वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 107
From जैनकोष
अविरददेसमहंव्वय अगमरूइणं वियारतच्चण्हं।
पत्ततरं सहस्सं णिद्दिट्ठं जिणवरिंदेहिं।।1॰7।।
अविरत सम्यग्दृष्टि व देशव्रती पात्रों का निर्देश―पात्र के अनेक भेद जिनेंद्र देव ने बतलाया है। पात्र मायने योग्य पुरुष जो धर्म में लगे हैं, मोक्षमार्ग में लगे हैं ऐसे योग्य पुरुष पात्र कहलाते हैं। जिनकी भक्ति करना, विनय करना, सेवा करना गृहस्थों का धर्म है, और गृहस्थ जिनकी सेवा करके अपने को धन्य समझते हैं ऐसे पात्र अनेक प्रकार के हैं। जैसे छोटों से नंबर लेते हुए बड़े तक देखते जाइये। प्रथम तो हैं अविरत सम्यग्दृष्टि। व्रत नहीं है पर आत्मा के अविकार सहज स्वरूप का अनुभव किया है वह पात्र हैं। जिसने आत्मा के अविकार स्वरूप का परिचय नहीं पाया। वह न जाने किस-किस भाव से कभी साधु भेष लेता है। रखे पर वह पात्र नहीं हैं, मोक्षमार्ग में चला करे ऐसी उसमें योग्यता नहीं है, तो प्रथम नाम आया है अविरत सम्यग्दृष्टि, दूसरा पात्र है देशव्रती, जो श्रावक व्रत में है, प्रतिमाधारी है वह है यहाँ दूसरा पात्र। श्रावक के प्रतिमा धारी के कषाय मंद हो चुके हैं उसी का तो फल है कि सके देशसंयम मूल में है अब मोक्षमार्ग में प्रगति यहाँ से शुरू हुई है। महाव्रती पात्रों का निर्देश―देशव्रती श्रावक है पात्र है और उनसे महान पात्र हैं महाव्रती मुनि, जिसने पंच पापों का त्याग किया है और अपने आपके यथार्थ सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभव किया है वह महाव्रती पात्र है। यहाँ यह बात मूल में समझना कि जिसने आत्मा के सहज ज्ञानस्वरूप का अनुभव नहीं किया है वह पात्र नहीं हैं। चाहे वह मुनि भेष भी धारण करे पर वह मोक्षमार्गी नहीं है भले ही बाह्य क्रिया देखकर और चूँकि व्यवहार धर्म में खलबली न आये, कोई समझ भी तो नहीं समता कि इसके आत्मानुभव है या नहीं, इन कारणों से द्रव्यलिंगी मुनि भेषी का भी आदर होता है। कब तक? जब तक कि उसका एकदम भेद नहीं खुलता। खैर किसी से आदर मिले या न मिले मगर मोक्षमार्ग के लिए तो जिसको आत्मस्वरूप का अनुभव मिला है वह ही पात्र है दूसरा नहीं तो ये सब के सब पात्र सम्यग्दृष्टि हैं। आगमरुचि का व तत्त्वविचारक पात्रों का निर्देश―इन पात्रों में कुछ और भी विशेषतायें होती हैं। कोई पात्र आगमरुचिक है, जिसको शास्त्र ज्ञान में आगम ज्ञान में रुचि है, प्रवेश है, ज्ञान का अभ्यासी है, उसमें एक विशेषता हो गई इसी पात्र में। आगम एक अगाध ज्ञान है, उसमें जिसका प्रवेश है, जिसको आगम के विषयों का स्पष्ट बोध है, जिसके सहारे वह अपनी कषायों को मंद करके आत्मस्वरूप का अनुभव किया करता है, वह है आगमरुचिक, उसकी एक विशेषता है तत्त्वविचारकता की, जो हितकारी तत्त्व है, आत्म स्वरूप है वह तत्त्व का विचार करे, मनन करे, इसका वैराग्य विशेष होता है। उस वैराग्य बल से वह खुद शांत है और उसके प्रसंग में आने वाले भी शांत हो जाते हैं तो जो तत्त्वविचारक साधु हैं, वे इन तीनों में उन श्रेणियों में विशेषता को लिए हुए हैं। संसार में बाहर कोई भी अपना शरण नहीं है, कोई भी अपना नहीं, जिसके चित्त में इस तरह बस गया हो कि बस यह ही मेरा सर्वस्व है, शरण है जो अपने आपको भूल जाता है उसके लिए दुनिया में शरण कहीं नहीं है। जो अपने आपको न भूल सके उसके लिये बाह्य में भी कोई शरण मिल जाती। जैसे प्रभुभक्ति, गुरुसेवा, शास्त्रस्वाध्याय ये सब उसके लिए सहायक बन जाते, बाह्य शरण बन जाते मगर खुद परमार्थ शरण पाया हो तो यह शरण बनता है। तो इस प्रकार और भी अनेक हजारों प्रकार के पात्रांतर जिनेंद्र देव ने बताया है। हजारों प्रकार के पात्रों के मायने देशसंयम के स्थान कितने हैं? असंख्यात तो उन भेदों की दृष्टि से अगर संक्षेप में हजारों पात्र कह दिया, हजारों तरह के पात्र कह दिया तो ये तो बहुत थोड़े कहे गए हैं, मगर व्यवहार में परख में जैसा आया वैसा सब कोई जानता है कि यह पात्र है अथवा अपात्र है। तो ऐसे सम्यग्दृष्टियों को अनेक प्रकार के व्रत पालकों को जिनेंद्र देव ने पात्र बताया है। श्रावकों का कर्तव्य है कि ऐसे पात्र का संग करें और उसकी सेवा सुश्रुषा करें। और इस पात्र का कर्तव्य है कि जैसे अपने ज्ञानस्वरूप की दृष्टि न मिटे उस प्रकार अपनी भावना दृढ़ बनायें। इस तरह प्रभु ने कुछ पात्रों के भेद बताया है। अब इन्हीं पात्रों में से उत्कृष्ट पात्र कैसा होता है? इसका वर्णन चलेगा।