वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 59
From जैनकोष
मोक्खणिमित्त दुक्खं बहेइ परलोयदिट्ठि तणुदंडी।
मिच्छाभाव ण छिज्जइ किं पावइ मोक्खसोक्खं हि।।59।।
अज्ञानी का देहदंडन―जो जीव अज्ञानी है वह मोक्ष के सुख को कैसे प्राप्त कर सकता है? अज्ञानी का अर्थ क्या है? अपने सहज अविकार चैतन्य स्वरूप में यह मैं हूँ, ऐसा जिसको ज्ञान नहीं है उसे कहते हैं अज्ञानी क्योंकि मोक्षमार्ग इस आत्मतत्त्व के सहारे चलता है। अपने आपके सहज स्वरूप में मैं का विश्वास जिसे है वह मुक्ति का मार्ग बना सकता है। तो यहाँ अज्ञानी जीव, जिसको परलोक पर भी दृष्टि है कि अगला जन्म मेरा स्वर्ग में हो, देव में हो या कभी मोक्ष की भी बात कहने लगता है कि मेरे को मोक्ष मिले, पर उसे न मोक्ष की श्रद्धा है, न अपने आत्मा की श्रद्धा है, मोक्ष की श्रद्धा नहीं है यह कैसे समझा? मोक्ष कहते किसे हैं, यह बात यदि जानता है तो मोक्ष की श्रद्धा है और यदि नहीं जानता तो मोक्ष की श्रद्धा कैसे? मोक्ष नाम है सबसे मुक्त होने का केवल आत्मा ही आत्मा रह जाय और सब अन्य परभावों से छूट जाय इसको कहते हैं मोक्ष। तो वह आत्मा ही आत्मा क्या है जो रहता गया? भेद उस ही की दृष्टि में हो सकता है जिसको अपने आत्मा की दृष्टि है। तो अविकार सहज ज्ञान स्वरूप का जिसे परिचय नहीं है ऐसा अज्ञानी पुरुष परलोक में भी दृष्टि करे और शरीर से बड़े काय क्लेश भी करे और मोक्ष के निमित्त अनेक कष्ट भी सहे पर वह मिथ्या भाव को नहीं छेद पाता। मोक्षमूल के अपरिचय में विकल्प भ्रमण―मोक्ष का मूल कितना सुगम, कितना स्वाधीन है, जो करे सो पायगा। मोक्ष का मूल अपने सहज स्वभाव का परिचय पा लेना है। फिर उससे जो कुछ करने का होगा वह सब उसके लिए सुगम रहेगा। जिसने अपने अंदर की यह गुत्थी सुलझा ली है वह ज्ञानी है। इस ज्ञान के बिना ही तो कषायें जगती हैं। देह में जब आत्मबुद्धि होती है कि यह ही मैं हूँ तो जो बात कहीं प्रतिकूल जगे तो वहाँ क्रोध उमड़ जाता। देह में आत्मबुद्धि है तो पद-पद पर मान उमड़ जाता है और देह में आत्मबुद्धि है तो इस लौकिक मूर्तिक इस भवमूर्ति की इज्जत रखने के लिए मायाचार भी कर सकता है और घर के लोग ही इसके लिए सर्वस्व हैं। जिसके देह में आत्मबुद्धि है, जिसने अपने देह को माना कि यह मैं हूँ वह दूसरे देह को देखकर मानता है कि यह दूसरा जीव है। तो जहाँ पर्याय बुद्धि है वहाँ इसको फिर तृष्णा जगती है। तो क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायें जो प्रचंड होती हैं वे अज्ञानभाव से ही होती हैं। इस अज्ञानभाव को छेदना है तो इस बुद्धिरूपी छेनी को कहाँ पटकना है? पटकना है अपने ही अंदर में? विशुद्ध चैतन्य स्वरूप होकर भी कर्माक्रांतता की विडंबना का अज्ञानवश आह्वान―यह जीव स्वयं स्वभाव से चैतन्यमात्र है। इस पर अनादि कर्मबंध विपाक से इस उपयोग पर कर्मविपाक छा जाता है। जैसे दर्पण के सामने कोई पर्दा ढका हो तो जैसे उस के अनुरूप फोटो छा जाता है। दर्पण पर ऐसे ही इस उपयोग पर वह कर्मविपाक छा जाता है और उस स्थिति में यह ज्ञानस्वभाव तो तिरोभूत हो जाता। जैसे फोटो आने पर दर्पण का स्वच्छ भाव तिरोहित हो जाता ऐसे ही कर्मविपाक प्रतिफलित होने पर आत्मा की स्वच्छता तिरोहित हो जाती है तो अपने इस सत्स्वभाव की दृष्टि से तो पतित हो गया और जो कुछ इस पर छाया है, विपाक रस पड़ा है उसे ही यह आत्मसर्वस्व मान लेता है और जहाँ इन क्रोधादिक विपाक रस को आत्मसर्वस्व मान लिया तो वहाँ फिर उसके स्वभावोचित चेष्टायें होती रहती हैं। जैसे कोई पुरुष भूत को और अपने को एक मानने लगे जिसे कहते हैं भूत चढ़ आया। मायने उस भूत को और अपने स्वरूप को एक मान लिया। मैं कुछ हैं अलग सत्ता है। ऐसा चित्त में नहीं है और उसको कर डाले जो मनुष्यों को न करना चाहिए ऐसी चेष्टायें कर डालते हैं। ऐसे ही जब कर्मविपाक से यह जीव घिर गया याने कर्मरस प्रतिफलित हो गया तो उस काल में यह अज्ञानी जीव जिसको कि भेदविज्ञान नहीं है वह उस विपाक को ही आत्मसर्वस्व मान लेता है और विपाक को अपना सर्वस्व मानने का यह ही फल है कि वह क्रोधादिक विकार रूप अपना विकल्प बनायगा, और उससे फिर मन, वचन, काय की चेष्टायें अटपट हो जाती हैं। यह ही संसार में रुलने का साधन है। मोक्षाभिलाषियों का मूल कृत्य―जिसको संसार में नहीं रुलना है, जिसको इच्छा है कि मेरे जन्म मरण की व्याधि नष्ट हो जाय तो उसका यह परम कर्तव्य है कि वह अपने आपमें शोधन करे, यह हूँ मैं चैतन्यस्वरूप और जितने भी विसम्वाद हैं, चैतन्यस्वरूप से उल्टी बातें हैं वे सब हैं अतत्त्व। ये मैं नहीं हूँ। मैं चैतन्यमात्र हूँ। जैसे दर्पण पर बाहर के पर्दे जैसी फोटो आती है, पर वहाँ यह सोचा जा सकता कि यह फोटो दर्पण का स्वरूप नहीं है। यह तो एक बिंब है। दर्पण तो अंतरंग में स्वच्छ है। अगर स्वच्छता स्वरूप न होता तो यह फोटो भी कहाँ से आ जाती? फोटो पर तो फोटो नहीं आती ऐसे ही यह ज्ञानी पुरुष निरखता है कि जो कुछ भी यह कर्मरस विपाकरस विकल्प जगा कि यह है कर्मविपाक पर तत्त्व, यह मेरा स्वरूप नहीं है। मेरा स्वरूप तो अंतः आभास मात्र, चैतन्य मात्र स्वच्छता मात्र अंदर है। अगर वह चेतना स्वच्छता न होती तो ये कर्मविपाक भी क्यों यहाँ झलकते? ये रागद्वेष भी क्यों यहाँ उत्पन्न होते? चेतन में ही तो होते हैं। तो उस चेतन का जो चैतन्यस्वरूप है वह अंतः प्रकाशमान है। उसको तो ग्रहण करना और जो यह कर्म का आक्रमण है। विपाक है, विकल्प है। उसको छोड़ देना जैसे कोई बहुत बड़ी विपत्ति में फँस जाता है तो वह धीरे से अपने को निकालने का समता से प्रयत्न करता है ऐसे ही यह जीव जब एक कर्म क्रांति होने की विपत्ति में पड़ गया है तो जो विवेकी ज्ञानी जीव है वह समता से अपने अंतः प्रकाशमान ज्ञानस्वभाव की दृष्टि रखकर निकल आता है। कर्म सब वहीं के वहीं पड़े रहते हैं। तो उस अविकार समयसार का जिसने परिचय पाया वह तो संकटों से छूटेगा और जिसको यह परिचय नहीं मिला वह संसार के जन्म मरण पायगा। तो जो पुरुष मिथ्यादृष्टि है। परलोक में सुख पाने की इच्छा से दुःख सहन करता है, किंतु मिथ्यात्व भाव है उसको क्षय न हुआ तो वह मोक्षसुख को नहीं प्राप्त करता। परलोक के सुख के लिए अथवा मोक्ष के लिए जैसा कि उसने कल्पना में समझ रखा, बड़े-बड़े तप करना, बन में रहना, सर्व परिग्रहों को छोड़ देना, मुनि भेष धारण करना आदि जो कुछ भी वह कर सकता है कर लेता है मगर भीतर की गुत्थी सुलझ न करने से वह प्राप्त नहीं कर पाता। अपने को यह शिक्षा लेना चाहिए कि सुगमता से वह तत्त्व प्राप्त होगा। उस परमार्थ स्वरूप की दृष्टि लेवें कि जिसकी दृष्टि होने पर फिर निश्चित है कि वह संसार के संकटों से छूट जायगा।