वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 78
From जैनकोष
‘‘अप्पाणं पिण पिच्छइ ण मुणइ ण वि सद̖दहइ ण भावेई,
बहु दुक्ख भार मूलं लिंगं छेत्त्ण किं करई।।78।।’’
आत्म तत्त्व से अनभिज्ञ पुरुषों के मुनि वेश की बहु दुःख भारमूलता व व्यर्थता―जो साधु अपने आत्मा को तो देखता नहीं, अपनी आत्मा को जानता नहीं, अपने आत्मा की श्रद्धा करता नहीं और न उस अविचार सहज ज्ञानस्वरूप की भावना ही करता है वह पुरुष मुनिभेष को धारण करके क्या करेगा? बल्कि उस मुनि भेष में बहुत दुःखों का बोझ भी उठा रहा है। मुनि भेष में आनंद उसको आता है जिसने अपना उद्देश्य सही बनाया। मुझे अविकार ज्ञानस्वभावमय अपने आप में लीन होना है, यह दृष्टि जिनकी बनी है उनको तो उस मुनिभेष में आनंद आता है और यह बात जिन्होंने नहीं पायी उनके लिए तो सारे कष्ट ही कष्ट हैं। एक बार खाना, प्यासे रहना, जमीन पर सोना, नग्न बदन रहना, ठंडी गर्मी आदिक के दुःख सहना केशलुँच करना आदि सारे दुःख ही दुःख का भार उनके ऊपर है जिन्होंने अपने आत्मा के स्वरूप को जाना नहीं। तो ऐसे साधु इस मुनि लिंग को धारण करके क्या अपना लाभ उठायेंगे, अर्थात् कुछ भी लाभ उनको न मिलेगा। तो जिस आत्म तत्त्व के जाने बिना सारे ही धर्म क्रिया कांड एक भार रूप बन जाते हैं उस आत्मस्वरूप को जान लिया जाय तो चाहे बहुत अधिक क्रियायें न भी कर पाये तो भी उसका मोक्ष होता है, एक बाहरी व्रत नियम उसके न चल सकेंगे पर अंतरंग में तो वह ज्ञान प्रकाश उनके बना हुआ ही है इस कारण उनको परम आनंद मिलता है, जिनको अपने आनंद का पता नहीं वे बाह्य तप में लगते हैं। किसी कारण से मुनि बन गए हैं तो उनका चित्त डोलता है और अनेक दुःख सहकर भी वह आशा रखता है कि मेरे को कोई लोक में महत्त्व मिले, उनका मुनि भेष उनको क्या करेगा?