वर्णीजी-प्रवचन:शांतिभक्ति - श्लोक 16
From जैनकोष
तद्द्रव्यमव्ययमुदेतु शुभ: सदेश:
संतन्पतां प्रतपतां सततं स काल:।भाव: स नंदतु सदा यदनुग्रहेण
रत्नत्रयं प्रतपतीह मुमुक्षुवर्गे।।16।।
(167) शांति का एकमात्र उपाय अपने आपमें आपकी मग्नता―शांति का लाभ रत्नत्रय धर्म से ही प्राप्त होता है। परद्रव्यों से भिन्न ज्ञानानंदमात्र निज सहज स्वरूप में यह मैं हूँ इस प्रकार की प्रतीति होना और अन्य पदार्थो के जानने की आकांक्षा त्याग कर एक इस निज सहज ज्ञानस्वरूप का ध्यान करना और इस ही सहज ज्ञानानंद स्वरूप में उपयोग को रमाये रहना यह रत्नत्रय ही शांति का कारण है। इस धर्म को न करके बहुत-बहुत कार्य इस जीव ने किये और शांति न मिली। जैसे कोई समुद्र लहरा रहा है, तरंगो से क्षुब्ध हो रहा है तो वहाँ कोई कहे कि इसकी शांति हो तो इसके मायने क्या है कि वह अपने आपमें पूर्ण रूप से समाया रहे, ऊपर उछले-फुदके नहीं। यही तो समुद्र का शांत होना कहलाता है। इसी प्रकार आत्मा का शांत होना क्या कहलायेगा कि आत्मा अपने आप में समाया रहे, अपने से बाहर उचके फुदके नहीं। तब आप सोचिये कि यह बात किस प्रताप से मिल सकती है? आत्मा अपने आपमें समाया हे यह बात किस उपाय से मिल सकती है? अपने से बाहर किसी भी तत्त्व की ओर दृष्टि लगाये रहे और ऐसा करें कोई कि यह अपने में समा जाय तो नहीं समा सकता । इसका कारण यह है कि यह अब अपने से हटकर बाहर की ओर दृष्टि लगाये हुए है, उसको यह शांति पाने का तरीका नहीं प्राप्त है।(168)बाह्योपयोग में भी शुभ अशुभ का विवेक –अब रहा यह कि बाहर तो कुछ अच्छी भी चीजें हैं। कुछ बुरी भी चीजें है। बाहर में तो मूढ़ मिथ्यादृष्टिजन भी हैं, ज्ञानीजन भी हैं ओर परमात्मा भी है। तो क्या बाहर दृष्टि लगानें से आत्मा अपने आपमें न समा सके यह बात पूर्ण नियम की बन सकती है? इसके संबंध में भी सुनो । जो पदार्थ इंद्रिय के विषयरूप है―स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द और मन का विषय है प्रतिष्ठा, लोगों की ओर दृष्टि, इनकी ओर दृष्टि रहे, उपयोग रहे तो इसके अपने आपमें समाये जाने की कोई आशा ही नहीं है। ज्ञानी सज्जन पुरूषों का संग रहे। उस सत्संग में जो शिक्षा, उत्साह, प्रेरणा आदिक प्राप्त होते है वे यद्यपि तत्काल तो बाह्य दृष्टिरूप है, बाहर की ओर से चिंतन है, लेकिन वह है धर्म का लक्ष्य बनाये, रखकर चिंतन। इस कारण उस शुभोपयोग में पात्रता रहती है कि जब कोई इस शुभोपयोग को त्याग कर अपने आपमें समाना चाहे तो समा जायगा। अशुभपयोग में यह पात्रता नहीं हैं कि अशुभपयोग को छोड़कर तुरंत अपने आप में समा सके। खूब सोच लीजिए। आत्मा है सहज ज्ञानानंद स्वरूप और उसमें निर्विकल्प रूप से समाने की जब परिणति होगी उससे पहिले इसका चिंतन तो चलेगा वह है शुभोपयोग । तो खोटे उपयोग के बाद ब्रह्म में समा जाने की बात कभी नहीं हो सकती और शुभोपयोग के बाद में उसी शुभ उपयोग को छोड़कर ब्रह्मस्वरूप में समा जाने की बात बन सकती है।
(169) शुभोपयोग में परमात्मभक्ति की प्रधानता –अब इस शुभोपयोग में परमात्मा की भक्ति भी आ गयी । जो राग-द्वेष रहित समस्त लोकालोक का जाननहार विशुद्ध आत्मा है परम आत्मा है उसे परमात्मा कहते है। उसके निर्विकार ज्ञानस्वरूप का चिंतन यद्यपि इस समय शुभोपयोग है, क्योंकि द्वैत भाव से चिंतन कर रहा है, ’मैं’ और परमात्मा यों द्वैत भाव से परमात्मा की भक्ति की जा रही है, ये अलग-अलग दो उसकी दृष्टि में हैं। जब तक द्वैत की बुद्धि है तब तक शुभोपयोग है और जब प्रभु का वह एक ज्ञान ज्योति मात्र उपयोग रहित अंतस्तत्व की दृष्टि करते-करते मात्र अंतस्तत्व रह जाय, बाहर जिसे समझ रहा था वह बुद्धि न रहे तो व्यक्तिपना छूट जाने से वह अंतस्तत्व की अनुभूति में आ जाता है। कोई पुरूष इस आत्मा में समाये जाने का दृढ़ अभ्यास करने वाला बाहर में परमात्मा को न निरखकर भी एकदम सीधे साक्षात् आत्मा में समाने की बात कर सकता है। अपने से बाहर प्रभु को निरखना इसमें द्विविधा हो गयी, द्वैत हो गया, अलग-अलग चीजें हो गयी, तब यह समाये हुए की स्थिति नहीं है, मगर यह ऐसी शुभ स्थिति है कि समा सकता है अपने में।(170) प्रभुभक्ति के प्रसंग में योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के योग का दर्शन―अब प्रभुभक्ति जैसे प्रसंगों से यह समझ लीजिए कि इस अलौकिक कार्य के करने के लिए योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आये। प्रभुभक्ति और उसमें प्रभु को निरखा, वह योग्य द्रव्य का ही तो आश्रय किया गया। एकांत में, वन में, मंदिर में, सत्संग में किसी भी क्षेत्र में हों एक सी प्रेरणा अनुरोध, विशुद्धि और धुन जगे कि हम उस अद्वैत अंतस्तत्व के दर्शन कर सकें। योग्य समय- अंतरंग में तो अपना योग्य परिणमन वह समय है । बहिरंग में योग्य परिणमन योग्य काल। जिस काल में बाधायें, विघ्न, उपद्रव, हल्ला, विपरीतता, प्रतिकूलता आदि ये बातें न हों तो वह योग्य काल है। वह भी शांति का सहायक है, और योग्य भाव- अपने आप में उत्पन्न हुए भावों से एक सिलसिला चलता है। जैसे कोई बिल्कुल समान जगह है और वहाँ थोड़ा पानी डाल दिया और वह जल राशि कुछ मोटी हो गई व पानी छिड़ गया। अब वहाँ जिस और का हम मार्ग बनाते हैं एक अंगुलि से या किसी सींक से तो पानी उस और को ढलने लगता है। और जिस और ढला, जितना बना ढल जाता है। तो क्या हुआ वहाँ सिलसिला बन गया। हमारे भावों में जब कोई खोटे विकार की उत्पत्ति हुई उस उत्पत्ति से उतना बुरा नहीं जितना कि उस खोटे विचार का सिलसिला बनता है और उस और तीव्र रूचि बनती है, धुन लगती है तो उससे वह खोटी ओर बह जाता है। जब कभी कुछ सत्संग में आकर स्वाध्याय , तत्वचर्चा , चिंतवन आदिक से कुछ भाव जगे अपने आपके सहजस्वरूप की अनुभूति करने के लिए , तो थोड़ा वह जगा भाव वह भी भला है, मगर उससे भला अधिक यह होता है कि भाव का कुछ सिलसिला भी लग जाय तो उस सिलसिले में वह अपने आपमें ऐसा मार्ग पा लेता है कि बड़े उत्साह के साथ, लगन के साथ एक उस अंतस्तत्व में ही उपयुक्त हो जाता है उससे फिर उस सहज परमात्मतत्व का अनुभव होता है, जिस अनुभव होता है , जिस अनुभव के प्रसाद से ये संसार के सारे संकट टल जाते हैं। बाह्य पदार्थो में और प्रधानतया इंद्रिय के विषयों में रूचि जगना, उसका सिलसिला बनाना यह जीव पर बहुत बड़ी विपदा है ।यह मोही उस वातावरण में रहकर अपने को सुखी मानता है। सुखी होने की परिकल्पना करता है, लेकिन विपदा तो यही है। ज्ञानानुभूति ही एक वास्तविक संपदा है और शरण है। यह अपने आपके स्वयं की चीज है। अपने आपके द्वारा प्राप्त की जा सकती है। उस ज्ञानानुभूति के सिलसिले में जो आयगा उस पुरूष को फिर कोई विपदा नहीं रहती है।(171)रत्नत्रय प्रतपन समर्थ योग्य द्रव्य के योग की उत्सुकता―वास्तविक शांति का इच्छुक यह भक्त अभ्यर्थना करता है कि वह द्रव्य मेरे में उदित हो जो कि अव्यय है, जिसका कभी विनाश नहीं होता। मेरा द्रव्य गुण पर्यायवान सहज चैतन्यशक्ति स्वरूप, सहज परमात्म तत्त्व और उसकी साधना में सहायक, स्पष्ट, व्यक्त परमात्मतत्त्व मेरे उपयोग में उदित होवो। जैसे कि लोग अपने ज्ञान में कुछ न कुछ बसाये रहते है और जिनकी जिसमें रूचि होती है वे उसको निरंतर चिरंतन बसाये रहते है। हे प्रभो ! मेरे उपयोग में आपका वह शुद्ध ज्ञानज्योति स्वरूप ही बसो। मेरे उपयोग में मेरा ही सहज ज्ञानानंदस्वरूप है जो कि सहज अस्तित्व से मेरा स्वरूप है वह मुझमें बसो। अविनाशी चित्स्वरूपमात्र यह द्रव्य उदय को प्राप्त होवो। शांति इस ही उपाय से प्राप्त होगी एक ही निर्णय है, दूसरी बात कोई विकल्प में है ही नहीं कि चाहे इस तरह शांति कर लो या इस तरह। जैसे कि लोग कल्पना करते है कि अजी थियेटर के टिकट न मिले, देखने को न मिला तो चलो सिनेमा देखकर शांति प्राप्त कर लें। तो शांति मिलने के अनेक ढंग नहीं हैं, शांति का उपाय तो केवल एक ही है। अपने उपयोग में सहज ब्रह्मस्वरूप को लेना। तो प्रभो ! ऐसा अविनाशी यह द्रव्यस्वरूप मुझमें उत्पन्न होवो।
(172) रत्नत्रय प्रतपन योग्य देश व काल की अभ्यर्थना―वह शुभ देश मेरे को प्राप्त हो जहाँ धर्मात्माओं का भी संग मिलता रहे। जहाँ अन्याय पाप हिंसा आदिक न होते हों, ऐसा विशुद्ध वातावरण वाला देश मुझको प्राप्त हो। इससे विशुद्ध देश में कैसे भी ठाट-बाट में मुझे रहने को मिले वह इस अनादि अनंत काल के समक्ष कुछ 10-20 वर्ष के समय के लिए क्या चीज मिली ? मुझे वह देश प्राप्त हो जहाँ अपना ज्ञान अपने आपके ठिकाने आता रहे, ऐसी प्रेरणा मिलती रहे। मेरा समय निरंतर ऐसा प्रताप वाला बने कि जिस समय में ये मेरे रत्नत्रय प्रभावशाली बनें। ऐसा मेरे परिणमन का सिलसिला बने कि जिससे रत्नत्रय का लाभ हो और मेरा प्रताप बढ़ता रहे। जैसे लोग धन की वृद्धि निरखकर अब ये 50हजार हो गए, उसके कमाने में उत्साह रखते हैं, उसको निरखकर खुश होते हैं इस तरह मैं अपने आपको निरखकर देखूँ, मेरा ज्ञानभाव, मेरा उपयोग ऐसा निर्विकार निर्मल बने कि देखो यह अपने स्वरूप को छूने चला। अब उसने छू भी लिया, यह टिका रहे, यों अपने आपके रत्नत्रय के विकास के लिए उत्साह जगह ऐसा मेरे परिणमन का सिलसिला बनो।
(173)रत्नत्रय प्रतपन योग्य भाव की अर्चना―हे प्रभो! मेरा ऐसा भाव बने कि जिसके अनुग्रह से मेरा रत्नत्रय प्रतापशाली बने। स्नेह भरा, द्वेष भरा, मोह भरा विषय संबंध, ये किसी भी प्रकार के भाव मुझमें मत उत्पन्न हों। जब किसी भी प्रकार के रागद्वेष की बात मन में आती है तो उसके बाद वह उसको बढ़ाता है, उसके अनुसार उसका कार्य करने की आकांक्षा करता है और उसमें अपना भला मानता है, किंतु ये सब ऐसी कठिन विपदायें हैं कि जिन विपदाओं से फिर हटना नहीं होता, वे विपदायें बढ़ती ही रहती हैं। विपदाओं से हटना तो वीतराग भाव और ज्ञानभाव से ही होगा तो मेरे में ऐसा भाव प्रकट हो कि जिससे रत्नत्रय का प्रताप बढ़े । मेरे में का मतलब मुझमें और समस्त मुमुक्षु वर्ग में ऐसे योग्य देश, योग्यक्षेत्र, योग्य काल, योग्य भाव, और योग्य द्रव्य ये विस्तार को प्राप्त हो , उपयोग में बसो, इनका लाभ हो, जिससे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की वृद्धि हो।
(174)आत्मशासन में रत्नत्रय का योग―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये शब्द यद्यपि जैनशासन में पाये जाते हैं, लेकिन इनका सीधा अर्थ देखो तो ये आत्मशासन में पाये गए यों समझिये । आत्मशासन का ही नाम जैनशासन है। रागद्वेष को जिन्होंने जीत लिया, उन्होंने जो रागद्वेष को जीतने का उपाय बताया है वह क्या किसी दूसरे का शासन है ? वह तो आत्मा का शासन है। सम्यग्दर्शन-सम्यक् मायने भली प्रकार, दर्शन करना, सम्यक् द्वारा दर्शन करना, सम्यक् के लिए दर्शन करना अर्थात् जो समीचीन भाव है, आत्मा का निर्विकार शुद्ध चैतन्य ज्योतिर्मय, उसका दर्शन करना, अनुभव करना और भले के लिए अनुभव करना । इससे भला ही भला है, और ऐसे भले में ही दर्शन होना इसका नाम है सम्यग्दर्शन। यह तो आत्मा की चीज है जिस आत्मा को शांत होने की भावना हो उसको यही करना पड़ेगा। समस्त बाह्य आलंबन त्यागकर केवल आत्मा के सहज स्वरूप के अवलंबन की ही बात है तो इसमें वे सब लगाव मिट गए। जाति का, कुल का, मजहब का, परंपरा का, कुल धर्म का ये सब उसके मिट गए। केवल उसका आत्मा का ही नाता रहा। कितना निष्पक्ष शांति का मार्ग है और सुगम है, स्वाधीन है, क्योंकि उसका एक अपने ही अंतस्तत्व से संबंध है।
(175) शांति के अर्थ योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के योग कीअभ्यर्थना―शांतिभक्ति के इस उपांत्य छंद में यह भावना की है कि हे प्रभो ! हे शांति जिनेंद्र, हे ज्ञान ज्योतिपुंज, हे अविकार चित्स्वरूप ! शांति के अर्थ ऐसा अविनाशी द्रव्य उदित होवे, ऐसा देश विस्तृत होवो, अर्थात् जिस देश में रहना और विहार होवे, केवल 10-5 हाथ की जगह शुद्ध मिले ऐसी भावना नहीं है, किंतु योजनों प्रमाण क्षेत्र जहाँ ऐसा हो कि शांति का वातावरण हो वहाँ मैं किसी जगह रहता रहा होऊँ , इसी भाव को लेकर कह रहे हैं कि वह देश लंबा-चौड़ा बने जहाँ रहकर मुमुक्षु वर्ग में, आत्म हितैषियों में रत्नत्रय का प्रताप बढ़े, ऐसा काल प्राप्त हो, समय प्राप्त हो, खुद के परिणमन का सिथला भाव भी एक सा उदित हो जिससे आत्मा का विश्वास, आत्मा का ज्ञान और आत्मा में निर्विकल्प होकर रमण, इनकी सिद्धि हो।