वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 55
From जैनकोष
स्थूलमलीकं न वदति न परान्वादयति सत्यमपि विपदे ।
यत्तद्वदंति संत: स्थूलमृषावादवैरमणं ।। 55 ।।
सत्याणुव्रत से संबंधित श्रावक व्यवहार―इस छंद में सत्याणुव्रत का स्वरूप बताया गया है । जो स्थूल असत्य तो नहीं बोलता और दूसरे से भी असत्य नहीं बुलवाता और जिस वचन से अपने पर या दूसरे पुरुष पर आपत्ति आये ऐसा सत्य भी न कहना, उसे सज्जन पुरुष स्थूल झूठ का त्याग कहते हैं । गृहस्थ के सत्याणुव्रत होता है । क्रोध, मान, माया, लोभादिक किसी कारणवश ऐसे वचन न कहना जिससे दूसरे का घात हो जाय । दया से भरा हुआ है यह ज्ञानी गृहस्थ इस कारण उसके वचन ऐसे न निकल सकेंगे जिन वचनों के द्वारा दूसरे का घात हो सके । ऐसे भी वचन न बोल सकेगा ज्ञानी गृहस्थ जिन वचनों से दूसरों का अपवाद अथवा उस पर कलंक लगे । प्रथम तो यह बात देखिये कि इन व्यर्थ की बातों से क्या प्रयोजन है? दूसरे का घात हो, अपवाद हो, नीचा देखना पड़े ऐसे वचन बोलने की अटकी क्या है । पर जिनके कषाय तीव्र हैं वे पुरुष अट्ट सट्ट बोला करते हैं । उनका चित्त दूषित है । कोई दूसरा जीव तड़फ रहा हो उसमें भी वे हर्ष मानते हैं । तो ऐसे पुरुषों के लिए कहा है कि वह सब उनकी दुर्गति की निशानी है अपना भला व्यवहार रखना चाहिए । सद्गृहस्थ ऐसे भी वचन न बोलेगा जिनसे दूसरे का मिथ्या श्रद्धान हो, जो धर्म से चिग जायें, जिनकी वृत्ति संयम से शिथिल हो जाय । जैन शासन के भक्त अपने वचनों पर ऐसा नियंत्रण रखते है कि वचन वही निकलें जिनको सुनकर दूसरों को शांति मिले, हित के मार्ग में लगें, कहीं वे व्रत शील से भ्रष्ट न हो जायें ऐसे नियंत्रित वचन होते हैं सद्गृहस्थ के ।
ज्ञानी जनों के सत्यव्यवहार का मूल आधार यथार्थ आत्मपरिचय―जो ज्ञानीजन हैं, जिन्होंने सब जीवों में अपने आपके स्वरूप के समान स्वरूप देखा है वे जानते हैं कि इस जीव का बिगाड़ है विषयों की प्रीति से । 5 इंद्रिय के विषय हैं पांच―(1) स्पर्श सुहा जाना, (2) रस सुहा जाना, (3) गंध सुहा जाना, (4) मनोहर रूप प्रिय लगना, और (5) राग भरे शब्द सुहा जाना । ये विषयों के अनुराग कहलाते है । इन अनुरागों से यह जीव अपने आत्मा की सुध से च्युत हो जाता है और बाह्य विषयों में लग जाता है । इससे इस भगवान आत्मा पर विपत्ति होती है । सद्गृहस्थ ज्ञानी पुरुष ऐसे वचन न बोलेगा जिन वचनों से कलह बढ़ जाय अथवा दूसरे का विषयों में अनुराग बढ़ जाय । जैसे कि अनेक मित्र दूसरों को समझाते हैं, ऐसा खावो, ऐसा बनावो, सनीमा देखो, और-और भी गंदी बातें―यहां चलो, ऐसी बातें कहकर विषयो में उन्हें फंसाते है, ये सब मोहियों के कर्तव्य है । ज्ञानी गृहस्थ ऐसे सद्वचन बोलेगा कि जिससे विषयों से प्रीति हटकर यह धर्म मार्ग में लगे और अपने अंदर में वास्तविक शांति का अनुभव करें । सत्याणुव्रत में सद्गृहस्थ कैसा वचन व्यवहार करता है उसकी यह चर्चा चल रही है । ऐसा वचन व्यवहार न करना चाहिए कि जिससे दूसरे लोग बड़े आरंभ में फंस जायें । देखिये पुण्योदय से वैभव मिलता है और अनेक साधन मिलते हैं, पुण्यरस है उसके पास अतएव उनकी व्यवस्था बनाना आसान रहता है । पर कोई जानबूझकर तृष्णा बढ़ाकर जबरदस्ती बड़े आरंभ में पड़ता है । तो चूँकि इतना पुण्य वैभव नहीं है सो वहाँ अनेक विपत्तियां आती हैं और अनेक दुःखों का सामना करना पड़ता है । धर्म मार्ग में रहें और सहज जो बने उसकी व्यवस्था बनाइये, यह तो गृहस्थ के लिए उचित बात है । मगर कोई ऐसे वचन सुनकर जिससे कि बड़े आरंभ में फंस जाना, आरंभ में उलझ जाना यह अपने समग्र जीवन को उलझा देना है । सद्गृहस्थ ऐसे वचन न बोलेगा जो किसी को बड़े आरंभ में फंसा दें । धर्म की बात में उसका उत्साह बने इस प्रकार का वचन बोलेगा गृहस्थ । गृहस्थ की वाणी प्रामाणिक होनी चाहिए तब ही वह ज्ञानी गृहस्थ कहलाता है । जो लोग रंच लोभ के पीछे वचन बोल दें । अपनी प्रतीति खतम कर दें तो वह उनका ओछापन है और जीवन में कभी सफल नहीं हो पाते । सद्गृहस्थ ज्ञानी के वचन प्रामाणिक होते हैं और किसी के लाभ में अंतराय आये ऐसा वचन ज्ञानी का नहीं बनता ।
सद्वचन बोलने का आधार सर्वसुखभावना―सब जीवों के लिए सुख की भावना रखता है ज्ञानी । भला किसी को दुःख हो जाय तो उससे इस आत्मा की क्या उन्नति हो जाती है । किसी के दुःखी होने की भावना चित्त में न रखना, चाहे किसीने कितना ही बिगाड़ किया हो उसके लिए भी दु:खी होने की भावना न करना । सही जानना आवश्यक है, सभी जीव अपने-अपने भावों के अनुसार कर्मबंध करते है । उसका फल पाते हैं । उसमें मेरा अधिकार क्या है । मैं किसी को सुखी भी नहीं कर सकता और किसी को दु:खी भी नहीं कर सकता । मगर सुखी होने की भावना में आत्मा की भलाई है । और किसी को दुःखी करने की भावना में आत्मा का अकल्याण है । गृहस्थजन कभी निंद्य वचन न बोलेंगे और ऐसे सत्य वचन भी न बोलेंगे जिसके बोलने से दूसरे का घात हो जाय, बिगाड़ हो जाय ।देखिये वचन बोलने का उद्देश्य क्या है कि शांति मिले, भला हो, उन्नति हो, और कोई वचन ऐसा कदाचित् सत्य घटना का भी हो कि यदि बोलने से दूसरे का घात होता है तो भी सत्य वचन न बोलेगा, कारण यह कि जीव की भलाई का भाव भरा हुआ है गृहस्थ के । जैसे एक दृष्टांत दिया करते हैं कि कोई कसाई किसी गाय को वध करने के लिए ले जा रहा था, किसी तरह से रास्ते में वह गाय उससे छूट गई और जान बचाकर भगी । कुछ दूर निकल गई । अब वह लोगों से पूछता फिरे कि किधर गई । अब वहाँ किसी ऐसे व्यक्ति से भी पूछा जिसने देखा था जाते हुए सो उसके मन में आया कि यदि मैं इस जगह सही बोलता हूँ तो इस गाय की हत्या हो रही है इसलिए उसने यही कहा कि मैने तो नहीं देखा कि किधर गई । यहाँ उसका झूठ बोलने का प्रयोजन नहीं है, प्रयोजन है जीव रक्षा का । तो ज्ञानीजन ऐसा सत्य भी नहीं बोलते कि जिसमें किसी जीव का घात हो । ये मर्मछेदी वचन भी नहीं बोलते जिनसे दूसरों के हृदय में चोट पहुंचे । जैसे की नीच कुल वाले लोगों में देखा होगा कि बड़ा खोटा वचन व्यवहार करते हैं, गाली गलौच करते है । जगह-जगह जो झगड़े होते हैं वे आखिर किस बात से होते है? बस मर्मछेदी वचन बोलने पर लड़ाई झगड़े होते है ।
सबके प्रति हितरूप प्रशंसात्मक शब्द के बोले जाने पर शांति के वातावरण का अभ्युदय―यदि सबके चित्त में यह बात बैठ जाय कि दूसरे की प्रशंसा के वचन बोलें तो देखो वहाँ कितना शांत वातावरण हो जाता है । और अगर भीतर कषाय की गंदगी भरी है तो वहाँ बड़े खोटे गाली गलौच के वचन व्यवहार होंगे । वैसे यहाँ गाली के जो शब्द प्रसिद्ध है उनमें से कोई भी शब्द खराब नहीं है । उन शब्दों का अर्थ बहुत ऊंचा है । पर वह गुण जिसमें हो नहीं और उसे कह दिया जाय तो उसे खराब जैसा ही लगेगा । आप कोई भी शब्द गाली का ले लो उसका अर्थ बड़ा ऊंचा निकलेगा । सर्वप्रथम गाली शब्द को ही ले लो, गाली का अर्थ गाली, क्या गाली? यश कीर्ति, प्रशंसा । तो गाली शब्द स्वयं बड़ा ऊंचा है । जैसे कहते नापुंगा, लफंगा, उचक्का आदि, ये ही तो सब गाली के शब्द हैं । अब इनका अर्थ देख लो―पुँगा, पुँगा नाम है भगवान का । आप सब लोग भगवान को पुँगा बोलते ही है । अब कोई पुँगा अर्थात् भगवान तो है नहीं और उसे पुंगा कह दिया जायतो उसे गाली समझ लेंगे । लफंगा का अर्थ है लफ गये हैं अंग जिसके अर्थात् बहुत विनयशील । उच्च का शब्द जो बिगड़कर बना है उसका शुद्ध शब्द है उच्चक:, जिसका अर्थ है―सबसे ऊंचा अर्थात् भगवान । अब ये सब गुण जिसमें पाये न जायें उसके लिए बोलें जायें तो उसे गाली जैसे लगेंगे । ऐसे ही गाली का कोई भी शब्द ले लो उसका अर्थ बड़ा ऊंचा है । अब एक शब्द गाली का बहुत प्रसिद्ध है―तेरी ऐसी की तैसी हो जाय, तो इसका सही अर्थ क्या है, इसका अर्थ हमारी समझ में यह आया कि जैसा आत्मा की प्रकृति स्वभाव है वैसी परिणति हो जाय । अब वैसा हो पाता नहीं इसलिए उसे गाली जैसी लगती । मेरे ख्याल से इस शब्द का अर्थ इस प्रकार से शायद ही कोई समझता हो सभी लोग इस शब्द को सुनकर गाली समझते । तो गाली का कोई भी शब्द ऐसा नहीं है जिसका खराब अर्थ हो, मगर चूँकि रूढ़ि हो गई ऐसी कि कह तो रहे अच्छी बात और मान रहा कोई बुरी बात, तो उसे भी न बोलना चाहिए । जिन वचनों के बोलने से दूसरे को तकलीफ पड़े वे वचन क्यों बोले जाय? जिनेंद्र भगवान- द्वारा कहे हुए शास्त्रों के अनुकूल ही वचन बोलना । ऐसे वचन बोलना कि जिससे न्यायरूपी आजीविका सिद्ध हो, यह सब सद्गृहस्थ का सत्याणुव्रत है । अब सत्याणुव्रत में कौन से दोष याने अतिचार हैं जो गृहस्थ को नहीं लगने चाहिए उनका वर्णन करते है ।