लगता है जीव को कि मैं इतने कारोबार वाला हूं, इतनी इतनी व्यवस्थायें बनाता हूं लेकिन वस्तुत: मैं कितना? यह मैं अमूर्त, रूप, रस, गंध, स्पर्श रहित एक चैतन्यपदार्थ हूं। उसे कोई पकड़ नहीं सकता, उसे कोई नजर में ले नहीं सकता, ऐसा जो यह मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूं। वह जो परिणमता है किस रूप से परिणमता है? जाननरूप से, विकल्परूप से, रागद्वेष के बंधनरूप से, भावरूप से परिणमता है। कहीं बाहरी पुद्गलपदार्थों की भाँति क्रियारूप से नहीं परिणमता। तो यह मैं आत्मा केवल विकल्प ही कर रहा हूं, मैं व्यवस्था नहीं कर रहा हूं, मैं रोजगार नहीं सम्हाल रहा हूं, मैं केवल अपने विकल्प किया करता हूं। मेरा संबंध तो मेरे आत्मा तक ही है। तो परलोक भी क्या चीज है? मैं सही हूं तो मेरा लोक सही है, मेरा परलोक सही है, मैं सही नहीं हूं तो परलोक तो क्या यह लोक भी सही नहीं है। कदाचित् हमारे मायाचार के कारण हमारा बुरापन लोग न जान सकें लेकिन मेरा जैसा परिणाम होगा वैसा फल अवश्य सामने आयगा। परलोक का भय ज्ञानी जीव को नहीं होता। वह अपने ही चैतन्य को सुधार रहा है तो परलोक को सुधार रहा है और वह इहलोक को भी सुधार रहा है।
योगियों की वेदनाभयविप्रमुक्तता- तीसरा होता है वेदनाभय। शरीर में किसी प्रकार का रोग हो तो यह भय करना कि हाय अब क्या होगा, कहीं इससे अन्य रोग पैदा न हो जाय, इसकी वेदना कैसे सही जायगी आदिक विचार करके लोग वेदना का भय किया करते हैं, पर ज्ञानी पुरुष में बड़ा धैर्य है, उसके यथार्थ समझ है। मैं शरीर से भी निराली केवल ज्ञानमात्र सद्भूत वस्तु हूं। यद्यपि इस शरीर का वर्तमान में संबंध जुडा हुआ है लेकिन मैं आत्मा तो इस शरीर से बिल्कुल निराला हूं- इस प्रकार का सही ज्ञान होने के कारण ज्ञानी पुरुष वेदना का भय नहीं करते हैं। लेकिन वेदना का अर्थ क्या है सो तो सुनो। वेदना का अर्थ है जानना। कोई कहे कि मुझे तो बड़ी वेदना हो रही है तो इसका अर्थ यह है कि मुझे बड़ी जानकारी हो रही है। लेकिन रूढ़ि में लोग पीड़ा की जानकारी को वेदना बोलते हैं, पीड़ा में कुछ अनुभूति विस्तार करते हैं, इस कारण पीड़ा का नाम वेदना पड़ गया है। तो मैं वेदता हूं, जानता हूं, इतनी ही तो वेदना है। तो उसका क्या भय? वह तो मेरा स्वरूप है। ज्ञानी पुरुष वेदना का भय नहीं करता।
योगियों की अगुप्तिभयवर्जितता एवं अरक्षाभयविमुक्तता- चौथा भय है अगुप्तिभय। मेरे पास कोई ऐसा साधन नहीं है कि मेरी रक्षा हो सके। अच्छा घर नहीं, मजबूत किवाड़ नहीं, हमारा परस्पर का वातावरण इतना सुदृढ़ नहीं कि मेरी रक्षा हो सके, कैसे मेरी रक्षा हो सकेगी? इस प्रकार का भय करना अगुप्तिभय है। ऐसा भय तो अज्ञानीजन किया करते हैं। ज्ञानी पुरुष तो जानते हैं कि मेरा स्वरूप अभेद्य है, मेरे स्वरूप में किसी दूसरी बात का प्रवेश ही नहीं हो सकता है। मैं ज्ञानानंदमूर्ति हूं। इसमें परतत्त्व का क्या प्रवेश है? यह तो कभी मरता ही नहीं है। किसी कारण से ज्ञानी पुरुष अरक्षा का भय नहीं करता। मेरी रक्षा करने वाला कोई नहीं है। अरे कौन किसकी रक्षा करता है? मेरी रक्षा मैं स्वयं करता हूं, कोई जीव यदि पापी है, उसके पाप का उदय चल रहा है तो उसकी रक्षा कोई दूसरा नहीं कर सकता। यदि किसी बच्चे के पाप का उदय चल रहा है तो उसकी माँ कितना ही प्रयत्न करे पर उस बच्चे की रक्षा नहीं कर सकती। हम आपकी भी जो रक्षा हो रही है वह हम आपके ही अच्छे आचरण के कारण हो रही है, कोई दूसरा हम आपकी रक्षा नहीं कर रहा है। तो व्यवहार में भी वास्तव में हमने ही अपनी रक्षा की। तो ये ज्ञानी पुरुष योगीजन रक्षा का भय नहीं करते।
योगियों की मरणभयविप्रमुक्तता- छठा भय है मरणभय। कहीं मेरा मरण न हो जाय। ज्ञानी पुरुष तो सोचता है कि मेरा तो कभी मरण ही नहीं होता। मरण तो इन प्राणों के वियोग का नाम है। तो मेरे प्राण हैं वास्तव में ये ज्ञान और दर्शन। मेरा निजस्वरूप वही वास्तव में मेरा प्राण है। जैसे अग्नि का प्राण है वास्तव में गर्मी। गर्मी न रहे तो अग्नि भी नहीं रह सकती है। तो मेरा प्राण क्या है? चैतन्य। तो यह चैतन्य एक अविनाशी तत्त्व है। जिस पदार्थ का जो स्वरूप है वह स्वरूप उस पदार्थ से कभी अलग नहीं हो सकता। वह तो पदार्थ में ही रहेगा। तो मेरा चैतन्यप्राण कभी नष्ट हो ही नहीं सकता, फिर मरण का भय क्या? लेकिन जो मरण के समय भय मानते हैं वे वास्तव में मोहवश मानते हैं। जब यह ख्याल में आता कि अरे ये मकान महल परिजन आदि सब छूटे जा रहे हैं तब मरण के समय में क्लेश होता है। उस समय सारे जीवनभर माने गए मौज के बदले में बड़ा संक्लेश होता है और मरण करके वह जीव खोटी गति प्राप्त करता है, उस खोटी गति में पहुंचकर वहां के दु:ख भोगता है। तब मरण के समय में संक्लेश न हो इसका अभी से उपाय बना लेना चाहिये अगर अपने आप पर करुणा है तो। क्या उपाय बनाना चाहिये? मरण समय में क्लेश होता है ममता का। बाह्यपदार्थों में जो ममता की बुद्धि बसी है उसको छोड़ना होगा। मेरा कुछ नहीं है, मैं सबसे निराला हूं, ये समस्त बाह्यपदार्थ अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं, इनसे मेरा संबंध नहीं है, इस ज्ञान की भावना जब रोज बनेगी तो उससे ममत्व मिटेगा और मरणसमय में अपने आपकी सुधि आयेगी। ज्ञानप्रकाश की ओर दृष्टि रहेगी, तो ऐसा मरण शुभमरण है, समाधिमरण है। इसके प्रताप से आगे भी अच्छा संबंध मिलेगा। तो ज्ञानी जीव मरण का भय नहीं करते। यह प्राणों का मरण, शरीर का मरण ये तो अनंतभवों में सब फल भोगे हैं, यों किसी भी चीज में ममता न रहे तो फिर वहां मरण का भय नहीं रहता।
योगियों की आकस्मिक भयविप्रमुक्तता एवं सत्ताभयंकारूपता- 7 वां भय है आकस्मिक भय। जब चाहे व्यर्थ ही आकस्मिक भय की कल्पना बना ली जाती है। जैसे कहीं यह छत न मेरे ऊपर गिर जाय, अथवा कहीं बैंक में रूपया न मारा जाय, ऐसे आकस्मिक भय बना लेना सो आकस्मिकभय है। यह भय भी इन जीवों को बहुत सता रहे है। तो इन 7 प्रकार के भयों से रहित ये योगीश्वर हैं और ये योगी सर्वजीवों को अभय प्रदान करने वाले हैं। देखिये- योगियों की कितनी सुंदर मुद्रा है कि केवल शरीरमात्र ही परिग्रह है। जो अज्ञानीजन हैं वे तो उन योगियों के नग्नरूप को देखकर उन योगियों की निंदा करते है, पर ज्ञानीजन तो उन्हें निर्विकार अत्यंत सरल चित्त वाले समझते हैं। जैसे कि लोग अपने घर के दो चार वर्ष के बच्चों को निर्विकार सरलचित्त अनुभव करते हैं इसी प्रकार उन योगियों की उस निर्विकार मुद्रा को निरखकर ज्ञानीपुरुष उन योगियों की भक्ति किया करते हैं। देखिये- उन योगियों के पास जब कोई शस्त्र ही नहीं है तो लोगों को उनसे भय किस बात का हो? उनके पास तो मात्र पिछी और कमंडल ये दो उपकरण रहते हैं। उनकी इस मुद्रा को निरखकर किसी भी पुरुष को भय उत्पन्न नहीं होता। अन्य किस्म के साधुवों को देखकर तो बड़ा भय उत्पन्न हो जाता है- उनके शरीर में भस्म लगी है, हाथ में त्रिशूल लिए है, चिमटा लिए हैं या मृगछाला लिए है अथवा लाठी डंडा लिए हैं उनसे तो सभी लोग भय खा जाते हैं, पर निर्ग्रंथ योगिजनों से किसी को भय नहीं होता। वे योगी समस्त प्राणियों को अभय प्रदान करने वाले होते हैं। ऐसे इन योगियों को मैं मन, वचन, काय संभाल करके वंदन करता हूं।