वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 72
From जैनकोष
‘‘गुरू भक्ति विहीणाणं सिस्साणं सव्वसंग विरदाणं।
ऊसरखेत्ते वविय सुवीयसमं जाण सव्वणुट्ठाणं।।72।।’’
गुरूभक्तिविहीन शिष्यों को सर्व अनुष्ठान की ऊसर क्षेत्र में बोए गये बीज के समान निष्फलता―गुरू भक्ति से रहित शिष्यों को चाहे वे सर्व संग से विरक्त हों तो भी उनका तप, जप, व्रत आदि का अनुष्ठान असर क्षेत्र में बोये गए उत्तम बीज के समान निष्फल है। जैसे जो भूमि ऊसर है। कड़ी है―रेतीली है, जहाँ अनाज पैदा नहीं हो सकता है उस भूमि में कोई उत्तम बीज डाल दे तो फल उसका क्या निकलेगा। कुछ नहीं, ऐसे ही कोई बड़े व्रत, तप संयम करे मगर गुरू भक्ति से हीन को हृदय तो उनका सारा अनुष्ठान व्यर्थ जाता है। गुरूभक्ति से उपयोग हृदय नम्र हो जाता है और नम्र होते ही तत्काल उसको उस परिणाम से लाभ है, पाप बंध कम होना, पुण्य बंध विशेष होना, धर्म की ओर दृष्टि होना ये सब बातें गुरू भक्ति से प्राप्त होती हैं। अब रहता है संग में या कैसा ही रहे और गुरू भक्ति न रहे चित्त में तो उसका संयम नहीं चल सकता। बाहरी संयम का नाम ही संयम, कि किसी जीव को देखकर दया पाल ली, पर अंतरंग में आत्मा का संयम बने तो संयम कहलाता। उसकी पात्रता होती है गुरू भक्ति से।