वर्णीजी-प्रवचन:शीलपाहुड - गाथा 40
From जैनकोष
अरहंते सुहमत्ती सम्मत्तं दंसणेण सुविसुद्धं ।
सीलं विसयविरागो णाणं पुण केरिसं भणियं ।।40।।
(84) परमगुरुभक्ति सम्यक्त्वविशुद्धि विषयविरक्ति सहित शीलोपासना से ज्ञान की मंगलरूपता का कथन करके अंतिम मंगलरूप गाथावतार―अरहंत भगवान में शुभभक्ति होना सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व यद्यपि विपरीत अभिप्रायरहित आत्मा का परिणाम कहलाता है, पर यह सब जिनागम से स्वाध्याय कर सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है, सो इस आगम के प्रताप से यह बढ़ सका और वह आगम जिनके मुख से प्रकट हुआ उन अरहंत जिनेंद्र में भक्ति न हो तो उसका सम्यक्त्व कैसा ? तो जिनको सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है और चरित्र धारण कर रहे हैं उनको अरहंत भगवान में भक्ति होती है और वे पुरुष सम्यग्दर्शन से विशुद्ध हैं । जिनका ज्ञान सम्यग्दर्शन से शुद्ध भक्ति से ओतप्रोत है उनके विषयों से विराग होता है और विषयों से विरक्त होना अर्थात् ज्ञाता द्रष्टा मात्र रहना यही शील कहलाता है । सो अरहंत भगवान की भक्तिरूप तो सम्यक्त्व है और विषयों से विरक्त होना शील है और यही सब मिलकर ज्ञान है । यदि ज्ञान में स्वच्छता, विषयविरक्ति नहीं है तो वह कैसे ज्ञान है ? सो ये ज्ञान भी अपने सम्यग्ज्ञान नामक शील के प्रताप से प्राप्त होते हैं । आत्मा विषयों से विरक्त हो और सहज ज्ञानस्वभाव के प्रति झुका हो तो उसके ज्ञान को सही ज्ञान कहते हैं । तो सम्यक्त्व और शील के संबंध से ज्ञान की बढ़ाई हैं । तो यह सब शील की महिमा ही तो बढ़ा रहा है । शील नाम स्वभाव का है । आत्मा का स्वभाव शुद्ध ज्ञानदर्शन है । सो कर्म आवरण के हटने का निमित्त पाकर निर्विकार होता हुआ उस शीलस्वभाव को विकसित करता है, ऐसे इस शील की प्रशंसा करना यही इस ग्रंथ में अंतिम मंगल है । यह शीलपाहुड नामक ग्रंथ इस गाथा के साथ समाप्त हो रहा है, इस अंतिम गाथा में शील की महिमा बतायी है कि शील बिना ज्ञान ज्ञान नहीं है । शीलजल से पवित्र हुआ ज्ञान ही पारमार्थिक ज्ञान कहलाता है, ऐसे ज्ञानस्वभाव का जानरूप पवित्र ज्ञान शील नित्य विकसित हो जिसके प्रताप से आत्मा सदा के लिए संसार के संकटों से छूटते हैं और अनंत आनंद प्राप्त करते हैं ।
।। शीलपाहुड प्रवचन समाप्त ।।