वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 45
From जैनकोष
गहमेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षांगम् ।
चरणानुयोगसमयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ।।45।।
चरणानुयोग के वर्णन का प्रारंभ―सम्यग्ज्ञान के प्रसंग में प्रथमानुयोग और करणानुयोग इन दो का स्वरूप बताया गया है कि इस अनुयोग के शास्त्रों में किस विषय का वर्णन हुआ करता है । अब इस छंद में चरणानुयोग का स्वरूप कहा जा रहा है कि चरणानुयोग के शास्त्रों में किन-किन विषयों का वर्णन किया जाता है । चरणानुयोग में गृहस्थ और मुनियों का चारित्र बताया गया है । कैसे उनके चारित्र उत्पन्न होता है? कैसे उनके चारित्र में वृद्धि होती है, कैसे उस चारित्र की सम्हाल की जानी चाहिए । तो सब चरणानुयोग के विषय को सम्यग्ज्ञान जानता है । जो चीज न हो और अब हो याने जो जिस ढंग की बात नहीं है और अब हो रही तो यह जरूर है कि उसमें कोई निमित्त कारण होगा । अगर निमित्त कारण न हो तो वह पहले से ही क्यों न हुई, स्वभावत: क्यों न हुई? तो जो भी घटना नये ढंग में होती है उस घटना का कोई न कोई निमित्त कारण होता है । तो अब गृहस्थों का चारित्र हो या मुनि का चारित्र हो तो उस घटना में निमित्त क्या है? कषाय का क्षयोपशम । जब तक कषायें रहती हैं तब तक चारित्र नहीं होता । कषायों का और चारित्र का विरोध है । आत्मा में एक चारित्र नाम का गुण है, उस गुण की विकृत पर्याय है विकार, कषाय और स्वभाव पर्याय है चारित्र । तो सुना ही होगा, पढ़ा ही होगा कि अप्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम हो तो होता है गृहस्थ का व्रत और प्रत्याख्यानावरण कषाय का भी क्षयोपशम हो तो होता है मुनि का व्रत । तो चारित्र के उत्पन्न होने में निमित्त कारण तो कषाय का क्षयोपशम है । उपादान कारण यह जीव खुद है । इसकी भावना बने, ज्ञान बने । उस प्रकार की एक भावना हो कल्याण की अभिलाषा हो तो इसका उपादान कारण खुद जीव है और आश्रयभूत कारण है परपदार्थों का हटाव, सही लगाव, यह उसका आश्रयभूत कारण है । चारित्र नाम किसका है? आत्मा का जो स्वभाव है चैतन्य सहजज्ञान, सहजदर्शन, बस उस ही में समा जाना, उसही के अनुरूप अवस्था बनाना इसे कहते हैं चारित्र । आत्मा में लीन होने का नाम है चारित्र । लीन हो जाय यह तो है चारित्र में परिपूर्णता मगर आशिक चारित्र अणुव्रत और महाव्रत है ।
सम्यक्त्व और सम्यक्चारित्र से धर्मप्रगति―धर्मपालन दो बातों में है―(1) सम्यग्दर्शन पाना और (2) सम्यक्चारित्र का पालन करना । सम्यग्दर्शन में एक वह प्रकाश है कि जिससे रास्ता दिख जाता है कि हम को इस रास्ते से चलना है । शांति के लिए जगह-जगह बहुत भटके । क्या-क्या उपाय अब तक नहीं किए । कहां-कहां नहीं डोले । किस किसके आगे मोहवश कातरता नहीं की । पर इस जीव को शांति प्राप्त नहीं हुई । आखिर इस तरह कैसे शांति प्राप्त हो । शांति का तो मार्ग ही और है । किया जाना और बात है । शांति का मार्ग है अपने आत्मस्वरूप का दर्शन, ज्ञान और चारित्र । देखिये―स्वयं अपने को क्या कष्ट है जीव को? एक यह बात ठान ले कोई कि मुझ को किसी भी परपदार्थ का विकल्प ही नहीं करना है । तो इतनी मात्र अगर उसकी प्रक्रिया बन सके तो वह शांति के सम्मुख हो जायगा । जैसे अचरज का एक भजन है―पानी में मीन पियासी, मोहि सुन-सुन आवे हांसी । पानी में रहने वाली मछली भी प्यासी है यह बात सुनकर हंसी आनी ही चाहिए क्योंकि मछली पर नीचे ऊपर चारों तरफ पड़ा है पानी फिर भी वह प्यासी ऐसे ही जीव का स्वरूप है ज्ञान और आनंद । स्वरूप ही ज्ञानानंद है । उस ज्ञानानंदस्वरूप में इसका सत्त्व है और फिर भी यह जीव ज्ञान को तरसता है और आनंद तरसता है । इस बात पर हंसी आती है, किसको?... ज्ञानी को । अज्ञानीजन क्यों हँसेंगे? उन्हें तो इस राज का पता ही नहीं है तो ज्ञान और आनंद इस आत्मा का स्वयं स्वभाव है इसलिए ज्ञान व आनंद के लिए क्या तड़फना? कर्तव्य यह करना है कि जो हम ज्ञानानंद स्वभाव से विमुख होकर किसी बाह्य पदार्थ में लगाव रखकर व्याकुल होते रहते है तो हम को वह लगाव तोड़ना है, आनंद अपने आप मिलेगा । सुख और दुःख बनाये जाते हैं, आनंद नहीं बनाया जाता । आनंद कहलाता है―जैसे भगवान के आनंद है अपने स्वभाव से ही वह आनंद है । वह तो आनंद है और सुख है इंद्रिय विषयों का भोग करना, मौज मानना और दुःख तो बनाये जाते हैं बनावटी हैं और अकृत्रिम स्वाभाविक आनंद होता है । तो हमारी बनावट छूट जाय तो आनंद ही आनंद है । यह बनावट बनी है पर पदार्थों का राग करने से । तो गृहस्थी के चारित्र में आश्रवभूत कारण का त्याग ही त्याग बताया है ।
धर्माभिलाषी गृहस्थों का आवश्यक कर्तव्य परिग्रह परिमाण―परिग्रह का परिमाण करना भी एक त्याग है । क्योंकि परिग्रह का परिमाण न हो तो तृष्णा की अवस्था नहीं होती । भले ही शक्ति न होने से आज इतना ही सोचें कि 20 लाख का धन हो जायगा फिर क्या जरूरत है? पर उसका यह सोचना ही सोचना रहेगा । कदाचित हो जायें 20 लाख तो संतोष हो लेगा क्या? अरे वह आगे की सोचेगा । और परिग्रह का परिमाण होगा तो उसे संतोष होगा । जैन शासन में जो बात मुख्य है कर्तव्य की उसका अब रिवाज न रहा । मुख्य कर्तव्य है परिग्रह का परिमाण करना । सुख शांति की जड़ है यह । कहीं प्रमाण में यह नहीं है कि आप उतना ही परिमाण रखे कि तकलीफ पाये, रखें आप जो आज आवश्यकता है उससे दुगुना रख लीजिए । आज अब लोग यह भी सोचने लगे कि कुछ ऐसा भी समागम बन गया कि जिसने 30―40 वर्ष पहले यह सोचा था कि 10 हजार रूपया काफी होते हैं और उसमें तो कितनों का ही गुजारा चल जाता था, परिमाण कर लिया 10 हजार का । आज 10 हजार में क्या होता, गुजारा नहीं चलता, तो चाहे ऐसी बात वे मन में रख लें कि वर्तमान के इन भावों के समय इतना परिमाण है, भावों में बढ़ने घटने के अनुसार हमारा परिमाण भी घट बढ़ जायगा पर इतना परिमाण है । ऐसा एक नियम तो हो जाय, उसको फिर तृष्णा न सतायेगी । रही यह बात कि लोग यह सोचेंगे कि फिर तो लोक हमारी अधिक इज्जत न रहेगी । क्योंकि परिग्रह ज्यादह बढ़ावेंगे नहीं, संपन्नता बड़ी कहलायेगी नहीं तो फिर लोक में हमारी मान्यता कैसे रहेगी, क्योंकि मान्यता तो अर्थ के बल पर है, फिर न रहेगी सो उसके विषय में दो बातें सुनो―अगर लोगों के द्वारा मान्यता पाने की ही बात है चित्त में तब तो फिर धर्म को एक ताक पर रख दीजिए और जो करना हो सो करिये । पहली बात तो यह है । दूसरी बात यह है कि परिमाण करने पर उसका इतना सात्विकभाव रहेगा कि उसके अंदर भी जो लाभ है तो परोपकार में अधिक जायगा और साल के अंत में परिमाण से ज्यादह लाभ हो गया तो वह सारा का सारा धन परोपकार में देगा, तो बतलावों उसका नाम बढ़ेगा कि तृष्णा करने वाले का? तृष्णा करने वाले के मन में वह उदारता नहीं आ सकती जो परिमाण करने वाले में उदारता आ सकती । लौकिक इज्जत में भी अंतर नहीं, पारलौकिक काम तो अच्छा ही हो रहा है परिग्रह का परिमाण करने से । तो जिस गृहस्थ को धर्मपालन करने की अभिलाषा है उसका सर्वप्रथम कर्तव्य है कि वह परिग्रह का परिमाण करे । परिमाण करने वाले को बड़े ऊंचे-ऊंचे धनिकों को देखकर भीतर में जलन तृष्णा नहीं होती । बल्कि उनपर दया आती है कि इन बेचारों को शांति का मार्ग नहीं मालूम है । ये आत्मा का स्वरूप नहीं जानते, सो बाहर ही बाहर उपयोग फंसाकर व्याकुल हो रहे हैं । यह करुणाबुद्धि जगेगी । और जिसके परिमाण नहीं है उसके तृष्णा होने के कारण बड़ों को देखकर ईर्ष्या जगती है कि मैं क्यों न हो पाया ऐसा ।
तृष्णा लोभ से उत्पन्न हुई व्यथा का देवगति में चित्रण और उससे शिक्षण―देवगति में मनुष्यों से भी अधिक दुःख है । ऊंचे देवों की तो बात नहीं कहते, जैसे कि यहाँ ऊंचे मनुष्यों को दुःखी नहीं कहा जा सकता । मगर अधिकतर संख्या में देवगति के जीवों में दुःख अधिक है । आप लोग सोचते होंगे कि लोग तो देवगति में पैदा होने के लिए तरसते हैं क्योंकि शरीर उनका अच्छा है, वैक्रियक है, भूख प्यास की वहाँ बाधा नहीं है । कमायी करना नहीं पड़ता, सागरों पर्यंत की आयु है । उनके शरीर में रोग नहीं होते, पसीना भी नहीं आता, हड्डी चाम भी नहीं है । जैसे यहाँ अनेक धातुवों के खिलौने होते, मान लो कोई डन्लप का ही कोमल शरीर वाला खिलौना बना दे, ऐसा कोमल शरीर देवो का होता । जहाँ सुख ही सुख है । एक से एक सुंदर देवांगनायें और वे भी हजारों की संख्या में, जहाँ चाहे घूमें, अवधि ज्ञान होने से कहीं की भी बात जानें और फिर भी यहाँ कहा जा रहा कि देवो में सबसे अधिक दुःख है । हां दु:ख है । काहे का दुःख है? मूर्खता का दुःख है । जब कोई देव अपने से अधिक ऐश्वर्य वाले देव को देखते है तो उसको उससे ईर्ष्या हो जाती, वह मन ही मन कुढ़ता है । वैसी स्थिति अगर मनुष्यों की हो तो कहो हार्टफेल हो जाने की नौबत आ जाय । देवों के हार्टफेल नहीं होता, उन्हें ईर्ष्या का भारी दुःख है । देवगति में लोभकषाय की प्रबलता बतायी गई है, मनुष्यगति में मानकषाय की तीव्रता बतायी गयी है, जो लोग लोभ करते है, धन का बहुत बड़ा संग्रह करते हैं वे मुख्यतया लोभ के कारण नहीं कर रहे किंतु मान के कारण कर रहे हैं । मैं करोड़पति अरबपति कहलाऊँगा, मेरी मान प्रतिष्ठा बढ़ेगी । इस भाव से लोग धन का संग्रह करते है । तो परिग्रह का परिमाण करना यह मूल बात है । जिसको अपना जीवन शांति में रखना है उसका यह कर्तव्य है कि वह धन का परिमाण कर ले । अब परिमाण अपनी इच्छा से करे, चाहे अधिक करे चाहे कम, पर एक हद तो हो गई और उसमें करीब-करीब यह हिसाब भी रख लीजिए कि जैसे आज का गुजारा है । भाव है, उस स्थिति में मेरा परिमाण है । देखिये आज से 50 वर्ष पहले कौन जानता था कि ऐसी भी महंगाई हुआ करती है । दूध तो मुफ्त मिलता था, छाछ तो बेचा ही न जाता था । आजकल तो छाछ तक भी कहो 50 पैसे किलो मिले । तो आज भी चाहे ऐसी बात चित्त में रख लो कि वर्तमान व्यवस्था के अनुसार हमारा इतना परिमाण है, उसमें भी एक हद तो हो गई । तृष्णा उसके आगे न बढ़ेगी । तो पहला कर्तव्य है गृहस्थों का कि वे परिग्रह का परिमाण करें, फिर उसके आगे उनका सब कुछ बढ़ता चला जायगा ।
धर्माचरण का आधार अहिंसा व अहिंसा के पालन के लिए अपरिग्रहता का आदर―भैया, जान लो कि जगत में जितने जीव है उन सब जीवों का मेरे ही समान स्वरूप है, मेरे से कोई कम नहीं है । जिस बात से मुझे दुःख होता है उस बात से दूसरों को भी दुःख होता है । मेरे को जगत में ऐसा क्या काम अटका है कि जो मेरे द्वारा दूसरों को दु:ख हो । यह भाव रहता है तो वह हिंसा का त्याग करता है, मायने अहिंसा का पालन करता है । तो अब जितना भी चारित्र है उस सबका आधार है अहिंसा । परिग्रह का परिमाण भी बताया तो उसका भी आधार है अहिंसा । और तृष्णा में दूसरे की भी हिंसा हो सकती । और खुद की हिंसा तो हो ही रही है । एक बार कोई दूसरा जीव आपके द्वारा मर जाय तो चाहे उसमें हिंसा न हो, आपको हिंसा का पाप न लगे । यह भी संभव है मगर परिग्रह के लगाव में मूर्छा के होने पर तो निरंतर हिंसा हो रही है । किसकी? आपके भगवान आत्मा की । अच्छा यह कैसे संभव है कि किसी जीव का प्राण चला जाय और हिंसा न हो? तो देखो कोई मुनिराज ईर्यासमिति से चल रहे हो और फिर भी अचानक कोई कुंथु जीव उनके पैर के नीचे आकर मर जाय, उन्हें पता ही न पड़े, तो उन्हें हिंसा का दोष नहीं लगता । क्योंकि उनके आशय में जीव हिंसा का परिणाम नहीं हैं । तो एक बार यह तो संभव हो सकता भावपूर्वक हिंसा भी संभव नहीं है, हिंसा का उनके भाव नहीं है, प्रमाद नहीं है, सावधानी है और कदाचित हो तो एक बार वहाँ हिंसा न लगे यह तो संभव है मगर मूर्छा में, परिग्रह में, लालसा में, तृष्णा में निरंतर हिंसा हो रही है । किसकी? उस आत्मा भगवान की । जितने भी चारित्र हैं वे सब अहिंसा के आधार पर हैं ।
सद्गृहस्थ की अंतश्चर्या का एक साधारण परिचय―चारित्र में जब पड़ता है गृहस्थ तो जो बहुत-बहुत सोचता है कि हम को यह खाना है । इस तरह से रसोई बनाना है, तो इसका आधार क्या है? अहिंसा । अब जो यह बढ़ा रखा है कि धोती अगर किवाड़ में लग गई तो वह अछूत हो गई यह तो है एक तरह का ऊधम । अरे शुद्धि तो साधरणतया होनी चाहिए मगर उसही का एक विस्तार बना लिया जाय और एक सीमा से अधिक तो वह तो कोई पद्धति नहीं है, मगर किसी जीव का जरा भी घात हो हिंसा हो तो वह पद्धति ठीक नहीं है जैन शासन में । आहारशुद्धि हिंसारहित होनी चाहिए, तब इस आधार पर प्रतिमायें बनीं । इसकी पहली प्रतिमा है, इसके मायने है कि उसके भाव देव, शास्त्र, गुरु की भक्ति के रहते हैं । सर्व जीवों के प्रति मित्रता रहती है, किसी जीव को दु:ख न हो, यह साहब पहली प्रतिमा वाले है, ऐसा कहने से क्या परिचय मिला कि इनके चित्त में देव, शास्त्र, गुरु के प्रति बहुत भक्ति है । ये किसी भी जीव को दुःख उत्पन्न होना नहीं चाहते, यह है उसका परिचय पहली प्रतिमा वाले का । ये गुणों को, गुणियों को, ज्ञानियों को, तपस्वीजनों को देखकर ऐसा खुश रहा करते हैं जैसे कोई गृहस्थ घर के बाल बच्चों को देखकर खुश रहता है । यह हम आपको किसका परिचय दे रहे हैं? पहली प्रतिमा वाले का । और किसी दूसरे दु:खी जीव को देखकर इनका हृदय भर जाता है और ये ऊटपटांग, ऊलजलूल, अटपट बातों में अपना उपयोग नहीं दिया करते हैं । यह है परिचय पहली प्रतिमा वाले का, पर यह परिचय कौन पाता है? परिचय यह जाना जाता कि इसकी पहली प्रतिमा है और यह ऐसा खाते है, ऐसा शुद्ध आहार बनाते हैं । यह परिचय तो चलेगा कहने सुनने में पर आंतरिक परिचय की बात कोई नहीं कहता । तो जिसका भीतरी भाव विशुद्ध है उससे ही हिंसा का परिहार बनता है ।
चैतन्यस्वरूप की सुध होने पर सही वृत्ति की शक्यता―केवल कोई कहे कि मेरी अमुक प्रतिमा है । मुझे यों खाना, यों करना और इसमें किसीने बाधा दी तो झट उसका हाथ पकड़कर झकझोर देना, धक्का दे देना, ऐसी और उसकी वृत्ति है, क्या सूझता नहीं है, मैं शुद्ध होकर खाना बना रहा या मैं शुद्ध-शुद्ध धोती पहिनकर पूजा को जा रहा हूँ, तूने क्यों छू लिया, क्या तू अंधा है, ऐसा व्यवहार अगर कोई करने लगे तो समझो कि उसको पर्यायबुद्धि है उसका आत्मा गंदा है । मान लो छू लिया, अशुद्ध हो गए तो प्रतिबिंब को नहीं छू सकते, हो सके तो दुबारा शुद्धि कर लो, न हो सके तो बैठे-बैठे प्रभु का स्मरण कर लो पर भीतर में कषाय जगना यह तो अपने आपको गंदा बना लेना है। किसका नाम धर्म है, किस धर्म का पालन किया जाना है। यह बात जब तक आत्मा के चैतन्यस्वभाव की सुध न होगी तब तक चित्त में नहीं रह सकती। प्रतिमावों को वर्णन इस ग्रंथ में खुद आयगा, पर सामान्यतया यह जानना कि जैसे-जैसे प्रतिमा बढ़ती है वैसे ही वैसे अहिंसा बढ़ रही। हिंसा घट रही है, किसकी? अपनी भी और पर की भी। अंदर में कषाय जगे तो समझो कि नियम से हिंसा हुई। दूसरे जीवों को पीटने से मारने से सामान्य पाप लगा, क्योंकि भीतर में कषाय जगी। यों ही पीठ पर हाथ मारने के कारण हिंसा का पाप नहीं लगा, किंतु भीतर में कोई कषायभाव जगा जिसके कारण यह प्रवृत्ति हुई, उस कषाय से हिंसा लगी। तब ही जैन शासन में अहिंसा का स्वरूप बताया है रागादिक भावों का उत्पन्न न होना अहिंसा है और रागादिक भावों का होना हिंसा है। अब चारित्र में बढ़ रहा वह गृहस्थ, भोगोपभोग के साधन और भी कम कर दिया। तब ही यह अष्टमी चतुर्दशी को बिल्कुल ही त्याग कर देता, मंदिर में ही बैठकर धर्मध्यान करता, उस दिन व्यापार का भी काम बंद रखता, यह सब उसके चारित्र में है । और भी बढ़ा तो वह कमायी न करेगा, जो है उसी में अपना गुजारा करेगा। और मान लो सब धन खतम हो गया तो परिग्रह का त्याग कर देगा। ऐसी उमंग होती है ज्ञानी पुरुष की।
अज्ञानहठरहित दृढ़ सदाचार की ज्ञानप्रकाश में संभवता―अज्ञानी के चित्त में यह रहता है कि यदि ऐसा कर लिया तो मेरा क्या हाल होगा? अगर 50 हजार हैं तो उसे बैंक में जमा करा दूंगा, उसके ब्याज मात्र से अपना गुजारा करूंगा, चाहे अकेला है । वृद्ध है पर वह जीते जी दान पुण्य के कार्य में खर्च नहीं कर सकता । वह सोचता कि यदि इस पूंजी में से कुछ खर्च कर दिया । तो इस तरह से धीरे-धीरे सब धन खतम हो जायगा धन न रहने पर फिर मेरा क्या हाल होगा? ऐसा सोचता है अज्ञानी । पर ज्ञानी पुरुष करता है वह भी यह कार्य, पर उसके इस प्रकार का हठ नहीं रहता। वह तो जानता है कि ऐसा हो तो वह भी ठीक, जैसा हो वह भी ठीक। वह चारित्र पालते हुए भी चारित्र को हठ के कारण नहीं करता किंतु उसका चारित्र सहज पलता है। देखिये यह बड़े रहस्य की बात कही जा रही है। यह बात झट समझ में न आयगी। जैसे मैं मुनि हूं। मुझे देखभाल कर चलना चाहिए, मुझे जीव रक्षा करना ही चाहिए, यह तो मेरा काम है। ऐसा भीतर में हठ पूर्वक अगर वह समितियों का पालन करता है तो समझो कि वह साधु अभी चारित्र का रहस्य नहीं जानता। देखो सुनने में ऐसा लगता होगा कि इसमें अपराध क्या? तो अपराध यह है कि उसके पर्याय में आत्मबुद्धि है तब हठ बनी है। अगर आत्मा के स्वरूप में आत्मबुद्धि हो तो कार्य वही करेगा मगर सारा उपयोग इस ओर न रहेगा। उसका उपयोग रहेगा आत्मा में? और चारित्र यह बनेगा । तो एक तो वह कि जिसका उपयोग आत्मा पर नहीं है, बाहरी क्रियाकांडों पर ही है उसका तो कहलायगा हठ पूर्वक चारित्र और जिसका आत्मस्वरूप पर ध्यान है और हो रहा वही का वही उसका कहलायगा सहज भाव से चारित्र । तो इस तरह चारित्र का वर्णन चरणानुयोग में चलता है ।
ज्ञानी को ज्ञानी की चर्या जानने की उमंग―सम्यग्ज्ञान चार प्रकार के शास्त्रों को बताता है और उनसे विदित होता है । प्रथमानुयोग जिसमें महापुरुषों के चरित्र का वर्णन है । जिसको धर्म से प्रेम है उसको धर्मात्मा से सर्वाधिक प्रेम होता है और उसकी तुलना करें कुटुंबी और मित्रजनों से । कुटुंबीजन मित्रजनों में उतना प्रेम नहीं है धर्म प्रेमी का जितना कि धर्मात्मा से प्रेम होता है। इसका कारण है कि वह कुटुंबीजनों को और मित्रों को तो एक गुजारा कमेटी जानता है इससे अधिक उसका प्रयोजन नहीं है क्योंकि वे कुछ मददगार हैं क्या? हमारे दु:ख में, मरण में, जन्म में विकल्प में सर्व जीव स्वतंत्र हैं, अपने-अपने कर्म लिए हुए हैं । उनके उदयानुसार उनको सुख दुःख होता है । कुछ संबंध नहीं है फिर भी घर में रहना पड़ रहा है, क्योंकि इतनी सामर्थ्य नहीं कि सर्व परित्याग करके रह सकें । तो गुजारे के लिए साधन है खाली मगर धर्म और धर्मात्माजन ये अपने परमार्थ के साधक हैं, सच्चे सहायक हैं । तो जीव का एक धर्म ही शरण है । धर्म क्या? अपने आत्मा के सहज चैतन्यस्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसी दृष्टि होना अनुभव होना, यह है धर्म । कोई धर्म करके देखे तो सही, तत्काल शांति है । यह भी नहीं है कि उसका फल एक दिन बाद मिले । हां पुण्य का फल तो मिलेगा सैकड़ों वर्ष बाद मगर धर्म जिस क्षण करे उसी क्षण उसका फल मिलता है । भ्रम हट गया, कल्पना में विकल्प हट गए सत्य बात मिल गई । आनंद हो गया तो यह धर्मसाधन जिसने किया ऐसे महापुरुषों का जो बड़े अनुराग से चरित्र सुनता है उसका पापरस खतम होता है पुण्यरस बढ़ता है । धर्म का रास्ता मिलता है ।
करणानुयोग और चरणानुयोग के अनुसार चर्या में ज्ञानी की उमंग―दूसरा अनुयोग बताया करणानुयोग में लोक की रचना का चित्रण बताया गया है । जिसने सारे लोक की रचना का ज्ञान किया उसको पाये हुए थोड़े से क्षेत्र में ममत्व नहीं रहता । काल का परिचय कितना अनादि अनंतकाल है कोई समय की आदि है क्या? कोई बता सकता है क्या कि इस दिन से समय शुरू हुआ? अनादि अनंत और उस काल में होने वाली बात । इसका जिन्हें परिचय है उनको इस 10-20-50 वर्ष के समागम में मोह नहीं रहता । जिसने गतियों के परिभ्रमण का परिचय पाया है, कैसे-कैसे जीव किन-किन गतियों में घूमते रहते हैं । वह अपने भाव निर्मल रखेगा और खोटे भावों में उसका चित्त नहीं रमता । तीसरा अनुयोग है चरणानुयोग । इसमें गृहस्थ और मुनियों के चारित्र का वर्णन है । कैसे इनका निर्दोष आचरण बने, कैसे उत्पन्न हों और वे दिन प्रतिदिन कैसे बढ़ते चले जाये, कैसी भावना रखें, कैसी दृष्टि रखें । कैसे मन वचन काय की प्रवृत्ति करें जिससे अंगीकार किया हुआ चारित्र शुद्ध हो । बढ़ता चला जाय, जिसका वर्णन चरणानुयोग में मिलेगा । और जो चारित्र धारण किया है उसकी रक्षा कैसे हो, कैसे निभाये, यह सब वर्णन चरणानुयोग में है । मूल बात एक है जिसको अपने आपके सत्त्व का सहज स्वरूप का अनुभव बना―मैं यह हूँ, ज्ञानमात्र, ज्ञानघन, आनंदमय, जिसको यह परिचय में आया कि ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो इस पुरुषार्थ के करने से अर्थात् जैसे ज्ञान में दुनिया भर की चीजें आ रही हैं ये न आये, यह ही ज्ञानस्वरूप आये तो ज्ञान-ज्ञान को जान रहा है । हमें और कुछ नहीं जानना, इस ही ज्ञान को जानना है । सो ज्ञान में जब ज्ञान का स्वरूप आता है और उस वक्त जो सहज आनंद प्राप्त होता है यह कला जिसने पायी उसके लिए सब सुगम है । कैसे बोलना, कैसे उठना, कैसा व्यवहार करना उसके लिए सब सुगम और सही बनता है । तो चारित्र की उत्पत्ति, चारित्र की वृद्धि, चारित्र की रक्षा के साधनों का उपायों का चरणानुयोग में वर्णन है । यह रत्नकरंड मुख्यतया श्रावकों के लिए रचा है समंतभद्राचार्य ने करुणा करके । फिर भी जब चारित्र का कोई वर्णन करे तो सबसे पहले मुनि का चारित्र एक दो मिनट में कह देना ही चाहिए । अधिक अगर न कह सके, प्रसंग अगर श्रावकों का है तो थोड़ा कह दें ताकि यह दृष्टि रहे कि श्रावक का जो चारित्र है वह पूर्ण नहीं है । संतोष के लायक नहीं है, किंतु सर्व परित्याग करके केवल आत्मा में ही रमण हो वह चारित्र है वास्तव में । तो इस ग्रंथ में मुनि के चारित्र के संबंध में संकेत दे देकर श्रावकों के चारित्र का वर्णन किया जायगा । अब द्रव्यानुयोग का स्वरूप कहते हैं ।