वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 79
From जैनकोष
‘‘जाव ण जाणइ अप्पा अप्पाणं दुक्खमप्पणो ताव।।
तेण अणंत सुहाणं अप्पाणं भावए जोई।।79।।’’
आत्मतत्वानभिज्ञ जीवों को अपने दुःख को भोगते हुए भी दुःखपने की अनभिज्ञता―जब तक अपना आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं जान लेता, जिस वास्तविक स्वरूप के जान लेने पर अलौकिक आनंद का अनुभव होता, तो जिसने अपने आत्मा को नहीं जाना, अलौकिक आनंद का अनुभव नहीं किया वह अपने दुःख को भी नहीं समझ सकता दुःख की प्रतीति उसके ही सही बन सकेगी जिसको अपने वास्तविक आनंद का पता होगा। ये जगत के मोही जीव इंद्रिय सुख के साधन मिलने पर इंद्रिय सुख भोगने पर कैसा हँसते हैं, कैसा मुस्कराते हैं, कैसा मौज मानते हैं। ऐसी जगह देख लो खूब अच्छा-अच्छा खाते पीते, खूब मौज मनाते, तो ये क्या दुःख को समझ सकते कि इस जीव पर दुःख क्या है? अधिक से अधिक यह ही दुःख मान पायेंगे कि उनको मन चाहा विषय सुख का साधन न मिले या विकार हो गया तो इसमें दुःख मानना पड़ेगा मगर वास्तविक दुःख का ज्ञान उनको नहीं है। और यही एक मोह में विपदा है कि दुःखी होते जा रहे और दुख को सुख मान रहे। मोह की कितनी बड़ी विडंबना है। कैसे ही विषयों के साधन मिल रहे हों कैसा ही सरस मिष्ठ भोजन किया जा रहा हो मगर आकुलता साथ चल रही है, इस आकुलता का पता अज्ञानी को नहीं है। और वह उन विषयों के प्रसंग में मौज मानता है सो दुःख का पता ज्ञानीजन ही जान सकते हैं कि संसार में दुःख क्या है? अज्ञानी तो दुःख का स्वरूप भी नहीं समझ सकते तो यह एक तुलनात्मक निर्णय आत्मीय। विशुद्ध आनंद का अनुभव होवे जिसको सो ही मान सकेगा कि यह सब दुःख है सो दुःख की प्रतीति अपने शुद्ध स्वरूप के जाने बिना नहीं हो सकती यही कारण है कि मुनिजन अनंत सुख से युक्त आत्मा का चिंतन करते हैं। आत्मा का जो अलौकिक आनंद है सहज ज्ञान स्वरूप के मनन में जो एक निर्विकल्प समता रस से परिपूर्ण अवस्था बनती है उस आनंद को जिसने चखा वही तुलना कर पायगा कि ये विषय सुख दुःख ही हैं। संसार के दुख को दुःख मानने वाले तो जगत में अनेक मोही है, किंतु संसार के सुख को भी दुःख मान सके ऐसा कोई बिरला ज्ञानी ही हो सकेगा। क्या दुःख है संसार में यह ज्ञानी ही जान सकता है ज्ञानी पुरुष ने अपने आत्मा के शुद्ध स्वरूप को जाना और उस शुद्ध स्वरूप के अनुभव में अलौकिक आनंद पाया तो वह जानता है कि आत्मा का यह उपयोग अपने आप से बाहर किसी जगह जाय वही कष्ट है, और-और प्रकार के कष्ट होते हैं यह बात तो दूर जावे, पर उपयोग में न रहें, और बाह्य पदार्थों में जाय वहाँ कुछ आशा बनाया तो उसको वह साक्षात क्लेश है। योगियों के अनंत सुखात्मक आत्मा की भावना का प्रवर्तन―आत्मा की प्रतीति आत्मा के शुद्ध स्वरूप के जानने से होती है और शुद्ध स्वरूप को जाने और उस ही में आनंद पाये वहाँ ही अपनी दृष्टि रहे तो उसको व्यक्त अलौकिक सहज आनंद मिलता है। यही कारण है कि योगीजन जंगल में रह भी तृप्त रहते हैं अन्यथा एक प्रश्न खड़ासा रहेगा कि यहाँ गाँव में शहर में कोई गृहस्थ किसी दिन अकेला रह जाय, घर के सब लोग मानों माना के यहाँ चले गये या किसी काम से चले गए यह अकेला रह गया तो यहाँ तो दिन नहीं कटते। वहाँ वे मुनिराज अकेले जंगल रह रहे बताओ उनके दिन कैसे कट जाते? तो उनके दिन यों कट जाते कि वे अपने आत्मा भगवान से निरंतर बात किया करते हैं। एक चित्प्रकाश ज्ञान मात्र जिसमें रागद्वेष की तरंग नहीं आत्मा का शुद्ध परिणमन आत्मा का अलौकिक आनंद जग रह है। बाहर में किसका सहारा लें किसमें अपना दिल जमायें कि आनंद मिलता रहे? एक भी तो उत्तर बताओ। पुत्रों को मानते कि ये सुख के साधन हैं मगर कितनी ही बार इन पुत्रों के संसर्ग से आकुलता होती है, यह विडंबना बनती है और क्या किया जाय ऐसी मन में कल्पना रहती है। कौन सा ऐसा बाह्य पदार्थ है कि जिसमें दिल देने से आत्मा को शांति का लाभ हो? कोई उदाहरण तो बताओ मित्र हो साथी हो कोई भी हो ऐसा जगत में कुछ नहीं है कि जिसमें दिल लगाये तो शांति का लाभ हो? एक शांति का धाम अपना ज्ञान स्वरूप आत्मा है उसका सही स्वरूप में ज्ञान रखते हैं तो स्थिर शांति प्राप्त होती है व्यवहार में जितने भी धर्म के कार्य हैं प्रभु पूजा गुरु सेवा उपदेश श्रवण स्वाध्याय वंदन आदिक जितने काम हैं वे सब काम इसलिए भले हैं कि उनका संबंध आत्मदर्शन से बना हुआ है, यदि आत्मा की सुध और दर्शन कराने से इसका संबंध न होता देव पूजा आदि का तो यह व्यवहार धर्म भी न कहलाता। यह वातावरण हमको आत्मा की सुध करने में मदद देता है इसलिए यह व्यवहार धर्म है। तो आत्मा को अपने आपके सहज स्वरूप का बोध हो तो इसको शांति लाभ हो सकता है।