वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 12
From जैनकोष
सीलं रक्खंताणं दंसणसुद्धाण दिढचरित्ताणं ।
अत्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्तचित्ताणं ।।12।।
(22) शील के आलंबन के प्रताप से निर्वाण―जो पुरुष विषयों से विरक्त है, शक्ति का रक्षण करने वाले हैं, सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं, चारित्र में दृढ़ हैं उन पुरुषों का नियम से निर्वाण होता है । कितने ही पुरुष ऐसे भी मुनि हुआ करते हैं कि जिनके चित्त में यह बसा रहता है कि मैं बड़ा शुद्ध चारित्र पालता हूँ और ऐसा मन में ख्याल जमाये रखने से अन्य मुनियों में उनको दोष नजर आने लगते हैं, ये नहीं निभा पाते, हम इतना निभा लेते हैं, और ऐसा भाव आने से उनके चारित्र में हीनता हो जाती है, क्योंकि पर्याय पर ही उनकी अधिक दृष्टि गई है । चारित्र तो ज्ञानस्वभाव में आत्मा के शील में रमण करने का है । चारित्र पालनहार को चारित्र पालते हुए भी उस चारित्र की वृत्ति पर दृष्टि नहीं रहती । हो रहा है सब ठीक काम, मगर चारित्र एक पर्याय है, उसे निरखकर गर्व आता हो तो यह चारित्र में हीनता करता है । जहाँ इतनी सूक्ष्म बात है वहाँ यदि कोई मोटे दोष पाये जायें तब तो हीनता विशेष है ही । प्रश्न―प्रगति का हेतु यदि सम्यग्दर्शन है सम्यक्त्वचारित्र है तो फिर सम्यग्ज्ञान क्या है? उत्तर―आत्मा में ये तीन पर्याय हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, पर सम्यग्ज्ञान में सम्यक्पना या मिथ्यापना नहीं होता । ज्ञान में सम्यक्पना आया है सम्यक्त्व के सहवास से और मिथ्यापना आता है मिथ्यात्व के सहयोग से, तब ज्ञान के कार्य में केवल जाननमात्र इतना ही तकना है और यह जाननमात्र आत्मा का पतन करता है और न आत्मा का उत्थान करता है । यह तो आत्मा के साथ लगा हुआ है । उत्थान कहते हैं पतन से हटकर ऊपर चढ़ने को और पतन कहते हैं नीचे की ओर गिरने को, और उपाधि के संपर्क से पतन होता है और उपाधि दूर हो जाये तो उसका उत्थान होता है । ज्ञान तो सर्वत्र जाननमात्र रहता है, उससे पतन और उत्थान की व्यवस्था नहीं है । सूक्ष्मदृष्टि से देखना ।
(23) ज्ञानमय आत्मा को अभेद व भेददृष्टि से निरखने पर ऐक्य व वैविध्य का वर्णन―जैनशासन में दृष्टियाँ अनेक होती हैं । एक दृष्टि से तो सब कुछ ज्ञान का ही काम है, चारित्र, सम्यक्त्व अन्य चीजें ये कुछ हैं ही नहीं उस दृष्टि से । ज्ञान ही इसरूप बना, ज्ञान ही उसरूप बना, सब रूप ज्ञान में दिखते जायेंगे । जैसे सुख है तो ज्ञान का ही एक ऐसा जानने का ढंग बनना कि जिसके फल में सुख प्राप्त हो, जानने की ही ऐसी विधि और ढंग मिलना कि जिससे दुख प्राप्त हो, तो सब कुछ ज्ञान है, मगर विश्लेषण करके दृष्टियों से देखा जाये तो भेददृष्टि से देखने पर यह सब अंतर नजर आता है । तो सम्यग्ज्ञान तो एक ऐसा आधार है कि जिसमें मिथ्यात्व चढ़े तो मना न करे, सम्यक्त्व आये तो मना न करे, जैसे सफेद पर कोई भी रंग चढ़ाया जाये तो वह चढ़ जायेगा । जैसे राष्ट्रीय तिरंगे झंडे में सफेद रंग को बीच में रखा है तो ऐसे ही इस रत्नत्रय में बीच में सम्यग्ज्ञान है । उस सफेद पर पीला रंग भी चढ़ जाये और हरा रंग भी तथा दोनों रंगों का मध्यवर्ती है श्वेत । तो ऐसे ही सम्यग्ज्ञान एक सामान्य जानन का नाम है, उसमें कोई तरंग या विशेषता नहीं जगती । भेद दृष्टि से कहा जा रहा है कि कोई कितनी ही गड़बड़ी में आये तो वहाँ ज्ञान का दोष नहीं है, किंतु अन्य जो कुछ उपाधियाँ चल रही है उन उपाधियों का दोष है ।
(24) विषयों से विरक्ति होने पर शील का विकास―जो विषयों से विरक्त होना है, बस यही शील की रक्षा है । शील मायने, स्वभाव, अविकारभाव, ज्ञानभाव । उस ज्ञान में विकार न आ सके, यह ही शील की रक्षा है और उसमें विकार आये तो वही शील की अरक्षा है । सो जिसका सम्यग्दर्शन शुद्ध है, चारित्र भी निर्दोष निरतिचार शुद्ध है ऐसे पुरुष का नियम से निर्वाण होगा । जब-जब चारित्र शब्द कहा जाये तो मोक्षमार्ग के निश्चय के प्रकरण में ज्ञान में ज्ञान का ठहरना यह अर्थ लिया जाना चाहिए । चारित्र और कुछ चीज नहीं है । चलना, समितिपालन, आहार लेना, मूल गुण पालन, क्रियायें, निश्चयचारित्र के स्वरूप में इनकी प्रतिष्ठा नहीं है, मगर मार्ग जरूर है । मार्ग इस कारण है कि कोई पुरुष चारित्र में चलता है तो उसके जो पूर्व संस्कार हैं उन संस्कारों से वह चारित्र में चल नहीं पाता और वहाँ कुछ विपरीत वृत्ति में लगने का अवसर आता है । तो विपरीत भाव में न लग सके उसके लिए यह व्यवहारचारित्र है, जिसके प्रसाद से यह जीव निश्चयचारित्र का पात्र होता है ।