वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 167
From जैनकोष
भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो ।
रागादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो णवरि ।।167।।
रागादिसंपर्कमज भाव―इस आत्मा में राग-द्वेष-मोह के संपर्क से उत्पन्न होने वाला भाव अज्ञानमय ही है । वह कर्म करने के लिए आत्मा को प्रेरित करता है । इन शब्दों में बहुत गहरा आध्यात्मिक तत्त्व भरा है । प्रथम तो यह कहा कि राग-द्वेष मोहभाव कर्म करने के लिए प्रेरित नहीं करता, किंतु राग-द्वेष-मोह के संपर्क से उत्पन्न होने वाला परिणाम वह आत्मा को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है । राग-द्वेष-मोह को छोड़कर उसके संपर्क से होने वाला परिणमन और क्या है? यह गहरी सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने से मालूम पड़ता है ।
निमित्तरूपपरिस्थिति का एक दृष्टांत―इसके लिए एक दृष्टांत दिया है । चुंबक पत्थर लोहे को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है । उस लोहे को क्रियान्वित होने के लिए प्रेरित करता है अर्थात् वह लोहे की सुई खिंच जाये । बहुत से चुंबक ऐसे होते हैं कि सुई चार अंगुल दूर हो यदि चाकू की नोक दिखा दी जाये तो वह सुई चाकू में खिंच जाती है । इस ही दृष्टांत को ले लिया जाये तो चुंबक, लोहे को कर्म करने के लिए प्रेरित नहीं करता―किंतु लोहे का इतने अंतर से उपस्थित होने के कारण उत्पन्न हुआ जो एक परिणाम है, वातावरण है, परिस्थिति है भाव है, वह सुई को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है । यदि चुंबक ही सुई को क्रियान्वित करने के लिए प्रेरित करता होता तो कहीं रखा हो चुंबक प्रेरित कर ले, पर नहीं कर सकता है । इसलिए अयस्कांतोपल के विशिष्ट संपर्क से उत्पन्न होने वाला परिणाम वातावरण लोहे की सुई को खींचने के लिए प्रेरित करता है, इसी प्रकार राग द्वेष मोह होने के संपर्क होने से उत्पन्न हुआ भाव अज्ञानमय परिणाम कर्म को करने के लिए प्रेरित करता है ।
आस्रव के निमित्त का निमित्तभूत अज्ञानमय भाव―ये राग-द्वेष-मोह तो अनेक भाव हैं । यह भेददृष्टि से देखा गया है । पर संपर्क में आने पर उत्पन्न होने वाला जो परिणाम है वह परिणाम एक अज्ञानस्वरूप है । वह अज्ञानस्वरूप भाव कर्म को करने के लिए आत्मा को प्रेरित करता है । इतने पर भी अभी द्रव्यकर्म की बात नहीं आई । आत्मा में ही कोई क्रिया बने, विकार बने उसकी चर्चा है यहाँ । जिसे कह सकते हैं कि एक योग करने के लिए प्रेरित किया । राग-द्वेष-मोह के संबंध से उत्पन्न होने वाले अज्ञान ने आत्मा को योगरूप में आने के लिए प्रेरित किया और वह योग उदयागत कर्मों में नवीन कर्मों का निमित्तपना आ जाये, इसके लिए निमित्तत्व आया और इस परंपरा में भी नवीन कर्म बंध गए। एक अनहोना काम हुआ ना। इसमें भी बेढब, विचित्र वे मूल के ज्ञानस्वभावी यह आत्मा द्रव्य कर्म के बंधन से बंध जाये इतना बेमेल काम होने में भीतर कितनी गुत्थियां बनी? तब यह बेमेल काम बना।
विपत्तियों की मूल जिम्मेदारी हमारी―इस प्रकरण में यह जानना है कि सर्व बंधनों के जिम्मेदार हम हैं। हमारी ही करतूत मूल में ऐसी भूल की हो रही है कि यहाँ के सर्व मायामय वातावरण जो मेरी विपत्तियों के लिए एक सच्चा झगड़ा बन गया है―उसके अपराधी हम हैं।
विकट झगड़ा और जड़ हंसी―जैसे कोई हंसी की ही बात हो, झूठ हो, कल्पना की ही बात हो और वह इतनी बढ़ जाये कि परस्पर में दो का बड़ा झगड़ा खड़ा हो जाये। मुकदमें बाजी हो जाये, मारपीट हो जाये, तो झगड़ा तो बड़ा विकट बन गया। एक दूसरे की जान लेने के भी यत्न में हैं। ऐसा सच्चा झगड़ा बन गया। इसका मूल कारण क्या है? इस संबंध में विचार करने के लिए कुछ लोग बैठें, बात चले तो अंत में मिलेगा क्या? कुछ नहीं। कुछ कहा ही नहीं जा सकता है कि किस बात पर इतना बड़ा झगड़ा खड़ा हुआ? वचनों से भी कह सकने लायक बात नहीं है, क्योंकि मूल में कुछ बात हो तब ना कहा जाये, पर वहाँ तो हंसी थी, भ्रम था। झगड़ा बन गया। धन भी खर्च होने लगा, मारपीट हो गई, एक दूसरे की जान लेने पर उतारू हैं पर कारण मूल में कुछ नहीं निकला। थोथी एक प्रवृत्तिमात्र थी।
असह्य बंधन और जड़ भ्रम―इसी प्रकार हमारे आपके इन झगड़ों को देखो तो एक बड़ा बंधन बन गया है। शरीर के बंधन में पड़े ही तो हैं। लक्षणदृष्टि की बात और है। पर व्यवहार से देखो तो सही, शरीर को छोड़कर हम कहीं 4 हाथ दूर बैठ तो नहीं सकते। शरीर की परिस्थितियों के साथ-साथ हम भी तो अपने भाव बनाया करते हैं, कर्मबंधन हुआ करता है, जन्म मरण चलता रहता है। हम कितना ही ज्ञान बनाएं जितना कि बना सकते हैं, फिर भी मेरा जन्म-मरण अभी नहीं छूट रहा है। मरेंगे और जन्म लेंगे। जैसी पर्याय में जन्म लेंगे वहाँ बात उसी ढंग की बन जायेगी। इतना एक सच्चा झगड़ा खड़ा हो गया, पर कोई निर्णय करें कि इतना सच्चा झगड़ा बन जाने का मूल कारण क्या है? कर्मों का उदय था इसलिए ये कर्म बन गए। सूकर गधा बनना पड़ा। कर्मों का उदय क्यों आया? अजी वे कर्म पहले से ही बंधे हुए थे तो आखिर समय तो आयेगा ही। उनका समय आया, सो यह झगड़ा बन गया। वे कर्म क्यों बंधे थे? पूर्वबद्ध कर्मों का ऐसा ही उदय था कि जिसके निमित्त से ये नवीन कर्म बंध गये। तो उन कर्मों में नवीन कर्मों के बंधने की हिम्मत कहां से आ गई? जीव ने राग-द्वेष-मोह परिणाम किया सो हिम्मत आ गई। यह राग-द्वेष क्यों हुआ था? कुछ भ्रम हो गया था।
तिल का ताड़―इस विभाव से एक ऐसा अज्ञानमय वातावरण बन गया कि जिससे उदयागत जड़कर्मों में नवीन कर्मों में आस्रवण करने का साहस हो गया। तो ये राग-द्वेष मोह क्या चीज हैं? जरा भीतर में पकड़कर तो देखो । दृष्टिबल से निहारकर तो देखो कि ये राग-द्वेष-मोह क्या वस्तु हैं ? भले ही कुछ राग-द्वेष समझ में आये, क्योंकि सुहावने लग गये ना । भावात्मक होकर भी ये राग-द्वेष-मोह तो कुछ-कुछ थोड़ा समझ में आते और ऐसा लगता है कि झगड़े की जड़ तो मालूम होती है, पर ये राग-द्वेष कैसे बने? इसकी खोज करने को तब अपने अंतर में उतरते हैं । कैसे बने ये, राग क्या चीज है ? किसी भिन्न पदार्थ के संबंध में कुछ विचार करने से चित्त सुहावना हो गया, बस यह है राग का ढाँचा । ऐसा न हो तो उस पर-वस्तु के प्रति इसकी उन्मुखता हो क्यों? है तो केवल भिन्न पदार्थ और इन भिन्न पदार्थों से कुछ संबंध भी नहीं है । ये हो कैसे गए? बस मोह कहिए, भ्रम कहिए। भ्रम में क्या कोई ढंग भी है? वह भ्रम कोई पकड़ सकने लायक भी है क्या? जान सकने लायक भी है क्या? उस भ्रम में कुछ तत्त्व नहीं मिलता । उसमें केवल अज्ञान भाव मिलता है । तो झगड़े की कोई जड़ भी नहीं मिली । जड़ तो केवल झूठ है । उस झूठ से ही इतनी बड़ी विपत्तियां खड़ी हो गईं, देखो तो तिल का ताड़ बन गया ।
मनुष्य भव इतराने के लिये नहीं समझें―आज मनुष्य भव में है, इसलिए इन विपत्तियों का कुछ अधिक अंदाज नहीं है । संसार के अन्य जीवों पर दृष्टिपात करके देखो तो सही । इन मनुष्यों को जो कुछ मिला है उसमें ही संतोष नहीं है । ये समझते हैं कि मैं गरीब हूँ। कुछ भी मेरे पास नहीं हैं । अभी और अच्छा मेरा गुजारा नहीं हो रहा हे । सो जैसे सेठ के लाड़ले बच्चों को चूंकि लाड़ मिल रहा है सो वह रिसाता है, नई-नई कल्पनाएं करता है, अपनी मांगे बढ़ाता है और ऊधम करके परिवार को हैरान करता है । इसी प्रकार हम और आपको दुर्लभ मनुष्य जीवन मिला है सो जितना चाहे रिसा लें । उन गाय, भैंस, घोड़ों का क्या जीवन है, जिनकी भाषा भी सही नहीं है, ऐं ओं कर रहे हैं, जिनका अभिप्राय नहीं समझ सकते हैं। इन मनुष्य जीवन में एक दूसरे को अभिप्राय दे सकते हैं और सुंदर से सुंदर राग रागनियां और कलाएं ये अपनी कर सकते हैं । कितना श्रेष्ठ यह जीवन है । इस भव में कितना खुश होते हैं । कुछ पुण्य कर्म का लाड़ मिला है ना । कुछ योग्य संपदा प्राप्त हुई ना, तो यह और ऊधम मचाने लगा । जो मिला है उसमें भी संतोष नहीं है । हमें और प्राप्त हो जाये । अरे कितना ही और प्राप्त हो जाये, वे सब परवस्तु है । वे सब छोड़ ही तो जाना पड़ेगा । जब तक साथ हैं तब तक भी उनमें से अपने को कुछ मिलने वाला नहीं है। यह भ्रम भाव, अज्ञान परिणाम हमारी समस्त विपत्तियों का मूल कारण है।
भ्रम मेटने की पद्धति―भैया ! यह भ्रम भाव कैसे मिटता है, हमें मिटाना है। गुप्त होकर मिटता है। किसी को दिखता नहीं है। यहाँ हमारा सर्वस्व, साथी, शरण, रक्षक कौन है जिस पर अपनी कुछ कलाबाजी दिखा दें तो क्षमा हो जाये, अथवा कुछ उद्धार हो जाये। किसी में शक्ति नहीं है कि कोई अन्य मेरा उद्धार कर सके। मुझे अपने आपमें ही गुप्त रहकर गुप्त पद्धति से गुप्त में गुप्त कार्य करना है। वह क्या कि जो आत्मा का स्वरूप है केवल जाननहार, उसमें न मायाचार, न कषाय, न कोई टेढ़ापन है, जो है जानन में आ गया, ऐसा भोलाभाला इस निज शंकर सुखकर इस शिव तत्त्व की ओर निहारना है। मैं ज्ञानमात्र हूँ। ऐसा अपने आपका अनुभव करना है। यही अनुभव सैकड़ों रोगों की दवा है। कितने ही रोग उठ रहे हों, कितने ही संकट आ रहे हों उन सबको मूल से मिटा सकने की शक्ति है तो शुद्ध ज्ञानस्वभाव की दृष्टि में है। वहाँ एक भी संकट ठहर नहीं सकता।
भ्रम मिटने का उपाय स्वतंत्र सत्ता का दर्शन―इस परमपिता की दृष्टि करा सकने में समर्थ उपदेश जैन शासन में है। यह बात तो तब आये जब परपदार्थों की उपेक्षा हो जाये। परपदार्थों से उपेक्षा होना तब परपदार्थों को भिन्न और असार समझ लीजिए। परपदार्थों को भिन्न और असार तब ही समझ सकते हैं जब परपदार्थों का स्वरूपास्तित्त्व यथार्थ ध्यान में आ जाये। त्रिकाल में भी किसी पदार्थ का किसी अन्य पदार्थ के साथ संबंध नहीं हो सकता। एक में दूसरे द्रव्य का अत्यंताभाव है। ये सब व्यवहार की बातें हैं। जो यहाँ कहा करते हैं कि देखिये अग्नि का असर पानी पर पड़ा। अमुक का असर अमुक पर पड़ा। अरे किसी पदार्थ का असर किसी दूसरे पर नहीं पड़ा करता है, किंतु परिणमने वाले पदार्थों में स्वयं योग्यता ऐसी होती है कि अनुकूल पर का निमित्त पाकर स्वयं अपने में विचित्र असर उत्पन्न कर लेते हैं। इसी बात को व्यवहार में निमित्त पर ढालकर कहा जाता है कि देखो अमुक निमित्त ने अमुक वस्तु को इस प्रकार परिणमा डाला। अर्थ उसका यह है कि यह परिणमन वाला पदार्थ अपने में ऐसी योग्यता रखता था कि ऐसा निमित्त पाकर अपने आपमें ऐसा असर कर सका।
विकारर्पारेणमन की विधिपर एक दृष्टांत―यहीं देखो हम बैठे है, यहाँ और फर्श पर छाया पड़ रही है । बिगड़ा कौन? वह फर्श । वहाँ अंधेरा बन गया । उस फर्शपर परिणमन हो गया तो व्यवहार भाषा में तो यह कहेंगे कि देखो इस फर्श को हमने ऐसा बना डाला, किंतु खूब खोज लीजिए । यह मैं अपने से बाहर में क्या काम कर सकता हूँ? क्या मैं अपने प्रदेशों से एक प्रदेश भी बाहर में खिसक सकता हूं? नहीं । उस फर्श पर मैंने कुछ उथलपुथल मचाया क्या? नहीं । यह मैं अपने इस शरीर में रहता हुआ अवस्थित हूँ । इस चमकीले और प्रकाशमय फर्श में ऐसी योग्यता है कि यदि अपने समक्ष मुझे या किसी को भी पाये तोउसका निमित्त पाकर यह फर्श स्वयं अपने में छायारूप परिणम जाता है ।
विकारपरिणमन की विधि―ऐसे ही जगत के सब पदार्थों में निमित्तनैमित्तिक संबंध है, ऐसी अपने आपकी क्रिया के मर्म से अपरिचित अज्ञानी जन, चूँकि व्यवहारभाषा में परमार्थ अर्थ लगा बैठते हैं इस कारण उनका पर में आकर्षण पहुंचता है । जिसे यह पता हो कि मुझे दु:खी करने वाले अमुकलाल नहीं है, किंतु में ही ऐसी योग्यता का हूँ कि अमुक नाम वाले भाई का निमित्त पाकर उल्टी कल्पना बनाकर दुःखी होता हूँ । सो यद्यपि दु:खी हो रहे हैं, निमित्त भी उपस्थित है तिस पर भी उसके दुःख में निर्वृत्ति भरी हुई है । और एक अज्ञानी पुरुष जिसे यह बोध है कि मुझको तो इस अमुक ने ही दुःखी किया है, यह बड़ा क्रूर आशय वाला पुरुष है । सो वह दुःखी हो रहा है ।
अपने प्रभु पर अन्याय का दुष्परिणाम―भैया ! हम और आपका इस लोक में कोई रक्षक नहीं है । रक्षक है तो मात्र सम्यग्ज्ञान है । बहुत कुछ तो देखभाल डाला है और यदि यह बात निर्णीत नहीं हुई है तो अभी और देखोगे तो अंत में यह निष्कर्ष निकलेगा कि जब भी मैं दुःखी होता हूँ तब अपने अपराध से ही दुःखी होता हूँ । मैं अपने स्वरूप से चिगकर बाहर की ओर उपयोगरूपी मुख को करके मैं गर्विष्ठ रहा, अहंकारी रहा, सो अपने आपके इस भोले भाले ज्ञानस्वरूप आत्मभगवान पर अन्याय करने का तो यह परिणाम निकलेगा ही कि संसार के चतुर्गति संबंधी भेष धारण किये जा रहे हों । अपने आपके आत्मभगवान पर इस महान अन्याय का यह परिणाम है कि रुलती सूरत में खड़े रहते हैं । आज मनुष्य हैं, कभी सूकर थे, अथवा कोई सूकर बन जाये तो देखो उनकी कैसी हालत है? कीड़े मकोड़े बन जायें, पेड़ पौधे बन जायें तो देखो उनकी क्या हालत हो रही है? इतना बड़ा दंड क्यों मिल रहा है इस जीवको? इसने एक महान अपराध किया जिससे बढ़कर कोई अपराध नहीं हो सकता । वह अपराध है अपने सही स्वरूप को लक्ष्य में नहीं ले सकता । अपने स्वरूप को अपने ज्ञान में न ले सकने से इतने महान संकट इस जीव पर आ गये हैं ।
प्रभुदर्शन से संकट समाप्ति―अपने आपमें अपना सुलझेरा करना अपने भीतर की ही बात है । अपने आपमें इस पवित्र काम को तुम कर सकते हो, मगर सबकी ओर से आँखे बंद कर लो । ये जगत के सब जीव मेरी ही तरह बल्कि मेरे से भी अधिक बुरी तरह मलिन हैं संकटों में है, असहाय हैं । उनका भविष्य अंधकार में है । जो स्वयं अशरण है, असहाय हैं उनसे अच्छा कहलवाकर मैं क्या लाभ पाऊँगा ऐसा अपने मन से सोचो । जो होता है उसके मात्र ज्ञाता दृष्टा रहिए । अपने आपके अंतरंग में कुछ निहारिये । उस सामान्य ज्ञानप्रकाश का इस ज्ञान में परिणमन होने पर, अनुभवन होने पर मूलत: शत प्रतिशत संकट समाप्त हो जायेंगे । यह अनुभव करके देख लीजिए । किंतु जब उस अनुभव से चिपटते हैं तो वे सब संकट नये सिरे से फिर अपना नाच दिखाने लगते हैं । जैसे कोई चिर परिचित पुरुष 10-12 वर्ष तक न मिले और बाद में मिले तो कुछ अपरिचितपनासा रहता है । उतना दृढ़संबंध नहीं हो पाता । इसलिए ही एक क्षणमात्र के ज्ञानानुभव को इन सब संकल्प विकल्पों को अनगिनते वर्षों जैसा अपरिचित बना दिया है । इस कारण इस आत्मानुभव के बाद फिर से संकट थोड़े-थोड़े रूप में नये सिरे से आते हैं । वे भी खतम होने के लिए है । इस आत्मज्ञान की ही ऐसी अलौकिक महिमा है ।
उक्त गाथा में यह नियम किया गया था कि राग-द्वेष और मोह भावों के ही आस्रवपना है । अब यह दिखाते हैं कि ऐसे भी भाव होते हैं जो रागादिक से युक्त न हों, संकीर्ण न हों ।