वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 132
From जैनकोष
विद्यादर्शनशक्तिस्वास्थ्यप्रह्लादतृप्तिशुद्धियुज: ।
निरतिशया निरवधयो नि:श्रेयसमावसंति सुखम् ।।132।।
आत्मविकास का मूल सहज परमात्मतत्त्व की उपासना―अपने जीवन में सम्यक् श्रद्धा सहित, तत्त्वज्ञान की आराधना सहित जिसने सदाचार का निर्दोष पालन किया है वह पुरुष निर्ग्रंथ दिगंबर होकर समाधि बल से नि:श्रेयस को प्राप्त करता है । उस निःश्रेयस के पात्र के संबंध में यहाँ प्रतिपादन किया है । यह भव्य आत्मा जिसने एकत्वविभक्त कारण समयसार का अभेद अनुभव किया वह पुरुष कर्मों का विध्वंस करके निर्वाण को प्राप्त होता है । जिस परमात्मा की आराधना से मुक्ति प्राप्त होती है वह परमात्मा कहीं बाहर नहीं है । जो परमात्मा हुए हैं, जो बाहर अवस्थित हैं उन परमात्मा की आराधना से दो लाभ मिलते हैं । एक तो उस शुद्धोपयोग की आराधना जिसके बाद शुद्धोपयोग बनता है । दूसरा लाभ यह है जो कि उस प्रथम लाभ से ही संबंधित है कि प्रभु के जब उन शुद्ध गुणों का स्मरण होता है तो वह परिणमन इतना विशुद्ध है कि स्वभाव के पूर्ण अनुकूल है वे और इस अनुकूलता के कारण प्रभु के शुद्ध गुणों का स्मरण करके स्वभाव में आने में सुगमता रहती है । आत्मा का अनादि अनंत अहेतुक असाधारण चैतन्य स्वभाव कारण समयसार है । यही स्वभाव सहज परमात्मतत्त्व है इसकी अभेद आराधना जिसके बनी है वह ही कर्मों का विध्वंस कर निर्वाण को प्राप्त होता है, तो ऐसा निःश्रेयस बन कर वे किस तरह रह रहे है निर्वाण में उनको इस रहने की विधि का विशेषण देकर वर्णन किया गया है ।
अनंतज्ञानयुक्त परमात्मा का नि:श्रेयस में आवास―यह पवित्र आत्मा अनंत ज्ञान से युक्त है, जिस शान का अंत न आए उसे भी अनंत कहते हैं, जो ज्ञान अनंत श्रेयो से ज्ञात है उसे भी अनंत कहते हैं । ऐसी अनंत ज्ञान से युक्त होते हुए नि:श्रेयस में बसते है । ज्ञान का स्वभाव जानना है । सामने वाले पदार्थ को जाने यह ज्ञान का स्वभाव नहीं है या इंद्रिय के द्वारा पदार्थ को जाने यह ज्ञान का स्वभाव नहीं है या वर्तमान में अवस्थित पदार्थों को जाने, यह ज्ञान का स्वभाव नहीं है । किंतु जगत में जो भी सत् है वह सब ज्ञान में आ जाय, इस प्रकार के ज्ञान की वृत्ति होती है । जो लोग अभिमुखता की दृष्टि रखकर सोचते हों कि जो सामने हो वही तो ज्ञान में आएगा सो यह सामने आख्या ज्ञान करने की हम आपको जो विवशता बनी है वह शरीर दीवाल के होने के कारण बनी है । अगर यह शरीर रूप दीवाल न हो: तो खिड़कियों से जानने की फिर क्या जरूरत है? ये इंद्रियां तो खिड़कियां हैं । जहाँ दीवाल नहीं है आवरण नहीं है, शरीर नहीं है उस अमूर्त आत्मा को तो चारों ओर और खुद में भीतर में सब कुछ सामना ही सामना है । जिसके मुख है उसका सामना मुख की दिशा से है, और जिसके मुख नहीं है उसका सामना सर्व दिशावों में है । जो सामना बोलें उनके लिए कहा जा रहा है । ज्ञान है, जानने का स्वभाव है, अपने स्वभाव से वह जानता है, और ज्ञेय है, उनका स्वभाव है प्रमेयपना सो अपने ही स्वरसत: वह प्रमेय हो जाता है । ऐसा ज्ञेय ज्ञायक संबंध होने के कारण प्रभु अनंत तानी हैं । ऐसा अनंत ज्ञानरूप वर्तते हुए नि:श्रेयस में वे शाश्वत रहा करते हैं ।
अनंत दर्शन संपन्न परमात्मा का नि:श्रेयस में आवास―ये सिद्ध प्रभु अनंत दर्शनवान हैं, अनंत दर्शन की भूमि का अनंत ज्ञान ने बना दी अर्थात् अनंत ज्ञान के द्वारा जो कुछ ज्ञेय हो रहा है ऐसे ज्ञेय को जाननहार आत्मा का प्रतिभास होना अनंतदर्शन है । दर्शन में किसी पदार्थ का प्रतिभास नहीं होता, क्योंकि पदार्थ का प्रतिभास होना तो ज्ञान है पर पदार्थ जहाँ प्रतिभासित हो रहे हैं ऐसे प्रतिभास करने वाले आत्मा को प्रतिभास कर लेना दर्शन है । जैसे कोई पुरुष केवल दर्पण को ही देखता है और बात सारी बता देता है कि पीछे कहां क्या हो रहा है । जैसे मानों कुछ बालक लोग उछल कूद रहे हैं तो दर्पण में देखकर उस सबका प्रतिभास कर लेते हैं । उसने उन पदार्थों को नहीं जाना, वह तो केवल दर्पण को ही प्रतिभास रहा, मगर उन सबका फोटो रूप परिणमे हुए दर्पण को प्रतिभा से तो उसमें सबका प्रतिभास आ गया, ऐसे ही अनंत ज्ञेय पदार्थों को जानने वाले इस परमात्मा को जिसने प्रतिभासा उसी का तो वह अनंत दर्शन कहलाता है । ऐसे अनंतदर्शन से युक्त भगवंत निरंतर अब नि:श्रेयस में ही बसा करते हैं । देखिए―प्रभुमूर्ति के दर्शन करके एक बार तो चित्त में यह आवाज उठ जाना चाहिए कि आनंद है तो इस दशा में है इसके सिवाय अन्यत्र कहीं आनंद नहीं है, ऐसा अगर चित्त में आयगा तो आपको बाह्य समागमों से सहज विरक्ति होगी और आनंदधाम निज सहज परमात्मतत्त्व के ध्यान की धुन बनेगी ।
अनंतशक्ति संपन्न परमात्मा का नि:श्रेयस में आवास―ये पवित्र आत्मा अनंत शक्तियों से युक्तं होते हुए नि:श्रेयस में बसते हैं, प्रभु में अनंत शक्ति क्या है? क्या वे इस जगत की सृष्टि करते हैं? क्या वे जिसे चाहे उसको उठाकर फेंक दिया करते हैं? क्या अनंत शक्ति है जिससे बताया जाता कि उनकी शक्ति का अंत ही नहीं आता? उनकी अनंत शक्ति क्या है सो सुनो―उनका ज्ञान अनंत ज्ञान है तो अनंत ज्ञान को बनाए रहने का जो सामर्थ्य है वह काम क्या छोटे मोटे सामर्थ्य द्वारा बन जाएगा? जहाँ अनंत शक्ति प्रकट है वहाँ ही तो अनंत ज्ञान का विलास चलेगा । अनंत गुण डटे रहे, उन गुणों में कमी न आए, उनमें विकार न बने, वे सही ढंग से बने रहें सदैव, ऐसा होने के लिए अनंत सामर्थ्य चाहिए वही अनंत सामर्थ्य है । यद्यपि सब कुछ प्रभु में अखंड रूप से है । वहां भेद नहीं पड़े है पर्याय एक है पर उस पर्याय का भेद करें समझने के लिए तो गुण का सहारा लेकर ही किया जा सकेगा । और उस भेद दृष्टि से यह सब ज्ञात हो रहा है । प्रभु में अनंत शक्ति है, भला जब यहां ही शरीर के मैल को डा᳴टने के लिए सामर्थ्य की जरूरत है । तो जब एक नाक वगैरह के डांटने के लिए शक्ति की आवश्यकता समझी जा रही है तब फिर क्या विकास को डाटे रहने वाली शक्ति की आवश्यकता नहीं होती? अनंत विकास निरंतर चल रहा है, यह अब अनंत बल का महात्म्य है । प्रभु के अनंत बल का यह अर्थ नहीं हैकि वह परपदार्थों में कुछ भी फेर फार बदल परिणति जो चाहे करता रहे । प्रभु वीतराग हैं वे किसी का न भला करने आते, न बुरा करने आते । वह शुद्ध द्रव्य अपने आपके स्वरूप में निरंतर शुद्धता से परिणमते रहते हैं, तो अनंत शक्तियों से युक्त आत्मा सुख पूर्वक, शांतिपूर्वक निर्वाण में बसे रहा करते हैं ।
परमार्थ-स्वास्थ्य संपन्न परमात्मा का नि:श्रेयस में आवास―यह आत्मा स्वास्थ्य से युक्त है । स्वास्थ्य मायने स्वस्मिन तिष्ठति इति स्वस्थ: स्वस्थस्यभाव: स्वास्थ्यं । अपने आप में ठहरने का नाम है स्वस्थ । स्वस्थ के भाव का नाम है स्वास्थ्य, अपने आपके स्वरूप में स्थित बने रहने को स्वास्थ्य कहते हैं । शरीर कैसा ही निरोग हो, बलवान हो, उसे कोई माने कि मैं स्वस्थ हूँ तो उसका बहुत बिगड़ा हुआ स्वास्थ्य है । उसमें भ्रम आया, मिथ्यात्व आया, मोह आया, कितनी गड़बड़ी आयी आत्मा में, तो इतने विकार में लदे हुए पुरुष को स्वस्थ कहेंगे क्या? वहतो अधिक बिगड़ा है । उसके आध्यात्मिक रोग इतना बड़ा प्रबल लगा हुआ है जो शरीर को निरखकर कल्पना करता है कि मैं तो बड़ा स्वस्थ हूँ । जब लोग आपस में मिलते हैं तो एक दूसरे से पूछते हैं कि भाई आपका स्वास्थ्य कैसा है? तो लोग तुरंत उसका उत्तर यह देते कि मेरा स्वास्थ्य बहुत ठीक है । पर स्वास्थ्य का जो सही अर्थ है उस दृष्टि से निहारें तो ये दोनों पागलों की जैसी बातें चल रही हैं ।
रुढ़ घटनाओं का अतिपूर्व अध्यात्मवर्तन―आध्यात्मिक आनंद की बातों की मोही जीव ने अपने शरीर पर लगाकर घटित कर दिया । कोई समयथा ऐसा कि लक्ष्मी का अर्थ ज्ञान रहता था, ज्ञान सिवाय और किसी का नाम लक्ष्मी होता ही नहीं, क्योंकि लक्ष्य, लक्षण, लक्ष्मी ये सब एक ही प्रकार के शब्द है । तो मेरा लक्षण क्या याने मेरी लक्ष्मी क्या? यह ज्ञान, आत्मा का सहज ज्ञानस्वरूप, उसकी दृष्टि और इस ज्ञान लक्षण का ही महत्त्व है यह कि आनंददायक है और इसी का ही प्रतिभास वैभववान कहलाता है और इसकी ही सेवा में आनंद जगता है । इतनी बातें लोग जानते रहे पहले पर जैसे-जैसे समय गुजरा लोगों के विचार बदले, विषय कषाय की ओर बुद्धि आने लगी तो इतना ख्याल था कि लक्ष्मी बहुत आनंद देने वाली होती है, मनोरथ सिद्ध करने वाली होती है, यह बात सुनते आये थे ना । ज्ञान को लक्ष्मी जानकर इतना सुनना तो रह गया और ज्ञान यह सबसे हट गया । चूँकि विषयों में प्रीति है तो उसका साधन है यह बाह्य पदार्थ, धन दौलत, तो अब स्व आनंद देने वाली चीज यह धन दौलत ही लक्ष्मी बन गई ऐसा कल्पना में आया । ऐसी कितनी ही घटनाएं मानों पहले चित्रों के रूप में एक अध्यात्मतत्त्व को समझाने के लिए चलती थीं । उनकी दृष्टि हटी और लौकिक रूप में ले ली गई । गणेश की मूर्ति पहले बनायी जाती थी स्याद्वाद अनेकांत का दर्शन करने के लिए । जिस स्याद्वाद की मूर्ति है गणेश । चूहे पर विराजे और धड़ में जो हाथी का मुख फिट हो गया यह है अभेदनय का निश्चयनय का प्रतीक याने अभेद में ऐसा बढ़ना चाहिए, अभेददृष्टि से वस्तु को ऐसा परखना चाहिए कि जहाँ भेद कुछ न रहे, एक ही दृष्टि में रहे, जैसे कि धड़ से हाथी का मस्तक एकमेक हो गया, फिट हो गया, कहीं धार तक भी नहीं दिखती । और भेदनय से वस्तु के गुण, पर्याय, अविभाग प्रतिच्छेद, रस इन सबका ऐसा विश्लेषण करना चाहिए, ऐसा न्यारा-न्यारा ज्ञान प्रकाश में लाना चाहिए जैसे कि चूहे की आदत होती हैकि कागज को या कपड़े को या किसी चीज को वह कुतरता है तो ऐसा कुतरता है, इतने छोटे-छोटे टुकड़े कर देता है कि आपको कतरनी से कतरना कठिन हो जाए । वह चूहा व्यवहार भेदनय का प्रतीक है । भेदनय से इस तरह से अंश कर करके पदार्थों को समझें । यह स्याद्वाद का प्रतीक किन्ही ज्ञानियों ने बना रखा था । अब स्याद्वाद अनेकांत ये सब बातें तो ओझल हो जाती है और चूँकि उस मुद्रा की महिमा चल रही थी तो आज वही बढ़-बढ़कर देवता के रूप में महिमावान माना जाने लगा ।
वीतरागताभय परमस्वास्थ्य संपन्न परमात्मा का निःश्रेयस में आवास―प्रकरण यह कहा जा रहा कि वह परमात्मा स्वास्थ्य से युक्त है । स्वास्थ्य का अर्थ है ज्ञान-ज्ञान में वर्ते । रागद्वेष जहाँ रंच भी न आयें, विकार न रहें उसे कहते हैं स्वास्थ्य । जैसे देह में रोग आ जाए तो को कहने लगते कि हमारा स्वास्थ्य बिगड़ गया ऐसे ही आत्मा में रागद्वेष की वेदना अगर आयी तो उससे कहो कि स्वास्थ्य बिगड़ गया । प्रभु का अनंत स्वास्थ्य है, रागद्वेष से बिल्कुल अतीत है । ऐसी वीतरागता से युक्त होते हुए परमात्मा मोक्ष में अनंत सुख की अनुभव रहे ।
ये प्रभु आह्लाद से युक्त हैं । आह्लाद आनंद एक ही बात है । शब्द से आह्लाद का अर्थ है कि चारों ओर से आनंद । आह्लाद का यह अर्थ है कि प्रकृष्ट रूप से पूर्ण सीमा पार करता हुआ आनंद । अर्थात् अनंत आनंद से युक्त हैं प्रभु । आनंद कहते किसे हैं? चारों ओर से नंद रहना । आ का अर्थ है चारों ओर से, नंद का अर्थ है समृद्धिशाली रहना । लोग आनंद का अर्थ सुख करने लगे, क्योंकि जीवों को इंद्रिय सुख का ही तो परिचय है पर वह आनंद नहीं कहलाता । जहाँ तरंग उठे, जहाँ ज्ञानादिक की कमी आए, विकास रुका हो उसे आनंद नहीं कह सकते । नंद शब्द बना है टुनदि धातु से । टु का लोप हो जाता है और न का आगम हो जाता बीच में जिससे नंद शब्द बनता है, जिसका अर्थ है समृद्धिशाली होना । चारों ओर से अनंत समृद्धिशाली होने को आनंद कहते है । जिस आनंद में आह्लाद भरा है आह्लाद भरा है पूर्ण निराकुलता में । ऐसे अनंत आह्लाद से युक्त प्रभु निःश्रेयस में सुख पूर्वक रहते हैं ।
समाधिमरण का माहात्म्य और आत्मा के सच्चे मित्र का परीक्षण―अनंतानंद संपन्न नि:श्रेयसता प्राप्त करना यह सब समाधिमरण का परिणाम है । जिसका विधिपूर्वक संबंध सहित मरण हो जाए उससे बढ़कर ऊंचा भवितव्य किसका कहा जाए? जीवन में अनंत बातें काम आती हैं, अनेक सुख मिलते हैं । बड़े वैभव का मौज लूटते हैं, लोगों में सम्मान प्राप्त करते हैं । अनेक प्रकार के राजा महाराजावों का नाम जो पूजा जाता है ऐसे-ऐसे बड़े-बड़े ठाठ भी समाधिमरण के ठाठ के आगे तुच्छ चीज हैं । जिनको अपने मित्र पर, अपने माता-पिता पर, अपने कुटुंबीजनों पर वास्तविक प्रेम उमड़ा हो तो उनको समाधि मरण का ही वातावरण बनाए रखना चाहिए । ऐसा नहीं कि मरते समय जैसे कोई क्रूर पुरुष किसी जीव का वध करे या मानो डाकुवों ने किसी पुरुष को मार डाला तो वह मर गया पर यह ख्याल करके कि कहीं इसके थोड़ी बहुत श्वास अभी चल तो नहीं रही वे पुन: लौटकर उसे मसल-मसल कर मार डालते ऐसा ही घर के लोग यदि मरने वाले के सामने राग की, ममता की बात करें तो समझलो कि वे उसके लिए बुरा कर रहे । अब उसके मरते समय शायद कुटुंबीजन ऐसा सोचते हो कि कहीं थोड़ी बहुत श्वांस तो नहीं चल रही याने कुछ विशुद्धि तो नहीं हो रही, विशुद्धि यदि चल रही तो मानों वे उसे रूपी शस्त्र से मसल-मसल कर मार रहे हैं । वह भी चैतन्य प्राण का घात होने से हत्या करने जैसा काम है । यद्यपि कुटुंबीजन उसके साथ ऐसी क्रूरता का भाव करके तो नहीं मारते मगर राग मोह भरी बातें करके काम तो कर रहे हैं विकट हत्यारे जैसा ही । तो जिन्होंने निर्वाण पाया है उनका वह सब समाधिमरण का माहात्म्य है । कोई तत्काल कोई निकट भवों में ऐसे समाधिबल से मुक्ति को प्राप्त करता है ।
अनंतृप्तिसंपंन परमात्मा का नि:श्रेयस में आवास―प्रभु तृप्ति से युक्त हैं बताओ वह तृप्ति कहां मिलेगी? इंद्रिय सुख में मिलेगी, या मन के सुख में मिलेगी, या वैभव में मिलेगी, या कुटुंब में मिलेगी? क्या खूब खाते-खाते तृप्ति मिल जाएगी? नहीं । खूब खाते जाइये, खाने में काम करने का अंत न आ पाएगा । और उसका प्रमाण हैकि अनादिकाल से अब हम खूब खाते आये पर तृप्ति तो न मिल सकी । अरे वह तृप्ति बाहर में कहीं न मिलेगी । वहतो ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, यह स्थिति बने तो तृप्ति मिलती है । अन्य स्थिति में तृप्ति नहीं मिल सकती । कहां तृप्ति मिलेगी? विषयों की इच्छा दूर होगी तो तृप्ति मिलेगी विषयों के सेवन से तृप्ति नहीं मिल सकती । अब कितनी उल्टी बात चल रही है । लोग इसी ख्याल में हैं कि विषयों के भोगने में तृप्ति मिलेगी, पर जैसे ईंधन मिलते रहने से अग्नि कभी तृप्त नहीं होती बल्कि आग की तृष्णा बढ़ती जाती है, अग्नि की वृद्धि होती ही रहती है, ऐसे ही ईंधन के समान हैं ये सब रह विषय साधन । इन विषय साधनों के संयोग में और इनमें अपने दिल को बहलाने में यह मोही तृप्ति के स्वप्न देख रहा है । उससे तृप्ति न होगी किंतु तृष्णा ही बढ़ेगी और उन विषयों की वांछा दूर कर दी जायतो तृप्ति हो जाएगी । ऐसी तृप्ति से युक्त प्रभु मोक्ष में बड़े आराम पूर्वक रहते हैं ।
सर्वशुद्धि संपन्न परमात्मा का नि:श्रेयस में आवास―व्रतों का निर्दोष पालन करके अंत समय में समताभाव पूर्वक आयुक्षय करने वाला पुरुष उसी भव में अथवा कुछ एक भव बाद मनुष्यभव पाकर मोक्ष जाता है इसही विधि से मोक्ष जाने वाले । आत्मा सिद्ध अवस्था में किस प्रकार रहता है उसका वर्णन चल रहा है, वह परमात्मा द्रव्यकर्म से रहित है । भावकर्म से रहित तो पहले ही हो गया था अरहंत अवस्था में, अब द्रव्यकर्म और नो कर्म इनसे भी रहित हो गए, केवल आत्मा रहा अमूर्त आकाशवत् निर्लेप निरंजन केवल ज्ञाताद्रष्टा ऐसे शुद्ध एकत्व की स्थिति में वे सिद्ध भगवान अनंत काल तक इसही स्थिति में रहेंगे, और इस स्थिति में रहकर आगे कभी भी रंचमात्र विकार को प्राप्त नहीं होते । विकार जो पहले हो रहा था संसार दशा में वह उपाधि का निमित्त पाकर हो रहा था । जब निरुपाधि हो गए तब धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य की भांति पूर्ण शुद्ध परिणमन करने वाले हुए तो ऐसी शुद्धि को प्राप्त है । ऐसे प्रभु गुणस्मरण करने वाले पुरुष शीघ्र ही सहज शुद्धं चैतन्यस्वरूप का अनुभव कर पाते हैं, जिस अनुभव के आधार से विकास होता रहता है । आज हम आप अशुद्ध दशा में हैं और जो शुद्ध दशा में है ऐसे प्रभु हमारा कुछ करते नहीं है । हम को तार दें प्रभु, हम को कर्म से रहित कर दें ऐसा प्रभु नहीं करते । वे तो समस्त पदार्थों के जाननहार रहते हुए अनंत आनंद में तृप्त रहते हैं । शुद्ध जीवद्रव्य की यही विशेषता है । तो अब हम इस आधार से अपना उत्थान कर सकते हैं, जो शुद्ध हैं, परमात्मा हैं वे तो अपने आनंद में मग्न है वे मेरा परिणमन नहीं करते हैं, फिर हमारा शुद्ध परिणमन बने कैसे ?तो उसका उपाय यह ही हैकि हम अपने आत्मा के अंत: प्रकाशमान सहज शुद्ध चैतन्यस्वरूप का आश्रय लें और इसका आश्रय करने के लिए सिद्ध भगवंत के स्वरूप का हम स्मरण करेंगे, उनकी पर्याय आत्म स्वभाव के साथ एकमेक हुई ,है जो सहज स्वभाव है वैसा ही वहाँ विकास है । तो प्रभु के विकास को निरखकर हम आसानी से स्वभाव की दृष्टि में आ सकते हैं और इसीलिए भगवंत के गुणस्मरण पूजा का कर्त्तव्य बताया है । तो वे प्रभु उतना शुद्ध हैं जैसा कि सहज स्वभाव है उसही के अनुरूप उनका विकास है । ऐसी आत्यंतिक शुद्धि सहित प्रभु मोक्ष में अनंत आनंद सहित विराजते है ।
नि:श्रेयस को प्राप्त भगवंतों की निरतिशयता व निरुपाधिता―ये सिद्ध प्रभु निरतिशय हैं, निरतिशय के दो अर्थ हैं, निर का अर्थ है निःशेष याने समस्त जगत में जितना अतिशय हो सकता है उन सब अतिशयों के ऊपर परिपूर्ण अलौकिक अतिशय से युक्त है दूसरा अर्थ यह है कि सिद्ध भगवान में परस्पर कोई किसी का विशेष अतिशय नहीं है । अर्थात् एक सिद्ध की अपेक्षा दूसरे में कोई महिमा बढ़ी हो, अतिशय बढ़ा हो सो बात नहीं है । तो ऐसे निरतिशय सिद्ध भगवंत मोक्ष में आनंदपूर्वक परिणमन कर रहे हैं । ये प्रभु निरुपाधि हैं । सिद्ध हुए तो अब इनका कभी अंत नहीं आता है अनंत काल तक सिद्ध दशा ही रहती है । जीव एक बार शुद्ध होने पर फिर कभी अशुद्ध नहीं होता, उसका कारण यह हैकि जब जीव शुद्ध हुआ है तब यह अकेला ही तो रहा । अब इसके साथ द्रव्यकर्म नहीं, भावकर्म नहीं, शरीर भी नहीं है, केवल एक विशुद्ध आत्मा मात्र है । सो आत्मा में कोई गुण ऐसा नहीं है जो हमारे बंध का कारण हो, विकार का कारण हो जिससे कि यह फिर से रागीद्वेषी बने । यद्यपि जीव में योग्यता है ऐसी कि कर्म के उदय का निमित्त पाकर यह रागीद्वेषी बन जाता है, मगर अशुद्ध पर्याय में ही ऐसी योग्यता है । जीवद्रव्य के द्रव्य में योग्यता नहीं है । यदि अशुद्धपर्याय जीव है तो द्रव्य कर्म का निमित्त पाकर वैभावि की शक्ति रागी द्वेषी बनती है । जैसे एक परमाणु में जल भरने की शक्ति नहीं है, पर अनेक परमाणु लेकर मिट्टी बनाकर घड़ा बन जाए तो उस घड़े में पानी भरने की योग्यता आ जाती है, यह है पर्याय-योग्यता । सो जीव में पर्याय योग्यता है ऐसी कि द्रव्यकर्म का सन्निधान पाकर रागीद्वेषी बने, पर वह अशुद्ध पर्याय-योग्यता सिद्ध प्रभु में अब है नहीं इस कारण विकार आने का अब कोई प्रसंग नहीं रहा । अब वे सदा काल निर्विकार ही रहेंगे । इस प्रकार व्रती पुरुष निर्ग्रंथ दिगंबर होकर निर्दोष साधना करके, निर्विकल्प समाधि के बल से मोक्ष को प्राप्त होता है । उस मोक्ष में किस प्रकार सुख अनुभवते हैं उसका वर्णन इस छंद में किया गया है ।