वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 155
From जैनकोष
जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं ।
रागादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ।।155।।
जीव आदिक सात तत्त्वों का श्रद्धान करने से तो सम्यक्त्व है और उन ही तत्त्वों का ज्ञान करना सो ज्ञान है और रागादिक भावों का त्याग करना सो चारित्र है । मोक्ष का मार्ग यही रत्नत्रय है।
मोक्षमार्ग की आत्मरूपता―मोक्ष का कारण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र हैं । ये तीनों के तीनों आत्मा के एक परिणमन रूप हैं, एकस्वभाव रूप हैं, किंतु भेददृष्टि से इनको अलग-अलग बताया है । जैसे अग्नि का काम एक है और वह काम क्या है एक? सो ऐसा विलक्षण काम है कि उसको मुख से नहीं बताया जा सकता है । आप कहेंगे कि हम बताते हैं तो सुनो । अग्नि का काम है जला देना । यही अग्नि का काम है तो क्या प्रकाश करना अग्नि का काम नहीं है? बता ही नहीं सकते मुख से । अग्नि का काम जो एक है । पर उसही काम को प्रयोजन के वश से भेदरूप से कहा करते हैं कि यह जलाती है, प्रकाशित करती है और अच्छी बुरी भी लगती है । किसी को अग्नि अच्छी लगती है, किसी को अग्नि बुरी लगती है तो क्या पचासों अग्नि का काम हैं । उसका तो एक स्वभाव है और एक कार्य है । इसी प्रकार आत्मा का तो एक स्वभाव है और एक ही कार्य है । मोक्षमार्ग के प्रकरण में उस एक कार्य को इन तीनों रूपों में बता सकते हैं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, पर इन सबका संबंध ज्ञान से है ।
आत्मा की खोज में ज्ञान का माध्यम―इसी कारण आध्यात्मिक पद्धति में इसका यह लक्षण बनता है कि जीवादिक के श्रद्धान के स्वभाव से ज्ञान के होने का नाम है सम्यग्दर्शन । इसके अंतर में मिलेगा क्या? ज्ञान । अच्छा जरा श्रद्धान से तो ढूँढ़ों कि आत्मा में कहीं श्रद्धा छुपी है? अच्छा जरा आनंद को भी ढूँढ़ों । जैसे अपने घर में ढूँढ़ते हैं तो वहाँ पुस्तक चौकी कोई न कोई चीज मिल जाती है, इसी प्रकार जरा अपने आत्मा के घर को ढूँढ़ों, वहाँ आनंद ढूँढ़ों, श्रद्धान ढूँढ़ों, कुछ न मिलेगा, ज्ञान मिलेगा । वे श्रद्धान आनंद वगैरह ज्ञान के माध्यम में उपस्थित होंगे । आनंद क्या चीज है? ज्ञान का इस ढंग से होना जिससे कि आनंद का अनुभव हो उसका नाम आनंद है । दुःख किसका नाम है? ज्ञान का विपरीत व कल्पना के रूप में उपस्थित होना उसका नाम दुःख है । सुहावने रूप में उपस्थित होना उसका नाम सुख है । तो आत्मा को खोजो, इसमें ज्ञान के सिवाय और कुछ न मिलेगा । सुख, दुख, आनंद, सम्यग्दर्शन विपरीत श्रद्धा जितनी भी बातें लगावो, वे सब ज्ञान के रूप में मिलेंगी । ज्ञान के सिवाय आत्मा में और कुछ प्रतीत न होगा ।
रत्नत्रय की ज्ञानरूपता―मोक्ष का मार्ग जो ये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र हैं ये भी ज्ञान के विशेषरूपक हैं । जीवादिक 7 तत्त्वों के श्रद्धान के स्वभाव से ज्ञान के होने का नाम सम्यग्दर्शन है । जीवादिक तत्त्वों के जानने के स्वभाव से ज्ञान के होने का नाम सम्यग्ज्ञान है । और रागादिकों से दूर बने रहने के स्वभाव से ज्ञान के होने का नाम सम्यक्चारित्र है । अपन जो तप, व्रत नियम रखते हैं, पालते हैं और शरीर की चेष्टाएं भी बड़ी भली-भली करते हैं इन सब प्रसंगों में जितना ज्ञान रागादिक से दूर रहेगा उतना तो है चारित्र और बाकी चलना, उठना, बैठना, शुद्ध खाना ये सब केवल व्यवहार है । जो ज्ञानी अध्यात्मरंग से रंगा है वह चले तो कैसे चले, उसी का नाम व्यवहार धर्म है । पर जिस ज्योति के होने पर उठना, बैठना, चलना भी धर्म कहलाने लगा उस ज्योति का तो कोई ख्याल नहीं करते और केवल उस ज्ञानी के चलने, उठने, बैठने को ही निरखा जाये, उसे ही धर्म मानें तो धर्म का दर्शन नहीं हो सकता है ।
परमार्थदृष्टि-रहित का व्यवहार में प्रवृत्त होने का एक दृष्टांत―कोई धनी व्यापारी चावल के मिल पर गया । चावल खरीदा तथा 1 हजार बोरी धान खरीदा । धान तो आप जानते हैं? खरीद लिया । पीछे रहता था एक अज्ञानी गरीब पुरुष । उसने सोचा कि यह कैसे धनी बन गया है, इसकी कुछ करतूत तो देखें । जो यह करे सो हम करें तो हम भी धनी बन जायेंगे । पीछे रहता था, उसने देखा कि यह जो खरीद रहा है वह कुछ मटमैला-सा है । दूसरे दिन उसने भी वैसी ही चीज, उसी प्रकार की उसी रंग की मिल पर ढेर लगा हुआ देखा, सो खरीद लिया । अब ऐसी मशीनें चल गई हैं कि धान में से चावल निकल आता है और वह छोंक ज्यों का त्यों साबुत रहता है । बिल्कुल साबुत रहता है । होता क्या है कि चावल तो उससे निकल जाता है और चावल निकल जाने के बाद वह छेद मुंद जाता है । यह स्वाभाविक बात है । अभी आप किसी कागज में छेद कर दें तो बाद में अपने आप सिकुड़ जाता है । तो उसने तो खरीदा 20 रुपये मन और इसने खरीद लिया 10 मन में । सोचा कि हम बेचेंगे तो ज्यादह लाभ मिलेगा । खरीद लिया, बाजार में गया । सारा ही टोटा पड़ गया । सोचा कि काम तो वैसा ही किया जैसा कि उस व्यापारी ने किया था । वही चीज, वही रंग, वही ढंग, वही प्रसंग । तो भाई पूरा कैसे पड़े? उसके भीतर जो सार तत्त्व चीज है चावल, उसका तो ज्ञान नहीं किया, खरीदा तो छिलका, लाभ कैसे मिले?
परमार्थदृष्टि रहित व्यामोही का प्रवर्तन―इसी प्रकार इस ज्ञानी जीव के जो विवेकसहित चलना, उठना, बैठना खाना है वह तो छिलका है और अंदर में जो ज्ञानज्योति दमक रही है वही सार है और इस ही सार के कारण वह छिलका भी मूल्य रख रहा है । सार निकल गया, फिर छिलके का मूल्य क्या? प्रवृत्ति तो हो धार्मिक प्रसंगों में और सार को निकाल बैठे और केवल क्रियाकांडों में ही लगे रहे तो ये क्रियाकांड ज्ञान का बिल्कुल मूल्य नहीं रखते । देखो अंतर में केवल ज्ञान का ही सारा समारोह दिख रहा है ।
मोक्ष का हेतु―अज्ञानमय रागादि से अलग रहते हुए के रूप से रहने का नाम सम्यक्-चारित्र है । इस प्रकार सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र तीनों की एकता ही ज्ञान का होना कहलाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि परमार्थभूत मोक्ष का कारण ज्ञान ही है । सभी दर्शनों ने ज्ञान की महिमा गाई है । कोई कहता है कि प्रकृति और पुरुष का यथार्थ भेदज्ञान हो जाये तो उससे मोक्ष होता है । कोई कहता है कि ब्रह्म का सत्य यथार्थ ज्ञान हो जाये तो मोक्ष होता है । जैनदर्शन कहता है कि वस्तुवों के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाये तो मोक्ष होता है । उसमें वीतराग चारित्र के अविनाभूत ज्ञान को कहा है । ज्ञान ही परमार्थ मोक्ष का कारण है ।
अब बतलाते हैं कि परमार्थभूत मोक्ष का कारण जो ज्ञान है उस ज्ञान से अतिरिक्त जो अन्य कुछ कर्म हैं, क्रियाएं हैं वे मोक्ष का हेतु नहीं हैं ऐसा दिखाते हैं ।