वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 54
From जैनकोष
छेदनबंधनपीड़नमतिभारारोपणं व्यतीचारा: ।
आहारवारणापि च, स्थूलवधाद्व्युपरतेः पंच ।। 54 ।।
अहिंसाणुव्रत के पांच अतिचारों में प्रथम व द्वितीय अतिचार का निर्देश―श्रावक के अणुव्रत में क्या-क्या दोष लगा करते हैं जिन दोषों को टालना चाहिए ।उन दोषों का इस गाथा में वर्णन है । (1) पहला अतिचार है छेदन, मनुष्य तिर्यंच के कान, नाक आदिक छेदना यह छेदन नामक अतिचार है । भला बताओ पशुवों की नाक जो छेद डाली जाती है उसे वे पशु चाहते है क्या कि मेरी नाक छेदी जाय? अरे वे नहीं चाहते, उनके पीड़ा होती है । पर चूँकि बध नहीं किया, पीटा नहीं, थोड़े समय की बात है इसलिए इसे अतिचार में गिना है, अनाचार में नहीं गिना पर यह अतिचार भी न करना चाहिए । मनुष्यों के भी किसी बात में अंग छेद दे तो वह भी अतिचार है । अब एक प्रश्न आता है कि छोटी बच्चियों के जो कान नाक छेदे जाते बारी, बाला आदिक पहनने के लिए सो वह कैसे रहेगा, अतिचार या अनाचार या निर्दोष? इसके अनुसार तो अतिचार ही है । क्या जरूरत पड़ी है कि कान, नाक छेदे जायें, पर एक शृंगार के लिए छेदे जाते हैं । और उस समय उस बच्ची को शायद उमंग भी नहीं होती कि मुझे छेदा जाय, तिस पर भी कुछ थोड़ा विचारणीय होता क्योंकि अनेक बच्चियां चाह करके भी छिदाती, पर अंगों के छेदने में अतिचार दोष है । (2) अहिंसाणुव्रत का दूसरा अतिचार है बांधना―लोग गाय भैंस आदिक को बांध देते है तो उस बंधन में भी उन्हें कष्ट होता है । पिंजड़े में तोता मैना आदिक चिड़ियों को रोक देना यह बंधन अतिचार है । यहाँ थोड़ा इतना फर्क जानना कि मनुष्यों को बांध देना, उन्हें कारागार में रोक देना यह तो अतिचार है ही पर थोड़ा गाय, भैंस आदिक के संबंध में प्रश्न रह जाता है । उन्हें बांधे बिना तो नहीं सरता । बांधते ही है । उनका इतना ख्याल रखना कि दृढ़ बंधन से न बांधना । बांधना तो गृहस्थ को पड़ता ही है, पर ऐसा बंधन बांधना कि कोई उपद्रव आ जाय, सांप निकल आये या अग्नि लग जाय तो वह उस बंधन को तोड़कर अपने प्राण बचा सकता हो । ऐसे बंधन को बांधने की तो विवशता है, पर दृढ़ बंधन से बांधने में दोष है, क्योंकि अग्नि आदिक के लग जाने पर उसका प्राणघात हो सकता है । एक घटना है सागर की । उन दिनों हम वहीं पढ़ते थे, वहाँ एक सिंघई जी के घर एक बड़ा सुंदर घोड़ा था, वह सभी को बड़ा प्यारा था । उसको एक बड़े अच्छे कमरे में बांधा जाता था और बंधता था सांकल से । समय की बात कि एक बार वहाँ आग लग गई और वह घोड़ा वहीं जलकर मर गया । तो यह बंधन भी अहिंसाव्रत का अतिचार है ।
अहिंसाणुव्रत का तृतीय व चतुर्थ अतिचार―तीसरा अतिचार है पीड़न―मनुष्य, तिर्यंच आदिक को लात, तमाचा, लाठी आदिक से पीड़ा देना यह पीड़न अतिचार है । देखते हैं कि बैल, झोंटा, घोड़ा आदिक पशु गाड़ी में जुतते हैं । बड़ा बोझ उन पर लादा जाता फिर भी वे मारे पीटे जाते हैं । यह अहिंसाणुव्रती श्रावक भी यद्यपि गाड़ी बैल सब रखता है फिर भी उनका पीड़न नहीं करता । (4) चौथा अतिचार है अतिभारारोपण―मनुष्य और तिर्यंच पर अधिक बोझ लादना, गाड़ी आदिक पर अधिक बोझा लादना यह अतिभारारोपण नाम का अतिचार है । जितनी सामर्थ्य है गाड़ीवान जानते हैं उससे भी कम लादना यह तो गृहस्थी में निभ जायगा अहिंसाणुव्रत में, पर उस पर अधिक बोझ लादना यह दोष है । (5) पांचवां अतिचार है अन्नपान निरोध । मनुष्य या तिर्यंच को खाने पीने को रोक देना, समय पर न देना, समय लंबा भूख प्यास में बिताना यह अन्नपान निरोध नाम का अतिचार है । जिस श्रावक ने अहिंसाणुव्रत धारण किया है वह इन 5 अतिचारों को टालता है ।
अहिंसाणुव्रत की पूरक प्रथम, द्वितीय व तृतीय भावना―अहिंसाणुव्रत को निर्दोष पालने के लिए भावनायें उत्तम होनी ही चाहिए जिन भावनाओं के अभ्यास से यह अहिंसाव्रत भलीभाँति पले । तो उसके लिए 5-5 भावनायें प्रत्येक व्रत की बतायी गई हैं । सूत्रजी में इसका सूत्र है और ये भावनायें श्रावक के लिए भी काम करती हैं और मुनि महाराज के महाव्रत के लिए भी काम करती हैं । भावना भाने से व्रतों में दृढ़ता होती है, वीतरागता में वृद्धि होती है, खोटे ध्यान दूर हो जाते हैं । आत्मानुभव की अभिमुखता बनती है । भावना एक ऐसा वैभव है जीव का कि जिसके प्रसाद से ही यह अपने आपकी उन्नति कर लेता है । अहिंसाणुव्रत की 5 भावनायें हैं जिनमें (1) पहली भावना है मनोगुप्ति । मन को वश करना, जहाँ मन स्वच्छंद है वहाँ हिंसा के भाव बन जाते हैं, प्रमाद हो जाता है व्रतों में शिथिलता हो जाती है । तो तत्त्वज्ञान के अभ्यास पर अपने मन को वश में रखना, ऐसी भावना करना और ऐसे पौरुष का यत्न करना यह मनोगुप्ति भावना है । जब मन वश हो तब विकार न जगेगा । दूसरे के सताने के भाव न होंगे । उसके अहिंसा होना सुगम है । अहिंसाव्रत की दूसरी भावना है वचनगुप्ति । वचन को वश करना, मौन रखना यह अहिंसाणुव्रत का साधक है । जिन लोगों को अधिक बोलने की आदत है उनके पद-पद पर ऐसे वचन निकलते हैं कि जिनसे शरम आये पछतावा आये, उपद्रव आये, दूसरों की नजर से गिर जाय । जो कम बोलता है उसको भली-भांति सोचने का मौका मिलता है और उसके जो भी वचन निकलेंगे वे प्रामाणिक सही निकलेंगे । अपने को आपत्ति से बचाने वाले निकलेंगे । इस कारण जिनके वचनगुप्ति है उनके अहिंसाव्रत भलीभाँति पलता है । सो वचन को वश करना, कम बोलना ऐसी भावना अहिंसाणुव्रत की साधक है । (3) तीसरी भावना है ईर्यासमिति―देखभालकर चलना, सर्व जीवों का हित चिंतन रखते हुए चलना, अनेक प्रक्रियायें जो चेष्टायें करें गमनागमन करें उनमें सावधानी बरतें और सब जीवों को अपने स्वरूप के समान निरखें । हरी बचाकर चलें, कीचड़ बचाकर चलें, चढ़ें, उतरें देखभाल कर । अपने हाथ पैर फैलाये, पैर पसारे, पैर सिकोड़ें, सब कुछ देखभालकर करें । कोई मान लो नहीं गमनागमन कर रहा । बैठे ही बैठे पैर पसारना सिकोड़ना कर रहा और वह भी बिना देखे शोधे कर रहा, वहाँ भी जीव हिंसा संभव है और जहाँ प्रमाद है वहाँ तो जीव हिंसा है ही, चाहे दूसरे जीव मरें अथवा न मरें । तो ईर्यासमिति अहिंसा व्रत की तीसरी भावना है ।
अहिंसाव्रत की पूरक चौथी व पांचवीं भावना―अहिंसाव्रत की चौथी भावना है आदान निक्षेपण समिति―श्रावक को तो अनेक वस्तुवें धरने उठाने का काम पड़ता है । साधुजनों को पिछी कमंडल शास्त्र ये धरने उठाने के काम होते हैं, अथवा अंग झाड़ना, देखकर बैठना, बस इतने ही उनके कार्य है । वह वहाँ सावधानी रखते हैं । श्रावक के कामों की गिनती नहीं है । अन्न, पान, कपड़ा, आसन शय्या, काठ, पत्थर, बर्तन आदिक अनेक प्रकार की चीजें जो-जो भी धरता उठाता है, घर में है उनको यत्न से उठाता । यत्न से रखता, जिसमें जीवघात न हो ऐसा पौरुष करता, ऐसा भाव रखता । जिन क्रियावों से दूसरे जीवों को संक्लेश न हो ऐसी प्रवृत्ति करता । कोई चीज घसीटना नहीं, उठाकर रखना, वजनदार हो तो किसी दूसरे को बुलवाकर उठा लेना, मिल जुलकर उठा लेना, पर घसीटने से यह संभव है कि किसी जीव का घात हो जाय । ऐसे यत्नाचार पूर्वक वस्तुवों को धरना उठाना और ऐसी ही भावना बनाये रहना यह अहिंसा व्रत की साधक भावना है । (5) पांचवीं भावना है आलोकितपान भोजन―देखो शोधा हुआ ही भोजनपान करना यह कैसे निभे? दिन में ही खाये पिये तो निभे । पहली बात, क्योंकि दिन के प्रकाश में इस प्रकार का सामर्थ्य है कि वहाँ जीव जंतुवों को विकास नहीं होता । उजेले में खाना, आंखों से देखभालकर खाना, बराबर शोधकर खाना, धीरता से कौर उठाकर खाये, हापड़ धूपड़ न करे, जल्दी-जल्दी न गुटके खाये, ये सब बातें यत्नाचार की हैं । तब आलोकित भोजनपान बनता है । इसके अतिरिक्त भोजन की शुद्धि हो । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की योग्यता अयोग्यता को जानने वाले पुरुष योग्य देखकर भोजनपान करते हैं । तो भोजनपान में भी जीव हिंसा के बचाने का यत्न होना यह 5वीं भावना है । यह प्रकरण श्रावक के अहिंसाणुव्रत का है । जैसे सर्वपाप हिंसा में गर्भित हैं । झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह पाप बांधने से विकार ही तो बने और विकार ही हिंसा हैं । तो सभी पाप हिंसा ही कहलाते हैं, इसी प्रकार जितने भी व्रत शील हैं उनमें विकार से हटना यह ही तो प्रयोजन है । इसी के लिए किए जाते है सो वे सब भी अहिंसा में ही गर्भित समझिये तो अहिंसाव्रत शीलों का आधार है इसी कारण यह इतना लंबा वर्णन चल रहा है ।
हिंसा पाप से होने वाली विपदावों का निर्देश―जो अहिंसाणुव्रत नहीं पालता है, हिंसा करने वाला है वह कितना कष्ट और संकट में रहता है यह बात देखी अनुभवी है और युक्ति से सिद्ध है । हिंसा करने वाला जीव निरंतर भयवान रहता है । उसका दिल कमजोर हो जाता है । भले ही अनेक क्रूर लोग ऐसे हैं कि जो प्रकट रूप में ऐसा महसूस न करें, पर उनके दिल में कमजोरी आ ही जाती है । आखिर वे भी खुद जीव है और दूसरे जीवों का घात करें तो वहाँ भी उनका दिल अंदर में गवाही सा नहीं देता पर कषाय मिथ्यात्व इतना तीव्र है कि वह उसमें अपना सुख और भला मानता है, पर हिंसा करने वाला भयवान रहता है । जब भारत और चीन या जापान आदि देशों में युद्ध हुआ तो वहाँ आप लोगोंने भी यह जाना होगा कि जिनकी सेना केवल मांस पर ही आधारित रहती थी और क्रूर चित्त था, अनेक हिंसायें करते थे उनमें इतनी शूरता न रही और जहाँ शाकाहार का अधिक प्रचार था ऐसे भारत की सेना ने कैसी वीरता से कार्य दिखाया, यह उस समय के समाचारों से आप लोगों ने जाना होगा । तो मांसभक्षी हिंसक पुरुष शूरवीर नहीं हो सकते । शाकाहारी दिल मजबूत होता है, शूरवीर होता है, इसको तो आज के डॉक्टर भी बतायेंगे कि जो दूसरे जीवों का मांस भक्षण करता है उसमें (1) एक तो दिल बलवान नहीं रहता, (2) दूसरे जिन जीवों को मारा गया वे जीव अनेक भव पर्यंत बैर के संस्कार से बदला लेंगे, ऐसी अनेक पुराणों में बात है, और यहाँ भी बताते हैं कि कोई किसी सांप को छेड़ दे, दुःखी करे तो वह सांप बारह वर्ष तक उसे खोजकर उसके निकट पहुंचकर अपना बदला चुकाता है । तो ऐसी ही सभी जीवों की बात है कि वे बैर संस्कार के कारण भव-भव में दु:खी किया करते हैं । (3) तीसरी बात―वे बैर संस्कार से तो दूसरों को दु:खी करें सो तो ठीक है किंतु उसके कुटुंबीजन, मित्रजन भी उससे बैर मानते हैं । उसका प्राणघात करते हैं ।यह तो मनुष्यों की बात है, पर तिर्यंचों में भी उनके ऊपर जो लाठी, पत्थर, शस्त्र आदिक बरसाते है वे तिर्यंच भी उसे नहीं छोड़ते । कभी वही बैल, झोंटे अपने मालिक की भी जान ले लेते हैं । जब तक वे विवश है तब तक सहते रहते हैं मालिक द्वारा अपघात, पर जैसे ही उनको मौका मिलता कि वे अपने मालिक पर हमला कर देते हैं । अनेक दृष्टांत ऐसे मिलते हैं । (4) चौथी बात―हिंसा करने वाले की जगत में निंदा रहती है, यह कसायी है, हत्यारा है, पापी है आदि । और उसकी प्रतीति कोई नहीं करता, क्योंकि उसका चित्त क्रूर हो गया है । सब सोचते हैं कि कहीं यह मेरे प्रतिपक्षी बरताव न कर डाले । (5) पांचवीं बात―इस लोक में राजा उसे दंड देता है । हाथ पैर छेद दे और उसका सर्वस्व हरण कर ले, और-और प्रकार के दंड दे, गधे पर बैठालकर नगर में घुमाये, यों कितने ही दंड उसे इस भव में भी भोगने पड़ते हैं । (6) छठवीं बात―जो दूसरे की हत्या करता है उसको अनेक कुगतियों में बहुत काल तक परिभ्रमण करना पड़ता है । नरकों के तो बहुत कठिन दुःख हैं । एक नारकी दूसरे नारकी को देखते ही जैसे एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखकर आक्रमण करता है ऐसे ही वे भी आक्रमण करते हैं । वहाँ बंधुता का नाता नहीं चलता । मान लो पूर्व भव का कुटुंबी ही नरक में पहुंच गया हो तो वहाँ वह पिछली बातें उल्टे रूप में सोचकर उस पर आक्रमण करता है । जैसे मां ने पूर्वभव में अपने बेटे की आंखों में सलाई से अंजन लगाया था, सो लगाया तो था उसके भले के लिए मगर वह नरकों में सोचता कि इसने मेरी आंखों में सलाई डालकर मेरी आंखें फोड़ने का, प्रयत्न किया था... यों उल्टा चिंतन चलेगा । और जिस किसी भी नारकी ने देखा, सब उसके लिए दुश्मन है और सभी पर आक्रमण होता है ।
हिंसाभाव से स्वयं का घात―भैया अनेक प्रकार के कष्ट उस हिंसा के कारण इस जीव को हुआ करते हैं, यह जानकर हिंसा का भाव छोड़ना चाहिए और दया का भाव लाना चाहिए । दया का भी क्या भाव है? सर्व जीवों को अपने स्वरूप के समान निरखना है, समानता का भाव लाना है । जैसा मैं हूँ वैसे ये हैं और इस समानता के भाव के साथ उनकी सेवा करना, उनका दुःख दूर करना ये सद्गृहस्थ के कर्तव्य होते है । जो श्रावक अहिंसा व्रत का पालन करते है उनकी चर्या शांत, गंभीर धीर होती है । प्रभु भक्ति में उनका समय विशेष व्यतीत होता है और ऐसे ही मंद कषाय वाले मनुष्य मरकर सद्गति में जाते हैं, विदेह क्षेत्र में पहुँचे तो वहाँ उसी भव में मुनिव्रत की साधना करके निर्वाण भी प्राप्त कर लेते हैं । तो देखिये किसी का बुरा सोचने में इस आत्मा को कितना कष्ट होता है? जहाँ विकार भाव आया, दूसरे का अहित सोचने की बात मन में आयी उसी समय से यह निज भगवान आत्मा दुःखी होता है, दबता है, इसका घात होता रहता है । शांति का भंग हो जाता है और दूसरे का हित विचारने से इसके मन में उमंग रहती है । जो किसी सभा में या समूह में किसी मनुष्य को गाली देने या निंदा करने का बड़ा विचार करे तो उसे किसी को खड़ा कर दिया जाय कि अब फलाने चंदजी आपका परिचय देते हैं तो प्रशंसा की बात करने में उसे कितना कष्ट उठाना पड़ता है पहले तब कहीं वह निंदा के वचन निकाल पाता है । और किसी की प्रशंसा के लिये किसी को खड़ा कर दिया जावे कि अब फलाने चंद्र जी आपका परिचय देते है तो प्रशंसा की बात करने में उसे कितना सुख का अनुभव होता है । वह कष्ट नहीं अनुभव करता, पर किसी पुरुष की निंदा करने के लिए कोई खड़ा हो जायतो उसे बड़ा व्यग्र होना पड़ता । तो ऐसा कार्य क्यों किया जाय जिसमें खुद को दु:खी होना पड़े, भविष्य भी सारा बिगड़ जाय, ऐसे हिंसा के कार्य से बचना और अहिंसक वृत्ति से अपना निभाव करना ।
आत्मस्वभाव के अनुचिंतन में अहिंसा का विकास―अहिंसा में सर्व प्रधान बात तो यह है कि अपने आत्मा के सहज स्वरूप को जानें कि मैं चैतन्यमात्र हूँ । अपने उपयोग में इस चैतन्यस्वरूपमात्र को बसायें, जो परमशुद्ध निश्चयनय का विषय है उस विषय को उपयोग में लें और इस ढंग से उपयोग में लें कि वे विकल्प भी छूटकर यह शुद्धनय में आये । शुद्धनय में परमशुद्ध निश्चयनय का विषय तो आता है पर इस ढंग से आयगा कि ये विकल्प भी मिट जायेंगे और आत्मा का अनुभव करने लगेगा । तब तक इसका परमशुद्ध निश्चयनय का जो विकल्प है तब तक वह अनुभव में नहीं उतरा हुआ है । यह विकल्प भी शांत होता है तो वहाँ वह शुद्धनय का आलंबन करता है । तो आत्मस्वभाव का आलंबन करने से अहिंसाव्रत भली भांति पलता है । कोई विकार ही नहीं है, पर जो इस अनुभव में न हो तो वह क्या करें, किस तरह की चेष्टायें करे उसका ही वर्णन चरणानुयोग में चलता है । तो जैसे 5 भावनायें की गई थीं उनको चित्त में रखें तो अहिंसाव्रत का पालन सुगम हो जाता है ।
जैन शासन के भक्तों के अहिंसाणुव्रत के पालन की सुगमता―मन, वचन, काय, इनकी चेष्टा हिंसा का आधारभूत बनती हैं, सो स्वभाव चिंतन द्वारा ऐसी निश्चलता लाना चाहिए कि मन, वचन, काय का हलन चलन न हो, अथवा अव्यक्त रहे बुद्धि पूर्वक न चले, और कभी चेष्टा करनी ही पड़े तो दूसरे जीवो का घात न हो और कोई चेष्टा मुझ से ऐसी न बन जाय कि उससे मेरे को पछताना पड़े और मेरे पर ही कोई आपत्ति आ जाय । कोई बदला चुकाने का भाव करने लगे तो ऐसा अपना और दूसरों की दया का भाव रखते हुए सद्गृहस्थ अपनी सारी चर्या अहिंसा के रूप से व्यतीत करता है । जैन शासन में रहने वाले लोगों को तो यह बहुत ही सुगम है, मंदिर आते है तो देखिये वह कितना पवित्र स्थान, जहाँ हिंसा की रंच भी बात नहीं दिखती, जहाँ फूल तक का भी प्रयोग नहीं, जहाँ सचित्त हरी तक भी नहीं चढ़ाई जाती, एकेंद्रिय तक की हिंसा टाली जा रही है वह कितना पवित्र स्थान है और ऐसे जिन शासन के भक्तों के घर भी देख लीजिए कैसा साफ शुद्ध हिंसारहित घर होते हैं, क्योंकि उनको यह शिक्षा दी जाती है कि घर में कूड़ा करकट गंदगी न रहने पाये नहीं तो उसमें जीवों की उत्पत्ति हो जायगी । हिंसा बन जायगी । सो वे साफ घर रखते हैं । यों ही सारी बातें आप अहिंसा प्रधान पायेंगे । तो जैन शासन में अहिंसा का पालना तो बहुत ही सुगम है और अहिंसा के प्रताप से इस भव में भी शांति रहती है और अगला भव भी उत्तम बनेगा ।