वर्णीजी-प्रवचन:रयणसार - गाथा 85
From जैनकोष
‘‘पावारंभणिवित्ति पुण्यांरभे पउत्तिकरणं वि।
णाणं धम्मज्ज्ञाणं जिणमणिय सव्वजीवाणं।।85।।’’
ज्ञान और ध्यान की सर्वजीव हितकारिता―आचार्य देव सर्व जीवों के लिए उपदेश करते हैं कि यदि सुखशांति चाहते हो मुक्ति चाहते हो तो पापारंभ के कार्यों से हटकर पुण्यारंभ के कार्यों में लगो। ज्ञान और धर्म ध्यान को जिनेंद्र देव ने मुक्ति का कारण कहा है। यह सामान्य कथन है साधारण जीव जिस तरह धर्म मार्ग में लग सकें उस तरह की विधि का वर्णन किया गया है। हिंसा के कार्यों से निवृत्त होना यह सबसे पहला काम है जो जीव इतना कठोर है कि हिंसा के कार्यों से निवृत्त नहीं हो सकता दूसरों के प्रति बुरी भावना रखता है हिंसा के परिणाम रखता है, वह तो मोक्ष का पात्र है ही नहीं। सर्वप्रथम तो हिंसा झूठ के कार्यों से निवृत्त होना ही चाहिए और यह जीव कुछ किए बिना कहीं उपयोग लगाये बिना रह नहीं सकता। हिंसा के कार्यों से आरंभों से छूटना है, तो यह लगा कहाँ है यह भी तो कोई बात सामने होना चाहिए जिससे कि निवृत्ति सही बने तो बताया है कि शुभकार्यों में पुण्यारंभ में प्रवृत्ति करें। जिन ज्ञानी जीवों को मार्ग मिल सका है तो इसी विधि से मिल पाया है। अशुभोपयोग को छोड़ें शुभोपयोग में लगें और शुभोपयोग में रहकर शुद्धोपयोग विषयक निर्णय बनायें। शुद्धोपयोग का लक्ष्य बनायें और शुद्धोपयोग की भावना प्रधान रखकर अपने शुभोपयोग में प्रवर्तन करें ऐसा जिनेंद्र देव ने बताया है।