वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 156
From जैनकोष
मोत्तूण णिच्छयट्ठं ववहारेण विदुसा पवट्टंति ।
परमट्ठमस्सिदाणं हु जदीण कम्मक्खओ विहिओ ।।156।।
योगचेष्टा में द्रव्यांतरस्वभावता―कोई लोग परमार्थ मोक्ष का कारण ज्ञान नहीं माना करते । व्रत, तप आदि शुभ कर्मों को मानते हैं वह प्रतिषिद्ध है, युक्तवाद नहीं है । ये व्रत, तप आदि तो द्रव्यांतर के स्वभाव मन, वचन, काय के परिणमन हैं । मन, वचन, काय के परिहरण स्वभावरूप से ज्ञान का होना बनता है । ज्ञान के संबंध के कारण इन व्रत, तप आदिक का मूल्य है मोक्षमार्ग में । ज्ञान का संबंध न रहे तो इनका कोई मूल्य नहीं है । व्यवहार में यों बहुत-सी बातें बोलते हैं जैसे घी का डिब्बा । तो वह घी का डिब्बा है क्या? नहीं । अरे घी का डिब्बा बनावो तो जाड़े में बन सकता है पर आग पर तपने को धर दिया तो वह घी का डिब्बा खतम हो गया । होता है क्या घी का डिब्बा? नहीं । जिस डिब्बे में घी रखा जाता है उसका नाम है घी का डिब्बा ।
उपचार में बेढब व्यवहार―उपचार की बात तो कहीं बड़ी बेढब भी हो जाती है । ये मेहतर लोग होते हैं तो घर कमाया करते हैं । किसी के चार हवेली लगी है तो किसी के 10 हवेली लगी है । उनका विष्टा ये मेहतर लोग उठाया करते हैं । तो वे मेहतर लोग आपस में बातें करते है कि हमारे से तुम्हारे पास 6 हवेली ज्यादह हैं, 8 हवेली ज्यादह हैं और ब्याहकाज में हवेली को गिरवी भी रख देते हैं । 10 हवेली वाले ने 2 हवेली गिरवी में रख दी तो उसके पास 8 हवेली बची । अमुक सेठ की और अमुक आफीसर की हवेली गिरवी में रख दी और ब्याह में जब दाम आ गए तब हवेली उठा ली । उनका उन हवलियों से थोड़ा-सा संबंध है इसलिए हवेली वाले कहलाते हैं । इसी तरह यह समझो कि जिस घर में हम और आप रहते हैं वह भी वैसा ही है । हां थोड़ा-सा फर्क इतना हो गया है सो उस घर से आपको कोई निकाल नहीं सकता है और उस मेहतर को थोड़ी-सी सफाई करनी थी, यहाँ बहुत दूर तक की सफाई का काम लगा है । यदि मृत्यु हो जाये तभी इस घर से आप अलग हो सकते हैं, नहीं तो उस घर से आपको कोई हटा नहीं सकता है । इतना थोड़ा-सा लोक-व्यवस्था के नाते आपको अधिकार-सा मिला हुआ है । इतनी ही तो बात है । वास्तविक अधिकार तो नहीं, तिस पर भी तुम कहते हो कि यह मेरी हवेली है । इतना अधिकार तो उन मेहतरों को भी है कि उनकी हवेलियों को कोई छुड़ा नहीं सकता । हां मालिक ही नाराज हो जाये तो वह छुड़ा सकता है । तो इसी प्रकार ये यमराज ही नाराज हो जायें और घर छूट जाये, यह भी तो हो सकता है ।
अज्ञानपरिणमन से मोक्ष की त्रिकाल असंभवता―अज्ञानी जीव इन बाह्य पदार्थों को ही अपना-अपना कहते फिरते हैं, पर परमार्थ से देखो तो किसी का कोई दूसरा पदार्थ कुछ नहीं है । फिर बाह्य पदार्थ तो मेरे कुछ नहीं हैं । चूँकि यह ईश्वर है, प्रभु है, ज्ञानी है, समर्थ है सो जिस चाहे पदार्थ को अपना मान बैठता है । बाह्य पदार्थों को अपना मान बैठता है । बाह्य पदार्थों को अपना मान बैठना यह बंधन है और तत्त्वज्ञान के बल से अंतर में यह भ्रम मिट गया, ज्ञान हो गया यथार्थ, इसी के मायने मोक्षमार्ग है । तो ज्ञानभाव के अतिरिक्त जितनी भी तन, मन, वचन की क्रियाएं हैं ये मोक्ष के कारण नहीं हैं क्योंकि तन, मन, वचन के परिणमन ज्ञान के होने के रूप से नहीं होता । मोक्ष का मार्ग तो, परमार्थ मोक्ष का हेतु तो एक-द्रव्य-स्वभाव है ।
वास्तव में मोक्ष की एकद्रव्यस्वभावरूपता―मोक्ष मायने छूटना अर्थात् अलग होना । अलग होना अलग हुए द्रव्य के स्वभावरूप है, दूसरे वस्तु के स्वभावरूप नहीं है । जैसे हाथ का हाथ से यह बंधन है । एक हाथ से दूसरा हाथ छूट गया तो इसका जो छूटना है वह किसके स्वभावरूप है सो बतलावो । आप कहेंगे कि इस कमरे में बैठा हूँ तो इस कमरे के रूप है हाथ से हाथ का छूटना । क्या यह उत्तर आपको जंचा? नहीं । आप कहेंगे कि इतने श्रोता लोग सामने बैठे हैं सो यह मोक्ष इन श्रोतावों के स्वभावरूप है । तो क्या यह छूटना इन श्रोतावों के स्वभावरूप है? नहीं । तो कमरे के स्वभावरूप है? नहीं । दूसरों के स्वभाव रूप है? नहीं । और कदाचित दूसरा आदमी इस एक हाथ को पकड़कर मसल कर छोड़ दे तो उस दूसरे आदमी के स्वभावरूप भी नहीं है इस हाथ का छूटना । इस हाथ की मुक्ति इस हाथ के ही स्वभावरूप है । इसी प्रकार आत्मा में कर्मों का बंधन लगा है और उस प्रसंग से आत्मा छूट जाये तो आत्मा का यह छूट जाना कर्मों के स्वभावरूप है या व्रत एवं तपस्यावों के स्वभावरूप है या आत्मा के स्वभावरूप है? यह आत्मा का छूटना आत्मा के स्वभावरूप है ।
हित के लिये ज्ञान की वर्तना आवश्यक―यह आत्मा ज्ञान को ही अन्य कल्पना में जकड़कर बंध रहा था और ज्ञान को ही सुधार कर छूट गया । तो चूँकि आत्मा का मोक्ष ज्ञान के होने रूप है तो मोक्ष का मार्ग भी ज्ञान के होने रूप है । इसलिए शांति पाने के लिए एक आत्मतत्त्व का आराधन करो, ज्ञानस्वभाव का आराधन करो । प्रवृत्ति से सबके उपकारी रहो पर भीतर में अपने आत्मा का ही नाता रखो । आप कहेंगे कि यह तो मायाचार हुआ । मायाचार नहीं है । हमें कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं करना है । कदाचित् मेरे ज्ञान में इतनी प्रबलता आ जाये कि साक्षात् परिवार को छोड़कर, एकाकी साधु बनकर मैं ज्ञानसाधना में रह सकूं । पर यह तो करना कठिन दिख रहा है क्योंकि राग का उदय है, कमजोरी है, कर नहीं सकते हैं, इस कारण परिवार के लोग छोड़े नहीं जा सकते तो भला वार्तालाप कीजिए, न्यायपूर्ण व्यवहार कीजिए और अपने आत्मतत्त्व का स्मरण कीजिए । परमार्थ ज्ञानस्वरूप ही हम और आपके लिए शरण है । अन्य कोई पदार्थ हमारे लिए शरण नहीं है ।
धर्म सजावट से अत्यंत दूर―ज्ञान का होना ज्ञान के स्वभाव रूप है और यह ज्ञान का होना एक द्रव्य के स्वभावरूप है । इसलिए मोक्ष का हित ज्ञानस्वरूप है, अन्य कुछ नहीं है । मोक्ष कोई दिखावटी काम नहीं है, बनावटी काम नहीं है, सजावटी काम नहीं है । यह तो दिखावट से बिल्कुल दूर रह जाये, बनावट से बिल्कुल दूर रह जाये, सजावट से बिल्कुल दूर रह जाये, उसका काम है । धर्म दिखाने, बनाने, सजाने से नहीं होता । दिखाने, बनाने, सजाने में जितना अधिक रहोगे उतना ही अधिक ज्यादह अधर्म है । यह गुप्त आत्मा गुप्त रीति से गुप्त में गुप्त हो जाये, बस यह धर्म का पालन है । इस ज्ञान की साधना अधिकाधिक कर लीजिए अन्यथा मनुष्य भव के ये क्षण व्यतीत होते चले जा रहे हैं । समय बिल्कुल निकट आ जायेगा जब कि इन लौकिक जीवों से विदा लेना होगा । सबकी हालत देख लो, वही हाल अपना होगा । इस कारण जो जीवन शेष रह गया है । इस शेष जीवन में आत्मश्रद्धा, आत्मज्ञान और आत्मरमण की प्रक्रिया को अधिक बना लो तो इस भोग से, इस समाधि से हमारा आपका कल्याण है ।
गृहस्थ के षट् कर्तव्य―अब आप गृहस्थ हैं तो इस गृहस्थ के नाते आपका क्या कर्तव्य है कि धर्ममार्ग भी आसानी से मिले और तुम्हारा काम भी ठीक चले । उसके लिए 6 कर्तव्य आपको बता दिए गए । गृहस्थ को प्रतिदिन देवपूजा, देवदर्शन करना चाहिए तो संस्कार बने रहेंगे । आत्मदर्शन के लिए बहुत काम है । दूसरा काम है गुरुवों की उपासना करना, सत्संग करना, सेवा करना और विनयपूर्वक उनसे कुछ अपने ज्ञान का लाभ लेना । तीसरा काम है प्रतिदिन स्वाध्याय करना । चौथा काम है संयम करना, शुद्ध खाना, जीवरक्षा करना । 5 वां काम है तप करना । पुण्योदय से जो मिला है उसमें ही गुजारा करके प्रसन्न रहो । दूसरों की बढ़ती हुई संपदा को देखकर मन में इच्छा न करो कि मेरे भी यह सब हो जाये । धन ज्यादह हो गया तो क्या, कम रह गया तो क्या । विनाशीक ही तो है, परद्रव्य ही तो है । यही है गृहस्थ का तप । और छठवां कर्तव्य है प्रतिदिन यथावश्यक दान करना । ये गृहस्थ के 6 कर्तव्य हैं । अपने इन 6 कर्तव्यों में बराबर गृहस्थ लगा रहे तो इसको भविष्य में बहुत उद्धार के अवसर आयेंगे ।
हित का उपाय―विषय कषायों में लगने से इस गृहस्थ को कोई हित नहीं है । तीन घंटे, 2 घंटे समय अपना धर्मकार्य में व्यतीत हो और आत्मानुभव के लिए 5-7 मिनट का भी अभ्यास बना रहे तो प्रक्रियावों से अपना भविष्य उज्ज्वल होगा । किए बिना कोई काम पूरा नहीं पड़ता । आत्मा का कार्य पूरा करना है तो विधिपूर्वक हमें करना चाहिए । इस प्रसंग में कषाय न जगेगी । किसी भी पदार्थ में ईर्ष्या नहीं होगी । किसी भी धर्म की योजना को उठाने के लिए जो सामर्थ्य है वह तो साधें, पर किसी को कोई बाधा न दें । इस विधि से चलने पर अपना उत्थान होगा ।
संकटों से मुक्ति का उपाय―यह प्रकरण चल रहा है कि मोक्ष कैसे होता और यह सारा संसार दुःखमय है, इससे छूटने में ही भला है । इससे छूटने का उपाय क्या है, इसका प्रकरण यह चल रहा है ꠰ छूटने का उपाय बताया है ज्ञान । लोक में परमार्थ के अपरिचितों की बहुलता है इस कारण यह प्रसिद्ध हो गया है कि बड़े-बड़े तप करना, व्रत करना, मन, वचन, काय की अच्छी चेष्टा करना इनसे मुक्ति होती है । दीन दुखियों का उपकार करना, देशसेवा करना, इससे मुक्ति होगी ऐसा प्राय: लौकिक पुरुषों ने कहा है । यद्यपि ये बातें परकृत उपेक्षा हैं । दोनों का उपकार करना, व्रत नियम करना, तपस्या करना, तो भी जब यह विचार करते हैं कि इस क्लेशमय संसार में सदा के लिए कैसे छूटें तो उन उपायों में ये उपाय शामिल नहीं हैं । सदा के लिए संकटों से छूटने का उपाय आत्मतत्त्व का यथार्थ ज्ञान है ।
मोक्षमार्ग में ज्ञानविकास का अनुसारित्व―यथार्थ ज्ञान होनेपर भी जब तक इस जीव के राग चलता है तब तक इसे राग का काम करना पड़ेगा । ज्ञानी जीव से विषयकषाय विडंबना राग करते नहीं बन सकता । ज्ञानी जीव के राग हो तो वे तप, व्रत, संयम, नियम, शील, उपकार, भक्ति, सत्संग इस प्रकार का ही राग किया करते हैं । तो भी जितना राग का अंश है उतना तो पुण्य का कारण है और पुण्य के फल में संसार का रहना होता है और जितने अंश में उसका ज्ञान है, सदा वीतराग ज्ञानस्वरूप की ओर झुकते रहना है, इतना ही मोक्ष का हेतु है। मन, वचन, काय पुद्गल के स्वभाव से होते हैं, और वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान, ज्ञान के स्वभाव से होता है । आत्मा है ज्ञानमय इसलिए आत्मा के स्वभाव से जो कार्य होगा वह तो मोक्ष का कारण बनेगा और आत्मा के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के स्वभाव से जो कार्य होगा वह आत्मा के मोक्ष का कारण न बनेगा । ये मन, वचन, काय की क्रियाएं पुद्गलद्रव्य के स्वभाव से होती हैं । कर्म के स्वभाव से अर्थात् प्रकृति का निमित्त पाकर जो होता है वह ज्ञान का होना नहीं कहलाता है, वह अन्य द्रव्यों के स्वभाव से होता है । इस कारण वह मोक्ष का कारण नहीं है ।
शुभ व्यवहार की साधकता व बाधकता―यद्यपि मन, वचन, काय की चेष्टाएं व्रत, तप, नियम आदिक ये सभी कार्य अवसर तो देते हैं इस जीव को कि मोक्ष के मार्ग में लगे तथापि साक्षात् मोक्ष को तिरोहित करते हैं, ये बंधरूप हैं इसलिए इनका निषेध किया जाता है । जैसे कोई पुरुष शिखरजी की यात्रा को चले, आधे पहाड़ पर चढ़ गया, थक गया बेचारा तो अब एक वृक्ष के नीचे 10 मिनट के लिए बैठ जाता है । अब 10 मिनट को जो वह बैठ गया उसका यह बैठना यात्रा का साधक है या बाधक? यह प्रश्न सामने आता है । उत्तर दोनों मिलेंगे । यात्रा का साधक भी है और बाधक भी । बाधक तो स्पष्ट है कि 10 मिनट को यात्रा रुक गई । और साधक यों है कि थका हुआ था, आगे इस स्थिति में जाने में वह असमर्थ था । तो बैठकर अपनी शक्ति बढ़ा रहा है और अपनी शक्ति को उत्पन्न करके फिर आगे आसानी से यात्रा कर सकेगा । इस कारण उसका 10 मिनट को बैठना उसके लिए साधक है । इसी प्रकार ये व्रत, तप, नियम जो किए जाते हैं यह बतलावो कि ये मोक्ष के साधक हैं या बाधक? बाधक तो प्रकट हैं क्योंकि जब उपयोग परद्रव्यों में लग रहा है तप, व्रत, नियम ये परभाव हैं । इनसे जब उपयोग चल रहा है तो उपयोग उपयोग में नहीं जा रहा है । इसलिए बाधक है । और साधक इसलिए है कि यह सन्मार्ग में चलते-चलते थक गया है, पुराने राग का उदय आता है तो उस थकान से कहीं थक कर यह वापिस न लौट आये, विषय कषायों में न चला जाये, इस कारण इन शुभ भावों में लगता है और यह अपनी शक्ति को प्रकट करता है, ज्ञानभावना बढ़ाता है, फिर आगे आसानी से यह चल सकता है ।
ज्ञान की प्रथम आवश्यकता―भैया ! कुछ भी हो, प्रत्येक स्थिति में आत्मा का यथार्थज्ञान करना हित के लिए आवश्यक है । जो हित का मार्ग है वह करते नहीं भी बनता तो भी उसका सच्चा ज्ञान तो आवश्यक है क्योंकि जितना भी फल जीव को मिलता है वह ज्ञान की विधि से मिलता है । यहां जिस प्रकार का ज्ञान का उपयोग रहता है उस ही प्रकार का सुख-दुःख आनंद मिलता है । कोई जानता हो कि हमारे घर के लोग बड़े आज्ञाकारी विनयशील हैं इस कारण इनसे हमें आनंद मिलता है यह सोचना भ्रम है । उनसे आनंद नहीं मिलता किंतु उनका ख्याल करके अपने आप में जो एक साता का परिणाम बन जाता है और उस प्रकार का ज्ञान बन जाता है उस ज्ञान से आनंद मिलता है । पुत्र, मित्र, स्त्री आदि से आनंद नहीं मिलता है ।
एकत्व का मर्म―यह आत्मा देहरूपी मंदिर में अकेला विराजमान है और यह अपने में अपनी परिणति से काम करता चला जा रहा है, यह दूसरे का कुछ नहीं करता है और न दूसरे इसका कुछ करते हैं । यह अपने स्वरूप के दृढ़ किले में बैठे-बैठे अपने ज्ञान के अनुसार अपनी भाव रचना बनाता है । यह मर्म जिसने जाना है वह संसार से मुक्त हो सकता है । और यह मर्म न जानकर बाह्य पदार्थों से ही अपना हित मान कर, उनसे संबंध मानकर उनकी ही ओर जो आकृष्ट हो रहे हैं उनको इस संसार में जन्म-मरण के चक्र लगाना पड़ता है ।
सदाचार की अविफलता―जैसे एक घटना की बात है कि दो मित्रों में एक चर्चा छिड़ी परभवों के बारे में । एक ने कहा था कि परलोक कुछ भी नहीं है, जो कुछ है वह सब यहीं की चीज है । मरे के बाद फिर इसका निशान भी नहीं रहता । परभव कुछ भी नहीं है । यह तो खाने कमाने के लिए कुछ लोगों से दान दक्षिणा मिलती रहे सो एक परभव का भूत लगा दिया । दूसरे मित्र ने कहा कि परलोक अवश्य है । और जैसे इस लोक में यह अपना कार्य करता है उसके अनुसार ही इसे परलोक में सुख-दुःख भोगने पड़ते हैं । बात बहुत देर तक चली । चलने के बाद अंत में एक बात रखी गई कि अच्छा यह बतलावो परभव न सही, पर तुम किसी को पीटोगे, गाली दोगे, सतावोगे तो तुम सुख से रह सकते हो क्या? नहीं रह सकते हैं । तो इस लोक में सुखी रहने के लिए किसी का दिल न दुखाना, किसी का घात न करना यह जरूरी है कि नहीं? है । झूठ बोलोगे, चुगली निंदा करोगे तो तुम सुख से बैठ सकते हो क्या? नहीं । क्या तुम पर हाथापाई न होगी? हे भाई होगी । तो इस लोक में सुख से रहने के लिए असत्य का त्याग करना चाहिए । ठीक है ना? इसी प्रकार चोरी, डकैती करो तो चैन से रह सकते हो क्या? नहीं । तो उस चोरी का त्याग करना पड़ेगा । इसी तरह मन को स्वच्छंद बनाकर जिस चाहे स्त्री को जैसा चाहे बोल देना, जैसा चाहे व्यवहार रखना, इस प्रवृत्ति में आफत आयेगी या न आयेगी, जरूर आयेगी । तो इस लोक में सुखी रहने के लिए परस्त्री से नेह न लगाना आवश्यक है । इसी तरह किसी को परिग्रह का संचय करने की धुन लग जाये तो परिग्रह की धुन में कई तरह के आरंभ करने पड़ेंगे और झूठ सच भी बोलना पड़ेगा । इस लोक में भी सुख से जीना धर्म से ही हो सकता और यदि परभव निकल आया तो परभव में सुख होगा ।
परसंचय की बुद्धि से विमुख करने का उद्देश्य―जैसे समुद्र का भराव स्वच्छ जल से नहीं हुआ करता है, गंदी नदियों के जल से समुद्र भरा करता है । जैसे टंकी का फिल्टर पानी को स्वच्छ रखता है, ऐसे स्वच्छ जल से समुद्र भरा है क्या? नहीं । वह तो मटमैले गंदे पानी से भरा है, इसी प्रकार जो अधिक धन आता है विषयों का साधन जुटाया जाता है वह स्वच्छ विचारों से आता है क्या? नहीं । अभी जो बड़े-बड़े पुरुष हैं, जैसे बिरला, टाटा, वाटा, डाल्मिया साहू आदि जितने भी हैं, और इनकी जितनी कमाई है उनके निकट संबंधी जानने वाले पुरुष समझते होंगे कि कितनी खटपटें, कितनी आपत्तियां और कितने ही झंझट उन्हें करने पड़ते हैं । छोटे लोग इतना अन्याय कर सकते हैं क्या, जितना कि बड़े-बड़े लोग किया करते हैं । हमें ज्यादा पता नहीं है पर करीब ऐसी ही बात है । तो परिग्रह की धुन में जो परिग्रह के कार्य करता है वह चैन से रह सकता है क्या? नहीं । रोज उसे चोर डाकू हैरान करेंगे । राजा भी सतायेगा, पब्लिक भी सताएगी । तो सुख से रहने के लिए परिग्रह कम कर लो । पर की चीज को भ्रम से मान लिया कि यह मेरी है तो ऐसा भ्रमपूर्वक विपरीत ख्याल करके किसी को चैन मिलती है क्या? नहीं । तो यथार्थ ज्ञान भी शांति के लिए आवश्यक है । तो अब हम अपनी शांति के लिए यथार्थ ज्ञान करें, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह का त्याग करें और देखो ऐसा करते हुए में इस लोक में तो शांति होगी ही, और पर-लोक के मामले में भी टोटा न रहेगा ।
आत्मा का सत्त्व, आनंद व उपाय―अब प्रकृति बात को देखो―मोक्ष है या नहीं? ऐसी यदि दो तरह की चर्चा चली हो तो उसमें विचार कर लो । यह आत्मा जब धीरता को त्याग कर, गंभीरता को अलग कर बाह्य पदार्थों की ओर झुकता है और क्षोभ में आता है उस समय यह जीव दुःखी है । और जब बाहरी पदार्थों में उलझता नहीं है, विश्राम से बैठता है इस ओर संतोष करता है उस काल में ही इसे शांति मिलती है । और आत्मा हो तो, परमात्मा हो तो, मोक्ष हो तो उसकी झलक भी इसे आ जाती है । तो जैसे लौकिक आपत्तियों से बचने के लिए 5 पापों का त्याग करना जरूरी है इस प्रकार स्वाधीन सत्य आनंद पाने के लिए अपने आपके सत्य स्वरूप की ओर रुचि करना आवश्यक है । हम आप हैं या नहीं पहिले यह विचार कीजिए । कहो कि नहीं हैं तब तो इससे बढ़िया और बात क्या हो सकती है । हम यदि न हों तो बहुत भले की बात है । यदि हम न हों तो सुख दुःख ही क्या होंगे, हमें आकुलताएं ही क्या होंगी? यदि हम आप न हों तो यह सर्वोत्कृष्ट बात होगी । मगर हम हैं । जब हैं तो अपने सत्त्व की वजह से जैसे हैं तैसे ही अपने को जान जायें तो यह है सम्यग्ज्ञान ।
सहज स्वरूप की जानकारी के लिये एक मोटा दृष्टांत―जैसे यह चौकी है । तो चौकी को आप कितना मानते हैं? जितना कि पाटिया आप पहिले लाये थे और बढ़ई ने साफ करके रंदा फेरकर बनाया था । इतनी है यह चौकी । और जो चिकनी चापड़ी लग रही है, यह चौकी नहीं है । चौकी है तो वह अपनी सत्ता के कारण जितनी है उतनी है, जरा सोचो । चौकी ऐसी पीली नहीं है क्योंकि चौकी का जो काठ है उस काठ के सत्त्व के कारण यह रंग नहीं हो सकता । इस चौकी के सत्त्व के कारण जो बात इस चौकी में है वह सहज है । इसी प्रकार हम हैं, अपने सत् के कारण जो स्वरूप मेरा हो सकता है बस वही है परमात्मतत्त्व । उसकी दृष्टि हो तो हम शाश्वत शुद्ध आनंद पा सकते हैं । हमारे सत्त्व के कारण जो मेरा सहजस्वरूप है, ज्ञानमात्र प्रतिभास मात्र, उसको तो मानें कि यह मैं हूँ । और अगर यह माना कि मैं रागद्वेष क्रोध करने वाला, अनेक पर्यायों वाला हूँ तो यह मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व दो तरह के होते हैं―(1) गृहीत मिथ्यात्व और अगृहीत मिथ्यात्व । कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु की उपासना करना गृहीत मिथ्यात्व है और अपने आपकी सत्ता के कारण जैसा मेरा स्वरूप हो सकता है उस स्वरूप रूप अपने को न मानकर जो पर-उपाधि के संबंध से विडंबना होती है उस विडंबनारूप अपने को मानना यह है अगृहीत मिथ्यात्व ।
लौकिक विज्ञान से आध्यात्मिक ज्ञान की उत्कृष्टता―लोक में ज्ञान नाना प्रकार के हैं । कितने विषय हैं? यंत्रों के चलाने का विषय, मकान के बनवाने का विषय, कोई विज्ञान के आविष्कार करने का विषय, इतिहास के जानने का विषय, इस दुनिया को नीति समझाने का विषय आदि अनेक विषय हैं और बहुत से लोग एक-एक या दो-दो विषयों में अत्यंत निपुण हैं, उनके पास लौकिक ज्ञान है पर अध्यात्म ज्ञान वह ज्ञान है कि जिस ज्ञान के कारण चाहे लौकिक पुरुषों में वाहवाही न मिल सके क्योंकि लौकिक पुरुष तो उसकी वाहवाही करेंगे जो स्वार्थसाधक ज्ञान का प्रयोजक हो । इस अध्यात्म ज्ञानी की वाहवाही नहीं कर सकते । किंतु यह अध्यात्म ज्ञान ऐसा समर्थ ज्ञान है कि अनंतकाल तक के लिए सर्व संकटों से छुटाकर अनंत आनंदमय पद में पहुंचाता है ।
कल्याणार्थी का साहस―कल्याणार्थी जो पुरुष होते हैं उनमें ऐसा अपूर्व साहस होता है कि दुनिया उन्हें कुछ न जाने, सारी दुनिया चाहे उन्हें बुरा कहे, पर उन्हें यह पूर्ण विश्वास होता है कि मैं समस्त जीवों के लिये कुछ नहीं हूँ । मैं Nothing हूँ । ऐसा एक बड़ा रहना है जिसके कारण उसे बाह्यपदार्थों में तृष्णा नहीं लगती । बाह्य मोही पुरुषों के संग के लिए उसके उत्साह नहीं जगता । करने पड़ते हैं उसे अपने घर के सब काम । आफिस का काम, दुकान का काम, घर का काम, मगर जिसके ज्ञान में यह बात लग गई है कि मैं तो केवल ज्ञानमात्र हूँ, और इस ज्ञानमात्र निज स्वरूप में ही मेरा सारा भला है । इससे बाहर मेरा किसी से कुछ संबंध नहीं है । इस प्रकार से जो सबसे अलग है वह बाहर के कामों को करता हुआ भी न कर्ता होता है, लोगों से बोलता हुआ भी न बोलता हुआ होता है, जाता हुआ भी न जाता हुआ होता है ।
कर्तृत्व का मूल करने की रुचि―भैया ! जब इस लोक में ही किसी इष्ट का वियोग हो जाने पर उस इष्ट के मिलाप की धुन में यह इतना बेहोशसा हो जाता है कि इसे खाने बोलने की भी व्यवहारवत् सुध बुध नहीं रहती है । रिश्तेदार लोग समझाते हैं, इसे जबरदस्ती खिलाते हैं तो भी खाता हुआ भी न खाता हुआ होता है क्योंकि करने की बात उसमें मानी जाती है जिसमें अपना दिल उपयोग, रुचि लगाया है । जो कार्य दिल से नहीं किया जाता, रुचि से नही किया जाता वह न करने की तरह है । आपका ही नौकर आप से कुछ रूठ जाये, आपके कार्य करने का दिल न रहे और आपके रूतवा के कारण उसे काम करना पड़ता है तो वह इस प्रक्रिया को करता है कि अगर आपको देख लिया तो थोड़ासा मुंह बनाकर काम करने लगा, तो ऐसा देखकर आप कहते हैं कि क्यों बे ! काम कुछ भी नहीं करता । अरे काम क्यों नहीं करता काम कर तो रहा है, घास खोद रहा है, पानी भी डाल रहा है फिर भी आप कहते हैं कि यह काम बिल्कुल नहीं कर रहा है । अरे वह रुचि से नहीं करता, दिल से नहीं करता, इसलिए उसे अकर्ता में शामिल कर लिया है ।
आत्मा में हो सकने वाली क्रिया―इसी प्रकार जिसको यह विश्वास है कि यह मैं आत्मा चैतन्यस्वरूप हूँ, कुछ कर पाता हूँ तो चैतन्य का ही काम कर पाता हूँ । अपनी इस सीमा से बाहर मैं कुछ नहीं करता हूँ । मैं किसी पर का करने वाला नहीं हूँ । मैं निमित्त पड़ जाता हूँ । जो होना है वह पर के परिणमन से अथवा पर की योग्यता से स्वयमेव होता है । कोई चीज उठाकर एक जगह से दूसरी जगह धरी तो इस प्रसंग में मुझ आत्मा ने कितना काम किया कि ज्ञान किया, इच्छा की इस चीज को उठाकर धर दें ऐसा मन में परिणाम हुआ और उस परिणाम की चाह के कारण ये आत्मप्रदेश हिल गए । ये आत्मप्रदेश इतने गंभीर हैं, इतने शांत हैं, इतने कोमल हैं कि इनमें इच्छा की रंच भी तरंग उठी तो इन प्रदेशों में हलन-चलन हो उठता है । इसने एक इच्छा उत्पन्न की तो उसके कारण आत्मा के प्रदेशों में हलन चलन हो गया, बस यहाँ तक तो मेरी करतूत थी । इसके आगे मेरी कुछ भी करतूत नहीं है, इससे बाहर अन्य पदार्थों की परिणति स्वयमेव होती है ।
आत्मा का आत्मगत कार्य―ज्ञान, इच्छा और प्रदेशों का हलन-चलन यहाँ तक तो आत्मा का काम है और इसका निमित्त पाकर इस शरीर की वायु का फिरना स्वयमेव होता है । इस वायु के फिरने से चूँकि ज्ञान इच्छा जिस ढंग की थी उस ही ढंग से ये हिल गए अंग, ये हाथ वैसे ही हिल गए और हाथों का निमित्त पाकर दोनों हाथों के बीच में पड़ी हुई वस्तु में भी गति हो गई । ये सारे काम स्वयमेव होते हैं । आत्मा तो अपने आपके प्रदेशों में जानकारी, इच्छा, हलन-चलन, लोभ इतने ही मात्र करता है । इसके आगे आत्मा का कोई कार्य नहीं होता । ऐसा जिसे स्पष्ट बोध है वह पुरुष जाता हुआ भी नहीं जाता है, बोलता हुआ भी न बोलता हुआ होता है, सुनता हुआ भी न सुनता हुआ होता है । उसे यह विश्वास है कि मैं केवल अपने भावात्मक काम किया करता हूँ । इससे बाहर और किसी पदार्थ में कुछ कर देने की प्रक्रिया नहीं होती ।
जीव के स्वभाव के आविर्भाव का कारण शुद्ध ज्ञातृत्व―तो भैया ! आत्मा ने ज्ञान और इच्छा किया, योग किया कि शरीर के माध्यम से ज्ञानी पुरुष के तप का, नियम का, व्रत का पालनरूप परिणमन हुआ । यह ज्ञानी जान रहा है कि समितिपूर्वक पदार्थ भी यहाँ से वहाँ रखा जा रहा हो, मगर यह उसका काम नहीं है । उसका काम अंदर में ज्ञान और इच्छा कर लेना भर है । इस कारण यह व्रत, नियम, तप करते हुए भी न करते हुए की तरह है । यह द्रव्यांतर का स्वभाव है । यह मोक्ष के हित का तिरोधान करने वाला है । मोक्ष का तिरोधान होने से इन सब पुण्य कार्यों का भी मोक्ष के लिए निषेध किया गया है । देखिए सुरक्षा इसी में है कि व्यवहार तो पुण्यकार्यों का बना रहे, व्रत, नियम, तप, ध्यान सब कुछ बना रहे और इस प्रसंग में रहता हुए भीतर अपने आपके ज्ञान में डुबकी लगाया करे तो यह प्रक्रिया हम और आपके लिए संसार के संकटों से बचाने वाली होगी । यह आत्मा के संकटों से बचने की बात कही गई है ।
स्वरूपाचरण की नींव―ऐसे ज्ञानी पुरुष जब व्यवहार में आयेंगे तो व्यवहार भला स्वयमेव होगा । जिस भले व्यवहार के लिए ज्ञानावस्था में बड़े-बड़े व्याख्यान किए जाते, बडे-बड़े विचार किए जाते और सर्वत्र बोल बालासा दिखता है, इतनी बड़ी मेहनत से जिस सदाचार को पालने के लिए व्यायाम करना पड़ता है वह सदाचार स्वयमेव पल जाता है । अंतरंग में यथार्थ ज्ञान होना चाहिए । तो यह प्रक्रिया यथार्थ ज्ञान वाली मौलिक प्रक्रिया है जिसके ऊपर सदाचार का महल निर्वाध खड़ा हो सकता है । सच्चा ज्ञान, सच्चा विश्वास और सच्चा आचरण ही हम और आपका रक्षक है ऐसा जानकर इस रत्नत्रय के ही ध्यान में रहना चाहिए ।
अब यहाँ यह बात सिद्ध करते हैं कि कर्म मोक्ष के हेतु का तिरोधान करते हैं याने कर्मों के कारण मुक्ति का मार्ग प्रकट नहीं हो सकता ।