वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 220-223
From जैनकोष
भुंजंतस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे ।
संखस्स सेदभाओ ण वि सक्कदि किण्हगो कादुं ।।220।।
तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिए दव्वे ।
भुंजंतस्स वि णाणं ण सक्कमण्णाणदं णेदुं ।।221।।
जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदूण ।
गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे ।।222।।
तह णाणी वि दु जइया णाणसहावं तयं पजहिदूण ।
अण्णाणेण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे ।।223।।
ज्ञानी को अज्ञानमय करने में उपभोग में असामर्थ्य―जैसे अनेक प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों को भक्षण करने वाले शंख के श्वेत स्वभाव को काला कर देने की सामर्थ्य उन खाये जाने वाले पदार्थों में नहीं है इसी प्रकार अनेक प्रकार के सचित्त, अचित्त और मिश्रित द्रव्यों को भोगने वाले ज्ञानी के ज्ञान को भी अज्ञानमय करने की सामर्थ्य उन भोगे जाने वाले पदार्थों में नहीं है।
शंख का स्वरूप―शंख एक कीड़ा होता है जो शंख के भीतर रहता है । जीव के शरीर को हड्डी चमड़े भीतर होती है पर शंख की हड्डियां भी शंख के कीड़े के शरीर के भीतर रहती हैं और ऊपर से खोल भी एक हड्डी के मानिंद है, किंतु वह घर जैसा है । उस शंख में कीड़ा रहता है । जिस शंख को लोग बजाया करते हैं वह शंख भी एक घर के मानिंद है । उसमें कीड़ा रहता है और वह कीड़ा जिंदा अवस्था में भी शंख से बाहर हो जाता है किंतु बाल बराबर पीछे जुड़ा रहता है, पूरा कीड़ा बाहर निकल आता है फिर वही कीड़ा उस शंख में घुस जाता है । तो यह शंख कुछ ऐसी विचित्र हड्डी जैसी बात है कि जिसे हड्डी जैसा अपवित्र नहीं माना और पवित्र भी नहीं माना । लोकव्यवहार में शंख, सीप, कौड़ी ये कीड़े के घर है, सो हड्डी होते हुए भी चूँकि यह चमड़ी के भीतर नहीं होता है इस कारण लोकव्यवहार में इसकी परहेज अधिक नहीं है । कोई विशेष तर्क वाला या शुद्धि का पक्ष रखने वाला इससे बचता है पर अमूमन लोग इसका प्रयोग करते हैं । उस शंख की बात यहाँ कही जा रही है ।
परद्रव्य के उपभोग से रंग का अपरिवर्तन―शंख के अंदर रहने वाला कीड़ा यदि काली मिट्टी खाये तो क्या शंख काला हो जाता है? नहीं । वह तो सफेद ही रहता है । तो काली मिट्टी का भोग कर लेने से उस शंख के रंग पर कोई फर्क नहीं आया । और शंख का ही क्या, आप हरी भाजी खाते हैं तो क्या आप लोग हरे हो जाते हैं । तो द्रव्य के उपभोग से यहाँ रंग में बदल नहीं होती है । हाँ कभी शरीर ही कमजोर हो रहा हो और पीला हो रहा हो कमजोरी से, या काला बन रहा हो तो कैसी हो लाल चीज खाये तो क्या लाल बन जायेगा? परद्रव्यों के उपभोग से रंग नहीं बदलता है । शंख में परद्रव्यों के उपभोग से रंग नहीं पलट जाता ।
पर के द्वारा पर के भाव के परिवर्तन का अभाव―इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष परिवार का अनुराग करे, धन का संचय करे और भी मिश्र चीजों का अनुराग करे, उपभोग करे तो भी ज्ञानी जीव के ज्ञान को ये पदार्थ अज्ञानमय नहीं कर सकते, वह ज्ञानी अपने ही अपराधवश ज्ञानस्वभाव को छोड़कर अज्ञानमय बन गया तो बन गया किंतु किसी परद्रव्य में ज्ञानी को अज्ञानमय बनाने की सामर्थ्य नहीं है । किसी आचार्य, गुरु और भगवान में भी अज्ञानी को ज्ञानमय बनाने की सामर्थ्य नहीं है । ज्ञानी ज्ञानमय भाव को छोड़कर मिथ्यादृष्टि हो जाये तो अज्ञान स्वभाव में चलेगा और अज्ञानी अज्ञानमय भाव को छोड़कर सम्यक्त्वरूप परिणम जाये तो ज्ञानस्वभाव में चलेगा ।
स्वापराधकृत बंधन―हे ज्ञानी ! तू अपने अंतर की दृष्टि को सम्हाले रह । तेरी दृष्टि सम्हली हुई रहेगी तो सचित्त अचित्त मिश्र द्रव्यों को उपभोगता हुआ भी तू अज्ञानमय न बनेगा याने तेरे अज्ञानकृत बंध नहीं होगा । परद्रव्यों के अपराध से तुझे बंधन नहीं हुआ करता । तेरे ही अपराध से तेरा बंधन हुआ करता है । और जैसे वही शंख जिस समय अपने उस स्वभाव को (श्वेत स्वभाव को) छोड़कर कृष्णस्वभाव को प्राप्त होता है तो शुक्लपने को छोड़ देता है, इसी प्रकार ज्ञानी भी निश्चय से जब अपने उस ज्ञानस्वभाव को छोड़कर अज्ञानरूप परिणमन करता है उस समय अज्ञानपने को प्राप्त होता है । तेरी सम्हाल तेरे पास है तो इस लोक में किसी अन्य का तुझे भय नहीं है । तेरी सम्हाल तेरे पास नहीं है तो तेरे भय, शंका संकट के लिए कोई भी पदार्थ निमित्त हो सकते हैं ।
अज्ञान स्वयं आपत्ति―किसी पति पत्नी का नाम बेवकूफ और फजीहत था । फजीहत लड़ाई करके घर से भाग गई । बेवकूफ लोगों से पूछता है कि भाई तुमने हमारी फजीहत देखी है । लोगों ने कहा नहीं देखी । एक अपरिचित से पूछा कि तुमने हमारी फजीहत देखी है? वह मतलब ही न समझ सका । पूछा तुम्हारा नाम क्या है? बेवकूफ । अरे बेवकूफ होकर भी तुम फजीहत को ढूँढते हो । बेवकूफी ही तो फजीहत है । ज्ञानी जीव ज्ञानस्वभाव को छोड़कर अज्ञानी बन जाये तो यह अज्ञानपन ही स्वयं बंधन है । पर का बंधन मत समझो ।
बंधन के परापराधनिबंधनता का अभाव―जैसे परद्रव्यों का उपयोग करते हुए शंख के श्वेत भाव को काला करने की सामर्थ्य किसी भी पर में नहीं है क्योंकि परपदार्थ किसी अन्य परपदार्थ के परिणमन करने का निमित्त नहीं बन सकते । इसी प्रकार ज्ञानी जीव जो परद्रव्यों का उपभोग करता है उसके ज्ञान को अज्ञान कर देने की सामर्थ्य किसी परपदार्थ में नहीं है । कोई भी परपदार्थ परभाव को निष्पन्न नहीं कर सकते । इस कारण ज्ञानी जीव के परपदार्थों के अपराध के निमित्त से बंध नहीं है । यह ज्ञानी जीव स्वयं ही किसी का विकल्प बनाकर ज्ञानभाव को छोड़ दे और अज्ञानभाव को अपना ले तो बंधन में पड़ता है ।
अपना अपने में असर―एक देहाती पुरुष अदालत में जज के पास जाता है तो वह काँपता हुआ जाता है और एक शहर का प्रमुख जज के पास जाता है तो एक शान के साथ जाता है और जज पर दबाव डालता हुआ जाता है । वह देहाती जो घबड़ा गया तो क्या जज के शरीर के कारण घबड़ा गया? जज की किसी चेष्टा के कारण घबड़ा गया? वह देहाती स्वयं मूर्ख था, कमजोर था, कम दिल वाला था, नासमझ था । उसने अपने में विकल्प बनाया, मैं जा रहा हूँ, कैसे बोलूंगा, क्या होगा, क्या मैं ठीक भी रह पाऊंगा―सो अपनी कमजोरी से वह घबड़ा गया । कोई जज का असर नहीं पड़ गया उस देहाती पर । जज के होने के अपराध से कहीं देहाती की धोती नहीं ढीली हुई है । उसके ही अपराध से उसे दुःख पहुंचा है । घर में 10-5 आदमी रहते हैं, वहाँ परस्पर में कोई बात पर विवाद हो जाये, झगड़ा हो जाये तो एक की दृष्टि दूसरे पर रहती है । इसने मुझे यों तंग किया । इसने मुझे यों दुःखी किया । अरे दूसरे ने तंग किया ही नहीं । दूसरा हैरान कर ही नहीं सकता । जरा वस्तुस्वरूप को संभालो । इस समय में जितना दुःख हो रहा है वह सब हमारे ही अपराध से हो रहा है । अज्ञानी रागभाव करता है और दुःखी होता है ।
स्वापराध से ही बंध होने का नियम―जैसे वह शंख जिस समय काली, पीली मिट्टी को खा रहा हो या न खा रहा हो वह शंख अपनी श्वेत पर्याय को छोड़कर कृष्णपर्यायरूप में परिणम जाये तो यह श्वेत परिणमन स्वयं कृष्णरूप हो जाता है । इसी प्रकार वह ज्ञानी पुरुष परद्रव्यों को भोगे अथवा न भोगे, जब ज्ञान को छोड़कर स्वयं अज्ञान की परिणतिरूप परिणमता है तो इसका ज्ञान स्वयं अज्ञानरूप होता है । इस कारण यह निर्णय रखिये कि ज्ञानी जीव के जब कभी बंध होगा तो अपने ही अपराध से होगा । ज्ञानी की ही क्या सभी की यह बात है । ज्ञानी जीव के जो बंधन होता है वह उसके ही अपराध से होता है । जब अपने ज्ञानभाव को छोड़कर अज्ञानभाव में परिणमता है तो उसके बंधन हो जाता है, यहाँ यह भाव लेना । इसी प्रकार जब क्षयोपशम सम्यक्त्व होता है तो कर्मों के क्षयोपशम से होता है । उसकी भी अवधि होती है । क्षयोपशम मिटकर यदि उदय आ जाये तो सम्यक्त्व बिगड़ जाता है । यह निमित्त की ओर से उत्तर है । पर यहाँ उपादान की ओर से प्रश्नोत्तर किया जा रहा है ।
उपादान और निमित्त की ओर से विपरिणमन के उत्तर का दृष्टांत―यह अंगुली सीधी है, देखो जब सीधी अंगुली होती है तो घी नहीं निकलता है, और जब टेढ़ी हो गई तो घी निकलने का काम होने लगा । कोई कहे कि सीधी से टेढ़ी अंगुली क्यों हो गई तो सामने बता दो कि यों हो गई । अब उसमें क्या बात बताई जाये, इसी में ही इसके परिणमन से यों परिणमन हो गया । उपादान की ओर से तो यह उत्तर है और निमित्त की ओर से यह उत्तर है कि इस जीव ने इच्छा उत्पन्न की कि टेढ़ी अंगुली करूं और घी निकाल लूँ । अब इच्छा का निमित्त पाकर आत्मा में योग का परिस्पंद हुआ, और जिस प्रकार योग का परिस्पंद हुआ उसके ही अनुकूल शरीर में हवा चली और उसके ही अनुकूल फिर उसके नशाजालों में क्रिया हुई और यह अंगुली टेढ़ी हो गई ।
यहाँ यह बताया जा रहा है कि जैसे लोग यह मानते हैं कि परद्रव्यों के भोग और उपभोग से बंधन हुआ करता है वहाँ यह दृष्टि दिलाई जा रही है कि परद्रव्यों के भोग उपभोग में बंधन नहीं होता, किंतु उस काल में जो अज्ञान भाव चल रहा है उस अज्ञान परिणाम से बंधन होता है । यदि यह बात समझ में न आई तो धर्म के नाम पर केवल परद्रव्यों का त्याग बिगाड़ करता रहेगा, अपने आपके परिणमने की दृष्टि ही न जायेगी । जैसे कि बहुधा किसी पुरुष को या स्त्री को धर्म करने का भाव सवार होता है तो घर छोड़ दिया, अमुक कपड़े छोड़ दिया, यह छोड़ दिया, वह छोड़ दिया, खाना पीना ऐसी शुद्धि से करेंगे । सो किसी बात में यदि भंग होता है तो क्रोध आने लगता है । इसने हमारा धर्म बिगाड़ दिया ।
अज्ञान से बंधनरूप अधर्म―बहुत समय पहिले की बात हैं―ऐसे ही एक बार हमारे मन में खेल की बात उपजी । और एक थे क्षुल्लक जी । साथ ही साथ रहते थे बहुत दिन तक । वे जरा ऊपरी बातें ज्यादा रखते थे । तो हमने हाथ में चवन्नी ली । तब तो हम पैसा छूते ही थे । तो हमने कहा देखो महाराज आज हम तुम्हें बहुत बढ़िया चीज देंगे । उन्होंने हाथ खोल दिया । हमने उनके हाथ में चवन्नी धर दिया । इतने में वे बिगड़ गए, बोले तुमने हमारा धर्म बिगाड़ दिया । हमने कहा कि अगर हमने धर्म बिगाड़ा है तो अपना ही बिगाड़ा है तुम्हारा नहीं बिगाड़ा है । हमने यह भाव किया, इच्छा किया कि खेल करूँ और कुछ मन बहलाऊँ तो अपराध हमारा है, हमारा ही धर्म बिगड़ा, आपने तो अपने परिणाम बिगाड़ा नहीं । तो प्रतिसमय जो बंधन होता है वह अज्ञान से होता है और जो धर्म होता है वह ज्ञान से होता है ।
बंधन की स्वापराधनिमित्तता―भैया ! यहाँं यह बात जानो कि परद्रव्यों के भोग उपभोगकृत बंधन नहीं है और परद्रव्यों के भोग उपभोग के त्याग से कहीं बंधन नहीं मिट गया । इसमें यद्यपि वे परद्रव्यों के भोग उपभोग निमित्त हैं, पर निमित्त होने पर भी बंधन जो होता है वह अन्य के विषय के रागकृत बंधन होता है, भोगकृत बंधन नहीं है । तीन काल में भी भोगों से बंधन नहीं हो सकता है । भोगों के समय में जो राग है उससे बंधन होता है । इस प्रसंग से स्वच्छंद होकर यह बात नहीं लेना है कि भोग करना बंधन नहीं है इसकी स्वयं आगे बात कहेंगे और डाट-डपट दिखायेंगे उस जीव को जो बड़ों की बात सुनकर अपने में लागू करता है । जो चाहे कि मैं स्वच्छंद बन जाऊँ ऐसे जीव को कल के प्रकरण में डाट डपट दिखाई जायेगी । आज के प्रकरण में वस्तु का स्वरूप बताया जा रहा है । बंधन होता है तो अपने अज्ञान परिणाम से होता है, रागद्वेष मोह होना यह सब अज्ञान परिणाम ही तो है । इसमें ही बंधन है । इसलिए अपनी बात सम्हालो, अपने ही अपराध से अपने को बंधन होता है ।
बाह्य में कुछ करणीय का अभाव―आचार्यदेव यहाँ ज्ञानी पुरुष को संबोधते हैं कि हे ज्ञानी ! तुझको कुछ भी कर्म कभी करने योग्य नहीं हैं तो भी तू कहता है कि परद्रव्य मेरे तो कदाचित नहीं हैं और मैं भोगता हूँ । यदि ऐसा तेरा आशय है तो यह बड़ा खेद है । जैसे कि भोग चर्चाओं में कहने लगते हैं कि क्या करें भैया चारित्रमोहनीय का उदय है । उनका भाव यह है कि मेरे मात्र चारित्रमोह का उदय है कि मिथ्यात्व का उदय है । जैसे लोग जब पूछने लगते हैं कि आप तो पहिले बड़े वैराग्य की बातें किया करते थे, धर्म में आपका बड़ा चित्त लगता था । अब कैसी हालत बना ली है कि इन बातों में कुछ समय नहीं देते । तो सीधा कानूनन बोल देते हैं कि चारित्र मोहनीय का उदय है याने मिथ्या तो हम नहीं हैं, लक्ष्य तो हमारा ठीक है पर चारित्र मोहनीय का उदय है, सो व्रत, नियम, संयम, त्याग नहीं पाता है । ये वचन तुम्हारे स्वच्छंदता से भरे हुए हैं या तुम अंतर में खेद के साथ बोल रहे हो? जरा इसकी परीक्षा तो करो ।
कामना के सद्भाव व असद्भाव की निरख―भैया ! यहाँ प्राय: स्वच्छंदता से भरे हुए वचन निकलते हैं । भीतर के खेद के साथ, पश्चाताप के साथ ये वचन निकलें तो शोभा है । यह जीव करना तो कुछ चाहता नहीं है धर्म की बात और बातें बनाता है इसे कहते हैं स्वच्छंदता । तू यह कह रहा है कि परद्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं और मैं भोगता हूँ । अरे जो तेरा नहीं उसको तू भोगता है तो तू खोटा खाने वाला है, धोखे में पड़ा हुआ है । हे भाई ! तू यह कहता कि परद्रव्यों के उपभोग से बंध नहीं होता, इसलिए भोगता हूँ । बात कल की आ रही है । कल की बात पकड़कर स्वच्छंद होकर यह भोगने की बात कर रहा है कि तुम्हीं ने तो बताया था आचार्यदेव ! कि उपभोग को भोगने से बंध नहीं होता इसलिए भोगता हूँ । उस स्थिति पर तू यह सोच कि तुम्हें भोगने की इच्छा है या बिना इच्छा बिना भोग रहे हो । यदि भोगने की इच्छा बिना ज्ञानरूप होता संता अपने स्वरूप में निवास की दृष्टि रखता हुआ भोगता है तो बंध नहीं है और जो भोगने की इच्छा करेगा तो वही इच्छा तो अपराध है । सो अपने अपराध से नियम से बंध को प्राप्त होता है ।
स्वयं गुण बताना गुणहीनता का लक्षण―दूसरे ज्ञानी पुरुष करें कुछ भी, पर उसके अंतर में इच्छा नहीं है यदि ऐसा कहें तो बात कुछ ढंग में आती है और यदि अपने बारे में ऐसा कहें कि हम कुछ अपराध नहीं करते तो वहाँ कुछ इच्छा से ही बोल रहे हैं जो अपने बारे में यह बात घटित कर रहे हैं । जैसे दूसरे को कोई चीज के लिए संकेत कर दे कि इन भाई साहब को लड्डू परोस दो तो बात खप जायेगी पर भाई साहब हमें लड्डू परोसना यह बात तो न खपेगी । हम ज्ञानी पुरुष के बारे में तो सोच सकते हैं कि धन्य है ज्ञान का माहात्म्य कि जिस ज्ञान कणिका के कारण इनके बंध नहीं हो रहा है, देखो करने में सब खटपटें आ रही हैं पर भीतर में ऐसा है कि बंध नहीं होता है । अपने बारे में सदा अपने अपराध ही देखें और दूसरों के सदा गुण देखें ।
अपनी महिमा जताने से अवनति―सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष के गुण भी हैं और दोष भी हैं, जो रागादिक हैं वे दोष हैं, और जो दृष्टि निर्मल है वे उसके गुण हैं । दूसरे हम ज्ञानीपुरुष के गुण ही देखा करें और अपने को देखने का यदि अवसर बनाएं तो अपने में दोष देखा करें । मेरे में ये दोष हैं, मेरे में ये दोष हैं, गुण हैं, सो वे रहने दो । गुणों के बताने से गुणों पर अपना गौरव करने से गुण हल्के हो जाते हैं । गुणों में भी खूबी नहीं रहती इसलिए अपने में दोष देखो और दूसरे ज्ञानी के गुण निरखो । दूसरे ज्ञानी के गुण निरखना भी अपने ही गुणों का समर्थन है पर अपने ही गुणों को निरखकर गुणों का समर्थन न करो । दूसरों के गुण निरखकर अपने गुणों का समर्थन कर लो ।
ज्ञानरूप बसने की ऋषियों की सम्मति―हे ज्ञानी पुरुष ! तू अपने अंतर में यह निरख कि तेरे भोग भोगने का कामचार है या नहीं? इच्छा है या नहीं? यदि इच्छा है तो बंध को ही प्राप्त होगा । इसलिए तू केवल एक यह कार्य कर कि ज्ञानस्वरूप रहते हुए ठहर जा । एक ही बात की हठ इसे करना है, टन्ना कर रह जाना । कुछ यहाँ वहाँ की फिक्र नहीं, कोई बात नहीं, टन्नाकर रह गए याने एक ही दृष्टि करके रह गए । तू तो अपने को ज्ञानस्वरूप निहारता जा । होता क्या है इस ओर तू उपयोग न दे । यदि ज्ञानस्वरूप नहीं निहार सकता, ज्ञानरूप नहीं बस सकता तो अपने ही अपराध से तुम्हें नियम से बंध है । इसमें कोई संदेह नहीं है ।
ज्ञानी के कामचार के अभाव पर एक दृष्टांत―ज्ञानी जीव के यह बात संभव ही है कि कार्य कर रहा है, भोग भोग रहा है पर अंतर से उसके इच्छा नहीं है । जैसे किसी के इष्टवियोग हो गया बहुत ही प्यारा, बहुत ही सरल, एक मात्र सहारा था वह गुजर गया । जिसे कहते हैं दीपक बुझ गया, उसके दुःख का क्या ठिकाना है, रात दिन पागल-सा फिरता है, लेकिन एक दिन भूखा रह जाये, दो दिन भूखा रह जाये, खाना पड़ता है, रिश्तेदार जबरदस्ती खिलाते हैं, खाता जाता है आंसू ढलकाता जाता है, रोता जाता है, खाने की इच्छा नहीं है, यह स्थिति उसकी आ जाती है ।
ज्ञानी के कामचार का अभाव―इसी प्रकार जिसको यह सारा संसार मायारूप दिख गया, अंतर में परमार्थ के अवलोकन की तीव्र भावना हो गई उसे सर्वत्र कहीं सार नहीं दिखता और एक आत्मा के ज्ञायकस्वभाव के अवलोकन में जो उसे आनंद मिला है उसके स्मृति बनी रहती है, ऐसे उस आनंद के रुचिया ज्ञानी पुरुष बाह्य परिस्थितिवश गृहस्थी में रहते हैं तो भी न रहने के बराबर कहे जाते हैं । ज्ञानी को कार्य करना तो उचित ही नहीं है और जो परद्रव्यों को जानकर भी उसने भोगा तो यह भी योग्य नहीं है । परद्रव्यों के भोगने वाले को तो लोक में चोर और अन्यायी कहते हैं । दूसरे के घर की चीज उठा लाये और मौज मार रहे हैं उसे तो लोग अन्यायी कहेंगे ना, यह परमार्थ पर अन्याय की बात चल रही है ।
भोग की स्थिति में भोक्ता का ही अनर्थ संभव―भैया ! हम बाह्यपदार्थों को, परद्रव्यों को समझ लें कि इनका स्वरूप न्यारा है, अस्तित्व जुदा है, मेरा ये कुछ परिणमन करते नहीं है, मैं उनका परिणमन करता नहीं । यह तो निमित्तनैमित्तिक संबंध की बात है कि अन्य द्रव्यों का निमित्तमात्र पाकर उपादान परिणति बन जाती है, पर कोई पदार्थ अपने प्रदेशों से बाहर अपने गुण अपनी पर्याय कुछ नहीं कर सकता है । परद्रव्यों को अज्ञानी भी नहीं भोगता किंतु कल्पना में मानता है कि मैं परद्रव्यों को भोग रहा हूँ । भोगे तो भोग क्या हैं, भोगों ने भोगा हमको । हम भोगों को क्या भोगते हैं, उन भोगों का हमने क्या बिगाड़ लिया, पर भोगों के द्वारा हम भुग गए, संसार में रुल गए और विचित्र परिस्थितियां प्राप्त कर लीं । परद्रव्यों को कोई नहीं भोगता, भोगने की सामर्थ्य ही नहीं है किंतु अपनी ही कल्पना में यह अज्ञानी परद्रव्यों को विषयमात्र करके अपने आप में कल्पना बनाता रहता है । यही परद्रव्यों का भोगना कहलाता है ।
स्वनिर्गत आनंद में परनिर्गतता का भ्रम―भैया ! खा तो रहे खुद का और भ्रम हो जाये कि हम इनका खा रहे हैं तो खाने वाले यह समझते हैं कि मैं इन परद्रव्यों का भोग करता हूँ । ज्ञानी जीव भोग तो करता है अपने ही परिणमन का जो कल्पना उठी, जो विचार हुआ, जो तर्क हुआ, भोगता तो अपने ही परिणमन को है, पर भ्रम हो गया कि मैं परद्रव्यों को भोगता हूँ । उसकी ऐसी स्थिति है जैसी कि एक कथा रूप में सुनिये ।
पर से सुख मानने का एक दृष्टांत―चार सगे भाई गरीब हो गए । कल के लिए खाने को भी नहीं । तो सोचा कि बुआ के पास चलें और 15-20 दिन अच्छी तरह खायेंगे, रहेंगे । सो बुआ उनकी बड़ी चतुर और कंजूस थी । सोचा कि अगर एक दो दिन भी इन्हें अच्छी तरह खिला पिला दिया तो फिर ये कई दिन तक जम जायेंगे । सो आते ही खुश होकर बोली आ गए भैया? हाँ आ गए । बोली―क्या-क्या खाओगे? तो भैया बोले कि बुआ जी जो खिलाओगी सो खायेंगे । अच्छा तो तुम नहा आओ, मंदिर हो आओ, हम खाना तैयार करते हैं । वे सब कपड़े उतारकर एक-एक धोती लेकर गाँव से बाहर तालाब में नहाने चले गए । वहाँ से 2 घंटे बाद में आए, मंदिर गए, मंदिर में 2 घंटे लग गए । चार घंटे बाद वे खाना खाने पहुंचे । उन चार घंटों के बीच में बुआ ने क्या किया कि भैयों के कपड़े और जेवर जो भी थे कोटों में सब उठाकर पड़ोस के एक बनिया के यहाँ ले जाकर 40-50 रुपये में गिरवी रख दिया और उन रुपयों में शकर, घी, आटा सब खरीदकर ले आई । घर में लाकर भोजन बनाया । पूड़ी कचौड़ी हलुवा सब बनाया । अब वे चारों आ गए, भोजन करने बैठ गए । हलुवा पूड़ी पकौड़ी खाते जाएँ और कहते जाएँ कि बुआ ने बहुत बढ़िया भोजन बनाया तो बुआ बोली, खाते जाओ, तुम्हारा ही तो माल है । लड़कों ने समझा कि खिलाने वाले ऐसा ही तो कहते हैं । उन्हें पता नहीं पड़ा कि बुआ ने क्या किया है? सो कहते जायें कि बुआ ने खूब बढ़िया खिलाया और कितनी विनय की बातें बोल रही है । फिर एक दो बार प्रशंसा कर दिया । बुआ ने कहा कि खूब खाओ यह तुम्हारा ही तो माल है । जब खा चुके, कपड़े पहिनने गए तो कपड़े न मिले । पूछा कि बुआ कपड़े कहा हैं? तो बुआ कहती है कि हम कहती थी ना कि खूब खाओ यह तुम्हारा ही तो माल है । उसका मतलब था कि कपड़े और सारा समान बनिया के यहाँ गिरवी रख दिया और उनसे ही आप लोगों को खिलाया है, सो सब खा तो रहे थे अपना ही और भ्रम था कि बुआ का खा रहे हैं ।
अज्ञानी के पर से सुख मानने का भ्रम―इसी तरह यह अज्ञानी जीव भोग रहा है अपना ही परिणमन । परवस्तु के परिणमन को यह भोग नहीं सकता है । वहाँ तो गति ही नहीं है । पर वस्तु को कोई नहीं भोगता है । भोगते हैं खुद को ही और भ्रम हो गया कि इन विषयभूत पदार्थों को मैं भोगता हूँ । तो बाह्य पदार्थ जो भोगे नहीं जा सकते उनको जबरदस्ती अपनी कल्पना में भोग रहा है, तो पर के भोगने वाले को चोर और अन्यायी कहते हैं । तो यहाँ तो परमार्थ से चोर और अन्यायी हैं, वह जिसको आशय लगा हुआ है कि मैं परद्रव्यों को भोगता हूं । पूर्व प्रकरण में यह बात कही गई थी कि उपभोग से बंध नहीं होता है वह इस प्रकार समझना कि ज्ञानी बिना इच्छा के पर की परजोरी से उदय में आए हुए को भोगता है, उसके बंध नहीं होता और जो इच्छा से भोगेगा सो इच्छा ही अपराध है उस अपराध के होने पर बंध क्यों न होगा?
वांछक को फल में कर्म की निमित्तता―भैया ! और भी सोचिए―कर्म अपने करने वाले कर्ता पुरुष को अपने फल के साथ जबरदस्ती से तो नहीं लगाते कि तू मेरे फल को भोग, कैसा भी कर्म हो, क्रिया हो, दुकान हो, तन, मन की चेष्टा कर परोपकार का बर्ताव हो, कोई भी काम इस जीव को, कर्ता को अपने फल के साथ जबरदस्ती नहीं लगाता किंतु कर्मफल का इच्छुक होकर कर्मफल को करता हुआ यह जीव उस कर्मफल को पाता है । जो ज्ञानरूप हो, जिसके राग की रचना न रहे, कर्म करते हुए कर्म में रागरस नहीं है ऐसा संत ज्ञानी कर्म को करता हुआ भी कर्म से नहीं बंधता, किंतु न बंधते हुए कर्म को करता हुआ भी कर्म के फल के त्याग का उसके स्वभाव पड़ा हुआ है ।
आशयभेद से भवितव्यभेद―भैया ! आशय के भेद से सब बातों में भेद हो जाता है । एक पुरुष परोपकार इसलिए करता है, दुखी जीव की सेवा इसलिए करता है कि मुझे पुण्योदय से पाये हुए सुख में आसक्ति न हो जाये और संसार के दु:ख का मुझे ध्यान बना रहे । और इन शुभ सेवाओं में समय लगने से विषयकषायों का मुझे अवसर न रहे, ऐसी सेवा करने को शुभ आशय कहते हैं । और कोई ऐसा भी आशय रख सकता है कि मैं कुछ दीनदुःखियों के काम की बात बनाऊं तो लोक में मेरा नाम होगा । इलेक्शन में खड़े होंगे तो लोगों का मुझ पर आकर्षण होगा । लोग समझेंगे कि ये बड़े सेवाभावी हैं । यह आशय भी परोपकार करा सकता है । देखो भैया ! आशय के भेद से भवितव्य का भेद हो जाता है ।
हितैषी का एक मात्र कर्तव्य―कर्म कर्ता को जबरदस्ती अपने फल के साथ नहीं जोड़ता किंतु कर्म करते हुए जो फल का इच्छुक है वही उसके फल का भोक्ता है । इस कारण ज्ञानी ज्ञानरूप होता संता कर्मों के करने में राग नहीं करता । उनके फल की भविष्य में इच्छा भी नहीं करता, ऐसे ही संत मुनि ज्ञानी कर्मों से नहीं बंधते । काम केवल एक ही करना है । एक ज्ञानस्वरूप अपने आपको देखो । यह मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञानभाव के अतिरिक्त अन्य कुछ करता नहीं हूँ, अनुभव के अतिरिक्त और कुछ भोगता नहीं हूँ, इस तरह अपने को ज्ञानमात्र निरखो, यही एक काम करना है । इस एक काम के करने में वे सब बातें आ जाती हैं जो हमें नहीं करना है ।
ज्ञानमात्र के ग्रहण में सर्वपरपरिहार―जैसे वनस्पति लाखों किस्म की हैं । कोई वनस्पति का नाम लेकर त्याग करे तो वह त्याग नहीं कर सकता है । और उनमें से 10-5 का नाम लेकर यह कहे कि बाकी का त्याग किया, तो 10-5 नाम रखने का ही अर्थ यह हुआ कि लाखों वनस्पतियों का त्याग किया । इसी प्रकार हमें किन-किन दुर्भावों से दूर होना है, हम दुर्भावों को ढूँढ और उन पर दुर्भावों से दूर होने का यत्न करें तो हम दुर्भावों का पार नहीं पा सकते हैं और न दुर्भावों से दूर हो सकते हैं । किंतु एक अपने को ज्ञानस्वरूप निहारें, ज्ञानमात्र निरखने के परिणाम में शुद्ध आनंद का अनुभव करें, यही एक काम मात्र करने योग्य है, शेष सब हेय हैं । इस प्रकार अन्य भावों का त्याग करें तो त्याग हो सकता है ।
ज्ञानी के संसारबंधन का अभाव―ज्ञानी पुरुषों को कर्मों के उदयवश, परिस्थितिवश कुछ करना पड़ता है, करना पड़े, किंतु उन कर्मों में रागरस नहीं हैं, वे कर्मफल भोगने की चाह नहीं रखते, इस कारण से ये ज्ञानी जीव बंध को प्राप्त नहीं होते । यहाँ जो बंध का निषेध है वह द्रव्यानुयोग की दृष्टि से है । करणानुयोग की दृष्टि से तो जितने अंश में राग है इतने अंश में बंध है, जितने अंश में राग नहीं है उतने अंश में बंध नहीं है । पर इस प्रकरण में संसार-बंधन को ही बंधन कहा गया है । वह संसारबंधन, अनंतानुबंधी का बंध सम्यग्दृष्टि के कभी नहीं होता । न जागते में, न सोते में, न भोगते में, न किसी परिस्थिति में । इस कारण यह ज्ञानी जीव उन कर्मों के फल का रागरस छोड़े रहने का स्वभाव रखता है, सो कर्मों को करता हुआ भी कर्मों से नहीं बंधता । अब इसी विषय को स्पष्ट करने के लिए आगे चार गाथाएँ एक साथ कही जा रही हैं ।