वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 13
From जैनकोष
भूयत्थेणाभिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च ।
आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।।13।।
537-सम्यक्त्वनिष्पत्ति का मुख्य निबंधन—भूतार्थनय से जाने गये जीव, अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष सम्यक्त्व है । यहाँ कार्य में कारण का उपचार करके ऐसा कहा गया है । उपचार भी किसी सचाई के कारण है । भूतार्थनय से तत्त्व जाना जाय तो सम्यग्दर्शन होता ही है ऐसा निमित्तनैमित्तिक अथवा उपादान उपादेय संबंध है अत: इस प्रकार जाने गये नव तत्त्वों को सम्यग्दर्शन कहा है । भूतार्थनय है एकत्व दृष्टि, एक को देखना एक की बात को एक में देखना भूतार्थनय है । भूतार्थनय तत्त्वों को स्रोत की ओर ले जाता है यही कारण है भूतार्थनय से तत्त्वों का जानना आत्मा की ओर ले जाता है और वह स्थिति आत्मानुभूति उत्पन्न करती है । 538-पर्याय उसके स्रोत से संमुख देखना—कर्म आना आस्रव है, पर हमने उस आस्रव को अभी तक समझा ही नहीं है । हम समझते हैं कर्म के उदय से राग होता है आस्रव होता है, किंतु कर्म का आस्रव कर्म से, जीव का आस्रव जीव से होता है कर्म जीव का आस्रव नहीं करता और जीव कर्म का आस्रव नहीं करता है । समयसार की यह तेरहवीं गाथा समयसार का प्राण है इसी कारण समयसार के विस्तृत विवरण की यह अधिकार गाथा है । इसमें बतलाया है कि इन 7 तत्त्वों को किस दृष्टि से देखने पर और जानने पर सम्यग्दर्शन होता है । जिस प्रकार न्यारिया राख को धोकर उसमें से एक स्वर्ण कण को भी निकाल लेता है उसे राख का संग्रह इसलिये करना पड़ा क्योंकि उसकी दृष्टि उनमें के सोने पर है उस राख के ढेर पर उसकी दृष्टि नहीं है इसी प्रकार ऊपर से व्रत क्रिया करता हुआ भी ज्ञानी अपना एक लक्ष्य बनाता है कि मेरी एक आत्मा प्रकट हो उस आत्मज्योति को प्रगट करने के लिये इन नौ तत्त्वों का सहारा लेना आवश्यक है । इन नौ तत्त्वों को जब तक भूतार्थ दृष्टि से नहीं समझेगा तब तक उसके सम्यग्दर्शन ही असंभव है । जैसे आजकल एक समझदार मनुष्य को खोटे भावों से बचकर अच्छे भाव करने का प्रयत्न करना पड़ता है और उसकी दृष्टि में पुण्य कार्य ही अच्छा समझा जाता है । उसे यह ज्ञान नहीं कि यह भी आश्रय है । इससे तो आत्मा फंसता ही चला जाता है । जितना वह संसार से छूटना चाहता है वह उतना ही मकड़ी के जाल की तरह संसार में उलझता जाता है । 539-अधिक फंसा सुलझें कैसे, बे फंसे को सुलझाना क्या—जिस प्रकार चिड़िया जाल में फंसकर फड़फड़ाती है जो कि चारों ओर से पूरी तरह फंस जाती है वह तो फड़फड़ा भी नहीं सकती और जो बिल्कुल खुली बंधन मुक्त है, वह भी क्या फड़फड़ायेगी । किंतु जो बंधन में तो पड़ी है किंतु उसे फड़फड़ाने की गुंजाइश है वही फड़फड़ाती है—उस बंधन से छूटने के लिये । इसी तरह निगोदादि गतियों में रहने वाले जीव तो धर्म के लिये फड़फड़ा नहीं सकते प्रयत्न नहीं कर सकते । सिद्धजीव जो कि मुक्त हैं उन्हें फड़फड़ाने की आवश्यकता ही नहीं । एक मनुष्य पर्याय ही ऐसी है जिसमें यह जीव धर्म के लिये कुछ प्रयत्न करना चाहता है किंतु अनादि काल के खोटे संस्कारों से वह अपने धर्म की पहचान नहीं कर पाता है । ये 9 तत्त्व जानकर भी उनकी बारीकियों का ज्ञान उसे भले ही हो जाय ऊँची से ऊँची चर्चा इस विषय की की जा सके । किंतु उन नौ तत्त्वों में से अपने आत्मतत्त्व की खोज नहीं कर पाता । ज्ञानी इन नौ तत्त्वों में से अपनी ही खोज करता है । वह पर पदार्थ को जानकर भी वहाँ निज की खोज कर लेता है । इन 9 तत्त्वों के जानने का भी प्रयोजन यही है कि उनके द्वारा अपनी खोज की जाय । इन नौ अवस्थाओं में रहता हुआ भी यह आत्मा क्या है? उसे यह ज्ञान नहीं रहता । 540-जिसके दृश्यरूप हैं उस अवश्य को तो जानो—जिस प्रकार इस अंगुली की टेढ़ी सीधी आदि अनेक अवस्थाओं में वह एक अंगुली शुद्ध तत्त्व क्यों है? यह हमें जानना चाहिये । क्योंकि यह अंगुली उन अनेक अवस्थाओं में रहते भी अपने एकपने को नहीं छोड़ती । यह आत्मा भी अनेक पर्यायों में रहता हुआ अपने एकपने को नहीं छोड़ता । अपने निज चैतन्य प्रभु की हमने अपनी ही गलती से दुर्दशा बना रखी है । उसे विभावों में बुरी तरह जकड़ रखा है । विकारों से उसे मलिन कर रखा है—एक आसन पर प्रभु और शैतान नहीं बैठ सकते । विषय कषाय के स्वप्न और शुद्ध आत्मा के दर्शन—ये दोनों कार्य एकसाथ कैसे हो सकते हैं? इसीलिये अपनी कुशलता चाहो तो पर्याय से दृष्टि हटाकर उपयोग को अपनी ओर ले जावो, तभी कल्याण संभव है । भूतार्थनय से जाने गये ये सात तत्त्व सम्यक्त्व हैं अर्थात् सम्यक्त्व के उत्पाद के समर्थ कारण हैं । भूतार्थ का मतलब है—जो पदार्थ दूसरे किसी की अपेक्षा बिना हो—अपने आप से हो । पर के निमित्त से नहीं हो । कभी हो, कभी न हो—जो ऐसा न हो । भूतार्थनय, परम शुद्धनिश्चयनय सत्यार्थ दृष्टि कारण परमात्मा परम शुद्ध पारिणामिकभाव ये सब एकार्थवाची शब्द हैं अर्थात् भूतार्थनय के ही दूसरे नाम हैं। 541-पदार्थों के मूलस्वरूप को जानो जो पर्यायों का स्रोत बन रहा है—पदार्थ का ज्ञान करने के लिये हमें दो तरह से समझना होगा । एक उनके भीतरी मर्म को जानना, दूसरा उसका ऊपरी ज्ञान । देखो ना ! जिस प्रकार मनुष्य की भी पहिचान दो तरह से हो सकती है—(1) तो उसके भीतरी भावनाओं का पता लगाकर और (2) ऊपर से उसके आचार विचार देखकर । किसी भी वस्तु का बाहिरी ज्ञान सरल है । किंतु उसके आंतरिक ज्ञान कठिन हैं । वस्तु के एक रूप का ज्ञान सरल है किंतु अनेक का ज्ञान जो कि कठिन होना चाहिये था सरल बना हुआ है । यह उल्टा हो रहा है । मनुष्य बाहिरी अनेक दशाओं का ज्ञान तो सरलता से कर लेता है पर जिस वस्तु की वे दशाएं हो रही हैं उसका ज्ञान नहीं कर पाता है जो कि सदा स्वयं अंत: प्रकाशमान है । देखो तो आचार्यदेव ने कितना अलौकिक वैभव हमारा हमें प्रदान कर दिया है—क्या? भूयत्थेणाभिगया जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं । भूतार्थ से जाने गये 9 तत्त्व सम्यक्त्व हैं याने सम्यक्त्व के अमोघ कारण हैं । भूतार्थनय से इन नौ तत्त्वों को जानने पर सम्यग्दर्शन को होना ही पड़ेगा । जहाँ सम्यग्दर्शन हुआ कि संसार का सारा झगड़ा खतम । उन नौ तत्त्वों को जाननेवाला वह एक आत्मतत्त्व है उसका तो ज्ञान कठिन लग रहा है और इन नौ तत्त्वों का ज्ञान सरल लग रहा है । तीर्थ की प्रवृत्ति चलाने के लिये अभूतार्थ का प्रयोग होता है । जिसे शुद्ध सोने का परिचय नहीं उसे अशुद्ध सोने में उसकी शुद्धता का परिचय कराया जाता है । देखो, उनमें इतना शुद्ध सोना है । बाकी सब सोना नहीं उसका अशुद्ध (कूड़ा करकट) रूप है । देखो जैसे मनुष्य को कोई नहीं जानता मनुष्य की दशाओं का ज्ञान सबको है । मनुष्य सामान्य रहा पता नहीं । जो जानेगा वह या तो बालक मनुष्य को या युवक को या वृद्ध को जानेगा । परंतु इन तीन अवस्थाओं में रहनेवाला जो एक मनुष्य है उसे कौन जानता है? इसी प्रकार त्रिकालवर्ती उस चैतन्य स्वभाव को समझने के लिये इन नौ तत्त्वों का जानना अभूतार्थ है । पर उनके स्वरूपविज्ञान द्वारा एक आत्मतत्त्व की खोज कर लेना भूतार्थ है । 542-स्वभावद्रष्टा रहो, यही धर्मपालन है—धर्म के नाम पर हाथ पैर चलाना अथवा शरीर की कोई भी क्रिया करना धर्म नहीं—क्योंकि यह तो जड़ की क्रिया है । किंतु उसमें जितना लक्ष्य ज्ञानरूप है—वही धर्म है । भगवान के सामने सर नवाया यह तो एक जड़ की क्रिया हुई उसमें जो लक्ष्य चल रहा है वह धर्म है । भीतर से जब प्रेरणा चलती है तब ये क्रियाएं तो होती जाती हैं उन्हें करना नहीं पड़ता । व्यवहार को धर्म इसलिये कहा गया है - पर व्यवहार वही है जो निश्चय का पूरक हो । पर्याय की चर्चा करना, आत्मा के गुणों में भेद डालकर आत्मतत्त्व को समझना यह व्यवहार धर्म है । ज्ञान दर्शन चारित्ररूप जो परिणमन चलते हैं—वह सब व्यवहार धर्म है । जिनकी श्रद्धा जड़ में पक्की बस चुकी हो, जो पुण्य पाप को ही धर्म समझते हैं, उन्हें ये बातें कुछ अटपटी-सी लगेगी । जिस पदार्थ का जो धर्म होता है वह उसके पास रहता है । आत्मा का धर्म भी चैतन्यभाव है वह उसकी (आत्मा की) प्रत्येक अवस्था में आत्मा के साथ रहता है । उस चैतन्यभाव को ही हमें समझना है और उसी को समझाने के लिये कुंदकुंदाचार्य नौ तत्त्वों का वर्णन कर रहे हैं । ये नौ तत्त्व अभूतार्थ हैं उनमें एक निरपेक्ष जीव तत्त्व ही भूतार्थ हैं बाकी जीव और अजीव के संयोग से बनी हुई विविध दशाएं है परंतु जहाँ केंद्र की बात है लक्ष्य की बात है उन 8 तत्त्वों से हटकर अपने चैतन्य तत्त्व पर ही आना पड़ता है । यहाँ प्रश्न हुआ कि फिर 9 तत्त्वों को भूतार्थ से जानने का क्यों उपदेश है? भैया, बात यह है कि जीव को परिचय अनादि से पर्याय का ही होता चला आया है । उससे हटने का उपाय भूतार्थ से उनको जानना है । जब भूतार्थ से किसी को भी जानोगे तो सब विकल्प छूटकर निज सहज स्वभाव की उन्मुखता हो पड़ेगी । अत: निरपेक्ष जीव तत्त्व वस्तुत: भूतार्थ रह गया । 543-जो जिस पदार्थ में स्वभाव नहीं वह धर्म नहीं हो सकता—धर्म तो पदार्थ के स्वभाव का नाम है जैसे आत्मा का स्वभाव चैतन्य रूप है । जो दिखता है वह भी धर्म नहीं—धर्म किसी दूसरे को नहीं दिखता । जो धर्म को दिखाने का प्रयत्न करते हैं वह भी धर्म नहीं है । ये बाह्य त्याग करना नहीं पड़ता ये तो भीतर से जब प्रेरणा उठती है तो हो जाता है । कुंदकुंदाचार्य भी वैसे ही घर बार नहीं छोड़ सके पर जब आत्मा से प्रेरणा उठी तो वह अपने आप छूट गया । पांच व्रत पाँच समिति तीन गुप्ति आदि में भी उनकी स्वभावरूप श्रद्धा नहीं थी परंतु करना वही पड़ता था । हम इन सब क्रियाओं के अंदर उस तत्त्व को समझें जिसके बल पर सब परिणमन चल रहा है। 544-खुद की ही ठीक समझ से काम पूरा पड़ेगा—शुद्धता की दृष्टि से एक तोला में एक रत्ती खोटा सोना भी शुद्ध सोना नहीं कहलाता है । इसी प्रकार आत्मा के सहज सिद्ध स्वरूप में रंचमात्र भी विकार की दृष्टि उसमें शुद्धता नहीं ला सकती । जहाँ थोडी-सी भी अशुद्धता शुद्ध मान ली जाय तो फिर शुद्ध वस्तु भी अशुद्ध है । आचार्यों ने सात तत्त्व के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन बताया है—ये सिर्फ समझाने के लिये ही लिखा है । संसारी जीवों के ऊपर उनकी दया उमड़ी इसलिये वह इस तरह समझा गये परंतु समझना तो हमें ही पड़ेगा । उनको असली दृष्टि से समझना हमारा काम है । इन सात तत्त्वों में से उनके भीतरी मर्म को समझकर अपना कल्याण कर लेना चाहिये । आचार्यों ने इसीलिये ये ग्रंथ लिखे हैं । कोई सुनने मात्र से कल्याण नहीं उन्हें जीवन में उतारना होगा। 545-अ उदाहरण में प्रायोगिक जीवन की एक झलक:—अर्हद्दास सेठ था उसकी यह कथा है—एक बार राजा ने अष्टान्हिका व्रत में वनक्रीड़ा के लिये सब नगर निवासियों को आमंत्रित किया परंतु अर्हद्दास सेठ ने कहा—कि महाराज मेरे अष्टान्हिका व्रतों में घर से बाहर जाने का त्याग है । सेठ को घर की इजाजत दी । राजा नगर-निवासियों के साथ वन चल दिये । यहाँ पूरा नगर सूना हो गया—सारे नगरवासी वन चले गये थे और राजा वन-क्रीड़ा में मग्न हो रहे थे—उसी समय मंत्री ने राजा से कहा कि स्वामिन इस समय नगर में कोई नहीं—देखना तो चाहिये कि नगर की क्या हालत है—राजा और मंत्री घोड़े पर बैठकर नगर को चल दिये । सूने नगर में घूमते घामते अर्हद्दास सेठ के महल के पास पहुँचे । उस समय सेठ अरहद्दास सेठानियों से पूछ रहा था कि बताओ तुम्हें सम्यक्त्व किस कारण से हुआ है । सबसे पहिले सेठ को ही सेठानियों ने अनुरोध किया । सेठ ने कथा सुनाई । बड़ी सेठानी ने भी एक कहानी सुनाई, इन दोनों कथाओं में कुछ राजा का भी संबंध था । सबने तो कहा बिल्कुल ठीक है, परंतु छोटी सेठानी ने कहा बिल्कुल झूठ हैं । राजा सुनकर सोचने लगा कि सेठ की सेठानी बिल्कुल सही कह रही है किंतु छोटी सेठानी कह रही है कि यह सब झूठ है । इसी तरह सातों सेठानियों ने अपनी-अपनी कथा सुनाई पर हर सेठानी की कथा सुनकर वह छोटी सेठानी बता देती कि यह सब झूठ है । राजा जो छिपा-छिपा सुन रहा था—उसे बड़ा गुस्सा आया कि ये छोटी सेठानी कितनी दुष्ट है—जो कि सभी सेठानियों की कथाओं को झूठा बता रही है—इसका कल मैं राजसभा में न्याय करूंगा । दूसरे दिन छोटी सेठानी को राजसभा में सादर बुलाया गया । छोटी सेठानी की सात्विक वृत्ति थी सफेद साड़ी पहनकर राजा के सामने पहुँची । राजा ने कहा कि तुमने रात की सेठानियों की सच्ची कथाओं को झूठ क्यों बताया । तब रानी ने कहा कि यह सब कहने सुनने की कथाएं थी इस लिये वह सब झूठ है । (देखिये तो मुझे) इतना कहकर अन्य वस्त्राभूषण का त्यागकर केवल एक सफेद साड़ी ओढे ही वन की ओर चल दी । सेठानी जंगल चली गई और आर्जिका के व्रत लेकर अपना आत्मकल्याण करने लगी । इस प्रकार कहना और उस रूप आचरण करने में बड़ा अंतर है । मुमुक्षु तो परपदार्थ का ज्ञान करके भी उसमें से अपना कल्याण कर लेता है । 545 ब-एकत्व पर पहुंचा देना भूतार्थनय का नयन—भूतार्थनय से एकत्व पर कैसे पहुंचते हैं, एतदर्थ मुमुक्षु को द्रव्य गुण पर्याय का बोध होना चाहिये । सत् को द्रव्य कहते हैं । अखंड सत् की विशेषताओं को गुण कहते हैं, अथवा स्वभाव के भेद करने को भी गुण कहते हैं । उन गुणों के और द्रव्य के परिणमन से द्रव्य की और गुण की जो दशा या हालत बनती है उसे पर्याय कहते हैं । एक समय में गुणों का तो भेद किया जा सकता है किंतु पर्याय के भेद नहीं किये जा सकते हैं । हाँ गुणों के भेदभाव से पर्याय के भी भेद किये जा सकते हैं । पर्याय प्रति समय बदलती रहती है । किसी भी हालत में रहे पर वस्तु रहेगी अवश्य उसका अस्तित्व कभी नहीं मिट सकता है और पर्याय प्रति समय पलटती रहती है । 1 पर्याय कभी भी 2 समय तक नहीं रहती हैं । यदि पर्याय दो समय तक ठहर सके तो फिर 3-4 समय से लेकर अनंतकाल तक भी ठहर सकती है और फिर वह कूटस्थ नित्य हो जायगी । प्रत्येक वस्तु अखंड है, उसका गुण भी अखंड है और पर्याय एक समय तक अखंड है । उस अखंड को समझने के लिये खंड करना पड़ते हैं । यही व्यवहार है । तीर्थ-प्रवृत्ति चलाने को व्यवहार का आश्रय लेना ही पड़ता है । जितने अनंत जीव, अनंत पुद्गल आदि हैं उन सब द्रव्यों का अपना-2 एक-2 ही स्वभाव है । समझने को ही उसमें स्वभावभेद करना पड़ते हैं । व्यवहार का आश्रय करके जब समझते हैं तब नाना परिणमन दिखते हैं । उन परिणमनों में कुछ परिणमन तो ऐसे हैं जिसे विशेष ज्ञानी ही जानते हैं । इस परिणमन का नाम ही पर्याय है । पर्याय निराधार नहीं, किसी द्रव्य के आधार से ही पर्याय होती है । पर्याय विलीन होती है और प्रगट होती है । गुण के आधार से भी पर्याय होती है, वह गुण की पर्याय कहलाती है । गुणों के समुदाय को द्रव्य कहते हैं । अर्थ सबका एक होता है पर्याय जो नाना दिखती है वह सब व्यवहार है । तिर्यग् रूप से और ऊर्ध्व रूप से पर्याय अनंत होती हैं । 546-भूतार्थ पद्धति के लिये आंतरिक व्यायाम—अनंत पर्यायों के आधारभूत गुण पर आयें और पश्चात् उन अनंत गुणों के आधारभूत द्रव्य पर आवें या समझें तो उसे द्रव्य के एकत्व का निश्चय हो जाय । गुण भेद को देखकर उससे दृष्टि हटाकर अभेद रूप द्रव्य पर दृष्टि देने से ही पदार्थ का सच्चा अनुभव होता है । वास्तविक रूप से द्रव्य में कोई भेद नहीं क्षेत्र की अपेक्षा काल की अपेक्षा और भाव की अपेक्षा भी उसमें भी भेद नहीं किये जा सकते क्योंकि वह द्रव्य अखंड है । गुण सत् नहीं है । सत् के अंश है इसी लिये उन्हें सदंश कहते हैं । उन गुणों का अभेद पिंड द्रव्य है । तिर्यग् अंशरूप गुणों की दृष्टि से हटकर द्रव्य पर आना भूतार्थ है । पर्याय से दृष्टि हटाकर गुणों पर आना और गुण भेद से हटकर अभेद द्रव्य पर आने से ही निरपेक्ष वस्तु स्वरूप का निश्चय होता है । यही बात आत्मा पर घटित की जाय तो आत्मस्वरूप का भी दर्शन हो सकता है । पर वस्तुओं में भी यही बात है । जो दूसरे की चर्चा में लगा रहता—दूसरे की चिंता में लगा रहता है उसे अपनी चर्चा नहीं सुहाती किंतु जो यथार्थ दृष्टि से अपने आपको जानने देखने का प्रयत्न करता है—यही द्रव्य दृष्टि कहलाती है । वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान होने पर फिर चाहे वह परवस्तु का चिंतवन करे—चाहे आत्मा का चिंतवन करे उसके सम्यग्दर्शन में कोई अंतर नहीं आता । शुक्लध्यान में सिर्फ आत्मा का ही ध्यान नहीं होता—किसी भी वस्तु का ध्यान रहे पर वह यथार्थ हो तो वह भूतार्थ श्रद्धान है और भूतार्थनय से जाने गये सातों तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है । अभूतार्थ से आत्मा का श्रद्धान भी सम्यग्दर्शन नहीं । कर्म को जानकर भी सम्यग्दृष्टि कर्म परमाणुओं के यथार्थ ज्ञान श्रद्धा के कारण से विचलित नहीं होता । इसी प्रकार भूतार्थ दृष्टि से नौ तत्त्व से किसी भी तत्त्व को जाने तो उसकी वह श्रद्धा सत्यार्थ ही है । 547-अपने में नित्य अंत: प्रकाशमान निज प्रभु—यह 13 वी गाथा समयसार की अधिकार गाथा है और संक्षिप्त पूर्ण समयसार है । यदि उसके मर्म को न समझें तो समझो इसके समझे बिना भैया मानो हमने अपनी आंतरिक जान ही खो दी । उसका मर्म प्रत्येक जिज्ञासु को अवश्य आ जाना चाहिये । परिणमनशीलता के कारण निरंतर परिणम रहे निज में अंत: प्रकाशमान अचल निजप्रभु को जानना चाहिये । यह सर्व अन्य द्रव्यों से विविक्त तथा पर्याय से परे स्वसंवेदन द्वार से सुगम्य है । यह सर्व मर्म जानने के लिये स्व-पर का प्रायोजनिक ज्ञान होना ही चाहिये । पदार्थ कितना? पूरा पदार्थ, पूरा एक, अखंड पर से संबंध रहित अपने आप में पूर्ण स्वतंत्र, आश्रयविहीन एवं स्वाश्रित है । उस एक पदार्थ को समझ जाना, प्रत्येक जिज्ञासु को आवश्यक है । उसके उस मर्म को जाने बिना पदार्थ का ऊपरी ज्ञान सत्य होते हुए भी झूठ है । हमारी सारी साधना उस पर एक तत्त्व की प्राप्ति के लिये ही होना चाहिये । विवेकपूर्वक की हुई साधना ही अंत में सफल होती है । विवेकी की साधना व्यवहार में असफल दिखने पर भी निरंतर सफलता प्राप्त कर रही है । विवेक वही यथार्थ है जिसमें वस्तु के सत्य स्वरूप का ज्ञान हो जावे । बाह्य में शरीराश्रित जितनी भी क्रियायें हैं वे सब अभूतार्थ है । एक निज की दृष्टि के बिना समाधि भी अभूतार्थ है । एक अपना निश्चल ध्रुव स्वभाव ही भूतार्थ है । पदार्थ पूरा कितना? उतना जिसका कि टुकड़ा न हो सके । जो दूसरे से न बने—किसी दूसरे को न बनावे ऐसे सभी द्रव्य एक-2 हैं । किसी भी द्रव्य का टुकड़ा नहीं हो सकता । परमाणु भी कभी छिन्न-भिन्न नहीं हो सकता । इसी लिये पदार्थ को अपनी सत्ता रखने के लिए किसी परपदार्थ के आश्रय की आवश्यकता नहीं, कोई भी एक द्रव्य दूसरे के परिणमन को नहीं करा सकता । न किसी दूसरे से वह स्वयं परिणमता है, यह हमारा शरीर कोई एक पदार्थ नहीं, कई तरह के अनेक परमाणुओं से बना हुआ जड़ पदार्थ है, इसमें जितने प्रकार के जितने परमाणु हैं उसकी उतनी क्रियाएं और उतने ही तरह के परिणमन चलते रहते हैं । तभी शरीर में कई तरह के परिवर्तन हो जाने पर हम और आप आश्चर्य करते हैं कि यह इस तरह कैसे हो गया । प्रत्येक परमाणु प्रति समय अपनी अवस्थाएं बदलता रहता है । इस परिवर्तनशीलता को ही पर्याय कहते हैं । कर्मों को भी देखो यह अनेक वर्गणाओं का पिंड है । यह शरीर भी जीव को नहीं परिणमा सकता है और न कर्म की वर्गणा ही जीव को कुछ परिणमन करा सकती है । जीव का परिणमन जीव से होता है । इसी तरह शरीर का भी । यदि किसी वस्तु को ठोकर मार दी और वह नीचे गिर पड़ी तो लोग समझते हैं कि हमारी ठोकर से वह वस्तु नीचे गिरी, पर वह अपने आधार से ही उस तरह परिणत हुई है । हर द्रव्य का परिणमन अपने आप में होता है । इस तरह आत्मा में भी ऐसी योग्यता है कि वह परिणमता है और उस समय उसे कोई निमित्त का साधन मिल जाता है उसके अनुकूल परिणम जाता है । प्रत्येक वस्तु का परिणमन निश्चित है और सर्वज्ञ भगवान इसे अपने ज्ञान से जानते हैं और इस कारण जानते हैं कि उनका वैसा परिणमन होना है । पर ऐसा नहीं है कि पदार्थ सर्वज्ञ ने जाना इसलिए वैसा परिणम रहा है । पदार्थ तो जिस विधान से परिणत होता है, उस विधान से ही वह परिणत होता है । रूप, रस, गंध का बदलना भाव का परिणमन है । भू का अर्थ होना—होने का नाम भाव है । जीव अपने को करता है, कर्म अपने को करता है, शरीर भी अपने को करता है । प्रत्येक वस्तु का स्वभाव स्वतंत्र और स्वाश्रित है । इसलिए जीव का आश्रय जीव से होता है जीव में जो रागादिक ठहरते हैं वह जीव का कार्य है और जीव का शुद्धोपयोग भी जीव का काम है ये दोनों उंगली भिड़ी और दोनों टेढ़ी हुई इन दोनों की अपने में क्रियायें हुई हैं । अपने ही आश्रय से वे टेढ़ी हुई हैं उनमें टेढ़े होने की शक्ति थी जो निमित्त मिलने पर वे टेढ़ी हो गई । इस ठंड में ऐसी योग्यता नहीं है कि वह टेढ़ा हो सके । 548-कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य को परिणमता नहीं—कर्मों ने जीव को क्रोधी बनाया, ऐसा कभी नहीं हो सकता । जीव अपने में ही विचार करके क्रोध रूप परिणत हो जाता है । जीव ने रागादि किया और कर्मों में ऐसी योग्यता है कि वह ऐसा निमित्त पाकर अपनी कर्मरूप शकल बना लेते हैं । हर वस्तु को उसी दृष्टि से देखना है । एक को देखना निश्चय है । अनेकों देखना व्यवहार है । आत्मा कर्मों से बंधी है यह व्यवहार दृष्टि है यह जीव शरीर से बंधा है—यह भी व्यवहार दृष्टि है । लोग कहने लगते हैं कि कर्मों ने मुझे कैसा नाच नचाया यह सब व्यावहारिक कथन है । जीव ने रागादि किया—जीव ने निर्मलपरिणाम किये यह निश्चय है । निश्चयनय एक सत् को दिखलाता है और जो अशुद्ध पर्याय को बिना दूसरे संबंध की निगाह किये बतावे वह अशुद्ध निश्चयनय है । द्रव्य की शुद्ध पर्याय बताने वाला शुद्धनिश्चयनय है । जिस प्रकार केवल ज्ञान को जीव का निजभाव कहना । अशुद्ध पर्याय के बताने वाला अशुद्ध निश्चयनय है जिस प्रकार मतिज्ञान आदि को आत्मा का कहना और केवल सत को देखे तो वह परम-शुद्ध निश्चयनय है । ये नय सब जानने की वस्तुएं हैं उनको जानकर ही अध्यात्म शास्त्र में प्रवेश हो सकता है । 549-हमारे मुख्य लक्ष्य की शुद्धि—लक्ष्य एक होता है और उसकी पूर्ति में बीच में अनेक उपलक्ष्य चलते रहते हैं । जैसे मकान बनाने वाले का प्रमुख लक्ष्य मकान बनाना है—उसमें आज ईट पत्थर इकट्ठा करना है, आग लकड़ी आदि इकट्ठा करना है—ये बीच में अनेक उपलक्ष्य चलते रहते हैं । लक्ष्य की पूर्ति हो जाने पर ये उपलक्ष्य समाप्त हो जाते हैं । लक्ष्य कभी नहीं बदलना चाहिये—हाँ, उपलक्ष्य बदले जा सकते हैं इसी तरह इस प्राणी का एक लक्ष्य शुद्ध चैतन्य स्वरूप की प्राप्ति है । उसकी प्राप्ति में बीच में कितने साधन जुटाने पड़ते हैं । वह सर्व साधन उपलक्ष्य है और उसे ही व्यवहार कहते हैं । अपना अवलंबन ही मुक्ति करा सकता है और स्थायी सुख दे सकता है । व्रत लिया, मुनि बने—ये सब लक्ष्य नहीं—लक्ष्य तो परम शुद्ध निश्चयनय का विषयभूत चैतन्यस्वरूप की ही प्राप्ति है । ये बीच में उपलक्ष्य तो बन ही जाते हैं । अपनी दृष्टि आने पर संयम को आना पड़ेगा । क्योंकि विषयभोग करते-करते किसी को मुक्ति नहीं मिलती है मुमुक्षु को व्रत, जप, तप, संयम से गुजरना पड़ता है—स्व की दृष्टि आई कि उसे ऐसा बनना पड़ता है । नीचे से दूसरी मंजिल आने के लिये ऊपर आना उसका प्रमुख लक्ष्य है । किंतु ऊपर आने के लिये उसे बीच की सीढ़ियों से गुजरना ही पड़ेगा । पहली सीढ़ी चढ़ने के बाद दूसरी सीढ़ी चढ़ना उसका उपलक्ष्य है किंतु वह उस उपलक्ष्य को ही पकड़कर नहीं बैठ जाता है । क्या कही सोने की सीढ़ी हो तो ऊपर आने वाला उसको ही पकड़कर बैठ जाय तो क्या ऊपर आ सकता है । मुमुक्षु को लक्ष्य से जरा भी नहीं चूकना चाहिये । लक्ष्य एक बार स्थिर हो जाये फिर ये बीच के परिणमन अपने आप चलते रहते हैं । शुभ भाव और अशुभ भाव की अटक उसे उलझा नहीं सकती है । क्योंकि शुभ-अशुभ दोनों ही आस्रव हैं । दोनों ही बंध के कारण है मुक्ति के नहीं । 550-निज पर्याय का आश्रय निज द्रव्य:—जीव का रागादि जीव का आस्रव है—कर्म का नहीं । कर्मों का आना कर्म का आस्रव है वह जीव का नहीं हो सकता । जिसका जो परिणमन है वह उसकी उस द्रव्य के क्षेत्र में ही होता । लोग कहते हैं सूर्य ने संसार को प्रकाशित किया पर सूर्य कितना है? जितने में सूर्य है उतने में उसका प्रकाश है । दिखने वाली प्रत्येक वस्तु में ऐसी योग्यता है कि वे इस तरह के निमित्त पाकर चमकने लगती है । जिसमें जैसी योग्यता होती है—कोई कम कोई अधिक—कोई बहुत अधिक अपने स्वभाव से ही चमकते हैं । किसी भी द्रव्य का स्वभाव उसी द्रव्य में देखना चाहिये, अन्यत्र नहीं । दर्पण में हाथ दिखा तो क्या दर्पण में हाथ चला गया । दर्पण में दर्पण है और हाथ में हाथ है । व्यायाम का मानीटर जैसा प्रदर्शन करता वैसा सभी लड़के करते हैं पर वह सब अपनी-2 क्रिया कर रहे हो । उस लड़के ने सबकी क्रिया नहीं की । वह अपने में इस तरह का परिणमन कर रहा है सब लड़के अपने में अपना परिणमन कर रहे हैं । इस तरह सबसे पहले हमें यह निश्चय होना चाहिए कि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन उसके अपने आप में होता है उससे बाहर कहीं नहीं । 551-सदाभाग सातिशय मिथ्यादृष्टि के करणलब्धि के उत्तम परिणाम:—लोक में निमित्तनैमित्तिक भाव की बात सही है, किंतु परिणमन जिसका होता है । उसका परिणमन उसी में उसी से होता हो । जब वह आत्मा विशुद्ध परिणाम करता है तब कर्मों का बंधापसरण संवर व निर्जरण स्वयं होता है । क्षयोपशमलब्धि विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि पाकर यह जीव जब प्रायोग्यलब्धि करता है तब कर्मों की स्थिति अंतः कोटाकोटिमात्र रहती है तथा बंधापसरण होने लगते हैं जिसमें कुछ और कम स्थिति हो जाती है । दोनों यहाँ तक की बातें तो अभव्य तक के हो जाती है । अब आगे के उत्थान की बात भव्यजीव के ही होगी । प्रायोग्यलब्धि के अनंतर करणलब्धि होती है । यह भव्य आत्मा के ही हो सकती है । इसमें सातिशय विशुद्ध परिणाम होते हैं । ये परिणाम तीन प्रकार के हैं—अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण। अधःकरण परिणाम में उत्तरोत्तर विशुद्धि बढ़ती है । पश्चात् अपूर्व करण परिणाम होते हैं । इस अपूर्वकरण परिणाम में प्रतिसमय अनंतगुणी विशुद्धि होती है और इस विशुद्धि को निमित्तमात्र पाकर कर्म में स्वयं 5 प्रकार की ये विशेषतायें हो जाती है— (1) पूर्वबद्ध कर्मों की असंख्यातगुणी स्थिति का घात (2) असंख्यातगुणी हीन स्थिति के नवीन कर्म बंधना (3) पूर्वबद्ध कर्मों का असंख्यातगुणा अनुभाग का घात, (4) असंख्यात असंख्यातगुणी कर्मवर्गणाओं की निर्जरा (5) पाप-प्रकृतियों का पुण्य-प्रकृति के रूप में बदलना । इसके पश्चात् इस सातिशय मिथ्यादृष्टि महाभाग के अनिवृत्तिकरण होता है । इसमें संतान समयवर्ती अनिवृत्तिकरण वालों के परिणाम बिल्कुल समान होते उनके हीनाधिक विशुद्धि नहीं होती । अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग बीतने तक अपूर्वकरण को भांति छहों प्रगतियां होती रहती है । पश्चात् दर्शनमोह का अंतरकरण करके, अनंतानुबंधी की विसंयोजना करके अनिवृत्तिकरण का काल समाप्त होते ही यह भव्यात्मा उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है । पश्चात् क्षयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है पश्चात् क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है । सम्यक्त्व आत्मानुभव पूर्वक ही होता है । 552-खुद के उपयोग में खुद की ख्याति रूप आत्मानुभव—आत्मा की अनुभूति कहो या ख्याति कहो । दोनों का एक ही अर्थ है । आत्मा का जैसा स्वभाव है—सबसे अलग अपने आपमें स्वतंत्र चैतन्यमात्र उसकी वैसी अनुभूति होना स्वानुभूति है । अनुभूति में लक्ष्य की विशेषता है लक्ष्य तक पहुंचने में हमें अपना स्वयं का आश्रय लेना पड़ता है । भूतार्थनय से जाने गये नौ तत्त्व सम्यग्दर्शन के कारण हैं । जिन पर्यायों से गुजरकर मर्म देखना है वे पर्याय सात तरह की हैं—उनमें जीव, अजीव मूल भूतपदार्थ हैं । इनकी अवस्थायें पर्याय है । अब इन सात तत्त्वों का पर्याय से विश्लेषण करते हैं । सात तत्त्व व पुण्य और पाप ये 9 तत्त्व या 9 पदार्थ कहलाते हैं । 553-पुण्य व पाप तत्त्व—शुभ भाव पुण्य है, अशुभ भाव पाप । कर्म भी पुण्य और पाप रूप होता है और आत्मा भी पुण्य पाप रूप होती है । पुण्य के उदय में जो परिणाम होता है वह पुण्यभाव या शुभभाव है । इस तरह पाप में भी । आत्मा के पुण्य पाप आत्मा के ही है कर्म के नहीं । इसी प्रकार कर्म के पुण्य पाप भी आत्मा के नहीं हो सकते । आत्मा में पुण्य और पाप के परिणामों का नियमित संबंध नहीं है । पुण्य के उदय होने पर भी पापरूप भाव हो सकते हैं और पाप के उदय में पुण्यरूप भाव हो सकते हैं । देखो सात वेदनीय का उदय भी चलता रहता है और भाव पाप के भी चल सकते हैं । कर्म में शुभ पुण्य कहलाता है और अशुभ पाप । शुभभाव चलता है उस समय पुण्यभाव समझना चाहिए और विकल्प अशुभ भाव है । पुण्य दो तरह के होते हैं—जीव का पुण्य और कम का पुण्य । बंधक है इसी तरह पाप भी । यह व्यवस्था अनादिकाल से चल रही है । वह निमित्त और नैमित्तिक व्यवस्था के बिना नहीं आई है । ऐसा नियम है कि जीव में जब पुण्य भाव बनता है तभी कर्म भी पुण्य प्रकृति बांधता है । जब जीव का पापभाव होता है तब कर्म की पाप प्रकृति बंधती है । इन दोनों में ऐसा ही निमित्त और नैमित्ति का संबंध है । तत्त्वत जीव में शुद्धभाव आकर भी कर्म का पुण्यभाव नहीं हो सकता—ऐसा भी संभव है । पाप की तो चर्चा ही वहाँ न करो । कर्म यहाँ आकर भी अपने घुटने टेक देता । कर्म का जीव का ऐसा निमित्तपना प्रबंध है । जीव का जब विकारी भाव होगा उसी प्रकार निमित्त को पाकर होगा । तथा कर्म बंधेंगे तो जीव के उस जाति के विकार भावों को निमित्त पाकर बंधेंगे, किंतु कभी जीव के लिये यह नियम नहीं । कर्म उदय में रहें और जीव उस रूप उपयोग का परिणमन न करे जैसे उच्च गुणस्थानों में होता है । कर्म तो जड़ है और जीव चेतन है । जीव सावधान होकर अपने शुद्धोपयोग में स्थिर हो जाये तो कर्म उदय में आकर भी जीव का कुछ नहीं बिगाड़ सकते किंतु साथ ही ऐसा निमित्त नैमित्तिक संबंध प्राकृतिक है कि जीव के उस विशुद्ध परिणामों का निमित्त पाकर व आत्मा के उपयोग की स्थिति पाकर स्तिबुक संक्रमण हो जाता है जो कि उदय के एक समय पहिले हो लेता है । इसे उदय कहो, उदयक्षय कहो या स्तिबुक संक्रमण कहो कुछ-कुछ अंतर के साथ प्राय: एकसी बात है । देखो, चेतन चेत सकता है यह स्थिति अत्युच्च साधु के होती । जो निमित्त हो वह विकारक कहलाता है और नैमित्तिक को विकार्य कहते हैं । जीव विकारी हुआ वह विकार्य है और कर्म उसमें निमित्त है उसे विकारक कहते हैं इसी तरह जब कर्म विकार्य देखा जाय तब जीवभाव विकारक है । तथा इन पुण्य पाप में दो-दो तरह के भेद हैं । एक जीव पुण्य विकार्य और दूसरा जीव पुण्य विकारक । आत्मा के पुण्य रूप भाव होना जीव पुण्य विकार्य है और उस पुण्यभाव के बढ़ने में जो निमित्त बना वह जीवभाव पुण्य विकारक है । इसी तरह पाप भी दो तरह का होता है । अजीव पुण्य-कर्म बनता है तब वह कम पुण्य विकार्य है और जिस निमित्त या स्थिति से वे कर्म परमाणु पुण्य रूप हुए वे कर्म पुण्य विकारक है । इसी तरह जीव व कर्म पाप भी है । इस तरह विकार्य विकारक भाव सजातीय परिणामों में अथवा विजातीय-विजातीय पदार्थों में लगाना । कर्म से पुण्य कर्म परमाणु बनते हैं और जीव से पुण्यभाव परिणाम बनते हैं । ऐसी दृष्टि भूतार्थ की पद्धति है। 554-आस्राव्य व आस्रावक भाव—आने को आस्रव कहते हैं । कर्मों का आना कर्मों का आस्रव है और जीव में रागादिक भावों का आना जीव का आस्रव है । जो कर्म परमाणु आये वे पौद्गलिक कर्म आश्राव्य है और जिस निमित्त से कर्म आये उसे जीव आश्रावक कहते हैं । इसी तरह जीव में विकार का आना जीव आश्राव्य है । जिस निमित्त से विकार आया वह अजीव आश्रावक है । उस तरह आस्रव के चार भेद हो गये । एक जीव आश्राव्य, दूसरा जीव आश्रावक तीसरा कर्म आश्राव्य और चौथा कर्मआश्रावक । जब जीव भाव आश्राव्य है तब पूर्व जीवभाव आश्रावक है अथवा उदित पौद्गलिक आश्रावक हैं । जब पौद्गलिक कर्म आश्रानय देखते हैं तब स्थित पौद्गलिक कर्म आश्रावक अथवा जीव विभाग आश्रावक है । आश्राव्य व आश्रावक भाव पर्याय है । पर्याय को उपादानभूत द्रव्य से प्रकट होना देखना व भेददृष्टि गौण करके मूलद्रव्य के एकत्व को ही ग्रहण करना सो भूतार्थनय का आस्रव तत्त्व का देखना है । 555-बंध्य बंधक भाव—बंध के भी चार भेद हैं । बंध जाना सो बंध है । एक समय से अधिक ठहरने वाले कर्म की स्थिति को बंध कहते हैं । एक समय का आस्रव होता है । आया, ठहरा, चला गया । इस तरह आस्रव से बंध होता है पर आस्रव हो और बंध भी हो ऐसा कोई नियम नहीं । जब बंध होगा तब आस्रवपूर्वक ही होगा यह तो नियम हैं, पर आस्रव हो और बंध अवश्य हो ऐसा नियम नहीं । कर्मों का बंध जाना, कर्म बंध्य है, जिस जीव परिणाम के निमित्त से कर्म बंधा वह जीवभाव बंधक है । इसी तरह जीव के बंधरूप परिणाम होना जीव बंध्य और जिस निमित्त से वह परिणाम हुए वह अजीव यहाँ पर भी यह जानना कि जब जीवभाव बंध्य है तब पूर्ण जीवभाव बंधक है अथवा उदित विशिष्ट अजीव कर्म बंधक है । जब पौद्गलिक कर्म बंध्य देखना है तब स्थित विशिष्ट कर्म बंधक है अथवा जीव-विभाव बंधक है, । पर्याय के मूल को मुख्यतया ग्रहण करके उसके एकत्व को प्राप्त किया तो वह भूतार्थनय से बंध्य का अवबोध सही हुआ मानना । इसी तरह संवर और निर्जरा के चार-चार भेद समझ लेना चाहिए । 556-सवार्य संवारक भाव—आने योग्य कर्मों का रुक जाना संवर है । कर्म रुक गये यह कर्म सवार्य है और जिस भाव से कर्म रुके वह भाव जीव संवारक है । कर्म आ रहे हो और उन्हें कोई रोक सके ऐसा कभी नहीं हो सकता आने वाले कर्मों को रोकने की शक्ति किसी में नहीं है । जहाँ कहीं कर्म आ सकते और वे यहाँ नहीं आये—यह संवर है । संवर सिद्धों में भी होता है, क्योंकि वहाँ पर आस्रव नहीं । सिद्धों में आस्रव बंध और मोक्ष की कल्पना नहीं उठ सकती । शंका—सिद्धों में जब कर्मों का आस्रव नहीं होता तब वहाँ संवर की कल्पना क्यों की जाती है? समाधान—कर्मों को नहीं आने देने में कारण उनका शुद्धोपयोग निरंतर चल रहा है इसलिए कभी कर्म नहीं आ सकते अत: उनमें संवर की कल्पना ठीक की जाती है । यहाँ पर भी चार भेद जानना (1) जीवभाव संवार्य, (2) जीवभाव संवारक (3) अजीव संवार्य, (4) अजीव संवारक । जीव विभाव रुका वह जीव संवार्य है, उस स्थिति के पूर्व क्षण की शुद्धता जीव संवारक है अथवा उस प्रकार के कर्मादिक के अभावादिरूप स्थिति अजीव संवारक है । पौद्गलिक कर्म न आ सकें वह अजीव संवार्य है और उस प्रकार के कर्मादिक के अभावादि रूप स्थिति अजीव संवार्य है अथवा जीव का शुद्ध उपयोग जीव संवारक है । यहाँ भी भूतार्थ विधि से द्रव्य के एकत्व में पहुँचना चाहिए । 557-निर्जर्य निर्जरक भाव—निर्जरा भी चार तरह की है । झरने की निर्जरा कहते हैं । कर्मों का झरना कर्मनिर्जरा है और जिस जीवभाव के निमित्त से कर्म झरे वह जीव निर्जर है । आत्मा के वे भाव विकार झरने रूप होते हैं जीव निर्जर्य है और कर्मों की वह परिस्थिति जिससे वे भाव होते हैं वह अजीव निर्जरक है । यहाँ भी चारों प्रकार और उनका परस्पर निमित्त नैमित्तिक संबंध जानना चाहिए । पश्चात् उनका स्वतंत्र अस्तित्व देखकर मूलपदार्थ के एकत्व पर पहुँचना चाहिए । 558-मोच्य मोचक भाव—आत्मा से कर्मों का छूट जाना ही मोक्ष है । कर्मों का छूटना कर्म मोच्य और जिस जीवभाव के निमित्त से कर्म छूटे वह जीव मोचक है । उसी तरह आत्मा से विकारों का छूटना जीव मोच्य, और जिन कर्मों के क्षय के निमित्त से जीव विकारों से छूटा वह कर्म मोचक है । मोक्ष एक समय का होता है—उसके बाद मोक्ष नहीं कहलाता । जैसे किसी मनुष्य को जेल से छूटने पर उसे बंधन मुक्त कहते हैं पर उसे तो जीवन भर यह नहीं कहा जाता कि तुम जेल से छूटे । कहे तो भूतनैगम की अपेक्षा है। इस तरह इन नौ तत्त्वों का भूतार्थनय से जानना सम्यग्दर्शन का कारण हैं । 559-भूतार्थ के आश्रयी सम्यग्दृष्टि—अथवा आस्रव तो आश्राव्य आश्रावक का उभय है वह द्विनिष्ठ है परंतु जहाँ असंबद्ध एक अस्तित्व पर दृष्टि हो वहाँ आस्रव तत्त्व न ठहरकर उपयोग में द्रव्य का शुद्ध एकत्व रहता है । यह एकत्वोपयोग सम्यक्त्व का अमोध कारण है । इसी पद्धति से विचारो तो संवर, बंध, निर्जरा, मोक्ष भी द्विनिष्ठ है सो शुद्ध पदार्थ के उपयोगी के उपयोग में यह सब भी न ठहरकर शुद्ध एकत्व ठहरता है । इस भूतार्थ का आश्रय करने वाले जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं । ये सप्तों प्रकार के पर्यायात्मक तत्त्व दो-दो प्रकार के होते हैं जीव के और कर्म के । क्या आवश्यकता थी कि जीव में भी सात तत्त्व माने । किसी एक में मानते, परंतु भाई ! प्रत्येक द्रव्य की पर्याय उसी द्रव्य में से प्रकट होती है । जीव में नहीं होती । कर्म में आस्रव बंध होने पर जीव में भी आस्रव बंध होता है । इस प्रकार इन दोनों में निमित्त नैमित्तिक संबंध है । स्याद्वाद, उसका भली भांति निपटारा कर देता है । ये तत्त्व एक में नहीं होते दोनों में ही होते हैं । दो के ही मेल से वे सात तत्त्व बने हैं फिर भी सातों जीव में जीव के हैं, अजीव में अजीव के हैं । जीव और अजीव उनमें ये दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं बाकी ये सब उनकी ये पर्यायें है । यहाँ वस्तुत: तो दो ये भी पर्यायमुखेन हैं, इस प्रकार सात पर्यायें और दो द्रव्य हुए अथवा 7 विशेष, दो आधार हुए । इनको पर्याय की दृष्टि से न देखना, नहीं तो भूतार्थ न जान सकोगे, यही जिनको भूतार्थ है वह आगे क्या बढ़े, इन नौ को पर्याय समझना हर पदार्थ को समझने की दो प्रकार की दृष्टि होती है। एक बाह्य और एक अंतर । ऊपरी हालत समझना—बाह्य दृष्टि है और आंतरिक (भीतरी) परिणमन को समझना आंतरिक दृष्टि है । 560-बाह्य दृष्टि से नौ तत्त्व—पर्याय दृष्टि से जीव और पुद्गल के अनादि संबंध से यह आस्रव आदि पर्यायें बनती हैं। इन नौ तत्त्वों के विषय में सही दृष्टि आने पर ही वस्तु तत्त्व का यथार्थ निर्णय होता है। यथार्थ निर्णय न हो तो बताओ ये प्राण जीव के हैं या शरीर के? यदि जीव के मानो तो जीव तो अविनाशी है फिर प्राण के घात करने पर भी न तो कुछ आपका बिगड़ा और न जीव का बिगड़ा। क्योंकि जीव व प्राण अभिन्न हैं, एक हैं सो प्राण घात करना लोग कहते हैं, वास्तव में तो नहीं हुआ। दूसरी बात यह है कि यदि प्राण जीव से अभिन्न माने जावें तो प्राण का घात ही क्या? जीव तो अविनाशी है, प्राण भी जीव से अभिन्न होने के हेतु अविनाशी हो गया । देख लो, महा उपद्रव । इसका समाधान क्या है ? देखो, व्यवहारनय से तो जीव और प्राण अभिन्न हैं क्योंकि उस काल में जीव से पृथक् कहीं अन्यत्र प्राण नहीं है और निश्चयनय से जीव और प्राण भिन्न-भिन्न हैं । यदि व्यवहारनय का लोप करो तो वृत्ति दूषित हो जायगी और निश्चयनय का लोप करो तो ये प्राण आत्मा का स्वभाव कहलाने लगेंगे । तो वह सिद्ध भगवान में भी पाये जाना चाहिये । किंतु मुक्त जीव में तो प्राण नहीं होते इसलिये पता चलता है कि ये जीव के नहीं है और यदि अजीव के कह दिये जायें तो प्राणों के घात कर देने पर हिंसा नहीं लगनी चाहिये क्योंकि प्राण जीव से न्यारे हैं । परंतु प्राणों का घात करने पर हिंसा बताई है । यहाँ पर अनेकांत निर्णय देता है कि पर्याय की अपेक्षा प्राण जीव से अभिन्न हैं और स्वभाव दृष्टि की अपेक्षा आत्मा के नहीं । जब व्यवहार से आत्मा के हैं तो प्राणों के घात कर देने पर व्यवहार से हिंसा हुई और उस हिंसा का फल भी व्यवहार से नरक और निगोद भोगना पड़ता है । बनाना मिटाना यह काम व्यवहार का ही है । निश्चय दृष्टि से कोई वस्तु बनती मिटती नहीं है । निश्चय से वस्तु के स्वभाव को धर्म कहते हैं । जिस प्रकार जीव का स्वभाव चैतन्य हैं। स्वभाव निगोदों में भी पाया जाता है और सिद्ध जीवों में भी। स्वभाव वह कहलाता है जो कभी द्रव्य से दूर न हो सके। लक्ष्य निर्धारित करना और उसमें द्रव्य पर दृष्टि रखना निश्चय है और उस लक्ष्य की पूर्ति में जितने बीच के साधन हैं वे सब व्यवहारधर्म हैं। भक्ति, दान, जप, तप आदि करना शुभ परिणाम हैं और ये उपचार धर्म हैं इनके करते हुये भी जितने अच्छे परिणाम होते हैं जो लक्ष्य तक ले जाने में पूरक होते हैं वह व्यवहार धर्म है। इस पूजन भक्ति वगैरह में हाथ पैर चलाना उपचरितोपचरित धर्म कहलाता है। 561-जीव और पुद्गल का अनादि संबंध—आज तक हमने जीव का परिचय इसी रूप में किया गया है इस विकारी आत्मा को ही अपना रूप समझा है । इन संबंधों को अपना समझा है। आज तक उसमें स्वरूप का निर्णय नहीं किया है । इस जीव को जीव कहना भी व्यवहार हैं । संसारी कहना भी व्यवहार है। शब्द कभी व्यवहार चैतन्य में जीव नाम नहीं खुदा है । ये तो व्यवहार चलाने के लिये हमने नाम रख लिये हैं। किसी द्रव्य में कोई नाम खुदा नहीं है । व्यवहार, व्यवहार में भी बड़ा अंतर है। असली वस्तु में कुछ जोड़ना या तोड़ना व्यवहार है । एक वस्तु का अनुभव निश्चय है । रागादिक की व्यवस्था बिना संबंध के नहीं बन सकती है इसलिये जहाँ रागादिक का कथन आता है वह सब व्यवहार कथन ही है। यह तो स्थूल बात है अनेक गुणों को बताना यह भी व्यवहार है। जिन अरहंत भगवान ने हमें धर्म का अमृत रस पिलाया उन्हीं की चर्चा करना व्यवहार है। ये जैन शासन भी ऐसी मधुर मिश्री है कि जिस तरफ से खाओ मीठी ही लगती है। भगवान ने अपने लिये भी यह पक्षपात नहीं रखा कि हमारी चर्चा तो निश्चय बताओ। उन्होंने कहा जब तक तुम हमारी चर्चा करते रहोगे तुम मुक्त नहीं हो सकते। हमारी चर्चा भी छोड़कर जिस दिन अपने आपमें ही मग्न हो जाओगे तभी वह अखंड आनंद मिलेगा जो कभी नहीं छूट सकता। जो स्वच्छंदता को निश्चय समझते हैं—वह तो अपनी हानि ही करते हैं पर जो यथार्थ दृष्टि से निश्चय को समझ लेते हैं उनका यह सब व्यवहार भी होता रहता है। वे सब कुछ करते हुये भी कुछ नहीं करते। वे चलते हुए भी नहीं चलते—देखते हुये भी नहीं देखते। क्योंकि उनकी दृष्टि एक निश्चय पर लगी रहती है। और जिनकी दृष्टि संयोग पर रहती है उन्हें कभी शुद्धता प्राप्त नहीं हो सकती। जो खोटे सोने को शुद्ध सोना समझते रहे वे शुद्ध अशुद्ध की परख कैसे कर सकते हैं। अशुद्ध सोने को वे शुद्ध भी नहीं कर सकेंगे। 562-पर्याय में आत्मद्रव्य की बुदि्ध की अज्ञानरूपता—पर्याय में द्रव्य बुद्धि होने से कोल्हू में पिरने वाला मुनि जो तेरह प्रकार के चारित्र को यथाविधि पालन करता है इन सब परिग्रह एवं उपसर्गों को शांतिपूर्वक सहन करता है फिर भी मिथ्या दृष्टि रखता है। क्योंकि वह सोचता है मैं मुनि हूँ मुझे कषाय नहीं करना चाहिये। यह सब दु:ख शांतिपूर्वक सहन कर लेना चाहिये, इस प्रकार पर्याय को आत्मस्वरूप समझता है। परिणमन को आत्मस्वरूप मानता है। मिथ्यात्व की दृष्टि से एक घोर हिंसा करने वाले कसाई के और उस मुनि के परिणामों में बिल्कुल साम्य है कोई अंतर नहीं। हाँ तीव्र मंद विषय का अंतर भले ही कह लो। स्वरूप से तो मिथ्यात्व उभयत्र है। पर्याय पर दृष्टि पर्याय के लिये रहना मिथ्यात्व है। ज्ञानी सोचता है ‘‘मैं मुनि नहीं— मैं व्रत संयम नहीं—ज्ञान ध्यान भी मैं नहीं—मैं तो स्थिर एक चैतन्य तत्त्व हूँ’’। जिसके ये कुछ भी नाम नहीं है उसकी दृष्टि अपने में जाकर टिकती है वह ज्ञानी पर्याय को पर्यायरूप से जानता है और द्रव्य को द्रव्यरूप से समझता है। पुण्य पाप ये सब आस्रव है, मैं कर रहा हूँ यह सब पर्याय दृष्टि है। क्योंकि आत्मा अपने को ही कर सकता है बाह्य कार्य करना आत्मा के वश का कार्य नहीं। जहाँ स्व में टुकड़े किये जाते है—मैं ज्ञान दर्शनमय हूँ आनंद और शक्तिरूप हूँ। यह दृष्टि भी अभूतार्थ है। इस अभूतार्थ में हमें भूतार्थ को देखना है। इन नौ तत्त्वों में जीव के आठ तत्त्व होते हैं। दोनों को अलग-अलग रखो। जीव के आस्रव को जीव की दृष्टि से देखो—अजीव के आस्रव को अजीव की दृष्टि से देखो। यही भूतार्थ दृष्टि है। भूतार्थ से अपने जीव की खबर लो—अजीव की वहाँ खबर नहीं—ये जीव द्रव्य अनंत शक्ति, गुण वीर्य का धारी है। जीव के आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप जीव से प्रकट हुए हैं। इससे दो द्रव्य के भिन्न-भिन्न परिणमन नजर में आये—द्रव्य और पर्याय का ज्ञान हुआ। निमित्त को भूल गये इसलिये आस्रव बंध कम हुआ। पर्याय द्रव्य से ही प्रकट हुई है इस प्रकार जानने में यहाँ द्रव्य की मुख्यता हो जाती है। पत्ता वृक्ष से गिरा इसमें वृक्ष की मुख्यता आती है। जहाँ से गिरा वह ध्रुव है—पत्ता अध्रुव है। एक द्रव्य है, दूसरा पर्याय है। इस प्रकार द्रव्य को मुख्य करके स्वभाव का अवलंबन होने से ही सम्यग्दर्शन होता है। अशुभ उपयोग और शुभोपयोग से भी हटकर जहाँ स्व में दृष्टि आती है—वही स्व का अवलंबन है। 563-भूतार्थ नय से ही जीवन में स्थिर लक्ष्य का निर्धारण—शांति पाने का भी यही उपाय है भूतार्थ नय से देखना। हमें जो कुछ दिखता है उसे कोई कहता है कि यह सब ईश्वर की महिमा है, कोई कहता है ये कुछ नहीं, माया है आदि मनुष्य जितना सोच सकता था वह उसने बता दिया । जैन शासन कहता है कि यह सब पुद्गल की पर्यायें हैं। जो निरंतर नाशशील है, इसे समझने का प्रयत्न करना चाहिए। यह मकान सोना चाँदी आदि दिखता है वह सब पुद्गल की पर्याय है और नाश हो जाने वाली है। मैं हूँ और हमेशा रहूंगा। ये विचार, ये भावनाएं, ये क्रोध और रागादिक सब नाश हो जाना है। ये पर्यायें आई और उनके प्रभाव में अपने को सँभाला नहीं और उनके प्रभाव में बह गये तो, आत्मा का पतन निश्चित है। जो सदा रहेगा उसका अनुसरण करो। जो रहता नहीं है उसका क्या अनुसरण करते हो। संसार के ये पदार्थ आते जाते रहेंगे और सदैव रहेंगे और बदलते रहेंगे। इनमें से अपने को पहिचानकर अनुभव करे तो शांति और आनंद का भागी बन जाय। पर पदार्थों में अपने को मानना और पर्याय में भी अहंबुद्धि करना दु:ख का कारण है। आत्महित तो यथार्थ ज्ञान में है। अंतरदृष्टि से देखो तो पता चलता है कि मैं ज्ञायक भाव हूँ मैं ही ज्ञाता हूँ और मैं ही ज्ञेय हूँ। इन निरंतर पर्यायों में चलने वाला भी मैं ही हूँ। विकार और विकार के कारण मैं नहीं हूँ। कर्म के आश्रय भी मेरे नहीं। इन द्रव्यों की पर्यायों को अगल-बगल और ऊपर देखकर उन्हें यथार्थ जान लिया जाय तो वह भी भूतार्थ है। अगल-बगल याने निमित्त, और ऊपर याने पर्याय। पर इन पर्यायों को ही कोई देखता रहे तो कभी पवित्रता नहीं आ सकती। जब अपनी आत्मा पर दृष्टि जायगी तो उस समय जो स्वानुभव होता है उसके उस समय आत्मा में शुद्धता आती है। यह माता पिता, स्त्री पुरुष, कुटुंब परिवार का रिश्ता, संपत्ति, आदिकादिक का संयोग सब अभूतार्थ हैं। एक दिन यह छूटने को है। इन सबको देखकर किस दिन सबमें समता भाव जागृत होगा, द्रव्यों की स्वतंत्रता का अनुभव होगा और विशेषता को छोड़कर सबमें सामान्य दृष्टि आवेगी। 564-सामान्यदृष्टि की महती कृपा—ये जीवमात्र सब एक जाति के हैं अलग-अलग स्वतंत्र सत् हैं—यह दृष्टि ही शक्ति विकास का कारण है। ये मेरा भाई है, पुत्र है, मित्र है, इन विशेष दृष्टियों को छोड़ो ये दु:ख और पतन के कारण हैं। देखो ना ! जहाँ ये भाव उठा मैं मनुष्य हूँ, पंडित हूँ, त्यागी व्रती हूँ, धनवान हूँ, गरीब हूँ, पुरुष हूँ, स्त्री हूं—ये विकल्प ही इस जीव को दु:ख के सागर में डुबो देते हैं। तो ज्ञानी होने पर जब यह अनुभव करने लगता हैं—मैं चैतन्यमात्र जीव हूं—अंतर से शरीर का ममत्व भी छोड़कर कर्म और कर्म से भी हटकर चैतन्यमात्र आत्मा को देखने लगता है तब उस आत्मा को जिसका कोई काम नहीं, मेरा अन्य स्थान नहीं, जिसमें कोई भेदभाव नहीं, एक निर्नाम, अखंड, अविनाशी, चैतन्यमात्र है, उसके अनुभव आने पर सामान्य बुद्धि जागृत होती है और विशेष सामान्य ही में विलीन हो जाता है। फिर यह मेरा लड़का और पराया लड़का—सारा अपमान और क्लेश दूर होकर आनंद के सागर में डुबकी लेने लगता है । जिसे देखकर आपने समझा है सो वह मैं नहीं, आप वह हैं जिसे देखकर समझा नहीं—आप अमुक लाल या अमुक चंद नहीं । 565-आत्मा की ही क्या सभी पदार्थ की वस्तुत: निर्नामता—यदि उस आत्मा का नाम होता तो कहीं भी जाकर उस नाम से उसका पता चलना चाहिये था, पर दूसरे शहर में जाकर पूछो तो वहाँ आपको कौन जानता है । पर आप निर्नाम चैतन्य हैं इसे कहीं भी जाकर पूछा जाय तो हर ज्ञानी व्यक्ति बता देगा कि आप निर्नाम चैतन्य हैं । ये जो कुछ दिख रहा है वह तो एक खेल है मिटता बनता रहता है । वस्तु के भेद कर के व्यवहार कर रहे हैं । यह सब माया है स्वप्न है इनमें सार कुछ नहीं । भूतार्थ दृष्टि से अपने को समझा जाय तो इस आत्मा का महोपकार हो । वे कारण जिनसे अंतर्दृष्टि हो वे सब अपने गुरु हैं । जिनके निमित्त से आत्मा का भान हो वे सब गुरु समझना चाहिए । निर्नाम चैतन्य भूतार्थ दृष्टि से मिलता है । निर्नाम चैतन्य को मोक्ष की भी चर्चा स्वरूप का अपवाद है । उसे संयोग और संयोग पूर्वक वियोग जो सहन नहीं । इससे मोक्ष को भी ज्ञानी सापेक्ष दृष्टि से देखता है । उसे 9 तत्त्व दिखते हैं किंतु उनमें उसकी भूतार्थ दृष्टि होने से वह अपना काम निकालता है । जहाँ एकबार वह चैतन्य रूप स्वभाव प्रगट हो वहाँ उसे फिर यह ज्ञान हो जाता है कि मेरा पर से कोई संबंध नहीं है । वह फिर सिद्ध की जाति का अनुभव में बन गया । वह मोही की जाति से हट जाता है । मोक्षमार्गी बनकर रागादि से हटते जायें और अपनी ओर बढ़ते जायें तो आत्मा का महान उपकार हो । 9 तत्त्वों में से अपने एक जीव द्रव्य को पहिचानना यही भूतार्थ दृष्टि का फल है । द्रोणाचार्य ने कौरव और पांडव की परीक्षा लेते समय कहा कि तुम्हें उस मिट्टी की चिड़िया की आंख में निशाना मारना है जो उस पेड़ पर रखी है । कौरवों से पूछा—बोलो तुम्हें क्या दीख रही है । तब कौरवों ने बताया कि उस पेड़ पर जो बड़ी डाली है उसमें उस पत्ते के बगल में चिड़िया है उसकी आंख में निशाना मारना है इस प्रकार अन्य सभी कौरव और पांडव शिक्षार्थियों ने उत्तर दिये किंतु अंत में अर्जुन से पूछा गया तो वह कहने लगा कि गुरुजी मुझे तो आंख ही आंख दिख रही है और कुछ नहीं, तब द्रोणाचार्य ने अर्जुन को पास करके बाकी सबको अनुत्तीर्ण कर दिया । क्योंकि अर्जुन अपने लक्ष्य पर एकाग्रता से स्थिर था । जो एकाग्र होकर स्थिर होता है वह एक दिन पर्याय में भी पूर्ण शुद्धता प्राप्त कर लेगा । जिस प्रकार सिंह अपने ऊपर गट्ठा लादकर अपने को गधा की जाति का समझने लगता है, उसी प्रकार आज हम भी अपने चैतन्य की दृष्टि बिना गधे की तरह कर्मों का और संसार का बोझा लादकर दुखी होते रहते हैं । 566-जो जाना जाता उसकी खबर करो—गुण और पर्याय जानने में नहीं आता क्योंकि वे सत् नहीं है । सब लोग गुण की दृष्टि से द्रव्य को ही पर्याय की दृष्टि से द्रव्य को ही देखते हैं क्योंकि गुण, पर्याय जाने नहीं जा सकते हैं । और जो जाने नहीं जा सकते उनका उपयोग करना यही अभूतार्थ दृष्टि है । यह जीव एकत्व से सदा प्रकाशमान है इस प्रकार गुण और पर्याय प्रकाशमान नहीं है । जानने में अर्थ आता है । कहा भी है अर्थस्य तत्त्व 4 प्रकार से जाने जाते हैं, 1 अर्थ 2 द्रव्य 3 गुण 4 पर्याय । पर्याय की दृष्टि से अर्थ जाना जावे तो अभूतार्थ, गुण की दृष्टि से भी अभूतार्थ । द्रव्य की दृष्टि से अर्थ जाना जा सकता है । पर्याय आदि की नीचे की दृष्टि से छूटकर जब अनुभव में आवे तब भूतार्थ कहा जाता है । यही अर्थ का अनुभव कहलाता है । गुणों से भी जाने तो अभूतार्थ और द्रव्य से जाने तो भूतार्थ है । इन द्रव्य गुणपर्याय की दृष्टि छोड़कर जिस वस्तु का अनुभव होता है वही अर्थ है जो द्रव्य गुण पर्याय में भी व्यवस्थित है वह अर्थ है । सबसे पहिले गुण पर्याय को भूतार्थ से समझकर निश्चित किया जाय । जैसे आत्मा की मनुष्य या देव पर्याय है और दर्शन अथवा ज्ञान आदि गुण कहलाते हैं उनकी नाना अपेक्षावों से जाने । जिस समय स्वानुभव होता है उस समय द्रव्य दृष्टि, पर्याय दृष्टि, और गुण दृष्टि इनका—किन्हीं का उपयोग नहीं रहता । कोई पदार्थ ध्रुव नहीं, अध्रुव नहीं और ध्रुवाध्रुव भी नहीं । अर्थ तो केवल न द्रव्यरूप है न गुणरूप और न पर्याय रूप । एकत्वरूप से अभेद आत्मा का अनुभव ही स्वानुभव का कारण है । यह कारण स्वयं सम्यग्दर्शन नहीं है । द्रव्य, गुण, पर्याय इन तीनों से अलग प्रतिभासमात्र हो, वहाँ सम्यग्दर्शन का अनुभव है । प्रतिभास कहो, आत्मा की प्रसिद्धि, ख्याति, अनुभव अनुभूति ये सब उसी के नामांतर है । शुद्धनय से अनुभव हुआ, पर जो अनुभव है वह शुद्धनय नहीं । शक्ति, ज्ञान दर्शन आदि भेदरूप से भी सामान्य अनुभव नहीं हो सकता क्योंकि वहाँ गुणभेद हुआ । पर्याय को देखने से भी अभेद नहीं बन सकता । 567-अ दृष्टांतपूर्वक ज्ञेयत्व का विवरण—जैसे एक आम है उसका रूप कोई नहीं जानता किंतु जो जानता है वह रूपपर्यायमुखेन आम को जानता है । आम की गंध को कोई नहीं जानता है, जो जानता है वह गंधमुखेन आम को जानता है । आम के रस को कोई नहीं जानता है, जो जानता है वह रसमुखेन आम को जानता है । आम के स्पर्श को कोई नहीं जानता किंतु जो जानता है वह स्पर्शमुखेन आम को जानता है । आम के रूप रस गंध स्पर्श अलग सत् नहीं हैं । उसही प्रकार ज्ञान दर्शन आनंद आदि गुणों को कोई नहीं जानता किंतु जो जानता है वह ज्ञानमुखेन आत्मा को, दर्शनमुखेन आत्मा को व आनंदमुखेन आत्मा को जानता है । पर्याय को भी कोई नहीं जानता है, जो जानता है वह पर्यायमुखेन आत्मा को जानता है । आत्मा एक सत् वस्तु है । गुण और पर्याय वस्तु की विशेषतायें हैं । विशेषतामुखेन वस्तु ही ज्ञात हुआ करती है । लोग कहते हैं हमने रूप जाना, रस जाना इसमें मर्म तो जरूर है किंतु ऐसा ही कथन भूतार्थ ही तो न हो जायगा । 567 ब-अशुद्ध का उपयोग न करके शुद्ध का उपयोग करो—जैसे नाना प्रकार के स्वर्ण में, पोने सोलह आना शुद्ध सोने वाले एक पिंड में पूर्ण शुद्धता नहीं । उस एक तोले सोने में पारखी तो सोना, उसमें पोने सोलह आना भर ही देखता है । वह उतने को सोना मानता । इसी प्रकार द्रव्य, गुण या पर्याय से देखने पर पूर्ण अर्थ का प्रतिभास नहीं, क्योंकि वे सब पूर्ण सत् नहीं हैं । सत् के अंश हैं । उन सदंशों के अनुभवों से पूर्ण आत्मा का अनुभव कैसे हो सकता है । पारखी सोने को कसकर, तपाकर, जैसे शुद्धता अशुद्धता का निर्णय करता है उसी प्रकार तत्त्वज्ञानी द्रव्य, गुण, पर्याय से अर्थ का निर्णय करके उसकी पूर्णता का ज्ञान कर लेता है । 9 तत्त्वों में जीव तत्त्व ही अपना प्रयोजनवान है । उसी जीव तत्त्व को जानने के लिये विवेकी इन नौ तत्त्वों का सहारा लेते हैं । द्रव्य, गुण पर्याय में यह जीव तत्त्व ढका हुआ है । जैसे नाना वर्णों में शुद्ध स्वर्ण ढका हुआ है । जब नयों की व्यवस्था से अर्थ को ज्ञान में लाते हैं तो नौ तत्त्वों में ढकी आत्मज्योति प्रकट हो जाती है—अंधकार विदा माँग लेता है, समस्त विकल्प, अशांति नष्ट हो जाती है । 568-स्थिर तत्त्व का उपयोग करके अस्थिरता का क्लेश मेटो—इतना अनुभव तो सभी को है कि जितना उपयोग घूमेगा उतना ही विकल्प उठेगा जितने विचार बुद्धि में आते उतना ही क्षोभ प्रगट होता है । सुख भी उससे उतना ही दूर भागता जाता है । सुख का एक मात्र उपाय है उपयोग को स्थिर करके एक पदार्थ पर लगाना । वह उपयोग स्थिर तभी कर सकते हैं जब हम अध्यात्म शास्त्रों का मनन कर के वस्तु स्वरूप का निर्णय करें तभी उपयोग किसी 1 केंद्र पर स्थित हो सकेगा । भूतार्थनय से 9 तत्त्व क्या सारी दुनिया उपयोग में आवे फिर भी उसके विकल्प घटते जाते हैं । उपयोग में जितने भी परिवर्तनशील विषय आते हैं वे सब समाप्त हो जावें और उपयोग स्थिर हो जावे, शांति के लिये मानव जीवन में यही करना शेष है । आज तक जिन पदार्थों में बुद्धि है वे सब विनाशीक हैं, पर हैं, अध्रुव हैं । अध्रुव और पर्याय को भी जाने किंतु उन्हें पर्याय के रूप से ही जाने तो कोई हानि नहीं, पर उन्हें मोही अपना रूप जानता है । खराब पदार्थ को भी जाने, किंतु उन पर भी उपयोग स्थिर हो जाय सो तो होता नहीं है । संसारी जीव जो जिस उपयोग में क्षण-क्षण रहता है वह अपने को उसी में सुखी मानता है । कल द्रव्य पर्याय का वर्णन था, आज पदार्थ को द्रव्य, गुणपर्याय से देखो पर्याय वह है जो अध्रुव विनाशी और परिणमन है । जो परिणमन है वह एक समय को रहता है, वही परिणमन दूसरे समय नहीं चलेगा । ये दशायें हमेशा बदलती रहती है किंतु उसका जो आधार है वह कभी नहीं बदलता है । ये गुण और पर्यायें द्रव्य के आश्रय से रहती है । जैसे क्रोध मान माया लोभ आया और दूसरे समय में दूसरा आयगा । परिणमन एक समय का रहता है । इस चौकी में रूप है, रस है गंध है किंतु ये निरंतर बदलते रहेंगे । देखो छोटा आम काला जैसा होता है वही बढ़कर हरा हो जाता है पकने पर पीला हो जाता है—ये सब रूप-गुण की पर्यायें है । परिणमन हमेशा एक समय का होता है । इनके आधारभूत एक शक्ति है—वह गुण है—खट्टा, मीठा ये गुण नहीं, रसगुण की पर्याय है । इसी प्रकार सुगंध दुर्गंध भी गंध गुण की पर्याय है । ये पर्याय बदलते हैं पर द्रव्य और गुण नहीं बदलता । इसी प्रकार आत्मा की ज्ञान-दर्शन शक्ति गुण हैं, उनमें ज्ञानगुण की पर्याय कुमति, कुश्रुत, कुअवधि मति श्रुत वगैरह है दर्शन गुण की पर्याय चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन आदि हैं । आनंद गुण की पर्याय निराकुलता और आकुलता । श्रद्धा गुण की पर्याय मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन है । राग चारित्र-गुण की पर्याय है । वीतरागता चारित्र गुण की पर्याय हैं । इन पर्यायों को जानना और उनके आधारभूत गुणों को जानना और उन गुणों के आधारभूत द्रव्य को और उस द्रव्य के भी आधारभूत अर्थ सामान्य को जानना । उसके अनुभव करनेपर ही सच्चा स्वानुभव होता है । 569-हम और यह क्या हैं:—यह मनुष्य क्या है? नाना प्रकार के पुद्गल परमाणुओं के पिंड की व आत्म द्रव्य की एक पर्याय है । यह असमान-जातीय द्रव्य-पर्याय कहलाती है । क्योंकि अनेक द्रव्यों से मिलकर यह एक पर्याय बनी है । वस्तुत: यहाँ भी परिणमन भिन्न हैं स्थूल दृष्टि से अथवा निमित्तनैमित्तिक के न्याय के अनिवार्य परिणमन की दृष्टि से हम एक पर्याय कहते हैं । मृत शरीर भी एक द्रव्य की पर्याय नहीं । उसमें अनंत परमाणु हैं उनकी पृथक्-पृथक् पर्याय हैं उनका एक पुंज यह शरीर है । द्रव्य अभेद है उसके तिर्यगंश गुण हैं । गुणों के उर्ध्वांश पर्यायें है । गुणाँश गुणों से प्रकट होते हैं । गुण द्रव्य से प्रकट है । इस तरह द्रव्य गुण-पर्याय का निश्चय करना वस्तुत: स्वरूप को जानने में अत्यंत आवश्यक है । आस्रव दो तरह का है — एक जीवाश्रव, दूसरा अजीवाश्रव । जीवाश्रव के अनेक भेद हैं । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद और योग (ये सब जीवाश्रव हैं) इनसे ही जीव में विकार का आस्रव होता है जिसको निमित्त पाकर ही कर्म वर्गणाएं आती है । वह कर्मवर्गणाओं का आना अजीवाश्रव है । इन दोनों आश्रवों को समझकर कि जीवाश्रव जीव से होता है—अजीव आस्रव अजीव-कर्म से होता है—इस प्रकार निश्चय करो । जीवाश्रव राग का परिणमन है—रागादिक चारित्र का परिणमन है और चारित्रगुण आत्मा का अभिन्न गुण है । गुण भेद मिटा देने पर ही उपयोग ध्रुव पर पहुंचेगा । विकल्प ऐसी जगह नष्ट हो जहाँ वे फिर उठे ही नहीं। भूतार्थनय ऐसी जगह पहुंचाता है जहा उपयोग स्थिर होता है। शांति प्राप्त करने के लिये उपयोग स्थिर करना अत्यावश्यक है । सामने दिखने वाली हर दशा से लगाव न रखकर एक अपने पर दृष्टि करो । 570-तुम ध्रुव हो अत: निज ध्रुव को आप जानो:—पर्याय पर दृष्टि आई कि अनेक विकल्प सामने आकर खड़े हो गये । ये मेरे अनुकूल हैं—ये मेरे प्रतिकूल हैं । मान-अपमान आदि अनेक झंझट साथ लग जाते हैं । इसलिये स्वभाव का दर्शन, कारण परमात्मा का विश्वास ज्ञान का स्थिर उपयोग ही इस जीव का भला कर सकता है इन तक जाने में बीच में कुछ भी गुजरो पर शांति तो स्वभाव तक पहुँचने पर ही मिलती है । स्वभाव निश्चय है, परिणमन व्यवहार है । स्वभाव के आलंबन का लक्ष्य व्यवहार है । स्वभाव की श्रद्धा व्यवहार हैं । स्वभाव निश्चय है । कहीं भी रहो, कुछ भी करो निराकुलता तो तभी मिलेगी जब स्वभाव में उपयोग जायगा । ये परिणमन मैं नहीं परिणमन जाने के लिये आते हैं मैं बाह्य में कुछ नहीं कर सकता बाह्य पदार्थ मेरा भी कुछ नहीं कर सकते । इस बाह्य में बुद्धि होने से ही पर्याय में अहं बुद्धि रहती है । प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है, अखंड सत् है । मैं पर को जानता भी नहीं । अपना ही परिणमन जानता हूँ । इस निज ज्ञेयाकार को जाना । हां ! मालूम पड़ता है कि मैंने बाह्य ज्ञेय को जाना । पर ज्ञेय को कोई नहीं जानता, अपने ज्ञानपरिणमन को ही जानता है ज्ञान का तो एक स्वभाव है कि सभी पदार्थ उसमें प्रतिबिंबित हो जाते हैं । जिस प्रकार दर्पण में दूसरे पदार्थ प्रतिबिंबित होने पर लोग देखते तो है दर्पण को ही और कहने लगते कि मैं इतने पदार्थों को देखता हूँ तो यह कहना व्यर्थ ही है । उस ज्ञान में जो ज्ञेयाकार बन जाता तब कहा जाता है कि मैं अमुक को जानता हूँ । जानने का संबंध पर पदार्थ से नहीं अपने ज्ञानपरिणमन से ही है । एक द्रव्य का दूसरे से संबंध नहीं हो सकता । भैया अभी तक क्षणिक परिणमनों को ही जानते रहे—एक बार उस ध्रुव को तो जानो । प्रवचनसार में लिखा है कि ‘‘ज्ञानी किसी भी पदार्थ को जानकर अपने एकत्व को जान लेता है । वह तो सोचता है कि जो ज्ञेयाकार बना है—वह मैं नहीं हूँ । ज्ञेयाकार पर्याय है, अध्रुव है । यह ज्ञानशक्ति भी कुछ रूप परिणमें कुछ भी करे परंतु मुझे तो एकत्व पर आना है । राग किया, वह राग मैं नहीं जिससे राग हुआ वह भी मैं नहीं, जिसको देखा वह भी मैं नहीं । यह राग चारित्र गुण की पर्याय है—यह चारित्र गुण आत्मा का गुण है । इस प्रकार अभूतार्थ से हटकर भूतार्थ पर आना है । यह जानने रूप श्रुतज्ञान किसकी पर्याय है? ज्ञानगुण की पर्याय और ज्ञान आत्मा का गुण है । इस तरह भेद से हटना और अभेद में पहुंचना । इसी प्रकार अनंतसुख गुण की पर्याय है सुख आत्मा का गुण है इस प्रकार ज्ञानी हर जगह अपने एकत्व को देखकर अपना काम निकाल लेता है । 571-करने योग्य काम शीघ्र करो:—विकल्प छोड़कर निर्विकल्प अवस्था पर आओ, शांति तभी मिलेगी । जीवन में करना यही है । मनुष्य चाहे इसे कहीं भी कर सकता है । मंदिर में करो, दूकान पर करो जंगल में करो या घर पर करो । मन का विकल्प दूर करना है—यही एक मात्र उद्देश्य होना चाहिये साथ ही वह स्वानुभव प्रकट करना है । स्वानुभव के समय भावमन भी ज्ञान रूप हो जाता है । वह भावमन अतींद्रिय हो जाता है क्योंकि मन का काम विकल्प करना हैं । वह कभी निर्विकल्प पर नहीं ठहर सकता । मन चंचल है, निर्विकल्प अवस्था स्थिर है । तब मन उस अवस्था को कैसे अनुभव कर सकता है । अजीवाश्रव-कर्मों का आना है । विस्रसोपचय में पड़ी वर्गणाएं, समान शक्ति की धारक वर्गों के समूह आत्मा के राग द्वेषादि करने पर कर्मरूप होकर आती है । जैसे सौ शक्ति वाले परमाणु मिलकर पहला वर्ग बन गया इसी प्रकार सौ-सौ शक्ति के धारा अनेक वर्गों के समूह को एक वर्गणा कहते हैं । जो वर्गणाओं का समूह है उसे स्पर्द्धक कहते हैं प्रथम स्पर्द्धक की आदि वर्गणा से दुगुणा समूह शक्ति होने पर द्वितीय स्पर्द्धक होता आदि समझलो जैसा कि आगम में उल्लिखित है । 572-कर्म जाल से भिन्न अपने आपको देखो:—कर्मों के बनते समय विस्रसोपचय में पड़ी वर्गणाएं, कुछ यहाँ वहाँ की पड़ी कार्मण वर्गणाएं भी विस्रसोपचय बनकर कर्मरूप होकर आती है । एक मोटा दृष्टांत है जिस तरह जंगल में घूमने को जाते समय सिर पर जो मक्खियां भिनभिनाती हैं—जहां तक मनुष्य जाता है प्राय: वहीं तक वे साथ चली जाती है । उन्हीं में से कुछ यहाँ वहाँ की भी इकट्ठी हो जाती हैं । इसी तरह कार्मण वर्गणाएं भी हैं । कर्मरूप होकर वे यथायोग्य आठों कर्मरूप बन जाते हैं जिस प्रकार भोजन करने पर एक प्रकार का भोजन सात धातु और अनेक उपधातुओं रूप अपने आप परिणमन जाता है । उसी प्रकार ये कर्म मूल आठ प्रकृति रूप और विशेष भेद करने पर असंख्यातरूप परिणमन कर जाते हैं । इनमें प्रकृति बंध, स्थिति बंध और अनुभाग बंधरूप भाग बटवारा हो जाता है । इस तरह इन कर्मों को अपनी आत्मा से अलग समझकर अपने आत्मस्वरूप को देखना शांति का मूल कारण है । 573-शांति के लिये अपनी स्वयं की प्रद्योतमान आत्मज्योति को देखो—वर्तमान में जो संयुक्त आत्मा दिख रही है उस दृष्टि को गौण करके स्वभाव से जो तीनों काल में विशुद्ध रहता है उस चैतन्य प्रकाशमान स्वस्वरूप का दर्शन करना ही धर्म है । किसी भी अवस्था में वह आत्मज्योति हमेशा हमारे पास रहती है, निरंतर अंत: प्रकाशमान अनंत परिणामों के बल पर जीवों के भाव भी अनंत होते हैं इसीलिए गुणस्थान भी अनंत हो सकते हैं । लेकिन यह समान स्वभाव वाले जीवों की श्रेणी बनाकरन 14 गुणस्थान बनाये हैं उनमें बताया है कि आत्मा के गुणों की पर्यायें कितनी हो सकती हैं । संयमासंयम के, असंख्यात गुणस्थान हो सकते हैं । जैसे जीवों के भावों की शुद्धता बढ़ती जाती है उसी प्रकार गुणस्थान बढ़ते जाते हैं । सबमें उस एक आत्मज्योति देखो स्वतंत्र प्रतिभासमात्र जो न राग सहित है और न राग रहित है, न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है । वह स्वभाव एकरूप है, उसके देख लेने पर ही स्थाई आनंद के दर्शन होते हैं । अपने विकारों से हमने उसे ढक दिया है । जिसके ये सब परिणमन चलते हैं जिसका आविर्भाव तिरोभाव चलता है, वह एक है । पचासों गाँवों से गुजरने वाला पुरुष तो एक ही है इस तरह प्रत्येक सत् इकहरा—एक और अखंड है । अंत:प्रकाशमान बाहर से ढकी हुई उस अंतर ज्योति को एक बार भी देख सके तो ये संसार के सब झगड़े समाप्त हो जायें । देखी वह वही तो ढका है, वही पूरा विकसित है मौजूद भी है और नहीं दिखने से नहीं जैसा भी है, सामान्यरूप भी है और विशेष रूप भी है । 574-पदार्थ की सामान्य विशेषात्मकता—‘सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषय:’ याने पदार्थ सामान्य और विशेषरूप होता है । जितने ये विशेष दिख रहे हैं उन्हीं में सामान्य मौजूद है । विशेष को छोड़कर सामान्य कहीं भी नहीं होता । पर जो सामान्य है वह विशेष नहीं जो विशेष है वह सामान्य नहीं । मनुष्य बालक, जवान, बूढ़ा—ये विशेष हैं—और इन तीन अवस्थाओं में रहने वाला एकमात्र मनुष्य सामान्य है । किंतु पर्याय-रहित मनुष्य नहीं होता है । जो बालक था वही जवान बना है और जो जवान था वही बूढ़ा हुआ है । इन तीनों अवस्थाओं से जो मनुष्य गुजरता है वह सामान्य है । विशेष अनंत होते हैं उनमें सामान्य एक होता है । उन्हीं अनंत भावों में से जीव को आठ तत्त्वों में बांध दिया है । अजीव मिलाकर ये नौ तत्त्व होते हैं । विकल्पों से छूटने के लिए विशेष को छोड़कर सामान्य पर आओ । गुण और पर्याय को छोड़ द्रव्य पर आओ । भूतार्थ का विषय वही एक आत्मा है । आत्मत्व का दर्शन करनेवाले उपाय को भूतार्थ बताता है । केवल पर्याय को कोई नहीं जानता है वह पदार्थ को ही जानता है । किसी ने गंध ली उसे भी पदार्थ का ज्ञान हुआ ऐसी इंद्रियों की मुख्यता से (निमित्तता से) पदार्थ ही जानते हैं । यही कला इन नयों में है । कोई नय भेद से पदार्थ को जानता है, कोई अभेद से, कोई पर्याय से । नय और प्रमाण का काम जानना है । उसका व्यवहार करने का काम निक्षेप का है । प्रमाण सर्वांश और नय एक अंश को जानता है । इनका व्यवहार चलाने के लिए निक्षेप का सहारा लिया जाता है । जैसे एक बूंद समुद्र है कि नहीं? यदि समुद्र है तो उसमें जहाज चलाकर बताओ और यदि बूंद समुद्र नही—तो समुद्र की एक-एक बूंद मिलाकर भी समुद्र नहीं बन सकता तो, वह सब बूंदें भी समुद्र नहीं । इसका समाधान यह है कि बूंदें समुद्र नहीं और न असमुद्र है किंतु समुद्रांश (समुद्र का अंश) है । इसी प्रकार नय ज्ञान नहीं और अज्ञान भी नहीं किंतु ज्ञानांश है । ज्ञानांश का समूह ही प्रमाण है । निक्षेप का व्यवहार चार प्रकार से होता है । किसी वस्तु का नाम रख देना नाम निक्षेप है । वस्तु का नाम रखे बिना व्यवहार चल ही नहीं सकता । वस्तु की जानकारी के आद्य निर्णय को नाम निक्षेप कहते हैं । ज्ञान से किसे जाना? पर्याय को—उसमें किसी वस्तु की स्थापना करना स्थापना निक्षेप है । जैसे यह घट है उसमें घटत्व की स्थापना व्यवहार है । ज्ञानमय जैसा ज्ञेयाकार बना वह ये हैं ऐसा बोध स्थापना निक्षेप है । जैसे शतरंज में हाथी घोड़ा का व्यवहार करते हैं यह स्थूलदृष्टि है । भावी होने वाली पर्याय को वर्तमान में बताना—जैसे राजा के लड़के को राजा कह देना द्रव्य निक्षेप है । द्रव्यनिक्षेप उसकी योग्यता का वर्णन करता है और उसकी वर्तमान अवस्था को बताना भावनिक्षेप है। द्रव्यनिक्षेप- किसी वस्तु की स्थापना के बाद बताने का यत्न करना है और भावनिक्षेप वर्तमान में जो वर्तमान कहा गया यह है । 575-श्रृंगागर निराधार नहीं होता है—पहले बताया था कि भूतार्थ का विषय एकत्वरूप आता है उस प्रद्योतमान आत्मा को जानने का उपाय, नय और प्रमाण है । जैसे रूप पर्याय को चक्षु इंद्रिय से जैसा समझा उससे जो वस्तुज्ञान हुआ वह प्रमाण है । यद्यपि ये उपाय भी अभूतार्थ हैं । ये नय और प्रमाण जिसे जानते हैं वह भूतार्थ है । जैसे माता बच्चे को उंगली से चंद्रमा दिखाती है वह चंद्रमा भूतार्थ है और उसमें अंगुली खुद चंद्रमा नहीं अत: अंगुली अभूतार्थ है । यदि कोई अंगुली को ही चंद्रमा समझने लगे तो वह मोही ही है । इसी प्रकार प्रमाण नय निक्षेप से समझो पर अटको मत । उस एकत्व को ढूँढना है । नदी में बैठकर चारों तरफ नाव को चलाओ और खूब घूमो लक्ष्य के बिना कोई एक किनारा तो नहीं मिल सकता । भूतार्थ से जाना यह द्रव्य है यही प्रमाण है । प्रमाण दो तरह का है । एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष । पर के अवलंबन के बिना केवल आत्मशक्ति से जानना प्रत्यक्ष है । इंद्रियादिक पर के अवलंबन से जानना परोक्ष ज्ञान है । पहले ज्ञान स्वभाव एक था । उसका यह भेद परिणमन हुआ । फिर उसके प्रत्यक्ष परोक्ष ये भेद किये । उसके भी अनेक रूपक बनाये । पर स्वभाव में स्थिर होने के लिये परिणमन करना है तो इतने भेद भी मत करो । भेद तो समझने और समझाने को करना पड़ते हैं । स्वभाव तो एक प्रतिभासमात्र है । उसको समझने के लिये ये सब भेद-प्रभेद चलते हैं । प्रत्यक्ष निर्विकल्प है और परोक्ष सविकल्प। मतिज्ञान निर्विकल्प है, श्रुतज्ञान सविकल्प है । जो अपने आलंबन से पदार्थों को एकदेश जाने उसे विकल प्रत्यक्ष कहते हैं । सकल देश जानना सकल प्रत्यक्ष है । उनमें से मूर्त को पुद्गल को जानने वाला अवधिज्ञान है । उससे आगे मन के भावों को जानने वाला मन:पर्ययज्ञान है । सब पदार्थों की सब दशाओं को जान सकने का सामर्थ्य केवलज्ञान में है । व्यवहार और अभूतार्थ की दृष्टि असत्य है क्योंकि यह दृष्टि सत् में होने वाले निरपेक्ष परिणामिक भाव को नहीं देखती । उंगली तो सब अवस्थाओं में उंगली सामान्य और एक ही है । उसी की अवस्थायें पचासों होती हैं । यहाँ पर जानने वाला और जानने योग्य और जानने का साधन एक ही हो जाता है ऐसा उपाय चले वही भूतार्थ है । मोटी दृष्टि से देखो यहाँ मंदिर में बैठे हैं तो इस धर्मचर्चा के आगे दूकानदारी अभूतार्थ जंचती है । दुकान पर बैठने पर मंदिर अभूतार्थ है (व्यापार की दृष्टि में) इसी प्रकार व्यवहार की दृष्टि में निश्चय अभूतार्थ है और निश्चय की दृष्टि में व्यवहार अभूतार्थ है । यहाँ इतना विवेक जरूर करो हित की स्थिति से पहिले निश्चय आता, सो निश्चय भूतार्थ है । पूरा पदार्थ किसी एक नय से नहीं जाना जा सकता । जिसका एक बार अनुभव कर लिया उसका जरासा संकेत करने पर अनुभव होने लगता है । जिसने मिश्री का स्वाद ले लिया उसे मिश्री का नाम ले देने पर ही मिश्री के स्वाद का अनुभव सा हो जाता है । 576-अज्ञानचक्र का खंडन करनेवाला नयचक्र—नयों की कृपा से पदार्थ का ज्ञान होता है । पर वह ज्ञान अपूर्ण रहता है । द्रव्य की मुख्यता से अनुभव करें वह द्रव्यार्थिक नय है । पर्याय की दृष्टि से अनुभव करना पर्यायार्थिकनय हैं । ये दोनों नय भूतार्थ दृष्टि की पद्धति से जानने लग जायें तो यथार्थ ज्ञान करा सकते हैं । द्रव्य दृष्टि से द्रव्य को देखे, पर्याय दृष्टि से पर्याय को जाने और उस पर्याय में रहने वाले द्रव्य का अनुभव करे तो वही भूतार्थ हो जाता है । जहाँ द्रव्य, पदार्थ और गुण का कुछ भी भेद नहीं रहता केवल स्वभाव का अनुभव है वह अर्थ ज्ञान है । जब तक उत्सव पूरा नहीं होता तब तक हल्ला गुल्ला होता है—उत्सव पूरा हुआ कि हल्ला गुल्ला समाप्त । इसी प्रकार जब तक लक्ष्य पूरा नहीं होता तब तक प्रमाण नय निक्षेप का सहारा लेना पड़ता है । स्वानुभव हो जाने पर इन तीनों की कोई आवश्यकता नहीं | वह स्थिति स्वयं प्रमाण है । ज्ञानाभ्यास और मनन का उद्यम किया जावे, कभी न कभी लक्ष्य सिद्धि हो लेगी । एक कुम्हार को एक बाबू ने पायजामा दे दिया । भैया ! उसे पहनने का कुछ भी ज्ञान नहीं था इस कारण उसे कभी सिर पर डालता, हाथ पर डालता, कभी कमर पर । एक बार पैरों में भी डाल दिया । ठीक हो जाने के बाद वह उसका पहिनना अब कभी नहीं भूलता है । देखो बार-बार के प्रयोग में वह कुम्हार स्वयं सब जान गया । इसी प्रकार एक बार स्वभाव जान लेने पर फिर आपत्तियाँ नहीं सताती । बार-बार के मनन में वह निज अलौकिक तत्त्व, जिसके लिये योगी सतत उपासना करते हैं, ज्ञान द्वारा सुज्ञात मिलता है । 577-अनुभव का पूर्वरूप निश्चय व निश्चय का पूर्वरूप व्यवहार—व्यवहार चलाने के लिए वस्तु नाम रख लेना नाम निक्षेप है । स्थापना करना स्थापना निक्षेप हैं । शक्ति का भान द्रव्य निक्षेप है । भविष्य में होने वाली पर्याय का वर्तमान में व्यवहार करना द्रव्य निक्षेप है । वर्तमान पर्याय को वर्तमान में कहना भाव निक्षेप है । द्रव्य निक्षेप में पहले और पीछे दोनों व्यवहार होते हैं । देखो व्यवहार में विशेष की महत्ता है जैसे यह विशेष ज्ञानी है पहलवान है । पर अध्यात्म मार्ग में सामान्य की महत्ता है । अभेदरूप सामान्य है उसका अनुभव करनेपर विशेष उसी में विलीन हो जाता है । इसी प्रकार जीव का स्वभाव जान लेने पर इन प्रमाण नय निक्षेपों की कोई आवश्यकता नहीं रहती । जैसे सारी बारात एक दूल्हा के ऊपर निर्भर है और सब बरात न हो एक दूल्हा ही हो तो काम बन सकता है पर बरात हो और दूल्हा न हो तो क्या काम की बरात है? अहा, देखो, देखो तो इस निजस्वभाव के अनुभव होने पर, नयलक्ष्मी का उदय नहीं, प्रमाण अस्त हो जाता है, निक्षेप तो कहां चले जाते हैं । इस निर्विकल्प स्थिति में कोई द्वैत ही प्रतिभास नहीं होता है । अभी भूतार्थ का वर्णन था—एक स्वभाव है इसके जानने पर कोई विकल्प नहीं रहता । जिसमें न भेद द्रव्य का है, न क्षेत्र का और न काल का ही है । जब अनुभव में सामान्य आत्मा रहता है वहाँ नय-निक्षेप का कुछ भी लक्ष्य नहीं रहता । वहाँ न निश्चय है और न व्यवहारनय है । सब दशाएं गौण हो जाती है । जैसे सज्जन के समागम से सज्जनता आती उसी प्रकार द्रव्य सामान्य के आश्रय से, द्रव्य सामान्य की प्राप्ति होती है । 578-स्वानुभव के यत्न का अनुरोध—स्वानुभूति का तरीका यह है कि मोह के प्रसंगो से बचकर मौलिक सदाचारों का पालन किया जाय । आचरण शुद्ध करना होगा । सम्यग्ज्ञान को समझना होगा । सबसे विभक्त इस आत्मस्वरूप को समझना होगा । एतदर्थ शुद्धनय का आश्रय प्रयोजनवान है । शुद्धनय की बात जानने के लिए व्यवहार प्रयोजनवान है । अपनी पूर्व अवस्था से ही अंदाज लगा लो कि व्यवहार की बात में अटके रहे और माना उसी को सर्वस्व । यह द्रव्यस्वभाव की बात की समझ ‘नियम से मोक्ष होगा’ इसकी सूचक है, शुद्धनय आत्मस्वभाव को प्रकट करता हुआ प्रकट होता है । शक्ति से जुदा, कर्म से जुदा, औदयिक भावों से अलग, पर भावों से अलग, विकारी परिणमनों से भी अलग अत्यंत-अभाव वाले पदार्थों से अलग कर शुद्धनय आत्मस्वभाव को प्रकट कराता है । शुद्धनय खालिस एक शुद्ध स्वभाव को प्रकट करता है । शुद्धनय से अपने को पर से जुदा किया । अब फुटकर ज्ञानों से भी अपने को जुदा किया क्योंकि वह ज्ञान अपूर्ण है । आत्मस्वभाव पूर्ण है । ये फुटकर ज्ञान अध्रुव है । आत्मस्वभाव त्रिकाल ध्रुव है । अब यहाँ शंका होती है कि जब मैं फुटकर ज्ञान से जुदा हूँ तो केवलज्ञान तो मेरा स्वभाव होगा । उत्तर—स्वभाव आदि-अंत रहित होता है । केवलज्ञान आदि-रहित नहीं है वह भी ज्ञान गुण की पर्याय है—प्रतिसमय समान रूप से प्रकट होता रहता है अत: अन्यपना ज्ञात नहीं होता है । वह केवलज्ञान आविर्भाव में सापेक्ष भी है । पहले नहीं था अब प्रकट हुआ । जीव मलिन था, दु:खी था, सम्यग्ज्ञान पाया स्वतंत्रता समझी, अपने स्वभाव में रहा, शुभ अशुभ से दूर हुआ तब मुक्ति मिली, पूर्ण ज्ञानी बना । वह केवलज्ञान भी स्वभाव नहीं, क्योंकि जब से आत्मा है तब से स्वभाव है । जब आत्मा अनादि से है तो स्वभाव उसका अनादि से होना चाहिए । केवलज्ञान ज्ञानगुण की पर्याय होने से आत्मा का स्वभाव नहीं । केवलज्ञान में यह विशेषता है कि प्रतिसमय उसका नया परिणमन होता रहता है पर एक समान रूप से परिणमन होने के कारण उसमें अंतर नहीं मालूम पड़ता, जिस प्रकार यह जलती हुई बिजली प्रतिसमय नई प्रकट होती है पर देखने वालों को ऐसा पता चलता है कि घन्टों एक ही बिजली जला करती है । आत्मा का स्वभाव अभेद, अखंड एक चैतन्यरूप है । वहाँ भेदभाव की कोइ गुंजाइश नहीं। 589-आत्मस्वभाव की अनात्मत्व से भिन्नता—आत्मा का स्वभाव परभावों से भिन्न है, औदारिक शरीर से भिन्न, रागादिक से भिन्न, औदयिक भावों से भिन्न, क्षायोपशमिक भावों से भिन्न और केवलज्ञान से भी भिन्न है । ये चार बातें कल आ चुकी थी । जिसके ये सब परिणमन है उसे लक्ष्य कहा जाता है । पर्याय स्वभावमय नहीं । स्वभाव तो अनादि अनंत है जबकि पर्याय प्रतिसमय परिवर्तनशील है । स्वभाव, सहजशक्ति, सहजज्ञान और सहजदर्शन आदि इनको तो कहते होंगे? उत्तर—स्वभाव एक होता है और अखंड होता है । उसके दर्शन ज्ञान शक्ति रूप कैसे भेद हो सकते हैं । स्वभाव अनेक नहीं हो सकते । प्रश्न -अनेक नहीं ऐसा तो स्वभाव है—इससे तो अपने को पहचान लेंगे । उत्तर—‘‘विलीनसंकल्प-विकल्पजालम्’’ अनेक का खंडन करने पर भी उनका विकल्प आ ही जाता है । जिस प्रकार किसी से कह दिया कि तुम जंगल में चले जाओ वहाँ अमुक पेड़ के नीचे कोई भूत वगैरह नहीं है डरना मत, इस निषेध में भी उस मनुष्य को भूत का भय भर ही गया । उसे संकल्प विकल्प तो उठेंगे ही । स्वभाव निषेध के विकल्पपूर्वक नहीं होता । संकल्प वह है जो मिथ्यात्व के उदय से हो; विकल्प वह है जो राग-द्वेष विकार हों—याने दर्शन मोह से संकल्प होता है और चारित्र मोह से विकल्प । इन दोनों के जाल से रहित और एक-अनेक की कल्पना से परे अनुभवगम्य चैतन्यमात्र आत्मा का स्वभाव है । पर से भिन्न सोचने पर विभावों से भिन्न हो चुका—फुटकर ज्ञान से भिन्न हो चुका, स्वभाव से भी भिन्न हो चुका, स्वभाव का लक्षण स्वभाव पर्याय से भी भिन्न है—जब अपने को देख लिया वहाँ कोई संकल्प विकल्प नहीं । संकल्प विकल्प के बिना आकुलता और दुःख भी नहीं रह जाता एक के ज्ञान होने पर तो आनंद और शांति ही रह जाती है । 580-भूतार्थनय से जानने का परिणाम—भूतार्थनय से जाने गए जीव अजीव, पुण्य पाप आस्रव, बंध सम्वर निर्जरा, मोक्ष ये सम्यक्त्व होते हैं, अर्थात् इन तत्त्वों का यथार्थ परिज्ञान सम्यक्त्व का कारण होता है । भूतार्थपद्धति से जानने का मतलब है कि एक ही पदार्थ को उस एक ही में निरखकर उस एक के ही तत्त्व का ज्ञान करना । जैसे जीवद्रव्य को देखो, अकेले जीवद्रव्य को देखा, जैसा उसके सहज अपने सत्यस्वरूप के कारण स्वभाव में है तन्मय निरखा यह भूतार्थ से जीव का जानना हुआ । इसी प्रकार अजीव को, पुद्गल को परमाणु को निरखा कार्मणवर्गणाओं में भी अनंत परमाणु हैं न उन्हें भूतार्थ से देखा पिंड में भी देखो तो अकेले पिंड को देखो, परमाणु में देखो तो वह और विशुद्ध दृष्टि है, अकेले अणु को देखो उसमें उसके कारण जो कुछ वर्तमान है, जो कुछ है उसे निरखना भूतार्थनय है । ये दो तो हैं स्वतंत्र तत्त्व। अब पुण्य पाप आस्रव सम्वर निर्जरा मोक्ष ये हैं आपेक्षित तत्त्व। पुण्य पवित्रभाव अथवा पुण्य प्रकृति । पुण्य दो प्रकार के हैं भाव पुण्य और द्रव्य पुण्य । भाव पुण्य तो जीव का परिणमन है द्रव्य पुण्य अजीव का परिणमन है । अब किसी भी पुण्य को देख लो जीव पुण्य लीजिये तो उस पुण्य को केवल में निरखना यह पुण्यभाव जीव में जीव की परिणति से हुआ है भूतार्थनय से यों ही निरखा जायगा । यद्यपि बात तो यह है कि कर्मविपाक के सन्निधान में उसका निमित्त पाकर जीव में पुण्य भाव होता, पापभाव भी होता, किंतु जब भूतार्थनय से निरखने की तैयारी है तो वहाँ दूसरे को न निरखा जायगा उसकी कथा न की जायगी । उसका ख्याल भी न किया जायगा । केवल एक जिसको लक्ष्य में लिया है उस भाव को ही निरखा जायगा । तो भूतार्थनय से जाना गया कि यह भाव जीव भाव में जीव के ही भाव से जीव के हुआ है । यह भूतार्थनय का ज्ञान है । इसी प्रकार पापभाव को भी उस पापभाव को जीव में निरखना यह पाप भाव जीव की परिणति से ही हुआ है, जीव का ही परिणमन है, यों निरखना यह भूतार्थनय से जानना हुआ । 581-जीव अजीव पुण्य पाप का अभूतार्थ व भूतार्थ से जानन की विधान—अब जरा देखें इन चार तत्त्वों को अभूतार्थनय से जानने की बात किस तरह होती है । जीव के उस विशुद्ध निरपेक्ष चैतन्य स्वभाव को न निरखकर जो नारक तिर्यंच, मनुष्य देव पर्याय में है उस पर्याय के रूप में देखना, उसे जीव समझना, यह तो अभूतार्थनय से जीव का जानना है । तो अजीव का अभूतार्थनय से जानना कैसे? ये सब कर्म स्कंध अजीव व अभी अकर्मठ जीव के भाव का निमित्त पाकर इस कार्मणवर्गणाओं में यह कर्म परिणति हुई है, इस प्रकार उन कार्मण पिंडों का निरखना। अभूतार्थनय से पुण्य पाप का जानना कैसा? यह जीव-पुण्य-भाव कर्मविपाक का निमित्त पाकर हुआ है ऐसे निमित्त की अपेक्षा करके उसकी दृष्टि रखकर हुए की बात का परिज्ञान करना । यों भाव पुण्य को और इस ही प्रकार से भावपाप को जानना अभूतार्थ नय से जानना कहलाता है । यहाँ यह निरखना है कि भूतार्थनय को जानने का प्रभाव आत्मा पर क्या पड़ता है और अभूतार्थनय को जानने का प्रभाव आत्मा पर क्या होता है । यह बात प्रयोग साधित होने पर स्पष्ट विदित होगी जब जीव को अजीव को पुण्य को पाप को, भूतार्थनय से निरख रहे हैं तब वहाँ किसी के द्वैत का ख्याल नहीं है किसी भी द्वैत की अपेक्षा नहीं है । तो केवल एक को ही ध्यान में रखने पर आश्रय न बिगड़ने से निमित्त का आलंबन न लेने से बहिर्मुखीदृष्टि न बनने से वहाँ रागद्वेषादिक के बढ़ने का या विशेष बनने का प्रसंग नहीं हो सकता है और ऐसी दृष्टि में सम्वर निर्जरा विशेष चलती हैं। जब अभूतार्थ दृष्टि से निरखते हैं तो आत्मा में विह्वलता होती है, दूसरे का आश्रय आलंबन लेना होता है, और उसकी भ्रमित दृष्टि हो जाने से वह आकुलित होता है, उसके कर्मबंध विशेष होता है जिससे वह आगामीकाल में और संसार परंपरा रखता हुआ अपनी बरबादी करेगा । भूतार्थनय कैसी विशुद्धदृष्टि है कि इसके प्रताप से कर्म ध्वस्त होते चले जाते हैं । तभी तो बताया है कि भूतार्थनय से यह तत्त्व जान जाय तो उससे निश्चय सम्यक्त्व उत्पन्न होता है सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए अपने आत्मा में विशेषता बढ़ाने के लिए कुछ करना है तो आत्मा में करना है । बाहर की बात तो आत्मसावधानी की पात्रता बनाये रखने के लिए हैं । सो जैसे चरणानुयोग में कथन है उस प्रकार की प्रवृत्ति हमारी अंत:सावधानी और वृद्धि का निमित्त बनता है । 582-जीवास्रव का प्रकृत नयों से परिचय:—अब आस्रव तत्त्व को भूतार्थनय से देखिये । आस्रव दो प्रकार के हैं भावाश्रव और द्रव्याश्रव । जीव में जो विभाव आते हैं वे तो हैं भावाश्रव और कर्मों में जो कर्मत्व आता है वह है द्रव्याश्रव । किंतु भावाश्रव को निरखते हुए में इस प्रकार निरखना कि यह भावाश्रव जीव में जीव की परिणति से जीव के हुआ है । केवल एक जीव के आस्रव का वहाँ ध्यान रखा जा रहा है किसी पर की अपेक्षा या संबंध मानने की इसकी दृष्टि नहीं है तो ऐसी अवस्था में प्राकृतिक प्रभाव यह पड़ता है कि बाह्यदृष्टि न होने से, निमित्त का आलंबन न होने से, किसी द्वैत की उपासना न होने से ये रागादिकभाव निर्बल हो जाते हैं, कर्मबंध निर्बल हो जाते हैं और उस समय सम्वर निर्जरा विशेष चलती है । भूतार्थ को एकत्व दृष्टि से, कैवल्य दृष्टि से निहारना यह बहुत कल्याण की चीज है । इतनी ऊंची बात पाने के लिए, इतना उत्कृष्ट तत्त्व समझने के लिए आत्मा को व्यवहार में भी कैसी पात्रता चाहिये उसको यदि समझना है तो सम्यग्दर्शन के 8 अंगों का जो वर्णन है उस वर्णन से सब समझ सकते हैं, और मोटे रूप में इतना ही जान ले कि हमारा व्यवहार हमारा वचन आप इतना विशुद्ध हो, इतनी समझ के साथ हो कि खुद को भी आगे पीछे पछताना न पड़े । इतना क्षमापूर्ण सरलता पूर्ण व्यवहार हो कि यह जीव अपनी ओर झुके रहने का बल प्राप्त करें । बाहर में किसी दूसरे ने कुछ कह दिया, कोई प्रतिकूलता वर्ती तो क्या किया? उसने अपने आप में ही अपनी चेष्टा की, और वह भी जीव है, मेरे ही समान जीव है, वह क्षम्य है अपने में क्षमाशीलता, निरभिमानता, सरलता और तृष्णा से रहित होना ये चार बातें बहुत जरूरी हैं । चीज कोई साथ जायगी नहीं, जो कुछ समागम मिले हैं वे सब छूट जायेंगे, लेकिन उस संपदा के लाभ में चित्त रहेगा तो बड़ा अनर्थ यह है कि हम अपने आत्मा की सुध भी कुछ नहीं कर सकते । तो हमारा योग्य व्यवहार होना चाहिये । इस योग्य व्यवहार से ऐसी पात्रता जगेगी कि जो एक अतुल वैभव है, आत्मा का वास्तविक निधान है वह तत्त्व प्राप्त हो जायगा । 583-द्रव्यास्रव का प्रकृतनयों से परिचय—आस्रव का दूसरा प्रकार है द्रव्याश्रव । कार्मण वर्गणा में कर्मत्व आना, प्रकृतिबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध होना, जो कुछ उसमें हो रहे हैं केवल उसे ही देखा जाय क्यों हुआ है? किसी निमित्त से हुआ है । इन तर्कणाओं का अवकाश नहीं होता है भूतार्थ में । भूतार्थदृष्टि तो प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह एक विकल्प रहित दृष्टि होती है। तो द्रव्याश्रव को भी जब भूतार्थनय से जाना तो वहाँ वही केवल दिखा, निमित्त की दृष्टि न रही, पर का आश्रय न रहा, किसी द्वैत को आश्रय नहीं दिया, तब एक अद्वैत तत्त्व पर द्रव्याश्रव रूप ही हुआ । उस पर दृष्टि देने से पर का स्मरण, पर की दृष्टि अपेक्षा न होने से इसको राग-द्वेष की प्रगति को अवकाश न मिला, सम्वर निर्जरा विशेषतया हुई । अपने आपके स्वरूप में रत रहने का विशेष अवसर पाया । तो आत्मा पर ऐसा पावन प्रभाव बने कि यह निर्भार होकर मोक्षमार्ग में प्रगति से चलने लगेगा । तो भूतार्थनय का परिज्ञान करने का यह प्रभाव है । अब अभूतार्थनय की दृष्टि की विभूति देखिये । ये कर्म जीव भाव के निमित्त से हुये हैं । इसमें देखो कितना बड़ा स्थिति बंध पड़ा है यह किस-किस शक्ति को लिए हुए हैं इसकी शक्ति से जीव झकझोरा जाता है आदिक कार्य कारणरूप से, अपेक्षा संबंध रूप से इस आस्रव तत्त्व की दृष्टि करना यह अभूतार्थ नय से परिज्ञान करना है । अब इसके प्रभाव का स्वयं अंदाजा मिला होगा कि इसमें आकुलता मूढ़ता भरी हुई है, राग-द्वेष वृद्धि के सारे अवकाश हैं, जन्म-मरण की परंपरा बढ़ाने वाली दृष्टि है । 584-संवरतत्त्व का प्रकृत नयों से परिचय—सम्वर तत्त्व दो प्रकार का है—भावसम्वर द्रव्यसम्वर भावसम्वर को जब भूतार्थनय से जाना एक यह सम्वर परिणाम गुप्तरूप परिणाम, आत्मा के उपयोग का आत्मा के सहज भाव में लीन होना, अभेद होना, अखंड एक ज्ञायकस्वभाव का अनुभवन होना, इस प्रकार का जो एक संयमन है वे सब संयमन भाव आत्मा में है आत्मा की परिणति हैं । आत्मा से उठे हैं और आत्मा में हैं इस प्रकार जीव सम्वर को जीव तत्त्व से ही एक अभेद देखकर अन्य द्वैत को भूलकर जब जाना तव इसमें निरपेक्ष तत्त्व के देखने की और विशुद्ध आनंद परिणति पाने की वृत्ति जग जाती इसी प्रकार द्रव्य सम्वर को जब भूतार्थनय से देखा तो केवल वह द्रव्य सम्वर कर्मों की अनुत्पत्ति कर्मों का न आना यह दिखा । कर्मों का न आना यह किस प्रकार देखा गया । कर्म आ रहे थे उस संस्कार से परिचित ज्ञानी पुरुष ऐसी स्थिति पाने पर कि जहाँ कर्म नहीं आ रहे वह समझ लेते हैं कर्मों का न आना द्रव्य सम्वर है । यह सम्वर तत्त्व उन कर्मों में उसकी अपनी परिणति से हो रहा है । कर्मत्व के न आने का नाम सम्वर है । तो भूतार्थनय से जब एक अद्वैत तत्त्व को जाने तो उसका प्रभाव यह होता है कि आत्मा निर्द्वंद्व निराकुल अपने शुद्ध चैतन्यमात्र की दृष्टि कर लेने वाला हो जाता है यही सबसे विशिष्ट अलौकिक वैभव है जीव का ऐसे भूतार्थनय से द्रव्य सम्वर और दृष्टि किए जाने पर चूंकि किसी द्वैत का न स्मरण, न अपेक्षा, न संबंध जोड़ा, केवल एक ही वह द्रव्य सम्वर रूप तत्त्व उपयोग में रहा तो ऐसी स्थिति में भी अपने आपमें विराजमान विशुद्ध परमात्मतत्त्व की सिद्धि हो जाती है । अब अभूतार्थनय से द्रव्य सम्वर को भाव सम्वर को निरखते हैं तब क्या बीतती है? निमित्तनैमित्तिक संबंध का ज्ञान करते समय में ज्ञान कहीं एक जगह स्थिरता से टिका हुआ तो नहीं होता । तो बाह्य में सर्वत्र घूम रहा है । ये कर्म रुक गए देखिये—जीव का संयमभाव का निमित्त पाकर, यों अपेक्षित संबंधित तत्त्व को देखना अभूतार्थनय से देखना कहलाता है, अब अभूतार्थनय से देखने पर यद्यपि दिखाई जा रही है अच्छी बात कि देखो जीव का ऐसा शुद्धोपयोग बना ऐसी विशुद्ध जानन-देखन की परिणति बनी कि ये द्रव्यकर्म स्वयं ही रुक गये, झड़ जायेंगे और विशिष्ट अवस्था हो जायगी । यह सब निरखा जा रहा है तो अभूतार्थ से यों निरखने पर इस जीव को स्थिरता भी नहीं मिली विह्वलता मिली और कर्मबंध हुआ । आगामी परंपरा भी बढ़ी तो अभूतार्थनय से जानने पर अर्थात् उसको अपनाने पर, उसे अंगीकार करने पर तत्संबंधी विकल्पों में अभिमान जागने पर उतना ही वहीं का वहीं रह जाना होता है, हम अपने आत्मस्वरूप को विकसित कर नहीं पाते, तो अभूतार्थनय से जाना गया यह तत्त्व इसकी भलाई के लिए न होगा । जानने में बुराई नहीं अभूतार्थनय को । किसी पाप के स्वरूप तक को भी जानने में बुराई नहीं, किंतु उसका आश्रय करने में बुराई है, गलत है । इस तरह चल रहा है निमित्त नैमित्तिक संबंध है, उसका निषेध नहीं किया जा सकता । लेकिन उसको अपनाना अंगीकार करना यह समझ इसकी बुराई करने वाली बनी । ये बुराइयां एकदम टल जाती हैं जब हम भूतार्थनय से तत्त्व के निरखने का उपयोग करते हैं । 585-निर्जरा और मोक्ष का प्रकृत नयों से परिचय—इसी प्रकार निर्जरा तत्त्व में भी देखिये कर्मों के झड़ने का नाम निर्जरा है । जो बंधे हुये कर्म हैं वे जल्दी-जल्दी झड़े उदय से पहिले संक्रमण करके, अपकर्षण करके उदीरणा करके किसी भी प्रकार उसे जल्दी झड़ा दे और आत्मा में विह्वलता बेचैनी ये बातें न प्रकट हों, ऐसी समता की वृत्ति करें तो वहाँ निर्जरा तत्त्व प्रकट होता है, वे दो प्रकार के हैं, विभावों का झड़ना, आत्मा में विभावो का शिथिल होना, ऐसे विभावों के झड़ने का नाम निर्जराभाव है । इस तरह भूतार्थ से देखा गया कि कर्म अब यों झड़ गए, यो गए, यह तो द्रव्य निर्जरा का निरखन है । ये विभाव रागादिकभाव ये यों गए, यों निकल गए, और ऐसा निकल जाने दें कि निकलने के बाद फिर उन्हें न बुलायें, इस प्रकार आत्मा के विकारों के झड़ने का नाम भाव निर्जरा है । यह भाव निर्जरण जीव में जीव से जीव के लिए ही जीव के हो रहा है । ऐसी भूतार्थ दृष्टि करने पर परतत्त्व का स्मरण प्रयोग न रहने से आत्मा में एक विशेष निर्भारता आती है, कर्मबंध क्षीण होता है । तो भूतार्थ से दिखाई हुई यह भाव निर्जरा है, इसका अचिंत्य प्रभाव है, इस प्रकार जो कर्म झड़ते हैं वह है द्रव्य निर्जरा, उसे भी केवल एक उसमें ही देखो, उसके ही प्रभाव को जानो तो है वह कल्याण का कारण । क्योंकि अद्वैत दृष्टि में राग-द्वेषों को बढ़ावा नहीं मिलता । ये झड़ने लगते हैं । सम्वरतत्त्व तो उसका मजबूत रहता है, इसमें कल्याणमय स्थिति है भूतार्थनय से देखने की स्थिति अब इस ही निर्जरातत्त्व को अभूतार्थ पद्धति से देखें तो निमित्त नैमित्तिक भाव का आश्रय करना होगा और उस पराश्रय भाव में आत्मा की ज्ञप्ति का बदलना, आत्मा में रागादिक का होना और यदि विकल्प रूप ही अपने को मान लिया तो उसका सब कुछ बिगड़ जाना ये सब बातें होती हैं । मोक्ष भी दो प्रकार का है भाव मोक्ष और द्रव्य मोक्ष । केवल जीव को निरखना यह भूतार्थनय से भाव मोक्ष है । कर्मत्व का हटना, कर्मों की बात, कर्मों में ही निरखना ये सब द्रव्यमोक्ष हैं । कर्मों से मुक्ति, कर्मों का छोड़ना । तो भूतार्थनय से मोक्ष तत्त्व को देखने में भलाई होती है । इस ही मोक्ष को अभूतार्थनय से देखने पर, देखिये ये इतने बड़े कर्म इस जीव से अलग होते हैं, देखो यह जीव इतने बड़े धन कर्मों से भिड़ा हुआ है । वे कर्म स्थिरता न ला सकें यहाँ वहाँ की बात देखते रहें और ये निश्चय संयम निश्चय चारित्र अपने में समान जाति की बात न पा सके । तो यों अभूतार्थनय से न निरख कर भूतार्थनय से निरखें तो ये सब परिज्ञात तत्त्व सम्यक्त्व की उत्पत्ति के कारण होते हैं । 586-सम्यग्दर्शन और स्वानुभूति में विशेषता:—स्वानुभूति ज्ञान गुण की पर्याय है । वह लब्धिरूप और उपयोगरूप होती है । लब्धि उसे कहते हैं जिसके कि जानने का क्षयोपशम हो और उससमय उसका उपयोग हो या न हो -जैसे किसी को चार भाषाओं का ज्ञान है और उसके सामने किसी एक भाषा का पत्र आया तो वह उसे ही पढ़ता है । तो भी लब्धि में तीन भाषाएं है और उस समय उपयोग में एक भाषा ही आ रही है । सम्यग्दर्शन के होने पर जो स्वानुभूति होती है, वह लब्धिरूप से हमेशा रहती है, किंतु उपयोगरूप से जब कभी । सम्यग्दर्शन लब्धिरूप और उपयोगरूप नहीं रहता ।जो तत्काल देखा वह उपयोग कहलाता है और जिसे जानने की शक्ति है वह लब्धि कहलाती है । लब्धि के होने पर उसका उपयोग संभव है । ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व के दर्शन की शक्ति जिसके प्रकट हुई है ऐसा महानुभाव जब ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व का उपयोग करता है तब उसके स्वानुभव होता है । सम्यक्त्व स्वानुभवपूर्वक उत्पन्न होता है । सम्यक्त्व हुए बाद जब-जब अंतस्तत्त्व का उपयोग किया जाता है तब-तब स्वानुभव होता है । स्वानुभव ही इस आत्मा का एक मात्र वैभव है जिसमें आकुलता को मलीनता को आश्रय नहीं मिल सकता है । स्वानुभव के प्रताप से ही आत्मा आकुलता और मलीनता से रहित हो जाता है और अपने स्वभाव का विकास परिपूर्ण कर लेता है । इस प्रकार आत्मस्वभाव का प्रकाश करता हुआ स्वानुभव प्रकट होता है । उस स्वभाव को बताने के लिए-भगवान ‘कुंदकुंद’ 14वी गाथा में शुद्धनय की कला का प्रायोगिक रूप कहेंगे । इस प्रकार सन 1956 में जबलपुर आदि स्थानों में हुए अध्यात्मयोगी न्यायतीर्थ पूज्यश्री मनोहर जी वर्णी ‘‘श्रीमत्सहजानंद’’ महाराज के समयसार पीठिका के 13 गाथावों के प्रवचन समाप्त हुए । उसी में सन् 1968 के ईसवी के कुछ प्रवचन भी सम्मिलित किये गये ।