वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 87
From जैनकोष
नियमो यमश्च विहितौ, द्वेधा भोगोपभोगसंहारे ।
नियम: परिमितकालो, यावज्जीवं यमो ध्रियते ।। 87 ।।
भोगोपभोगपरिणाम की कालापेक्षया दो पद्धतियां―इस छंद में भोगोपभोग परिमाण व्रत का दो पद्धतियों में पालन बताया गया है । (1) नियमरूप पद्धति, (2) यमरूप पद्धति । और जीवन पर्यंत भोगोपभोग परिमाण करना यह यमरूप पद्धति है । भोग वह कहलाता है जो एक बार भोगने में आये, जैसे आहार आदिक और उपभोग कहलाता है वह जो बारबार भोगने में आये, जैसे वस्त्र आभूषण आदिक । उनका परिमाण सद्गृहस्थ दो प्रकार से करते हैं । जैसे किसी चीज की म्याद लेकर उसका त्याग कर दिया कि मैंने इतने घंटे के लिए या इतने दिनों के लिए अमुक चीज का त्याग कर दिया यह तो है नियमरूप पद्धति और किसी चीज का यावज्जीव त्याग करना यह है यमरूप पद्धति । यहाँ और भी विशेषता जानें कि व्रती श्रावकजनों को तो यमरूप त्याग करना ही होगा, चाहे वे परिमाण अधिक रख लें पर उसके भीतर कुछ काल के लिए भोगोपभोग का परिमाण घटा लेना, जैसे कि दिग्व्रत में जन्म पर्यंत के लिए मर्यादा थी । पर उस मर्यादा के भीतर कुछ समय की मर्यादा लेकर थोड़ा क्षेत्र और कम कर लिया कि मैं इतने से अधिक जगह में व्यवहार न करूंगा, और उनके दिग्व्रत को अलग नहीं कहा समंतभद्राचार्य ने । गुणव्रत के तीन भेद किए (1) गुणव्रत (2) अनर्थदंडव्रत और (3) भोगोपभोग परिमाणव्रत । तो जैसे दिग्व्रत में यावज्जीव मर्यादा है गमनागमन की उसके भीतर काल की अवधि से और भी कम म्याद रखी है, ऐसे भोगोपभोग परिमाण में मर्यादा की हुई है । जैसे 40 हरी रखूँगा, 4 धोती रखूँगा, इतने बाह्य रखूँगा आदि यों सभी चीजों की मर्यादा की, पर उसके भीतर सोच लिया कि दस दिन दस लक्षण पर्व में मैं इतने कपड़ों से अधिक न रखूँगा, पर उससे भी कम मर्यादा कर लेना ये दो भोगोपभोग परिमाण व्रत होते हैं । भोगोपभोग परिमाण करने से इंद्रियां वश हुई, इच्छायें घट गई, कर्मों का आश्रव मंद हो गया, व्यवहार शुद्ध होता, इससे वर्तमान में भी उज्ज्वलता रही और भविष्य काल के लिए भी उसका उज्ज्वल मार्ग रहा । सो विरुद्ध भोग तो कभी करना ही नहीं पर जो योग्य भोग है, उपभोग है उसमें भी नियम करना । ऐसे एक परिणामों की विशुद्धि और रागभाव के घटने के कारण इस व्रत में कर्मों की निर्जरा होती है ।