वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 196
From जैनकोष
जह मज्जं पिबमाणो अरभाभावेण मज्जदि ण पुरिसो ।
दव्वुवभोगे अरदो णाणी वि ण बज्झदि तहेव ।।197।।
जैसे कोई पुरुष मदिरा को अरति भाव से पीता हुआ मतवाला नहीं होता है इसी प्रकार ज्ञानी जीव भी द्रव्यों के उपयोग में अरत होता हुआ बँधता नहीं है ।
वैराग्य का बल―जैसे किसी पुरुष को किसी औषधि में किंचित् मदिरा पिलावें तो चूँकि उस पीने वाले को मदिरा में रति नहीं है इसलिए पी करके भी मतवाला नहीं होता है । इसी प्रकार कर्मों के उदयवश किंचित उपभोग भी करता है तो भी अरतिभाव को भोगता है इस कारण उसके कर्मों का बंध नहीं होता है । ज्ञानी जीव चूंकि अपने सहज ज्ञानमात्रस्वरूप का उपयोग द्वारा अनुभवन कर लेता है और उस चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व के अनुभवन के प्रसाद से एक अलौकिक आनंद प्रकट कर लेता है । इस कारण उसको अन्य द्रव्यों के उपभोग के प्रति तीव्र विरागभाव है । कोई ज्ञानी गृहस्थ भी हो और वह घर के परिवार जनों से और कामकाजों से कुछ व्यवहार भी रखता है तो भी अंतर से पूर्ण हटा रहने का परिणाम रहता है । इस कारण विषयों को भोगता हुआ भी तीव्र वैराग्यभाव की सामर्थ्य से वह ज्ञानी जीव बंधता नहीं है ।
कर्मबंध की आशयमूलकता―यह ज्ञानी विषयों का सेवन करके भी विषयों के सेवन के फल को प्राप्त नहीं करता है अर्थात् विषयसेवन का फल हुआ कर्मबंध । कर्मबंध को नहीं करता है ऐसा उसमें ज्ञान और वैराग्य का बल है । जिस वैभव के कारण विषयों को सेवता हुआ भी यह असेवक कहा जाता है । किसी कार्य में प्रवृत होकर भी यदि कार्य रुचिपूर्वक नहीं किया जाता, अंतरंग से हटकर किया जाता है तो वह उसका सेवक नहीं कहा जा सकता । क्योंकि कर्मबंध मन, वचन, काय की चेष्टाओं को देखकर नहीं होता, किंतु भीतरी आशय के अनुकूल कर्मबंध होता है । अब इस ही बात को दिखाते हैं कि ऐसा क्यों हो जाता है कि सेवता हुआ भी सेवक नहीं है । कुछ दृष्टांतों सहित इसका विवरण करते हैं ।