वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 103
From जैनकोष
शीतोष्यदंशमशक-परीषहमुपसर्गमपि च मौनधरा: ।
सामयिकं प्रतिपन्ना, अधिकुर्वीरन्नचलयोगा: ।। 103 ।।
सामायिक में श्रावकी मौनधरता अचलयोग्यता व परीषहोपसर्गविजयिता―सामायिक को धारण करने वाला गृहस्थ मौन को धारण किए हुए है । और मन, वचन, काय को चलायमान नहीं कर रहा है, उस समय ठंड गर्मी दशमशंक आदिक कोई परीषह आये चेतन अचेतनकृत उन सब उपसर्गों को समता से सहता है । देह से भी निराला अमूर्त ज्ञानमात्र सहज आत्मस्वरूप का जिसने अनुभव किया है वह सम्यग्दृष्टि श्रावक जिस काल अपने इस अध्यात्मतत्त्व का चिंतन कर रहा है उस समय उसके ज्ञान में ज्ञानस्वरूप ही समा रहा है । वहाँ विकल्प का काम नहीं रहा, रागद्वेष की प्रवृत्ति नहीं रही, ऐसे शुद्ध आत्मस्वरूप का चिंतन करनेवाला गृहस्थ उस समय कोई भी परीषह आये या दूसरों के द्वारा उपसर्ग किया हुआ हो तो बड़ा धैर्य धारण कर के साम्यभाव से वह सहन करता है, समता से चलित नहीं होता । जैसे अत्यंत भिन्न बाह्य पदार्थों के प्रति कोई यह दृष्टि रखे कि ये अत्यंत भिन्न हैं, उनकी परिणति उनके साथ है, उनसे मेरे में क्या आता है । ऐसा मनन करने वाले बाह्य परिग्रहों में कुछ भी गड़बड़ हो, कुछ भी हलचल परिवर्तन हो तो भी वह उससे अपने में व्याकुलता नहीं होने देता, इस प्रकार और विशिष्ट भेद विज्ञान के प्रयोग में जब यह जान लिया कि देह अत्यंत भिन्न है, अचेतन है, पौद्गलिक है, भिन्न सत् है, मैं आत्मा भिन्न सत् हूँ तो वह बाहर कोई उपद्रव उपसर्ग आता है, शीतोषण आदिक की वेदनायें होती हैं उनको वह समता से सहन कर लेता है । मैं हूँ यह ज्ञानानंदस्वरूप । ज्ञान व आनंद को भोगता रहता हूँ, यह ही मेय अंदर में व्यवसाय है, यह प्रक्रिया चल रही है । इसके अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ से मेरा संबंध नहीं ऐसा स्पष्ट भेदविज्ञान जिसके जगा है वह सद्गृहस्थ सामायिक के समय तो विशेषतया इन समस्त उपद्रव उपसर्गों को समता से सहन कर लेता है ।