वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 197
From जैनकोष
सेवंतो वि ण सेवदि असेवमाणो वि सेवगो कोई ।
पगरणचेट्ठा कस्सविवि ण य पायरणो त्ति सो होदि ।।198।।
ममता के अभाव से करता हुआ भी अकारक―कोई पुरुष विषयों को सेवता हुआ भी सेवने वाला कहा जाता है जैसे किसी पुरुष के किसी कार्य के करने की चेष्टा तो है अर्थात् उस प्रकरण में सब क्रियाओं को करता है तो वह भी किसी का कराया हुआ करता है, उदयवश करता है, वह कार्य के करने का स्वामी नहीं कहा जाता है । इस संबंध में अनेक दृष्टांत हैं । एक कैदी सिपाहियों के कोडों की प्रेरणा से चक्की को पीसता है, मगर उस पीसने में रतिभाव नहीं है । उसे उस पीसने में अरतिभाव है । तो करता कुछ है और करने का मन में आशय नहीं है, ऐसे अनेक दृष्टांत पाये जाते हैं । एक मुनीम सेठ की चाकरी करता है और वैभव सम्हालता है, तिजोरी सुरक्षित रखता है, बैंकों का लेनदेन का व्यवहार भी करता है, हमारा तुम पर इतना गया है, तुम्हारा हम पर इतना आया है, ऐसा व्यवहार भी करता है, पर दो मिनट को भी उसके चित्त में यह आशय नहीं है कि यह मेरा है या मैं इसका मालिक हूँ । मगर देखने वाले लोग यह समझते हैं कि यह बहुत व्यापार में श्रम करता है, इसके बड़ा राग है किंतु उसका हृदय राग से रहित है । बल्कि सेठ जी मुश्किल से एक घंटे के लिए दुकान पर बैठते हों या इधर उधर ही कहीं बैठे हों, पर वह सेठ आशय में राग बढ़ाता रहता है, वह सेठ बंधक है । यह मुनीम बंधक नहीं है ।
सेवते हुए के भी असेवकता पर एक दृष्टांत―ससुराल जाने वाली लड़की दस बार ससुराल हो आई हो, फिर भी जब जायेगी तब ऐसा रुदन करके जाती है कि सुनकर दूसरों को रुदन आ जाता है । पर यह बहुत संभव है कि उसका हृदय खुशी से मरा हुआ है । अब घर जा रही है, सब व्यवस्था सम्हालेंगी । तो आशय कुछ है और करते कुछ हैं, ऐसी बहुत सी बातें जगत में हुआ करती हैं । इस प्रकार यह ज्ञानी पुरुष इस जगत में रहकर मन वचन काय की चेष्टाएँ करता है और वे चेष्टाएँ ऐसी दिखती हैं जैसी मिथ्यादृष्टि पुरुष की चेष्टाएं होती हैं । लेकिन अंतर में किसके क्या है, इस बात को अज्ञानी नहीं समझ सकते । अज्ञानी इस स्वरूप को समझ सकता है कि कहाँ लौ लगी है, कहाँ दृष्टि है ?
निर्मोही और मोही में अंतर―भैया ! इस लोक में जो कुछ भी समागम मिले हैं वे सब असार और अनित्य हैं, सदा रहने वाले नहीं हैं । और जब तक रहते हैं तब तक भी वे शांति के हेतु नहीं हैं । वे हेतु बनेंगे तो अशांति के ही बनेंगे । ऐसे अशांति के हेतुभूत ये समस्त समागम हैं । इन समागमों में जो रुचि रखता है वह इस जगत में जन्म मरण के चक्र लगाता है । यथार्थ स्वरूप के परिचयी पुरुष उससे अलग रहते हैं । कितना अंतर है ऐसे निर्मोह गृहस्थ और निर्मोह साधु में? निर्मोह गृहस्थ गृहस्थी में रहता हुआ भी साधुता की भावना करता हो और सब कुछ छोड़े हुए साधुजन यदि ऐसा सोचें कि गृहस्थी परिवार होता है तो वहाँ बड़ा आराम आनंद है ऐसा यदि भाव है तो इन दोनों में कितना महान अंतर हो जाता है? इसी दृष्टि से यह निर्णय साधु सम्मत है कि निर्मोह गृहस्थ तो मोक्षमार्ग में स्थित है किंतु मोही मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है ।
पर के आश्रय में निर्विकल्पता असंभव―भैया ! आत्मकल्याण के लिए करने का काम तो सरल है । न उसमें मेहनत है, न उसमें क्षोभ है । केवल अपने उपयोग द्वारा अपने आपके उपयोग को जानते रहना है । कितना स्वाधीन काम है जहाँ रंच भी खेद नहीं, स्वाधीन काम है । किंतु जिसका होनहार अच्छा है वही करने में समर्थ हो सकता है । लाखों और करोड़ों का वैभव हो जाये, अरे जितने देश का विस्तार पड़ा है उन सबको ही अपना मान लो ना । कितना ही धनी हो गए आखिर इस भव में भी आत्मा के स्वरूप से अत्यंत परे है, आत्मा में उन सबका अत्यंताभाव है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव सर्व दृष्टियों से पृथक हैं । उनका विकल्प ही तो हो सकता है, पर उनका लक्ष्य करके निर्विकल्प अवस्था नहीं हो सकती है । जो हमारे घात के ही निमित्त बनते हैं उनमें हम रुचिपूर्वक लगते हैं, यही तो उल्टा चलना है ।
स्वोपलब्धि बिना परनिवृत्ति असंभव―भैया ! हम कर रहे हैं, करना पड़ता है । पर जानें तो सही कि यह मेरे करने योग्य कार्य नहीं है । मेरे स्वभाव से यह अत्यंत परे है, बाह्य है, विभाव है, विरुद्ध चेष्टायें हैं । यह मेरे करने योग्य नहीं है―इतना ध्यान तो जाये । पर इतना ध्यान कैसे हो जाये? इससे अलौकिक विलक्षण अनुपम सारभूत ध्रुव सारतत्त्व को निरखते रहें । जब ऐसी दृष्टि जगे तभी कल्याण है ।
स्वरस का अनुभव होने पर विषयविषपरिहार संभव―कोई भिखारी अपनी झोली में बासी रोटियां लिए हुए है, उसे बहुत समझाओं कि अरे भिखारी तू इन बासी रोटियों को फेंक दे, तुझे मैं ताजी पूड़ियाँ बनवाकर दूँगा । तो उसे विश्वास नहीं होता है । वह उन बासी रोटियों को फेंक नहीं सकता है । उन्हें वह सम्हाले रहता है । अरे तुम्हें दया आई है तो पूड़िया बनवाकर उसकी पहिले झोली भर दो फिर वह फेंक देगा । पुड़ियों की आशा लगाकर वह उन रोटियों को फेक दे ऐसा बल उसमें नहीं है । इसी प्रकार अज्ञानी मोही जीव बासी तिवासी अनादि काल से जूठे किए गए भोग अपनी झोली में भरे हुए है । गुरुजन, संतजन यह समझाते हैं कि अरे इनको तू उगल, इन विषयभोगों की वासना को तू तज, इनमें सुख नहीं है । पर मोही मान कैसे जाये? यदि उसकी दृष्टि में उससे अनुपम जैसे सुख को प्राप्त कराने के लिए गुरुजनों का उपदेश है उसकी झलक आ जाये तो फिर उसे छोड़ने में विलंब नहीं रहता है ।
यथार्थज्ञान को परपरिहारस्वभाव―वह ज्ञान से तो तुरंत छोड़ देता है । अब बाहर के छोड़ने में भले ही थोड़ा समय लगे, वह बात अलग है । जैसे किसी धोबी के यहाँ किसी का और उसके पड़ोसी का चादर धुलने गया हो, तीसरे चौथे दिन जाकर वह चादर ले आये, बदले में पड़ोसी की चादर आ गई । न धोबी ने विवेक किया और न लाने वाले ने विवेक किया । वह अपनी ही समझ रहा है । सो उस चद्दर को ताने हुए सो रहा है । पड़ोसी भी बाद में गया सो धोबी दूसरे की चादर उसे देने लगा । उसने देखा तो कहा यह मेरी चादर नहीं है, इस चादर में मेरी चादर के निशान नही पाये जाते हैं । कहा ओह मालूम न होता है कि वह चादर बदल गई है । कहा तुम्हारी चादर अमुक पड़ोसी के यहाँ पहुंच गई है । वह जाता है वहाँ, देखा कि पड़ोसी उस चादर को ओढ़े हुए सो रहा है । वह उस चादर को खींचकर कहता है अरे भाई उठो । वह जग जाता है । क्या है? भाई यह चादर मेरी है । यह बदल गई है । तुम्हारी चादर धोबी के यहाँ रखी है । इतनी बात सुनकर उसने उस चादर को देखा तो अपनी चादर के उसे चिन्ह न मिले । और जो नाना चिन्ह थे जिनका परिचय ही न था । इतनी बात जानने पर ही उसके ज्ञान में स्पष्ट विवेक हो गया कि यह चादर मेरी नहीं है । ज्ञान ने चद्दर को त्याग दिया ।
मोहरहित राग की नीरसता―यथार्थ ज्ञान होने के पहिले यथार्थज्ञान न करने तक उस चादर को वह ज्ञान अंगीकार कर रहा था, उससे राग कर रहा था । अब जैसे ही यथार्थ ज्ञान हुआ उसका चादर से राग छूट गया । ज्ञान ने चद्दर का त्याग कर दिया । अब भले ही थोड़ा उस चादर को उतारने से पैर लगे या थोड़ा ऐसा राग उत्पन्न हो कि हमारी चादर मिले तब अपनी ले लो । भले ही चादर के ऊपर ऐसा झगड़ा करे, पर उस चादर से मोह उसका छूट गया । चाहे यह भले ही कहे कि मेरा चादर धोबी से लाकर दो । किंतु ज्ञान ने चादर को सर्वथा छोड़ दिया । शरीर पर चादर होने पर भी ज्ञान ने पूर्ण त्याग कर दिया, क्योंकि यथार्थज्ञान हो गया ना । इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष को आत्मा का यथार्थज्ञान हो जाता है तो वह आत्मा के अतिरिक्त सर्वभावों को, परभावों को सर्वथा त्याग देता है । भले ही कर्मोदयवश कमजोरी से रहना पड़ता हो परपदार्थों के बीच में, पर वह ज्ञान से ज्ञानस्वरूप के अतिरिक्त सबका त्याग कर देता है ।
ममत्व के सद्भाव व अभाव से प्राकरणिकता व अप्राकरणिकता―यह ज्ञानी पुरुष किसी भी प्रकरण में व्यापार करता हुआ भी प्रकरण का स्वामी नहीं होता । वह प्राकरणिक नहीं होता है किंतु अन्य पुरुष जिनको राग है, मोह है वे कार्य में यद्यपि नहीं लग रहे हैं, फिर भी कार्य का स्वामी बनने के कारण प्राकरणिक होते रहते हैं, बंधक होते रहते हैं । जैसे बारात निकलने के दिन पड़ोसिनियों को गीत गाने के लिए बुलाया जाता है । गीत गाने के फल में आध-आध पाव बतासे मिल जायेंगे, सो वे बड़ी तेजी से गाती हैं । ‘‘बनी राम लखन की जोरी, मेरा दूल्हा सरदार’’ आदि अनेक तरह के गीत बड़े अनुराग से गाती हैं परंतु उन्हें दूल्हा से रंच भी अनुराग नहीं है। किंतु वह माँ जो बहुत कामों में लगी रहने के कारण गाने का एक तुक भी नहीं गाती है, न उतना समय है लेकिन उन सबकी मालिक वह माँ है । कदाचित् घोड़े से गिरकर दूल्हा के हाथ पर टूट जायें तो पड़ोसिनियों को दुःख न होगा, जो बहुत तेजी से गीत गा रही हैं । दुःख होगा उसे जो उस प्रकरण में अपने को स्वामी मानता है । वे पड़ोसिनियां उस प्रकरण में अपने को स्वामी नहीं मानती ।
सम्यग्दृष्टि का परिणाम―इसी तरह सम्यग्दृष्टि जीव प्राक् पदवी में पूर्व संचित कर्मोदय से उत्पन्न हुए विषयों को सेवता हुआ भी उन विषयों में स्वामित्व अंगीकार नहीं करता है इसलिए प्राकरणिक नहीं होता है, किंतु अन्य जीव जो उन विषयों को न भी सेवते हुए वासना में निरंतर लगे रहते हैं वे चूँकि उनके रागादिक भाव सद्भाव निरंतर चलते रहते हैं इस कारण विषय फल के सेवने का स्वामित्व होने से सेवक ही कहलाते हैं । यों सम्यग्दृष्टि पुरुष में नियमत: ज्ञान और वैराग्य की शक्ति स्पष्ट प्रकट होती है । वह क्या करना चाहता है? सम्यग्दृष्टि का क्या प्रोग्राम है? वह चाहता है कि मैं अपने ही वस्तुत्व को अपने उपयोग में ग्रहण करूं । ओह यह कितना उदार है, किसी परवस्तु का दिल नहीं दुखाता है; बिगाड़, परिवर्तन नहीं करना चाहता है । इसमें कितना धैर्य है, यह किसी भी परवस्तु की वांछा का क्षोभ नहीं करता है । यह कितना गंभीर है? अपने आपमें अपने आप ही समाता हुआ चला जा रहा है । इतनी गहराई के भीतर में वह गहराई दूर नहीं हैं, निकट है, किंतु उथला होने पर भी अत्यंत गंभीर है । यह अपने वस्तुत्व को ग्रहण करने के लिए ही अपने स्वरूप की प्राप्ति करता है और परस्वरूप का त्याग करता है ।
सम्यक्त्व की श्रेयस्करता―भैया ! प्रत्येक द्रव्य चाहे मिथ्यादृष्टि हो, चाहे सम्यग्दृष्टि हो, चाहे अचेतन हो सब अपने-अपने द्रव्य में है । कोई किसी परद्रव्य में नहीं है । मिथ्यादृष्टि कल्पना से परवस्तुओं को अपने में बसाये हैं प्रदेशत: नहीं बसा सकता । हमें तो परद्रव्यों का त्याग करना है । परद्रव्यों में जो ममेदम् अहमिदम् संकल्प है उस संकल्प का त्याग किये बिना परद्रव्य का त्याग न होगा । अब रहा बाह्य त्याग तो इस ही सम्यक्त्वरूपी अग्निकणिका के प्रसाद से वे सब चीजें छूट जायेंगी । सम्यग्दर्शन का अद्भुत माहात्म्य है । तीन काल में भी सम्यक्त्व के समान अश्रेयस्कर तत्त्व नहीं है और मिथ्यात्व के समान श्रेयस्कर तत्त्व नहीं है । इस सम्यग्दृष्टि पुरुष के अंदर नियत ज्ञान और वैराग्य की शक्ति है जिसके कारण अपने की और परपदार्थों को परस्पर विविक्त जानकर पर से अत्यंत विराम लेता है और अपने आपके आत्मा में ठहरता है । ऐसी अद्भुत शक्ति वाले सम्यग्दृष्टि पुरुष को जिनेश्वर का लघुनंदन कहा है ।
आत्मत्व का सामान्य―भैया ! आत्मा बुरा कोई नहीं होता । वह एक द्रव्य है, पर एक विभाव और मिथ्यात्व ही दुःखदायी चीज है । उसके संबंध से आत्मा बुरा कहलाता है । आत्मा तो सब एक समान ही हैं । कैसे आत्मद्रव्य को बुरा कहेंगे ? औपाधिक परिणति से लोगों में भेद पड़ गया है पर वस्तुत: समस्त आत्मा एक चैतन्य स्वरूप हैं । द्रव्यदृष्टि में घुस कर निरखो तो सब जीवों के प्रति स्वरूप में भक्ति उत्पन्न होगी । क्योंकि इस द्रव्यदृष्टि ने सब जीवों को ज्ञायकस्वरूप दिखा दिया है । यह ज्ञायकस्वरूप भगवान आत्मा भ्रम कर करके अपने आप दु:खी हो रहा है । आत्मा का यह भ्रम छूटे तो इसमें संकट ही नहीं हैं । इसका तो आनंदस्वरूप ही है । आनंद पाने के लिए पर की अपेक्षा की जरूरत नहीं है ।
कठिन परिस्थितियों से छुटकारा पाने का सम्यग्दृष्टि का सामर्थ्य―किंतु भैया ! एक यह भी बड़ा झंझट सामने आता है कि कल्याण चाहते हुए भी जैसे कि जुआरियों के बीच जुआरी पहुँच जाये तो उसे उस गोष्ठी से निकलना कठिन है । इसी प्रकार यह संसार की गोष्ठी है, जहाँ कि लोग धन के अर्थ, संगति समागम के अर्थ, परिवार के अर्थ बस रहे हों, ऐसे लोक के बीच रहने पर उस गोष्ठी से निकल जाना कठिन हो जाता है, अर्थात् उपयोग में ये बाह्य समागम न रहें किंतु ज्ञायकस्वरूप निज भगवान आत्मतत्त्व बसे तो ऐसी स्थिति बनना कठिन हो जाता है । सम्यग्दृष्टि पुरुष में ऐसी अद्भुत सामर्थ्य है कि वह समस्त हेय तत्त्वों को हेय समझकर ध्रुव अनादि अनंत चैतन्यस्वरूप आत्मतत्त्व का ग्रहण कर लेता है । इस ही निज वस्तुत्व को विशद ग्रहण करने के लिए सम्यग्दृष्टि में पुरुषार्थ है ।
आत्मार्थी का सत्याग्रह व असहयोग―जैसे गुलाम देश को आजाद करने के लिए असहयोग और सत्याग्रह―इन दो उपायों को अपनाया गया था इसी प्रकार अनादिकाल से चला आया हुआ गुलाम यह जीव जब अपनी निधि की खबर करता है तो अपने को आजाद बनाने के लिए यह भी दो उपायों का आलंबन लेता है असहयोग और सत्याग्रह । इस ज्ञानीसंत ने समस्त परद्रव्यों का असहयोग कर दिया है । वह किसी भी परद्रव्य का सहयोग नहीं चाहता । सबसे हटकर अपने आपमें बसे हुए इस ध्रुवस्वभाव का आग्रह कर लिया है, यही ज्ञानी का सत्याग्रह है, अपने शुद्ध स्वरूप का ग्रहण करने का आग्रह है और इस आत्मस्वरूप के अतिरिक्त अन्य सब परभाव हैं उनसे इसने असहयोग किया है । सत्याग्रह और असहयोग इन दोनों उपायों को करके वह अपने कार्य में सफल होता है । सम्यग्दृष्टि का यह एक ही प्रोग्राम है । वह इस प्रकार से अपने सत्य का आग्रह करता है और असत्य का असहयोग करता है । और इस विधि से वह सम्यग्दृष्टि जीव अनेक परपदार्थों के बीच रहकर भी अनाकुल रहता है । उसके विह्वलता नहीं जगती है । ज्ञान और वैराग्य में ऐसी अद्भुत सामर्थ्य है कि ज्ञानबल का अधिकारी कहीं आकुलित नहीं हो सकता है । ज्ञान और वैराग्य के पाने के लिए हम सबका भरसक प्रयत्न होना चाहिए और जड़ वैभवों को हेय समझना चाहिए । उस ज्ञान और वैराग्य की प्राप्ति के लिये सम्यग्दृष्टि पुरुष स्व और पर को सामान्यतया किस प्रकार जानता है? इसका वर्णन अब किया जा रहा है ।