वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 80
From जैनकोष
णियतच्चुवलद्धिविणा सम्मत्तुवलद्धि णत्थि णियमेण।
सम्मत्तुवलविणा णिव्वाणं णत्थि णियमेण।।80।।
निजतत्त्व की उपलब्धि के बिना अहंकार भाव होने से सम्यक्त्व की अनुपलब्धि―आत्म तत्त्व की उपलब्धि बिना सम्यक्त्व की उपलब्धि नहीं होती सम्यक्त्व मायने क्या? आत्मा की सफाई समीचीनता। आत्मा में जो विपरीत अभिप्राय लगे बैठे है उन विपरीत अभिप्रायों का निकल जाना ही सम्यक्त्व कहलाता है। क्या-क्या विपरीत अभिप्राय लगे। प्रथम तो पर पदार्थ मैं हूँ ऐसा अहंकार बना है। शरीर में यह मैं हूँ ऐसा बोध बने वह विपरीत अभिप्राय है। बाह्य पदार्थों में भी लोग मैं कह देते हैं। ये भाई जो हैं सो मैं हूँ यों दूसरों को भी समझते कि हम में और इन में फर्क न समझना जो ये हैं सो मैं हूँ ऐसा अगर श्रद्धा हो तो वह विपरीत अभिप्राय है इस आत्मा का इस आत्मा के सिवाय परमाणु मात्र भी तो कुछ नहीं लगता वे अपनी पूरी सत्ता रखे हुए हैं किसी के आधीन कोई दूसरा पदार्थ नहीं हैं। सबकी परिणति अपने आप में चल रही है। फिर एक का दूसरा क्या कुछ लग सकता, पर मानते हैं मोही जीव तो यह है उनके मोह का वातावरण यहाँ पर में मोह है सीधा। मोह का द्वितीय चिह्न है ममकार दूसरा चिन्ह है मोह का कि ममता करता रहे कि यह मेरा है मेरा है ऐसा मानता है मेरा है मेरा है ऐसा विचारते-विचारते समय आता है मरण कर लेते हैं और कुछ जाता नहीं साथ तो मरण पर तो जरा ठीक बैठा जाता कि इसका यह कुछ न था किंतु मेरा यहाँ कुछ नहीं है यह बात जीवन में निर्णय होना जरा कठिन लग रही है क्योंकि मोह का उदय है ना। मोह में सब कुछ उल्टा सूझता है। सही ज्ञान का महत्त्व―भैया कम जानना बुरा नहीं पर बुरा भी जान रहा हो और उल्टा जान रहा हो तो वह अहितकारी है और यदि सही विधि से जानता हो और थोड़ा भी जानना हो तो उसके लिए लाभकारी है। एक बुढ़िया के दो लड़के थे एक को तो दिखता था कम मगर सही और एक को दिखता था परा मगर सब कुछ पीला। उन दोनों लड़कों को वैद्य ने एक ही दवा दी―चाँदी के गिलास में गाय के दूध में मोतीभष्म (सफेद चूर्ण) डालकर पीना। अब कम देखने वाले को माँ ने दवा दी तो उसने दवों को आराम से पी लिया और अधिक देखने वाले को माँगे दवा पीने को दी तो वह लड़का कहने लगा कि माँ जी क्या मैं ही तुम्हें दुश्मन मिला जो यह पीतल के गिलास में दवा दे रही था तो वह चाँदी का गिलास मगर उसे पीला दिखता था और फिर मुझे यह गाय का मूत क्यों दे रही हो वैद्य ने तो गाय का दूध बताया। था दूध मगर उसे पीला दिखता था और यह हड़ताल मुझे क्यों पिला रही हो? था तो वह सफेद मोती भस्म मगर दिखता था पीला तो उसने दवा नहीं पिया। परिणाम यह हुआ कि जिस लड़के ने दवा पी लिया था उसकी तो आँखें ठीक हो गई और जिसने नहीं पिया उसकी नहीं ठीक हुई। तो हम आप सबका ज्ञान चाहे दुनिया की बहुत-बहुत बातें न जाने पर एक अपने आत्मा की बात जाने तो भला हो जायेगा। व्यवहार की बात कम जाने तो भी गुजारा चल जावेगा, मगर आत्मा की बात न जान पाये तो इसका गुजारा नहीं चल सकता। अब कोई दुख की स्थिति को ही सुख मान ले तो उसका क्या उत्तर है? आत्मा शाश्वत है और इसका यह रूप बदलता रहता है। कभी मनुष्य कभी पशु कभी कुछ ये रूप क्यों बदलते जा रहे हैं इसने देह को माना कि यह मैं हूँ और उस संस्कार से ऐसे कर्म का बंधन होता है कि वह दुखी हो जाता है तो दूसरा विपरीत अभिप्राय है ममकार। पदार्थों के स्वतंत्र द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अपरिचय में ज्ञान के सम्यक प्रकाश न होने पर कर्तृत्व का दुराशय―तीसरा खोटा अभिप्राय है वह बाहरी पदार्थों में कर्तृत्व के अहंकार का। मैं करता हूँ मैं कर दूंगा मैंने किया था इत्यादि। यह जीव अपने भाव बनाता है सिर्फ भीतर में ख्याल बनाता है, विचार बनाता है, और विचार बनाने का निमित्त पाकर जीव में परिस्पंद (हलन चलन) हुआ करता है और उसके संबंध से शरीर में वायु चलती है, उसके निमित्त से फिर ये हाथ पैर चलते हैं और हाथ के बीच आयी कलम, अब यह तो अपना हाथ ही कर रहा है टेढ़ा मेढ़ा सीधा नीचा ऊँचा और उसके हाथ का निमित्त पाकर वह कलम भी टेढ़ी मेढ़ी चल रही है लो अक्षर बन गए। अब लोग यह भ्रम करते कि देखो मैंने अमुक चीज लिख दिया। अरे जीवने तो अपने विचार और आत्मा का परिस्पंद हलन चलन प्रदेश की क्रिया की ये ही दो काम कर सकता यह जीव और कुछ नहीं कर सकता बाकी जो कुछ होता है वह सब निमित्त नैमित्तिक योग से हो रहा है जैसे यह छाया पड़ रही है लाउडस्पीकर की तो इस छाया को किसने किया? बताओ। तो जल्दी-जल्दी में तो यह समझ में आता कि उस छाया को लाउडस्पीकर ने बनाया पर वह लाउडस्पीकर तो उस छाया से कोई उ हाथ दूर खड़ा है वह तो अपना जगह पर वहीं का वहीं कसा पड़ा है वह कैसे अपनी कोई चीज एक जगह से दूसरी जगह पहुँचा सकता है? वह लाउडस्पीकर तो जो कुछ भी कर रहा वह अपने में कर रहा पर ऐसा योग है कि इस प्रकाशित पदार्थ के सामने यदि ऐसी चीज आ जाय तो वहाँ का प्रकाश अंधेरे रूप बन जाता यह सब ‘‘होता स्वयं जगत परिणाम’’ निमित्त पाकर पदार्थों में ऐसा परिणमन चलता है। कोई किसी का कुछ करने वाला नहीं सिर्फ निमित्त होता है। निमित्त अपनी परिणति अपने विचार अपनी बात पर पदार्थों में डालता नहीं वह तो दूर खड़ा है मगर ऐसा ही योग है कि ऐसा निमित्त सामने हो तो यह जीव अपना ऐसा भाव बना डालता है। यही होता रहता है की सर्वत्र। परकर्तृत्व की बुद्धि की अनर्थकारिता―यहाँ कोई किसी का पालनहार भी नहीं यह तो केवल अपने भाव बनाता है उनमें कृपा का परिणाम रखता है जैसा भी कुछ रखता है, उन जीवों के भी पुण्य के उदय हैं, उनको ऐसा निमित्त योग मिलता है कि वे भी सुखी रहते हैं। तो तीसरा विपरीत अभिप्राय है पर पदार्थों में कर्तृत्व आशय बनाना। कोई 4॰-5॰ मन का बोझ लदी गाड़ी दो बैल खींचे लिए जा रहे हों तो बच्चे लोग क्या करते हैं कि ये उस गाड़ी के पीछे हाथ लगाकर चलते हैं और यह अहंकार रखते हैं कि हम गाड़ी चला रहे हैं और बोलते भी जाते कि हाँ ठीक है, खूब गाड़ी चल रही है और कदाचित वे बैल खड़े हो जायें तो वे बच्चे कितने ही परिश्रम करें मगर गाड़ी नहीं चल सकती, तो जब बच्चे लोग गाड़ी को पीछे से ढकेल रहे थे तो बताओ क्या उनके ढकेलने से गाड़ी चल रही थी? नहीं उसका योग और दूसरा था बैल आदि का मगर वे बच्चे अहंकार कर रहे थे कि इस गाड़ी को मैं चलाता हूँ। तो ऐसे ही समझो कि ये संसारी मोही प्राणी भी व्यर्थ में अहंकार कर रहे कि मैं ऐसा करता हूँ, ऐसा कर दूँगा, मैं ऐसा बनाता हूँ यह सब कोरा अहंकार है अरे उन दूसरों का ही अगर उदय भला है तो उनका भला होगा नहीं तो कितना ही उद्यम किया जाय उनका भला न होगा अपने स्वरूप को देखो, जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श का नाम नहीं, अमूर्त चैतन्य प्रकाश मात्र यह अपने आप में करता क्या है? भाव कर रहा, जानकारी कर रहा, सब कुछ जानकारी ही कहलाती। ज्ञान परिणाम के अतिरिक्त अन्य कुछ किया जाना अशक्य होने से ज्ञान के शुद्ध वर्तन का कर्तव्य―सुख नाम और है किसका? बस जहाँ इस तरह की जानकारी बनाया कि यह तो बड़ा अच्छा है, मेरे को बड़े साधन मिले इस तरह का ज्ञान बनाना उसका नाम सुख है। दुःख नाम किसका है कि इस तरह का ज्ञान बना कि हाय अब क्या किया जाय, मेरे कोई साधन नहीं किसी भी तरह का इस ढंग का ज्ञान बनाया बस वहीं दुःख है। सारी बात ज्ञान पर निर्भर है। ज्ञान किस रूप परिणमे वही कहलाता है विकार और किस रूप परिणमे वह कहलायेगा सुधार। अपना सुधार बिगाड़ सब कुछ अपने ज्ञान पर निर्भर है। जब ऐसी बात है तो अपने ज्ञान परिणाम को सम्हालने का यत्न करें दुनिया कुछ करे कोई कहीं जाय कोई कैसा ही करता हो, अपने आपको तो अपने ज्ञान से शुद्ध बनाने का भाव रखना चाहिये। शुद्ध भाव में सर्वप्रथम मुख्य काम तो यह है कि अणु-अणु स्वतंत्र सत्त्व जानना। प्रत्येक जीव का उनका जुदा-जुदा सत्त्व जानना। प्रत्येक जीव का उनका जुदा-जुदा सत्त्व जानना। अपने आपको जगत के समस्त पदार्थों से निराला ज्ञानमात्र जानना। यह है वह ज्ञान प्रकाश कि जिसके फैलने पर मोह नहीं रहता। मोह समस्त दुःखों की खान है। सुख दुःख का देने वाला दूसरा कोई जीव नहीं है। अपने आप में मोह रागद्वेष का परिणाम है, वह है दुःख रूप। जिसे दुःख न चाहिये उसे अपने आपमें ही कुछ करना होगा। बाहर में कुछ करने से किया तो जा नहीं सकता। बाहर में कुछ किये जाने का विकल्प करने से इस जीव को कुछ लाभ नहीं है। तो तीसरा विपरीत अभिप्राय है पर पदार्थों में कर्तृत्व भाव रखना। परभोक्तृत्व की अशक्यता होने से सहज स्वसंवेदन का कर्तव्य―चौथा गंदा भाव है पर पदार्थों के प्रति भोक्तृत्व का भाव रखना जैसे मानो कोई मिष्ट फल चखा और उस मनुष्य ने सुख माना तो यह बतलाओ कि वह आम के रस का सुख है या आम के रस के बारे में जो ज्ञान बना यह बड़ा मधुर है, मीठा है उस ज्ञान का आनंद है या रस का? ज्ञान तो आत्मा से चिपट ही नहीं सकता। यह जो आकाश की तरह अमूर्त है क्या आकाश में रस चिपटता है? आकाश में नहीं चिपटता तो आत्मा में भी आकाश नहीं चिपटता आकाश अमूर्त है तो आत्मा भी अमूर्त है फिर होता क्या है कि ऐसे इंद्रिय द्वारा उस आम के रस का स्वाद समझ में आया कि यह मधुर रस है, मीठा रस है और साथ में लगा है राग भाव तो यह मीठा है, बड़ा अच्छा है मेरे को बहुत मौज है, खूब खाले, कुछ भी विकल्प करके वह मौज मानता है पर वह मौज ज्ञान का है कि पर पदार्थ के संयोग का है। गंभीरता से चिंतन करें तो उत्तर आ जायगा कि जो कुछ भी सुख हो रहा वह सुख अपने ज्ञान का है बाहरी पदार्थों के संयोग का नहीं है बल्कि बाहरी संयोग के कारण आनंद में कमी आयी, पर मोही जीव संयोग से आनंद मानते यदि सर्व संग से रहित हो जाता और केवल अपने अंतस्तत्त्व का ही मनन रहता तो इसको अनंत ज्ञान और अनंत आनंद प्रकट होता, सोये भोग ये विषय संबंध आनंद के बाधक हैं। पर मोही जीव इसको ही आनंद का साधन समझते तो जिसने अपने ज्ञानानंद स्वरूप को नहीं जाना वह दुःख को भी दुःख नहीं समझ पाता। तो आत्मतत्त्व की उपलब्धि के बिना सम्यक्त्व की उत्पत्ति नहीं होती और सम्यक्त्व हुए बिना यह मनुष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता।