वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 33
From जैनकोष
एवं बहुप्पयारं जिणेहिं पंचक्खणाणदरसोहिं ।
सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं य लोयणाणेहिं ।।33।।
(67) शील से ही आत्मा के सहज अतींद्रिय आनंद की संभूति―जिनेंद्रदेव ने शील के द्वारा मोक्ष पद का लाभ बताया । वह मोक्षपद कैसा है और शील पद कैसा है जो इंद्रिय के द्वारों नहीं जाना जाता, फिर भी शील अतींद्रिय आनंदमय है । जिसके इंद्रिय नहीं उसको अद᳭भुत अलौकिक परमार्थ आनंद प्राप्त होता है । लोगों को यह भ्रम है कि आनंद किसी बाहरी पदार्थ से मिलता है । किसी भी बाहरी पदार्थ से कुछ भी मेरे आत्मा में त्रिकाल आ ही नहीं सकता । स्वरूप की पर्याय ही ऐसी है, मेरे में जो आयेगा वह मेरे में से आयेगा, किसी दूसरे पदार्थ में से निकलकर न आयेगा और फिर ये इंद्रिय के विषयभूत जड़ पदार्थ इनमें आनंद भरा ही कहाँ है आनंदगुण तो चेतन में हुआ करता है, जड़ पदार्थों में आनंदगुण होता ही नहीं, फिर वहाँ से आयेगा आनंद इसका तो विचार ही न करना, कुछ अवकाश ही नहीं है सो बाह्य पदार्थों से आनंद नहीं मिलता । आनंद तो स्वयं आत्मा का स्वरूप है । जैसे यह आत्मा अपने स्वरूप से सहज प्रतिभासमात्र है ऐसा ही उपयोग बने तो आत्मा को आनंद अपने आप है और यही आनंदगुण उपाधिरहित होने पर सिद्ध भगवंत में एकदम अनंत प्रकट है । तो यह आत्मा का शीलपद और आत्मा का वह मोक्षपद यह इंद्रिय से अतीत है और अतींद्रिय आनंद से भरा हुआ है, तो यह बात जिनेंद्रदेव ने बतायी, जिसका ज्ञान और दर्शन अनंत है ऐसे सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि में यह बात है । वह मनुष्य धन्य है जिसकी रुचि आगम के प्रति बढ़ती हुई है और प्रभुता के लिए भीतर से एक उत्सुकता लग रही । तो जो अपने आपमें हो सो ही मिलेगा । मुझे बनना नहीं है कुछ, कुछ भी भाव बनें । आराध्य सिद्ध भगवंत अक्षातीत हैं और यहाँ आत्मा का यह शील अक्षातीत है ।
(68) आत्मशील निरखकर विषयविरक्तिपूर्वक आत्माचरण द्वारा समृद्धिसंपन्नता―आत्मा का स्वभाव और सिद्धभगवान यह एक ही तो बात है । स्वभाव ढका है । उसका नाम है संसारी, और स्वभाव ढका न रहा, प्रकट हो गया पर्याय में, उसका नाम है सिद्ध भगवान । इसी प्रकार तो ममस्वरूप है सिद्ध समान । सिद्ध भगवान के समान अपना स्वरूप है, तो उसकी ओर दृष्टि करें । यहाँ बच्चों के कारण अपने को आप समझते कि मैं बच्चे वाला हूँ बड़ा अच्छा हूँ या धनवैभव के कारण बड़ा समझते, मेरी अच्छी स्थिति है ऐसा समझते, पर ये तो सारे विरूप हैं, भ्रम हैं, इनमें तत्त्व न मिलेगा । आत्मा का शीलस्वभाव जानकर उसका लक्ष्य करके अपने में गौरव अनुभव करना कि मैं यह हू परमात्मतत्त्व, उसको प्राप्ति होगी स्वरूप की, लेकिन जो विषयों से विरक्त हैं वे ही पा सकेंगे । जो विषयों में आसक्त है वे इस स्वरूप को नहीं प्राप्त कर सकते । देखिये, छोड़ना तो सबको पड़ता है, सब कुछ छोड़ना पड़ेगा, पर कोई ज्ञान करके यहाँ ही जिंदा अवस्था में त्याग करके या उस बीच रहकर छोड़ देता । ममता त्याग दी वह भला है और मरकर छोड़ना ही पड़ा दुःखी होकर तो वह छोड़ना क्या कहलाया? आगे जाकर दुखी होना पड़ेगा ।
(69) मरण से पहिले ही विषयममत्व त्यागने में लाभ―एक वेदांत की टीका में कथा आयी है कि कोई एक भंगिन मल से भरा हुआ टोकना लिए जा रही थी, खुला हुआ मल होने से बहुत से लोग कष्ट मान रहे थे सो एक दुकानदार ने उसको ढाकने के लिए एक साफ स्वच्छ चमकीला तौलिया दे दिया यह सोचकर कि जिससे किसी को वह मल देखकर कष्ट न हो । जब तौलिया ढककर लिए जा रही थी वह भंगिन मल का टोकरा तो उसे देखकर तीन व्यक्ति उसके पीछे लग गए । सोचा कि देखना चाहिए क इस टोकने के अंदर कौनसी ऐसी चीज है जिसको बहुत स्वच्छ चमकीले तौलिया से ढाक रखा है । सोचा कि इसमें शायद कोई बढ़िया चीज ही होगी । सो जब तीनों व्यक्ति भंगिन के पीछे लगे हुए थे तब उन्हें देखकर भंगिन ने पूछा―आप लोग हमारे पीछे क्यों लगे हैं? तो वे व्यक्ति बोले―हम लोग देखना चाहते हैं कि इस टोकने में तुम क्या लिए जा रही हो । तो भंगिन बोली―अरे इसमें तो मल है तुम क्यों बेकार में पीछे लगे हो? तो इतनी बात मलकर उन तीनों मैं से एक व्यक्ति लौट गया । उसने समझ लिया कि यह ठीक कह रही है । दो को अभी भी विश्वास न आया । फिर भी पीछे लगे रहे । फिर भंगिन ने पूछा―भाई तुम मेरे पीछे क्यों लगे हो? तो वे बोले―हम तो तुम्हारी बात नहीं मानेंगे, हमें इसे खोलकर दिखा दो । देख लेंगे तब विश्वास हो जायेगा और लौट जायेंगे । भंगिन ने तौलिया उघाड़कर दिखा दिया, उसे देखकर दूसरा व्यक्ति भी वापिस लौट गया । तीसरा व्यक्ति अभी भी उसके पीछे लगा रहा उसे अभी भी विश्वास नहीं हुआ । फिर भंगिन बोली―भाई तुम अभी भी मेरे पीछे क्यों लगे हो? तो वह तीसरा व्यक्ति बोला―हमनें अभी दूर से ही तो देखा, अभी विश्वास हमें नहीं हुआ, हम तो भली-भांति सूंघ-सांघकर परीक्षा करके देख लेंगे तब वापिस लौटेंगे । आखिर भंगिन ने तौलिया उघाड़ा, उस व्यक्ति ने भली-भांति सूंघ-सांघकर देख लिया तब वापिस हुआ । तो उस वेदांत की टीका में यह दृष्टांत देकर बताया कि यहाँ कि यहाँ विषयों के लोलुपी पुरुष कुछ तो ऐसे हैं कि जब एकदम परेशान हो जाते या मरण कर जाते तब ये विषय उनसे छूटते हैं, कुछ ज्ञानी ऐसे भी है कि जो उपदेश मात्र से ज्ञान जगता है और छोड़ते हैं, ऐसे ही इन भव्य जीवों में कुछ तो ऐसे है कि भोगो के भोगे बिना वस्तु के स्वरूप को जानकर अपने आत्मा के स्वरूप को, स्थिति को, भविष्य को, भूत को सब विधियों से पहिचान कर विरक्त होते हैं और आत्मा में शील में स्वभाव में, स्वरूप में रमकर निर्दोष रहा करते हैं । तो कोई पुरुष ऐसे होते हैं कि इन विषयों को भोगकर बाद में विरक्त होकर त्याग देते हैं वे दूसरे मित्र की तरह हैं तो कुछ ऐसे विषयासक्त होते हैं कि मरणपर्यंत तक भी नहीं छोड़ सकते हैं, मरेंगे तब ही छूटेंगे । तो आप यह बतलाओ कि मरण के बाद तो फैसला हो ही गया कि यहाँ का कुछ साथ न रहा, अब इतने थोड़े से समय के लिए वैभवों में परवस्तुओं में ममता बढ़ाना यह तो अगले भव के लिए दुःख मोल लेना है ।
(70) अपना वर्तमान परिचय व मोहनिद्रा में लंबे स्वप्न―ये सारे पदार्थ भिन्न हैं, असार हैं, मेरे स्वरूप नहीं हैं, इनमें लगाव रखने का कोई प्रसंग भी नहीं, संबंध भी नहीं, पर यह जीव अपने आत्मा में शील का परिचय न पाने के कारण इन बाह्य विषयों में लगाव रखते हैं और ऐसे कुशील में सारी जिंदगी बिताते हैं, उसका फल यह होता है कि संसार में जन्ममरण करते हैं । अभी यहीं देख लो कि ये संसारी जीव कर क्या रहे हैं? जैसे पूछते हैं कि भाई आपका नाम क्या है, आप रहते कहाँ हैं और क्या काम करते हैं? ये तीन बातें जानने की इच्छा तो होती है कम से कम । तो जरा इन संसारी जीवों से भी पूछो कि भाई तुम्हारा नाम क्या है, तुम कहाँ रहते हो और तुम क्या किया करते हो? तो वहाँ उत्तर यह होना चाहिए कि मैं कर्ममलीमस एक जीव हूँ अपने ही प्रदेशों में रहता हूँ और विषयकषाय विकार आदिक के ऊधम का रोजगार किया करता हूँ और इस रोजगार का फल क्या मिल रहा है ? इस संसार में जन्ममरण । जन्मे, मरे और इस जन्ममरण के बीच की जो जिंदगी है उसमें निरंतर कष्ट उठाया । जैसे सोये हुए पुरुष को कोई स्वप्न आये तो उस काल में उसे वह झूठा नहीं मानता । जिसको स्वप्न होता है उसको उस समय स्वप्न में देखी हुई बात एकदम सत्य प्रतीत होती है । जैसा स्वप्न आया वैसा भीतर में हर्ष विषाद करता रहता है । तो यह तो है आंख के नींद का स्वप्न । और यह 10-20-50 वर्षों का जो कुछ भी समय है यह है मोह के नींद का स्वप्न । जैसे उस आंख की नींद वाले को स्वप्न की बात झूठ नहीं लग रही थी, जगने के बाद झूठ लगी, सोने के समय तो झूठ नहीं लगी, ऐसे ही मोह के नींद की ये सारी बातें यह परिवार है, यह वैभव है, यह दुकान है, यह कमाई है, यह इज्जत है, यह प्रतिष्ठा है, ये सब बातें सच्ची लग रही हैं । जब तक मोह की नींद में सो रहे तब तक ही ये बातें सच्ची लग रहीं । जब यह मोह की निद्रा भंग हो जाती है याने ज्ञान जग जाता है, वस्तु के स्वरूप का सही ज्ञान हो जाता है कि मैं आत्मा वास्तव में क्या हूँ इस शील स्वभाव का जब परिचय हो जाये तब उसे यह ज्ञात होता है कि मेरी वे सब बातें झूठ थीं ।
(71) मोहनिद्रा के दृष्टांतपूर्वक मोहनिद्रा के स्वप्नों का चित्रण―एक दृष्टांत यहाँ देते हैं कि किसी एक आदमी को सोते हुए में स्वप्न आया कि मुझे राजा ने 100 गायें इनाम में दी हैं । अब वह उन 100 गायों को बांधता है, खोलता है, उनकी सेवा करता है खिलाता पिलाता है । उस समय स्वप्न में वह यह तो नहीं समझ प रहा कि यह सब झूठ है, स्वप्न की बात है । उसे तो सब सच लग रहा । उसी स्वप्न की बात कर रहे वहाँ कोई ग्राहक गायें खरीदने पहुंचा, पूछा―भाई ये गायें कितने-कितने रुपये में दोगे? तो वह बोला―100-100 रुपये में । उस समय सस्ता जमाना था । सो 100-100 रु0 की बात सुनकर वह ग्राहक बोला―50-50 रुपये में दोगे ?....नहीं ।....फिर कितने-कितने मैं दोगे?....90-90 रु0 में ।....क्या 60-60 रु0 में नहीं दोगे ?....हाँ नहीं देंगे ।....फिर कितने-कितने में दोगे ?....80-80 रु0 में ।....अगर देना चाहो तो 70-70 रु0 में दे दो ।....नहीं देंगे ।....तो हम नहीं लेंगे । (चल दिया) ?....अरे सुनो तो सही ।....-नहीं सुनते । इसी प्रसंग में उसकी नींद खुल गई और क्या देखा कि अरे यहाँ तो कुछ नहीं, ये सब स्वप्न की बातें थीं, पर यह सोचकर कि करीब 1400 रु0 जा रहे सो आखें मींचकर बोलता है―अच्छा भाई लौट आओ, 70-70 रुपये में ही ले लो । अब भला बताओ आंखें मींचने से वहाँ होता क्या ? कहीं स्वप्न में देखी गई वे सब बातें सही तो नहीं बन सकतीं । तो जैसे स्वप्न में यह पता नहीं पड़ता कि वह सब झूठ है, ऐसे ही मोह की नींद में जब तक मोह के विचार और विकार चल रहे हैं और आत्मा के वास्तविक स्वरूप का परिचय नहीं है तब तक लग रहा है कि बिल्कुल सच बात तो है, हमारा ही तो मकान है, हमारे ही नाम से तो इस मकान की रजिस्ट्री हुई है, किसी दूसरे का कैसे, हो सकता? यों सब एकदम सही जंच रहा, मगर वस्तुस्वरूप क ज्ञान जगे, स्वतंत्र सत्व का परिचय बने, प्रत्येक द्रव्य अपनी गुण पर्यायों में है । कोई द्रव्य किसी को नहीं भोगता । जब एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से संबंध कुछ नहीं है यह ज्ञात हो तब भूल कबूल होगी, आप सोचेंगे कि ऐसा श्रेष्ठ मनुष्यभव मिला । यदि यहाँ मोक्षमार्ग की बात न बन पाये तो धिक्कार है और बेकार है यह जीवन । उसमें क्या सार निकलेगा ? कुछ इंद्रिय के आराम मिल जायेंगे । जिनको कल्पित सुख दु:ख होता है और उस समय जैसा कर्मों का बंध होता उसके अनुसार संसार में जन्ममरण की परंपरा चलती है । तो अब अपना एक दृढ़ संकल्प बना लीजिए कि मैं इसका परिचय करके ही रहूंगा कि में वास्तव में किस
स्वरूप में हूं । जो मेरा वास्तविक स्वरूप है उसही को अपनाऊं और उसी को अनुभव करूं मैं यह हूं ।