वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 150
From जैनकोष
सुखयतु सुखभूमि: कामिनं कामिनीव, सुतमिव जननी मां शुद्धशीला भुनक्तु ।
कुलमिव गुणभूषा कन्यका संपुनीताज्जिनपति पदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मी: ।।150।।
अर्थ―जिनेंद्र भगवान के पदपद्मों को निरखने के लिए यह सम्यग्दर्शन रूप लक्ष्मी कामीपुरुष को सुखभूमि कामिनी को तरह मेरे को सुख उत्पन्न करे और जैसे शुद्ध शीला जननी माता सुत को पालन करती है इस तरह मुझ को पालन करें और गुणों से भूषित कन्या जैसे कुल को पवित्र करती है वैसे ही मुझ को पवित्र करे । इस सम्यग्दर्शनरूप लक्ष्मी को जिनेंद्र के चरण कमलों को निरखने वाली कहा है । सो सम्यक्त्व होने पर जब तक इस जीव के राग शेष रहता है उसके आराध्य जिनेंद्र भगवान होते हे और यह अनुराग अभेद सहज आत्मभक्ति का साधन बनता है । ज्ञानी जीव को दो ही कार्य हैं―अपने सहज आत्मस्वरूप की आराधना करना या जहाँ गुणविकास है ऐसे परमात्मस्वरूप की उपासना करना । इन दो के अतिरिक्त अन्य कुछ भी इसका शरण नहीं है, उपलक्ष्य नहीं है, ध्येय नहीं है, इसी वजह से सम्यग्दर्शन लक्ष्मी को जिनपतिपदपद्यप्रेक्षिणी विशेषण दिया है कि यह जिनेंद्र के चरण कमल को निरखने वाली है । यह सम्यक्त्वलक्ष्मी जीवों को सुखी कर सकती है इसीलिए इससे आशीष चाहा है कि यह सम्यग्दर्शनरूप लक्ष्मी मुझ को, जगत को याने सबको सुखी करें ।
(1) सम्यक्त्व लक्ष्मी से विशुद्ध आनंद पाने का आशीष―यहां उदाहरण दिया है कि जैसे सुखभूमि कामिनी कामी पुरुष को सुखी करती है उदाहरण यह बिल्कुल लौकिक है पर लौकिकजनों को समझाने के लिए लौकिक उदाहरण भी प्रयोग में लेना पड़ता है । उदाहरण में तो भेदकथन है, उपचार कथन है, स्त्री भिन्न द्रव्य है, पुरुष भिन्न द्रव्य है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को सुखी कैसे कर सकता है? पर प्रकरण में भिन्न द्रव्य की बात नहीं कही जा रही । सम्यग्दर्शन लक्ष्मी यह आत्मा को छोड़कर अन्यत्र नहीं है । आत्मा की ही तारीफ है, सो सम्यग्दर्शन लक्ष्मी मुझ को लोगों को सुखी करे । यहाँ सुखी करे, इस रूप में आशीष चाहा है, पर सुखी करे इस आशीष का भाव यह है कि आनंदमय करें । सुखी होना कोई भली बात नहीं है, क्योंकि सुख का जो वास्तविक स्वरूप है, शब्द के अनुसार जो वाच्य है वहतो अपवित्र बात है । इंद्रिय को सुहावना लगे, मौज में रहे इसे कहते हैं सुख । पर लौकिकजनों को समझा रहे हैं और वे इस सुख से परिचित हैं इस कारण सुख शब्द देकर ही समझाया गया है । वस्तुत: अर्थ यह होता है कि मुझ को आनंदमय करो । आनंद तो मेरा स्वरूप है, स्वभावत: मैं आनंदमय हूँ, पर उपादान में कारण पड़ा है इस आनंद को नष्ट करने का, ढकने का विषय व कषाय और अंतरंग निमित्त है कर्म का उदय, तथा बहिरंग निमित्त है आश्रयभूत अनेक कारण । सो जिसको तत्त्व का निर्णय है वही तो सम्यक्त्व का आशीष चाह रहा है । एक प्रकट यह अपने आप में अनुभव बनता है कि सम्यग्दर्शन का जो वाच्य है, ध्येय है, लक्ष्य है सहज आत्मस्वरूप, उस सहज आत्मस्वरूप की उपासना नियम से उन आवरणों को हटा देती है जो उपादान में आवरण पड़े हैं और अपने आपको आनंदमय अनुभव करा देती है । तो यह सम्यक्त्व लक्ष्मी मुझ को आनंदमय करे ।
(2) सम्यक्त्व लक्ष्मी से आत्मपोषण पाने का आशीष―दूसरा उदाहरण दिया है कि शुद्ध स्वभाव वाली मां जैसे पुत्र का पालन करती है उसी प्रकार यह सम्यक्त्वलक्ष्मी मेरा पालन करे । माँ का हृदय विशुद्ध है पुत्र के प्रति । पुत्र का हित चाहती है पुत्र को हित कार्य में लगाती है । कदाचित् पुत्र कुमार्ग में जायतो उसे थोड़ा दंड देकर कुमार्ग से हटाती है । तो जैसे शुद्ध प्रकृति मां की पायी जाती है इसी प्रकार मुझ आत्मा के प्रति शुद्ध प्रकृति इस सम्यग्दर्शन लक्ष्मी में पायी जाती है । सम्यक्त्व लक्ष्मी आत्मा का हित ही चाहती है । हित में ही लगाये रहती है और कदाचित् थोड़ा धर्मभाव से चलित हो तो इस ही की प्रेरणा है कि जो तपश्चरण आदिक लेकर पुन: यह जीव धर्म में लग जाता है । सो जैसे शुद्धशीला मां पुत्र को पालती है, पोसती है, उसी प्रकार यह शुद्धशीला सम्यक्त्व लक्ष्मी मुझ को भी पाले-पोसे ऐसी सम्यक्त्व लक्ष्मी से, आशीष लिया है ।
(3) सम्यक्त्व लक्ष्मी से पवित्रता लाभ का आशीष―तीसरा उदाहरण दिया है कि जैसे गुण भूषण से भूषित कन्या कुल को पवित्र करती हैं उसकी प्रकार गुणों से भूषित सम्यक्त्व लक्ष्मी मुझ को पवित्र करे । कुल को पवित्र लड़का करता है पर यहाँ उस लड़के को छोड़ दिया है । उस लड़के की उपेक्षा की है और कन्या का उदाहरण लिया है । तो व्यवहार में ऐसा मालूम पड़ता है कि कन्या आज्ञाकारिणी हो, विनयशील हो, गुण भूषित हो तो उसे देखकर कुल की पवित्रता पर लोगों की दृष्टि जल्दी जाती है । वहाँ पुत्र को देखकर भी जो योग्य हो, कुल पर दृष्टि जाती है, पर कन्या को देखकर विशेषतया कुल पवित्रता की ओर दृष्टि जाती है । उसका कारण यह भी हो सकता कि एक तो कन्या सरल हृदय होती है तथा जैसी रूढ़ि चली आयी है वैसी अपने ही बल पर पूरी खड़ी हुई नहीं मानते हैं लोग । कन्या जब अविवाहित है तो माता पिता के आधीन है, और जब विवाहित है तब अपने उस कुटुंब के अधीन है । तो ऐसा होने से अशुद्धता न हो सकने से उसमें पवित्रता विशेष होती और गुणभूषितपना हो तो जैसे जिन्हें लोग बेचारेसा समझते हैं और उनमें गुण दिखें तो उसके प्रति बहुत आकर्षण होता है शुद्ध हृदय से, ऐसे ही कन्या को जब योग्य गुणभूषित निरखते है तो लोगों को उसके आदर्शों के प्रति आस्था बहुत होती है । कुछ भी कारण हो यहाँ कन्या का उदाहरण दिया है कि जैसे कन्या कुल को पवित्र करती है ऐसे ही गुणभूषित सम्यक्त्व लक्ष्मी मुझ को पवित्र करे ।
ग्रंथकर्ता व उनका वर्णनीय लक्ष्य―इस ग्रंथ के कर्ता है समंतभद्राचार्य, जिनकी विद्वत्ता के लिए इस पंचमकाल में हुए ऋषि वरों की उपमा मिलना कठिन है । इन्हें कलिकाल सर्वज्ञ कहा जाता था । इनकी रचना आप्तमीमांसा, अष्टसहस्री और अष्टसहस्री जैसी विशाल दृढ़ टीकायें लिखी गई हैं । कैसा प्रभु का स्तवन करते-करते समस्त न्यायों को स्पष्ट कर डालते है । वृहत्स्वयंभूस्तोत्र, जिसमें स्तुति तो की गई है 24 तीर्थंकरों की, मगर उस स्तवन में ही कैसा सयुक्तिक शब्दों द्वारा, संक्षिप्त शब्दों द्वारा न्याय का समस्त हृदय रख दिया है । यह विक्रम सम्वत् की पहली दूसरी शताब्दी के करीब हुए हैं, इनका पांडित्य अलौकिक था । समंतभद्राचार्य ने इस ग्रंथ में सर्वप्रथम धर्म का स्वरूप कहा है । सो धर्म ही तो जीव को संसार के संकटों से छुड़ाकर उत्तम सुख में पहुंचाता है । धर्म बिना जीव का कोई भी शरण नहीं है । कर्म का उदय प्रेरित करता है सो जीव बाह्य-बाह्य बातों में लगता है, पर बाह्य-बाह्य बातों में लगने में जो समय गुजारा वह समय निरर्थक रहा । उससे आत्मा का कोई प्रयोजन नहीं बना । जो क्षण आत्मस्वभाव की दृष्टि में गुजर वे क्षण सफल हैं । सो सर्वप्रथम धर्म का निर्देश किया और संकल्प किया कि मैं तो उस समीचीन, उत्कृष्ट धर्म को कहूंगा, जिस धर्म के प्रसाद से जीव संसार के सर्व संकटों से छूटकर अनंत काल के लिए सहज आनंद प्राप्त करते हैं, वह धर्म है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप ।
जैन शासन की निष्पक्षता, उदारता व सर्वहितकारिता―सम्यग्दर्शन में देव, शास्त्र, गुरु का यथार्थ श्रद्धान होना ये सब साधन बनते हैं सहज आत्मस्वरूप के अनुभव के । सम्यग्दर्शन प्रत्येक संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त जीवों में प्रकट हो सकता है । चाहे 7वें नरक का नारकी भी हो उसके भी सम्यक्त्व हो सकता है । हां इतनी बात अवश्य है कि सम्यक्त्व छूट जायगा मरण से पहले नारकी का । जिनके क्षायिक सम्यक्त्व है, अथवा जो नरक से निकलकर तीर्थंकर होंगे, उनका सम्यक्त्व तो दृढ़ है, पर शेष नारकियों के सम्यक्त्व मरण समय में छूट जाता है । पर हो तो गया सप्तम नरक के नारकी को भी । जो शारीरिक कठिन वेदनायें सह रहा है ऐसा नारकी जीव भी सम्यग्दर्शन के प्रताप से धीर मन वाला बना हुआ है । सम्यग्दर्शन चांडाल के भी हो जाता है । बिल्ली, घोड़ा, हाथी, चूहे, मेंढक के भी हो जाता है । होता है बिरले को, जिसको देशनालब्धि कभी प्राप्त हुई और निर्मल परिणाम बन रहा है, पर हो सकता है प्रत्येक संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त को । धर्म कितना उदार है और उसका प्ररूपक जैन शासन कितना उदार है वह जीव मात्र को निरखता है । जो भी आत्मदृष्टि करेगा वह मोक्ष मार्ग में लगता है, ऐसी उदारता पूर्ण घोषणा है जैन शासन की, वह नारकी हो, तिर्यंच हो, मनुष्य हो, देव हो । हां वस्तुस्वरूप ही है ऐसा कि संयम मनुष्य के ही पाया जा सकेगा । और निर्ग्रंथ होकर आत्म आराधना के प्रताप से निर्वाण मनुष्य ही पा सकते हैं । जो जैसी बात है उसको उस प्रकार से जैन शासन ने बताया है । जैन धर्म किसी एक संप्रदाय का धर्म नहीं, जैन धर्म किसी के कुल के कारण धर्म नहीं । जैन शासन का नाता आत्मभावों से है । आत्मा सभी जीव हैं, हां यह उन आत्मावों की उस पर्याय की योग्यता है जिससे कि असंज्ञी जीव सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सकते । तो इसे यह न कहा जायगा कि यह पक्षपात की बात कहता है । क्या करें, आचार्य देव विवश हैं उन असंज्ञी जीवों में ऐसी योग्यता ही नहीं है । जिसमें योग्यता है वही सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है, और वहाँ जैन मार्ग का अनुसरण कर अनेक प्रकृतियों का संबर और निर्जरा कर सकता है । जैन शासन की निष्पक्ष घोषणा है जो वीतराग और सर्वज्ञ हैं वहतो देव हैं । जो निर्दोष वस्तुस्वरूप का कथन करने वाली वाणी है वह शास्त्र है और विषयों से विरक्त होकर ज्ञान, ध्यान, तपश्चरण में ही लीन रहने वाले साधु गुरु हैं । इनका श्रद्धान सम्यक्त्व का साधन है, क्योंकि सम्यक्त्व होने पर इनका ही आश्रय और प्रयोग मोक्षमार्ग में बढ़ता है ।
सम्यग्दृष्टि का सम्यक्त्वाचरण―जिसके सम्यग्दर्शन हो गया वह अपने आत्मा में रंच भय और शंका नहीं रखता । उसकी दृष्टि में यह सहज परमात्मतत्व स्पष्ट सामने है । जिसके निरखने पर किसी प्रकार का भय नहीं रहता । सम्यग्दृष्टि जीव एक आत्मविकास के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहता । कर्मोदय से कैसी ही विपत्तियां आयें, उनमें घबड़ाता नहीं, चित्त गिराता नहीं । इसको किसी भी व्यामोह में आकर्षण नहीं होता । अपने गुणों के विकास में बढ़ने की ही धुन इस ज्ञानी पुरुष की होती है । वह बाहर के दोषों को नहीं निरखता, न दोषदृष्टि में उसका चाव है । फिर भी कहीं दोष विदित हो दूसरे में तो उनकी उपेक्षा करता है । अथवा साधर्मी तपस्वीजनों में दोष हो गए हों तो धर्मभक्ति के कारण उन दोषों को छुपाता है, सदैव अपने आपको मोक्षमार्ग में लगाये हुए है और सहवासी साधर्मीजनों को भी इस मार्ग में लगे रहने की प्रेरणा करता है । अनूठा अनुराग है इस ज्ञानी पुरुष का साधर्मीजनों में, ऐसा अनुराग कुटुंबीजनों के प्रति असंभव है । लोग सर्वाधिक प्रेम कुटुंबियों में करते हैं मगर वहाँ स्वच्छ प्रेम नहीं होता । उसमें मोह भरा हुआ है, खुदगर्जी को लिए होता है, विषय से संबंधित होता है, पर जिसने जिन अंतस्तत्त्व का अनुभव किया उसको ऐसे अनुभवी पुरुषों के प्रति निश्छल प्रेम होता है । यह ज्ञानी जीव अपने आपके आचार विकास में लगा रहता है और उसकी वृत्ति से सहज ही जैन शासन की प्रभावना होती रहती है ।
सम्यक्त्व सहित देशसंयम की अर्थकारिता―सम्यग्दर्शन आचरण का मूल हैं । जिसके सम्यक्त्व नहीं उसके आचरण है, वह बेतुकी क्रिया करके कहा जायगा । जिसका लक्ष्य ही सिद्ध नहीं हो पाता उसके आचरण का क्या महत्व है? भले ही मंद कषाय होने से कुछ पुण्यबंध हो गया तो उससे कुछ सुविधापूर्ण जन्म ले लेगा इससे अधिक और क्या पायगा? ‘ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो’ इस स्थिति के होने का जो आनंद है उसको सम्यक्त्वहीन कभी पा ही नहीं सकता । ऐसा यह सम्यग्दृष्टि अपने स्वानुभव में प्रसन्न होता हुआ आगे बढ़ना चाहता है । सो चूंकि पहले बहुतसी विषयकषाय घटनाओं की बाधा रही आयी और उसका संस्कार कुछ रूप में शेष रह गया तो उससे बाधा आती है स्वात्ममग्न होने में । सो परिग्रहों का त्याग करना, विघ्न बाधावों को हटाना मात्र है । बाह्य परिग्रहों के त्याग से कहीं आत्मविकास नहीं बढ़ा । आत्मविकास तो सहज आत्मस्वरूप की उपासना से बढ़ा । मगर ऐसे ही योग्यता का मनुष्य है कि पूर्वबद्ध कर्म का संस्कार इस आत्मविकास को नहीं बढ़ने देता―तो उनका जो बाह्य साधन है, आश्रयभूत कारण है धन वैभव आदिक, उनका त्याग करना, यह ही बाह्य आचार में बढ़ना कहलाता है । सो गृहस्थ पहिले क्या त्याग करता है, फिर किस तरह त्याग में बढ़ता है और साथ ही आत्मा की आराधना में बढ़ता है बस इसही प्रक्रिया में श्रावक की 11 प्रतिमायें बन जाती हैं, सो यह श्रावक उन प्रतिमावों में बढ़-बढ़कर ऐसी अपनी शक्ति बढ़ाता है कि सहज आत्मस्वरूप का वह अनुभव अधिक बार करता रहे ।
सम्यक्त्व की सर्वगुणविकासमूलता―इस ग्रंथ में मुख्यतया सम्यक्त्व और श्रावक के व्रतों का वर्णन है । सब सदाचारों का आधार सम्यग्दर्शन है, इस सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान बनता है । चारित्र सम्यक्चारित्र बनता है । सम्यक्त्व आत्मविकास का मूल है । एक लोक में प्रसिद्ध बात है कि कोई किसी पुरुष की प्रशंसा करता है तो उसको यों कहकर कहते है कि यह तो सिंह के समान है । वीर है, मगर जरा सिंह की वृत्ति तो निहारो, सिंह मांस खाता है, वह क्रूर प्राणी है । मनुष्यादिक को देख ले तो उसके प्राणघात कर डाले । परंतु लोग सिंह की उपमा देते हैं, जिसकी प्रशंसा की जाती है कि यह पुरुष सिंह के समान है अर्थात् यह पुरुष दूसरों को मारने वाला है, कूर है, यह अर्थ हुआ, पर लोग बड़े चाव से सिंह की उपमा सुनना पसंद करते हैं, और उसे कहते है सिंह वृत्ति । सिंह से तो अच्छा और बढ़कर कुत्ता है जो कि अपने स्वामी की सेवा करे, विनयशील रहे, गोद में लेटे, पहरा देवे, बारबार मुख ताके और कृतज्ञ रहें । देखिये कितने गुण है कुत्ते में । इन गुणों में से एक भी गुण सिंह में नहीं है । यदि किसी पुरुष की प्रशंसा करना हो तो यह कहना चाहिए कि यह पुरुष तो कुत्ते के समान है, इसकी हम कहां तक बड़ाई करें, कुत्ते के समान परोपकारी है, पर ऐसा क्यों नहीं कहते लोग? उसका कारण यह है कि कुत्ते में एक अवगुण ऐसा है जिसकी वजह से उसके इन सारे गुणों पर पानी फिर गया, और सिंह में एक गुण ऐसा है भीतरी कि जिसके कारण सिंह के सारे अवगुण माफ से कर दिए गए । वे गुण अवगुण क्या है? कुत्ते में अवगुण यह है कि उसे यदि कोई लाठी मारे तो वह कुत्ता उस लाठी को चबाता है, लाठी को अपराधी समझता है, उसकी बुद्धि में यह बात नहीं आती कि मेरे को मारने वाला तो यह पुरुष है । इसको कहते हैं मिथ्याबुद्धि । और इनके प्रतिपक्ष में सिंह में यह गुण है कि कोई सिंह को तलवार मारे या कोई बंदूक का निशाना लगाये तो तलवार या बंदूक पर उसकी दृष्टि नहीं जाती । वह सीधे उस मारने वाले पुरुष पर हमला करता है । उसके सही बुद्धि है । तो ऐसे ही भेदविज्ञानी पुरुष अपने को सताने वाले विषयकषाय पर ही धावा बोलता है आश्रयभूत कारणों पर धावा नहीं बोलता । यह लक्ष्य बन जाता है ज्ञानी पुरुष का जिससे कि वह मोक्षमार्ग में आगे बढ़ने के लिए निर्विघ्न सफल हो जाता है ।
देशसंयम, सकलसंयम की साधना करके निश्चयरत्नत्रयाराधक होकर परमात्मत्व अवस्था पाने के पौरुष की भावना―इस रत्नकरंड में आत्मसाधना का यह क्रम संकेतित किया है कि प्रथम तो कल्याणार्थी निर्दोष सम्यक्त्व को प्राप्त करे जिसमें शंका कांक्षा आदि अंगविपरीत दोष न हो, देवमूढ़तादिक तीन मूढ़ताओं में से कोई भी मूढ़ता न हो, ज्ञानमद आदि आठ मदों में से कोई भी मद न हो, कुदेवाश्रय आदि छह अनायतनों में से कोई भी अनायतन न हो । सम्यग्दृष्टि पुरुष दर्शनप्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमावों में एक दो आदि प्रतिमावों को निरतिचार पालन कर जीवन बिताता व्रतपालन करके निष्प्रतीकार बुढ़ापा, रोग आदि उपस्थित होने पर सल्लेखना धारण करना कर्तव्य है । यों धर्मसाधन कर सल्लेखना सहित मरण कर श्रावक शुभ गति में जन्म लेता है पश्चात् कर्मभूमि में मनुष्यभव पाकर निर्ग्रंथ दिगंबर होकर अभेद उपासना करके निर्वाण प्राप्त कर सकता है । निर्वाण लाभ ही सर्वोत्कृष्ट लाभ है । अत: जीवन में ध्येय एकमात्र यह ही रखने में कल्याण है कि मुझे तो परमात्मत्व अवस्था पाना है । परमात्मत्व से पहिले की अवस्थायें सब मेरे लिए व्यर्थ हैं विडंबनारूप हैं । अत: मैं शुद्धावस्था पान के लिए निज सहज शुद्ध चैतन्य स्वभाव में ही उपयोग को मग्न करूंगा ।
।। इति समाप्त ।।
मैं ज्ञान मात्र हूँ मेरे स्वरूप में अन्य का प्रवेश नहीं अत: निर्भार हूँ ।
मैं ज्ञानघन हूँ, मेरे स्वरूप में अपूर्णता नहीं, अत: कृतार्थ हूँ ।
मैं सहजानंदमय हूँ, मेरे स्वरूप में कष्ट नहीं, अत: स्वयं तृप्त हूँ ।
ॐ नम: शुद्धाय, ॐ शुद्धम् चिदस्मि ।।