वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 204
From जैनकोष
आभिणिसुदोधिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं ।
सो ऐसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्वुदिं जादि ।।204।।
परमार्थ की व्यक्तियाँ व मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का स्वरूप―आत्मा का परमात्म शरणतत्त्व क्या है? इसका इस गाथा में वर्णन है । जीव का असाधारण गुण ज्ञान है और ज्ञान के ही अस्तित्व के लिए मानो अन्य सब गुण हैं । उस ज्ञान गुण की 5 तरह की जातियाँ होती हैं―मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । मतिज्ञान तो इंद्रिय और मन के निमित्त से जो साक्षात् ज्ञान होता है उसे कहते हैं । जो कुछ देखा जाये, सुना जाये, घ्राण द्वारा जानें, रसना से भी जानें, स्पर्शन इंद्रिय से जानें वह सब मतिज्ञान है और मतिज्ञान से जानकर उसही संबंध में विशेष जानना सो श्रुतज्ञान है । आँखों से देखना और यह समझना कि यह हरा है, तो हरा है ऐसा श्रुतज्ञान है । और हरा ही दिखा किंतु हरे की कल्पना नहीं हुई वह है मतिज्ञान । और फिर उस संबंध में और और भी विशेष जानना यह अमुक जगह का बना हुआ रंग है, इसे अमुक ने रंगा है, यह गहरा है, टिकाऊ है, यह सब श्रुतज्ञान कहलाता है । हम आप सबमें दो ज्ञान पाये जाते हैं―मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ।
अवधिज्ञान―अवधिज्ञान होने का निषेध तो नहीं हो सकता है पर प्राय: है नहीं । 2 ज्ञान हैं । अवधिज्ञान किसे कहते हैं, इंद्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मीय शक्ति से रूपी पदार्थों को जान लेना सो अवधिज्ञान है । अमुक जगह क्या है, इतने साल पहिले क्या था―इस तरह पुद᳭गल संबंधी बातों को जान जाना सो यह अवधिज्ञान है । यह अवधिज्ञान, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अवधि लेकर जानता है । समस्त द्रव्यों को नहीं जान जायेगा । कुछ जानेगा । समस्त क्षेत्रों की बात नहीं जानेगा । कुछ क्षेत्रों को जानेगा इससे अधिक न जानेगा । कुछ काल की बात जानेगा । समस्त काल की न जान जायेगा । अवधिज्ञान जानता तो तीनों काल की है । भूत की भी, वर्तमान की भी और भविष्य की भी; पर वह भी सीमित ही जान पाता है और भावों की अथवा पर्याय में भी कितनी प्रकार की पर्यायों को जानेगा यह भावों की बात है । इस तरह अवधिज्ञान में एक म्याद पड़ी हुई है । यहाँ चर्चा चल रही है कि हम और आपके जो ज्ञानगुण हैं उन ज्ञान गुणों के कितने काम होते हैं? तो जाति अपेक्षा से 5 प्रकार के होते हैं, इस रूप से समझाया जा रहा है।
मनःपर्ययज्ञान व केवलज्ञान―चौथा ज्ञान है मनःपर्ययज्ञान । यह ढाई द्वीप के अंदर या ढाई द्वीप के बराबर क्षेत्र की संज्ञी जीवों की मन की बात जान सकता है । इसमें भी म्याद पड़ी हुई है । और पाँचवाँ ज्ञान केवलज्ञान समस्त लोकालोक की समस्त भूतकाल और भविष्यकाल की सर्व पर्यायों को जानता है । इस तरह ज्ञानगुण की 5 प्रकार की अवस्थाएँ होती हैं ।
एकपद के पांच भेद―ये पांचों अवस्थाएं अध्रुव हैं । मतिज्ञान मिट जाता है, श्रुतज्ञान मिट जाता है, अवधिज्ञान मिटता है, मनःपर्ययज्ञान मिटता है । केवलज्ञान ऐसा है कि सूक्ष्म दृष्टि से तो प्रत्येक समय में केवलज्ञान होता रहता है अर्थात् प्रत्येक समय में उत्तर केवलज्ञान पर्याय का प्रादुर्भाव और पूर्व ज्ञानपर्याय का तिरोभाव होता रहता है । पर केवलज्ञान के बाद केवलज्ञान ही होता है । दूसरा ज्ञान नहीं होता है । इसलिए केवलज्ञान की धारा अविच्छिन्न चलती रहती है । इसलिए स्थूल साधारण रूप से यह कहा जाता है कि केवलज्ञान नहीं मिटता है । केवलज्ञान हुआ तो अनंतकाल तक के लिए होता ही रहेगा । ऐसे ये 5 परिणमन हैं ज्ञान गुण के, पर इनमें मूल एक ही पद है जहाँ हमें अपना उपयोग टिकाना है ।
अध्रुव को छोड़कर ध्रुव की दृष्टि में ही आत्मलाभ―भैया ! मिट जाने वाली चीजों पर हम उपयोग दें तो आश्रय मिट जाने से उपयोग भी बदल जायेगा और अन्य-अन्य होता रहेगा । जब हमारा उपयोग अस्थिर रहा करेगा तो वहाँ कुछ हित नहीं पा सकते हैं । तो एक ध्रुव पद के अवलंबन में ही हित होगा । इन 5 प्रकार के ज्ञान के परिणमन में ध्रुव सत्य यथार्थपद एक ही है, वह क्या? ज्ञानस्वभाव । जैसे अंगुली टेढ़ी सीधी, गोलमटोल कैसी ही करी जाये तो इनमें जो दशा है टेढ़ी सीधी होना, गोल होना ये सब दशाएँ मिटने वाली हैं, पर इन सब दशाओं में जो अंगुली का मेटर है वह तो वही है, टेढ़ी हो तो वहाँ अंगुली का स्कंध है ही, सीधी हो तो वहाँ उस अंगुली का स्कंध है, स्थायी है, दृष्टांत के रूप में और उसकी दशाएँ विनाशीक हैं । इस प्रकार ज्ञानगुण स्थायी है, ज्ञानस्वभाव शाश्वत है पर ज्ञानस्वभाव की जो परिणति है मति, श्रुत आदिक यह अस्थायी हैं । ज्ञानी जीव अस्थायी पदार्थों के प्रति हित बुद्धि नहीं रखता, आत्मबुद्धि नहीं रखता, क्योंकि मिटने वाला यदि मैं हूँ, परिणतियां यदि मैं हूँ तो परिणतियां मिटीं तो हम मिट गए । फिर तो अपना ही विनाश चाहा ।
परिणतियों का स्रोत पारिणामिक भाव―भैया ! परिणतियां तो मिटती हैं, पर परिणतियों का जो स्रोत है, जिसकी ये दशाएँ हो रही हैं वह मैं हूँ । वह नहीं मिटता । तो इन समस्त ज्ञानों में जो मूल ज्ञानस्वभाव है यह ज्ञानस्वभाव नहीं मिटता है । यही परमार्थ है और इस परमार्थ को ही प्राप्त करके जीव मुक्ति को प्राप्त करता है । किसका हम चिंतन करें तो मोक्ष मिले, इसका वर्णन इस गाथा में है । सारतत्त्व शरण क्या है? परमार्थ यह ज्ञानपद शरण है । हित के लिए इसके आगे और कुछ देखने की जरूरत नहीं है । आत्मा परमार्थ है और वह ज्ञानमात्र है । आत्मा एक ही पदार्थ है । मैं आत्मा एक ही पदार्थ हूँ । जैसे कि पशु पक्षी नारकी मनुष्य आदि बने रहने से आत्मा अन्य-अन्य नहीं हो जाता । मैं वही का वही हूँ । सो यह मैं आत्मा एक ही हूँ । जब मैं आत्मा एक ही पदार्थ हूँ तो आत्मा है ज्ञानस्वरूप । वह ज्ञान भी एक ही पद है । इस ही एक ज्ञान को परम पदार्थ का शरण कहो ।
परम पदार्थ―पद का अर्थ सो पदार्थ । पद कहते हैं असाधारण स्वभाव को, असाधारण लक्षण को । अब असाधारण लक्षण से सहित जो अर्थ है उसका नाम पदार्थ है । आत्मा के असाधारण गुण से तन्मय जो अर्थ है वह है आत्मपदार्थ । आत्मा एक पदार्थ है, तो ज्ञान भी एक ही पद है और जो ज्ञान नामक एक पद है, शाश्वत, अनादि अनंत अहेतुक जो ज्ञानस्वभाव नामक एक आत्मा का अचलित पद है वही परमार्थ साक्षात् मोक्ष का उपाय है ।
अशांति का कारण अध्रुव की दृष्टि व शांति का कारण सिद्धोपासना―भैया ! हम धन वैभव को देखते रहें तो इससे हमें शांति न होगी, पूरा न पड़ेगा । प्रथम तो जीवन में ये ही विघट जायेंगे और जीवन में भी जब तक इनका संग रहता है तब तक आकुलताएँ चलती रहती हैं । फिर अंत में तो ये बिछुड़ ही जायेंगे । जड़ वैभव के उपयोग से आत्मा का हित नहीं है । और इस देह के उपयोग से भी आत्मा का हित नही है । अपने देह को देखते जाओ―अच्छा है, भला है, ठीक हो रहा है, उस देह की स्थिति से और उसके उपयोग से आत्मा का हित नहीं है । यह उद्देश्य के विरुद्ध बात है । धर्म करना है तो देह से रहित होना है । जब तक देह से संबंध है तब तक संसार अवस्था है । हम सिद्ध प्रभु को क्यों पूजते हैं कि वे देह से रहित अमूर्तिक ज्ञानानंदमय परमेश्वर हैं । और अरहंत भी ऐसे ही हैं । केवल कुछ समय तक देह का संबंध है । सो देह केवल एक क्षेत्रावगाही है पर अरहंत प्रभु की दृष्टि देह पर रंच नहीं है जैसा केवलज्ञान सिद्ध प्रभु का है वैसा ही केवलज्ञान अरहंत देव का है । यह जो ज्ञानस्वभाव नामक एक पद है वही साक्षात् मोक्ष का उपाय है ।
व्यक्तियों में शक्ति की अभिनंदकता―यद्यपि इस आत्मा में मति, श्रुत आदिक अनेक दशाएँ होती हैं पर ये अनेक प्रकार के ज्ञानपरिणमन रूप भेद, ज्ञान परिणमन इस एक अखंड ज्ञानस्वभाव का ही अभिनंदन करते हैं, समर्थन करते हैं अर्थात् आत्मा में जो भिन्न-भिन्न जानकारियां हो रही हैं ये नाना प्रकार की जानकारियां आत्मा के अखंडस्वभाव का विनाश नहीं करती हैं बल्कि अखंड स्वभाव का समर्थन करती हैं । इसके लिए एक दृष्टांत दिया गया है कि जैसे सूर्य मेघों से आच्छादित है और जब कभी थोड़ा-सा भी मेघ हटते है तो सूर्य का थोड़ा-सा प्रकाश होता है, लो 5 मील तक अब प्रकाश है, जरा और मेघ हटे तो लो 20 मील तक प्रकाश हो गया । और मेघ हटे तो 100 मील तक प्रकाश हो गया और बिल्कुल मेघ हट गए तो हजारों मील में प्रकाश हो गया । सो उन मेघों के हटने के अनुसार वहाँ प्रकाश का भेद पड़ जाता है । यह दो मील का प्रकाश है, यह 10 मील का प्रकाश है, यह 50 मील का प्रकाश है । तो ऐसा प्रकाशभेद क्या सूर्य के स्वभाव से पड़ गया? क्या सूर्य के स्वभाव से वे खंड हो गए? यह जरूर खंड है । कहीं दो मील का प्रकाश, कहीं 10 मील का प्रकाश, कहीं 50 मील का प्रकाश, तो यहाँं पर प्रकाश के खंड हो जाने से क्या सूर्य के प्रकाश स्वभाव में भी खंड हो जाते हैं? नहीं होते हैं । बल्कि ये खंड-खंड प्रकाश भी सूर्य के अखंड प्रकाश स्वभाव का समर्थन करते हैं । अपन सब जानते हैं ना कि सूर्य तो पूर्ण अखंड प्रकाश स्वभावी है, पर बादलों के विघटने से उनके विघटन के अनुसार प्रकाश में भेद पड़ गया है । पड़ जाये भेद, पर यहाँ प्रकाश भेद के कारण सूर्य के अखंड स्वभाव में भेद नहीं पड़ सकता ।
खंड ज्ञानों में अखंड ज्ञान की अभिनंदकता―इसी प्रकार आत्मा ज्ञानस्वभावी है, सो कर्मों से आच्छादित होने के कारण इसके ज्ञानस्वभाव का पूर्ण विकास नहीं हो पा रहा है । किंतु जैसे-जैसे आवरण का विघटन होगा वैसे-वैसे ही मति श्रुत आदि रूप ज्ञान के परिणमन चलते रहते हैं । यहाँ कोई थोड़ा जानता है, कोई अधिक जानता है, कोई उससे अधिक जानता है तो ऐसी खंड-खंड जानकारियों के कारण आत्मा के ज्ञानस्वभाव का खंड नहीं हो जाता । आत्मा तो परिपूर्ण अखंड ज्ञानस्वभावी है । ये खंड-खंड की जानकारियाँ बल्कि उस अखंड ज्ञानस्वभाव का समर्थन करती हैं । विवेकी लोग समझते हैं कि इतने राग विकार की कमीबेसी के कारण ये ज्ञान नाना प्रकार से खंडरूप से हो रहे हैं पर जिस स्वभाव से यह प्रकाश चलता है वह स्वभाव परिपूर्ण अखंड है ।
आवरक के विघटन के अनुसार विकास होने पर भी स्वभाव की अखंडता―जैसे सूर्य के नीचे मेघ पटल हैं और उस मेघ पटल के निमित्त से सूर्य में प्रकाश यहाँ वहीं फैल पाता अथवा उसके हट जाने के अनुसार फैलता है, इसी प्रकार आत्मा के चहुं ओर कर्मपटल है, यह कर्मपटल 2 प्रकार का है । एक पौद्गलिक कर्मों का पटल और एक रागादिक विकार कर्मो का पटल। इन पटलों के यहाँ से देखने में ज्ञानस्वभाव अवगुंठित हो गया है, अपने आपके भीतर ही स्वभावरूप में समाया हुआ है, बाहर नहीं निकल पाता। सो जैसे-जैसे इन कर्मपटलों का विघटन होता है उस प्रकार से प्रकट होने वाले ज्ञान स्वभावों में भेद नहीं करता है बल्कि ये फुटकर ज्ञानभेद आत्मा के ज्ञानस्वभाव का समर्थन करते हैं।
स्वभाव के अवलंबन में श्रेय―अब विचारिये हमें खंड ज्ञान पर दृष्टि देना चाहिए या अखंड ज्ञानस्वभाव पर दृष्टि देना चाहिए । खंड ज्ञान परिणमनों पर दृष्टि देने से कुछ हित नहीं होगा । जहाँ किसी प्रकार का भेद नहीं है ऐसा जो आत्मा का स्वभावभूत परिपूर्ण जो ज्ञानस्वभाव है वही ज्ञानस्वभाव अनुभवन करने के योग्य है । आत्मा के इस ज्ञानस्वभाव के आलंबन से ही आत्मा के निज पद की प्राप्ति होती है । बाहरी चीजों को जान-जानकर बाहरी चीजों में ही रमण करे तो उससे कौन-सा हित पा सकेंगे, उससे हित की बात न मिलेगी और एक आत्मा में स्वत:सिद्ध साधारण ज्ञानस्वभाव में उपयोग पहुंच गया तो तत्काल ही आकुलता समाप्त हो जायेगी, निज पद की प्राप्ति होगी और उससे भ्रांति समाप्त होगी ।
निजस्वरूप की भूल के परिणाम पर एक दृष्टांत―भैया ! अपना पद अपना स्वभाव न मिलने के कारण इस जीव के भ्रांति लगी हुई है और भ्रम के कारण यह यत्र-तत्र दौड़ता है। जैसे गर्मी के दिनों में प्यासा हिरण रेगिस्तान की रेती के बीच में खड़ा हुआ सोचता है कि कहीं पानी मिल जाये तो प्यास बुझा लें । दृष्टि पसारकर देखता है तो दूर की चमकीली रेत पानी जैसी मालूम पड़ती है, वह दौड़ता है उस रेत में पानी का भ्रम करके, पर जब समीप पहुंचा तो देखा कि रेत है । लो फिर गर्दन उठाया और देखा तो आगे की रेत पानी जैसी मालूम देती है, फिर दौड़ता है । वहाँ पहुंचकर देखता है कि पानी नहीं है, यह रेत है । पानी के भ्रम में दौड़ लगाकर अपनी प्यास बढ़ाकर अपने प्राण गंवा देता है ।
निजस्वरूप की भूल का परिणाम―इसी प्रकार ये जगत के प्राणी सुख की तलाश में बाह्य पदार्थों पर दृष्टि दिए हुए हैं, ऐसा खाना मिले तो सुख होगा, ऐसा देखने को मिले तो सुख होगा । ऐसा राग सुनने को मिले तो सुख होगा । इन बाह्य पदार्थों के सुख का भ्रम करके बाह्य अर्थों की प्राप्ति के लिए दौड़ लगाते हैं । दौड़ लगाते हैं और विषयों के निकट पहुंचते हैं तो वहाँ सुख मिलता नहीं है । फिर इन्हीं विषयों को सुख की अभिलाषा से प्राप्त करना चाहते हैं और इसी से पंचेंद्रिय और मन के विषयों को प्राप्त करने का यत्न कर रहे हैं । इस यत्न में उनकी तृष्णा और तीव्र होती है । दुःख और बढ़ता है और अंत में बड़े संक्लेश से प्राण गँवाते हैं । फिर इससे भी बुरी जाति को पा लेते हैं, ऐसे ये मोही जीव इस संसाररूपी मरुस्थल में दौड़ लगाये फिर रहे हैं पर चैन कहीं भी नहीं मिल रही है ।
बाहर में निजपद की खोज पर एक दृष्टांत―एक अपना ही पद न ज्ञात हो तो भ्रम से जगह-जगह डोलता है । एक विशिष्ट जाति का हिरण होता है जिसकी नाभि में कस्तूरी होती है । उस कस्तूरी की सुगंध आ रही है । वह हिरण चाहता है कि इतनी उत्तम सुगंध वाली चीजें ढेरों हमें मिलें और उनका ऐसा सुगंध ले । उसे पता नहीं है कि यह सुगंध वाली चीज मेरी नाभि में बसी हुई है तो बाहर में जंगलों में दौड़ लगाकर ढूंढ़ता फिरता है । खूब ढूँढ़ता फिरता है, खूब ढूँढता है, पर किसी भी जगह उसे सुगंध वाली चीज नहीं मिलती है । दौड़ लगाकर अपना व्यर्थ ही श्रम करता है । अपने आराम से भ्रष्ट होता है ।
बाहर में निजपद की खोज का परिणाम―इसी प्रकार निज स्वरूप में ही तो ज्ञान और आनंद समाया हुआ है, पर यह बोध नहीं है कि मेरा ही स्वरूप ज्ञान और आनंद है । ज्ञानी जन जानते हैं कि आत्मा और चीज है क्या? वह पकड़ने जैसी पिंडरूप वस्तु तो है नहीं जिसे धर उठा सकें, आपके हाथ में दे सकें । ऐसा तो कुछ है नहीं । यह तो ज्ञानस्वभाव और आनंदस्वभाव रूप विलक्षण पदार्थ है, स्वतःसिद्ध है । किंतु है क्यों ऐसा, यह तर्क के अगोचर है । स्वभावोऽतर्कगोचर: । जो पदार्थ हैं वे अपने असाधारण स्वभावरूप हैं । पदार्थ भी अनादि से हैं और पदार्थों का निश्चयनय का विषयभूत असाधारण स्वभाव भी अनादि से है ऐसा ज्ञानानंदस्वभाव निज आत्मा का लक्षण ही है । है ही इसी प्रकार, पर इस स्वभाव का बोध न होने से यह जीव बाह्य पदार्थों में अपना ज्ञान और आनंद ढूँढता है, व्यर्थ का श्रम करता है । सो इस यत्न से यह जीव आकुलित हो रहा है ।
निर्मोहता की अभिनंदनीयता एवं वस्तुविज्ञान की मोक्षहेतुता―वे जीव धन्य हैं जिन्हें मोह नहीं सताता है । और जिनके आत्मकल्याण की भावना जग रही है । वे भेदविज्ञान के बल से बाह्य पदार्थों का त्याग कर अपने उपयोग से सर्व संकल्प विकल्पों को हटाकर ज्ञानस्वभावमात्र अपने को अनुभव करते हैं उन्हें अपना पद मिल जाता है और स्वकीय पद मिल जाने से उनका यह समस्त भ्रम समाप्त हो जाता है । भ्रम समाप्त होने से ही आत्मा को लाभ होगा । आत्मानुभव कहीं बाहर से लाना नहीं है । यह स्वयं ही तो है पर इसका जो बोध न होने देने वाले विकार हैं उन विकारों से हटना है । आत्मा तो वही है । हमारा आत्मा से लाभ होता है । जहाँ आत्मा की उपलब्धि की वहाँ अनात्मा का परिहार होता है । प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वरूप में तन्मय हैं और परस्वरूप से अत्यंत जुदे हैं । इस प्रकार सब पदार्थों को निरखो । घर में रहने वाले उन चार छ: जीवों को भी इस प्रकार देखो कि इनका जीव इनमें ही है, इनका ज्ञान, आनंद सुख इनमें ही है । इनसे बाहर नहीं है । इनके शरीर से भी इन्हें सुख दुःख नहीं है । ये अपने शरीर तक से भी जुदे हैं । फिर मेरे साथ तो इनका रंच भी संबंध नहीं है, ये सब अनात्मा है अर्थात् मैं नहीं हूँ । ऐसे चेतन और अचेतन जो अनात्मतत्त्व है उन सबका परिहार हो जाता है । और जहाँ अनात्मतत्त्व का फंसाव मिट गया वहाँं फिर कर्म आत्मा को मूर्छित नहीं कर सकते । जब इसमें दृढ़ ज्ञान प्रकट होता है तब आत्मा मूर्छित नहीं होता है । रागद्वेष मोह इसमें फिर अंकुरित नहीं होते हैं, उठते नहीं है । और रागद्वेष न उठे तो आस्रव भी मिटे, आस्रव मिटे तो कर्मबंध भी मिटा । फिर तो क्या है? पहिले के बंधे हुए कर्म उपयोग में आकर झड़ जाते हैं । और इस तरह समस्त कर्म दूर हो जाने से इस जीव को साक्षात् मोक्ष हो जाता है ।
ज्ञान की स्वच्छ जगमगाहट―आत्मा में जो निर्मल ज्ञानगुण है उसकी जो परिणतियां होती हैं याने अपने अनुभव में आये हुए जो ज्ञान के भेद हैं वे ज्ञान की ओर से ज्ञान के परिणमन अत्यंत निर्मल निकलते हैं । और वे ज्ञान के परिणमन ज्ञान में से अपने आप उछलते हैं याने इन ज्ञानी पुरुषों को प्रकट अनुभव में आते हैं । उन ज्ञान की परिणतियों में ऐसा विकास भरा है कि इस ज्ञानबल से उन ज्ञानी पुरुषों ने समस्त पदार्थों का रस पी लिया है अर्थात् द्रव्य गुण पर्याय के सब मर्म वे जान चुके हैं । इस कारण वे ज्ञान की ओर से होने वाले ज्ञान की शुद्ध परिणतियां ज्ञेय के बहुत बोझ से मतवाली हो गई है । इस तरह मत्त स्वच्छंद की तरह अपने आप ही उनमें अपने ज्ञानविकास उछलते हैं, किंतु यह भगवान आत्मा चैतन्यरूपी समुद्र की उठती हुई लहरों से एक अभिन्न रस है, एक है । मायने ज्ञानस्वभाव तो एक है और उसकी जो परिणतियां हैं वे अनेक रूप होती हैं ।
एकरस चैतन्य रत्नाकर―भैया ! हिन्डोले की तरह झिलमिलाहट के साथ जगमग रूप से ज्ञान की जो परिणतियां हैं वे परिवर्तित होती रहती हैं । ऐसा यह अद्भुत चेतन रत्नाकर है, समुद्र है । याने बहुत से रत्नों से भरा हुआ समुद्र जल से भरा हुआ है, और उस समुद्र में निर्मल छोटी-छोटी लहरें उठती हैं तो वे सब लहरें जल से न्यारी नहीं हैं, वे जलरूप ही हैं । इसी तरह यह आत्मज्ञान का समुद्र है सो वह एक रस है । उस ज्ञान का जो जाननभाव है वह एकस्वभाव है । किंतु कर्मों के विविध क्षयोपशम के निमित्त से एक इस स्वभावभूत ज्ञानरसों में से अनेक भेद, अनेक व्यक्तियां प्रकट होती रहती हैं ।
वीतरागविज्ञान का निरर्गल प्रसार―अथवा जहाँ कर्मों का अत्यंत क्षय हो गया है ऐसे प्रभु केवलज्ञान के भी ज्ञान की व्यक्तियां विलास उत्कृष्ट प्रभाव के साथ ज्ञेयों के पी जाने से मतवाली होकर एकदम निरंतर चलती रहती है ऐसा यह ज्ञानविलास है । उन सब ज्ञानविलासों का स्रोत एक अखंड ज्ञानस्वभाव है । ऐसा यह चैतन्यरूपी समुद्र विशिष्ट माहात्म्य वाला है । यह चैतन्य स्वभाव खुद में है और प्रभु में देखते हैं तो उनका समस्त ज्ञानभाव एकदम स्वच्छंद होकर उठता रहता है । ऐसा शुद्ध स्वच्छ प्रभु का परिणमन है कि इन मतवाले होने की तरह वह ज्ञानविकास एकदम सर्व लोकालोक में फैल जाता है । जैसे कहते हैं कि ‘‘सैंया भये कोतवाल अब डर काहे का’’ अथवा यह सोचो कि पूर्ण स्वच्छंदता मिल गई है तो अब रुकावट किस बात की है ? मेरा प्रभु तो स्वच्छंद वीतराग है । अत: मुझको किसकी रुकावट है? सो वह ज्ञान समस्त लोकालोक में व्याप कर फैल गया है ।
ज्ञानभाव के आश्रय का प्रताप―भैया ! यह सब ज्ञानस्वभाव की ओर से होने वाले विलास की कथनी है । ऐसा विलास हो जाना हम सबके स्वभाव में है । पर रद्दी छोटी-छोटी चीजों में राग लगा लेने से, अटक कर लेने से वह समस्त चैतन्यनिधि एकदम दबी हुई है । जिसने इस चैतन्यस्वभाव का परिचय किया उसके लिए यह विलास होना अत्यंत सुगम है । अब इस ही चीज को प्रतिपक्ष रूप से कहते हैं, इस आत्मस्वभाव का जिन्हें परिचय नहीं है ऐसे पुरुष धर्म के नाम पर बड़े-बड़े दुष्कर तप भी कर ले और मोक्ष की इच्छा भी उन्हें हो, दुर्धर महाव्रत और तपस्या के भार से जिनका शरीर क्षीण हो गया, हड्डियां निकल आई हैं, बड़ी तपस्याएँ भी करें, पर साक्षात् मोक्षभूत तो यह ज्ञानस्वभाव का आश्रय है यह ज्ञानस्वभाव निरामय पद है । सब जगह डर है, सब जगह रोता है, शल्य है, चिंताएँ हैं, एक ज्ञानस्वभाव का आश्रय हो तो न राग है, न भय है ।
ज्ञानोपलब्धि में ज्ञान की साधकता―देखो तो भैया ! मोही जीव चार जीवों को अपना मानकर उसी केंद्र की ममता में पड़े हुए हैं और अपने तीनों लोक की प्रभुता को बरबाद कर रहे हैं । सो कोई दुर्धर तपस्या करके क्लेश करता है तो करे, मगर साक्षात् मोक्षभूत तो यह स्वयं संवेदन में आने वाला यह ज्ञानमय निरामय पद है इस ज्ञान को तपस्याओं से नहीं पाया जा सकता है, जल्सा और समारोहों से नहीं पाया जा सकता है, यह ज्ञानगुण के द्वारा ही पाया जाता है । हम अपने ज्ञान के द्वारा ही ज्ञान के स्वरूप का चिंतन करने लगें तो वह ज्ञान तुरंत पा सकते हैं । ज्ञानगुण के बिना ज्ञान को किसी भी प्रकार कोई भी पाने के समर्थ नहीं है । यह ज्ञानस्वभाव जो सहज ही आनंदरस कर भरा हुआ है वह इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता । पर हाँ इंद्रियों की अपेक्षा मन की मेरी ओर निकट गति है । उस ज्ञानस्वभाव के निकट तक तो मन की जाति है ।
ज्ञान से ज्ञान का अनुभव―इस ज्ञानस्वभाव में मन की गति नहीं है । इसने मानसिकज्ञान में ज्ञानस्वभाव की चर्चा तक पहुंचा दिया है और ज्ञानस्वभाव की जो विशेषताएं हैं उनके विकल्पों तक पहुंचा दिया है । अब आगे काम कितना है कि उन विकल्पजालों से भी परे होकर आगे चलकर केवल ज्ञानस्वभाव का अनुभव कर लें, यह अनुभव ज्ञान द्वारा साध्य है । इंद्रियों की गति तो ज्ञानस्वभाव की चर्चा तक के निकट भी नहीं है पर मन की गति तो ज्ञानस्वभाव की चर्चा तक है, अब ज्ञानस्वभाव को मानसिक विकल्पों द्वारा जान लिया, अब इस यह जानने के बाद थोड़ा कदम और बढ़ाना है कि केवल विकल्पों को तोड़कर आगे चलकर उस ज्ञानस्वभाव का अनुभव कर लिया जाये, वह अनुभव हो सकता है तो एक ज्ञानगुण द्वारा ही हो सकता है । इस ज्ञानगुण के बिना इस ज्ञान को निरामय पद को साक्षात मोक्ष के सत् को किसी भी प्रकार कोई पाने में समर्थ नहीं है । उस ही ज्ञान को पाने के उपाय में कुंदकुंदाचार्य यह गाथा कह रहे हैं:―