वर्णीजी-प्रवचन:समयसार - गाथा 231
From जैनकोष
जो ण करेदि दुगुंछं चेदा सव्वेसिमेव धम्माणं ।
सो खलु णिव्विदिगिच्छो सम्मादिट्ठी मुणेदव्वो ।।231।।
निर्जुगुप्सक सम्यग्दृष्टि―जो जीव सभी धर्मों में ग्लानि को नहीं करता है वह निश्चय से निर्विचिकित्सा दोषरहित सम्यग्दृष्टि है, ऐसा मानना चाहिए । जुगुप्सा का अर्थ है निंदा, दोष ग्रहण करना, ग्लानि करना, इन सब बातों को सम्यग्दृष्टि नहीं करता है । सम्यग्दृष्टि को परमात्मतत्त्व की भावना का महान् बल प्रकट हुआ है और उस भावना के फल में उसने यह अनुभव किया है कि सर्व जीवों में सार, सर्वस्वभूत यह चैतन्यस्वभाव एकस्वरूप है । यहाँ अर्थात् स्वभावदृष्टि में स्वरूप की समानता कहते हैं कि उसमें हीनाधिकता नहीं है ।
जाति की अपेक्षा जीवों की एकता―यदि जीव के स्वभाव में हीनाधिकता होती तो द्रव्य 6 न कहे जाकर 7 कहे जाते, अनेक कहे जाते । यद्यपि द्रव्य अनंत है, 6 नहीं हैं । क्योंकि उस एक का लक्षण है, जितना परिणमन एक पूरे में होना ही पड़ता है, जिससे बाहर कभी नहीं होता है उसको एक द्रव्य कहते हैं । जैसे जीव का ज्ञानपरिणमन है, जाननपरिणमन, आनंदपरिणमन या विकार अवस्था में रागद्वेषादिकरूप परिणमन, सुख दुःख आदिक परिणमन ये जीव के जितने पूरे में होते हैं उतने को एक कहते हैं । कोई विवक्षित सुख दुःख किसी अन्य जीव में नहीं होता है । जिसका सुख दुःख परिणमन है उसका उस ही में होता है और उसके पूरे जितने में वह विशेषता है उतने में होता है । जीव का ज्ञानपरिणमन आधे प्रदेशों में हो और आधे में न हो ऐसा नहीं है । एक परिणमन जितने में होना ही पड़ता है उसको एक कहते हैं । यों अनंते जीव हैं, पुद्गल अनंते हैं और भी द्रव्य हैं । तो भी उनको जाति अपेक्षा से 6 प्रकार के कहे हैं ।
एक के स्वरूप पर बांस का दृष्टांत―इसके लिए मोटा दृष्टांत बांस का बताया है । दृष्टांत तो दृष्टांत ही होता है । बाँस भी एक द्रव्य नहीं है । वह अनंत पुद्गल परमाणु द्रव्य का स्कंध है, फिर भी एक व्यावहारिक दृष्टांत है । और एक दृष्टांत से उसमें दृष्टांत घटाया है कि जैसे बांस पड़ा है उसका एक छोर हिले तो सारा बांस हिल जाता है क्योंकि वह एक है । बांस से चौकी अलग है तो बांस के हिलने से चौकी नहीं हिलती है । एक वह कहलाता है कि कोई गुण परिणमन जितने में होना ही पड़ता है । इस दृष्टि से जगत में जीव अनंत हैं, और जीवों से अनंतगुणे पुदगल द्रव्य हैं।
जीव से अनंतगुणे पुद्गलों की सिद्धि―एक-एक संसारी जीव के साथ अनंत पुद्गलद्रव्य लगे हैं, मुक्त जीवों के साथ नहीं लगे हैं । पर मुक्त जीवों से अनंतगुणे संसारी जीव है । एक जीव के साथ अनंत पुद्गल लगे हैं । प्रथम तो उसके साथ जो शरीर लगा है वह शरीर ही अनंत पुद्गलों का प्रचय है । पर उस शरीर के साथ शरीर के ही विस्रसोपचयरूप परमाणु लगे हैं । वे भी अनंत हैं । इस जीव के साथ कर्म भी बद्ध हैं वे ज्ञानावरणादिक भी अनंत हैं और विस्रसोपचय रूप कार्माणवर्गणाएँ भी लगी हैं, वे भी अनंत हैं । तैजस शरीर है, तैजस वर्गणाएँ हैं वे भी अनंत हैं । तो एक जीव के साथ अनंत पुद्गल प्रथम लगे हुए हैं और अनंत जीव हैं तो पुद्गल द्रव्य का समूह तो जीव से भी अनंतगुणा हे ।
व्यक्ति से अनेकता व जाति से एकता का परिचय होने पर निर्जुगुप्सा का अभ्युदय―जीव पुद्गल के अतिरिक्त और भी द्रव्य हैं धर्म, अधर्म, आकाश भी एक-एक द्रव्य हैं । काल असंख्यात द्रव्य है । यों समस्त द्रव्य अनंत हैं । किंतु उन सर्वद्रव्यों को जाति की अपेक्षा संक्षिप्त किया जाये, जाति में सम्मिलित किया जाये तो वे सब द्रव्य 6 जाति के होते हैं । जाति जो बताई जाये उसमें न एक छूटना चाहिए और न भिन्न जाति का एक भी मिलना चाहिए वह जाति का लक्षण है । तो जीव जाति से जो लक्षित किया गया है वह स्वरूप सब जीवों में हीनाधिकता से रहित एक समान होना चाहिए । यदि एक जीव का दूसरे जीव में लक्षण दृष्टि से रंच भी अंतर होता है तो उनकी जाति अलग-अलग हो जाती है । इस तरह जीव-जीव सब असाधारण चैतन्यस्वरूप की दृष्टि से एक समान हैं । उनमें रंच भी अंतर नहीं है । जीव की ऐसी स्वरूप महिमा को जानने वाला तत्त्वज्ञानी पुरुष उनमें निर्विचिकित्सा, निंदा, घृणा का परिणाम नहीं करता है । अथवा अपने आपमें ही उत्पन्न होने वाले विकार परिणामों में वह खेदरूप निर्विचिकित्सा नहीं करता है अर्थात् उनके भी एक विकारी भाव है इस प्रकार जानता है पर उसके कारण उद्विग्न नहीं होता है । परिस्थिति है, औपाधिकभाव है, अथवा क्षुधा आदिक कोई वेदना हो जाये तो उन वेदनाओं में भी अपने को मलिन नहीं बनाता । उनका ज्ञाता द्रष्टा रहता है । अथवा उस समय में भी अपनी सावधानी को नहीं खोता है । व्यवहारदृष्टि से जो ऐसे साधु संत जन हैं, रत्नत्रय की मूर्ति हैं, ऐसे पुरुषों में ग्लानि, जुगुप्सा, निंदा आदि भावों को नहीं करते हैं ।
निर्विचिकित्सित अंग पर एक दृष्टांत का भाषण―निर्विचिकित्सा अंग का एक कथानक बहुत प्रचलित है । स्वर्ग में सभा में चर्चा हुई निर्विचिकित्सा अंग के प्रति कि भूलोक में राजा उद्दायन अति प्रसिद्ध है । धर्मात्मा पुरुषों को देखकर, उनके मलिन रुग्ण शरीर को देखकर राजा उद्दायन ग्लानि नहीं करता है । जैसे माँ अपने बच्चे की किसी भी प्रकार की सेवा में ग्लानि नहीं करती । वह बच्चा माँ के कपड़ों में मल भी कर दे, मूत्र भी कर दे, इतनी तरह की झंझटों में भी माँ अपने बच्चे से ग्लानि नहीं करती । इसी प्रकार जो धर्मरुचिया पुरुष हैं वे धर्मात्मा जनों की सेवा में रत रहते हैं, उनकी सेवा में ग्लानि का परिणाम नहीं करते, घृणा नहीं करते । कोई यदि किसी धर्मात्मा से घृणा करे या अंतर में ईर्ष्या द्वेष रखे तो ऐसी वृत्ति सम्यग्दृष्टि में नहीं हो सकती है । जिसके पर्यायबुद्धि है, अपनी वर्तमान परिस्थिति में अहंकार है, तत्त्व से अपरिचित है ऐसा पर्याय व्यामोही जीव ही दूसरे को तुच्छ गिनने का और इसी कारण द्वेष से निहारने की बुद्धि रखने का यत्न करता है, व्यसन रखता है । तत्त्वज्ञानी पुरुष धर्मात्मा जनों में निर्विचिकित्सा, निंदा, घृणा, ग्लानि को नहीं करता है ।
देव द्वारा उद्दायन राजा की परीक्षा―ऐसा व्याख्यान सुनकर एक देव के मन में ऐसा आया कि हम जाकर परीक्षा करें कि उद्दायन राजा किस प्रकार निर्विचिकित्सा अंग को पालता है । आया वह भूलोक में । बना लिया कोई भेष । तो साधु का भेष बनाया देव ने और चर्या के लिए चला मुद्रा सहित । उद्दायन राजा ने जब देखा कि साधु महाराज आ रहे हैं तो बड़ी भक्ति से पड़गाहा, भोजन कराया । देव भोजन नहीं करते, पर मायामय उनकी पर्याय जो होती है वह नाना प्रकार की बन जाती है । कैसा ही रूप रख लें, पत्थर, पहाड़ जैसे दृश्य भी बना लें । तो भोजन करने के बाद देव ने वहीं वमन कर दिया । सो वमन भी बड़ी दुर्गंधित चीज होती है । उसके बाद भी उद्दायन राजा व उनकी रानी दोनों बड़ी भक्ति से उनकी सेवा में लगे हैं । ग्लानि नहीं करते हैं, वे अपने ही कर्मों का दोष देते हैं । कैसा मेरा उदय आया कि इन्हें यहाँ पर ऐसी तकलीफ हो गई । वे राजा और रानी अपने विनय में, धर्मबुद्धि में अंतर नहीं डाल रहे हैं । कुछ ही समय बाद वह देव वास्तविक देव रूप में प्रकट होकर राजा उद्दायन की स्तुति करने लगा । धन्य हो तुम । जैसा सुना था, जैसा जिनधर्मी को होना चाहिए वैसा ही स्वरूप आपका मिला । ऐसा कहकर देव प्रणाम करके चला गया ।
भैया ! प्रथम तो किसी जीव से भी घृणा नहीं होनी चाहिए । पर जो जिनशासन की सेवा में लगे हुए हों ऐसे पुरुषों के प्रति भी अर्थात् धर्मसाधक पुरुषों के प्रति भी कोई यदि ईर्ष्या, द्वेष, विचिकित्सा, ग्लानि रखता है तो उसे स्वयं यह अपनी कमजोरी सोचना चाहिए कि मेरे तत्त्व की स्फूर्ति नहीं हुई है, मलिन परिणामों में ही बसकर हम बंध कर रहे हैं । परमात्मतत्त्व की भावना के बल से ज्ञानी जीव सर्व ही धर्मों में जुगुप्सा को नहीं करते हैं । वस्तुस्वभाव में विभाव में प्रत्येक जीव में विचिकित्सा ग्लानि को नहीं करते हैं । और जिसकी ऐसी निर्विचिकित्सा रूप प्रवृत्ति होती है वह धर्मात्मा के प्रसंग में मल मूत्र आदि से तो ग्लानि करता ही नहीं, पर ऐसी भी एक साधारण वृत्ति हो जाती है कि किसी भी जगह हो, जा रहे हो, कोई गंदी चीज पड़ी हो तो उस समय भी नाक भौंह आदि सिकोड़ने की वृत्तियां नहीं होती हैं । इस कारण यह जीव टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमय है, ऐसा उपयोगी है । जो अपने निश्चल सहज तत्त्वस्वरूप का प्रतिभास करता है ऐसे जीव को सब ही वस्तु धर्मों में जुगुप्सा नहीं होती है, उसे निर्विचिकित्सा बोलते हैं ।
निर्जुगुप्स ज्ञानी जीव के विचिकित्साकृत बंध नहीं होता है क्योंकि ग्लानि का परिणाम नहीं है । परद्रव्यों में द्वेष करने के निमित्त से होने वाला बंध ज्ञानी जीव के नहीं होता है ।
ग्लानि के होने व न होने का कारण―भैया ! द्वेष की प्रवृत्ति बहुत गंदी प्रवृत्ति है । मिलता क्या है द्वेष करके? द्वेष करने से कुछ भी तो हाथ नहीं आता है । और अपने आत्मा को व देह को जलाया जाता है । बिना प्रयोजन के दुःख करता है, क्लेश करता है । दूसरे पुरुषों से द्वेष करने की वृत्ति तब होती है जब अपनी पर्याय का अभिमान होता है । मैं ऊँचा हूँ, श्रेष्ठ हूँ, धन में, बल में, सौभाग्य में मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ, ऐसी परिणति पर जब आत्मीयता की बुद्धि होती है, यही मैं हूँ मैं बड़ा हूँ, तब दूसरे जीवों से ग्लानि की द्वेष की प्रवृत्ति होती है । सम्यग्दृष्टि पुरुष कैसा स्पष्ट हो गया है अपने आपमें? उसके लिए ग्लानि को बसाने वाला विभाव नहीं रहा । वह सब जीवों को एक चैतन्यस्वरूपमय तकता है ऐसी उसकी पैनी अंतर में दृष्टि हो गई है ।
अंतर्दृष्टि की विषयविधि पर एक दृष्टांत―जैसे हड्डी का एक्सरा लेने वाला यंत्र होता है उसके नीचे पड़ा हुआ पुरुष कपड़े पहिने हुए हो तो भी कपड़े की फोटो नहीं लेता, चमड़े की फोटो नहीं लेता, खून, मांस का फोटो नहीं लेता किंतु भीतर में जो हड्डी है उसका ही फोटो ले लेता है । वह यंत्र अन्य सब चीजों को छोड़ देता है इसी तरह तत्त्वज्ञानी पुरुष समस्त जीवों को निहारकर ऐसी उसकी पैनी तीक्ष्ण अंतरदृष्टि है कि वह उनकी पर्याय में न अटक कर, उनकी देह के भेद में न अटककर होने वाले औपाधिक परिणामों में न बसकर अंतर में सहज अनादि अनंत अहेतुक जो चैतन्यस्वरूप है उस चैतन्यस्वरूप पर दृष्टि पहुंचती है और इस वृत्ति से उस ज्ञानी पुरुष को सभी जीव प्रभुस्वरूप नजर आते हैं । जैसे अन्य लोगों में सभी में राम और नारायण देखने की जैसी वृत्ति है और जो उनमें ज्ञानी संत लोग हुए हैं वे प्रत्येक को राम इस प्रकार निहारते हैं । इसी प्रकार तत्त्वज्ञानी पुरुष जीव के भेद और पर्याय में अपना उपयोग न अटकाकर आंतरिक चैतन्यस्वरूप पर दृष्टि देता है और उस दृष्टि में सर्व जीव चैतन्यस्वरूप समान नजर आते हैं ।
रुचि के अनुसार दृष्टि की उद्भूति―जैसे जिसका चित्त बड़े सुख में है, बहुत प्रकार के आराम के साधन हैं, प्रसन्न मिजाज रहता है वह नगर में घूमे और कोई दु:खी रोता हुआ नजर आए तो कुछ ऐसा उसे प्रतीत होता है कि ये ऊपर पट्टी रो रहे हैं, दुःखी कोई नहीं है । जो सुख में मस्त हैं उसके ऐसी दृष्टि है कि जगत के जीवों का दुःख मुश्किल से पहिचान सकेगा । वह देखेगा भी तो यों सोचेगा कि ये कुछ नाटक-सा कर रहे होंगे, कुछ ऐसा करना पड़ता होगा । यों ही रोते होंगे । उनके अंतर में कुछ वेदना है यह उसके ध्यान में नहीं आ पाता, क्योंकि सुख पर्याय में मस्त है । परमार्थत: कोई बाहर में देखता जानता तो है नहीं । जो देखता जानता है सो निश्चय से अपने को ही देखता जानता है । जैसे खुद हैं तैसा ही तो अपना परिणमन होगा ना, जैसी स्वयं की दृष्टि है उसके खिलाफ भी कुछ है दुनिया में, मगर वह उपयोग में नहीं जच पाता है । साधारणतया उनके ज्ञाता दृष्टा रहते हैं । जैसे इन व्यवहारी जीवों में पर के प्रति अपनी दृष्टि के मुताबिक अनुभव होता है इसी प्रकार तत्त्वज्ञानी जीवों में अपनी दृष्टि के मुताबिक समस्त जीवों के प्रति ख्याल और श्रद्धान होता है । जिसको सहज केवल शुद्ध ज्ञानमात्र की दृष्टि है अर्थात् जिस स्वरूप में जानन बसा है, जानन से अतिरिक्त कुछ भी विभाव हो उसे स्वरूप में नहीं लपेटता है, होता तो है मगर स्वरूप रूप नहीं जानता है, ऐसा भेद करके तीक्ष्ण दृष्टि रखने वाला पुरुष सब जीवों के बाह्यस्वरूप को भी देखकर उनके बाह्य स्वरूप में नहीं अटकता, किंतु चैतन्यस्वरूप की अंतरदृष्टि करता है, ऐसी शुद्ध दृष्टि रखने वाले पुरुष के निर्विचिकित्सा अंग प्रकट होता है ।
रुचि के विषयभूत पदार्थ में ग्लानि का अभाव―तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव के वस्तु के धर्म में, जिस विभावरूप धर्म में जीव दु:खी ही भान हो सकता है, ऐसे क्षुधा, तृषा आदि भावों में और बाहर के जो मलिन पदार्थ हैं―मलमूत्र आदिक उन मलिन द्रव्यों में ग्लानि नहीं होती और विशेषतया धर्मीजनों की सेवा का प्रसंग हो तो वहाँ ग्लानि के अंश का नाम नहीं होता । धर्म की रुचि के आगे मल मूत्र आदि की ग्लानि भी खतम हो जाती है । जैसे मां को पुत्र की रुचि के कारण पुत्र के मलमूत्र आदिक से ग्लानि नहीं रहती । और यदि रुचि न हो तो ग्लानि करे । जैसे प्रेम से अपने बच्चे की नाक साड़ी से भी पोंछ सकती है, दूसरे के बच्चे की नाक को वह माँ अपनी साड़ी से नहीं पोंछ सकती है, क्योंकि उससे प्रेम नहीं है । यह एक व्यावहारिक बात कही जा रही है । जहाँ रुचि होती है वहाँ ग्लानि नहीं होती है और जहाँ रुचि नहीं है वहाँ ग्लानि होती है और रागद्वेष उत्पन्न होते हैं ।
कल्याण के लिये कर्तव्य―अपने को करना क्या है? जिससे अपनी परिणति सुधरे, शांति आए वही तो काम करना है । किन्हीं को क्या दिखाना है, क्या बताना है, कहां महिमा बढ़ाना है, स्वयं अपने आपमें अपना कल्याण करना यही काम करने को पड़ा हुआ है । सो कल्याणस्वरूप जो खुद का ऐश्वर्य है, स्वरूप है उस स्वरूप की रुचि जगना चाहिए । जिसको कल्याणस्वरूप निज तत्त्व की रुचि जग जाती है उस पुरुष को कल्याणमूर्ति धार्मिक जनों की सेवा में ग्लानि नहीं होती है । उस ग्लानि का कारणभूत जुगुप्सा नाम की पर्याय का उदय है । ग्लानि करने रूप पर्याय जीव में जीव के कारण नहीं हुआ करती । जीव में होती तो है, पर जीवद्रव्य के स्वभाव से नहीं है । जुगुप्सा नामक प्रकृति के उदय का निमित्त पाकर यह जीव अपने आप में अपनी परिणति को स्वतंत्र रूप से करता है । जितने पदार्थ हैं वे मात्र अपनी परिणति से परिणमते हैं । दूसरे निमित्तभूत पदार्थों की परिणति लेकर नहीं परिणमते । स्वतंत्रता तो इतनी है, और चूंकि कोई-सा भी विभाव उपाधिरूप परनिमित्त के अभाव में नहीं उत्पन्न हो सकता, इस कारण सर्व विकारभाव परभाव कहलाते हैं । इनमें रुचि मत करो और इनसे अपने को ग्लान मत बनाओ ।
निर्जुगुप्स ज्ञानी का कारण―जुगुप्सा नामक प्रकृति का उदय होने पर अपने आपकी ग्लानिरूप पर्याय का कर्ता होता है, पर ज्ञानी जीव के परमात्मतत्त्व की भावना का ऐसा बल है कि उस ज्ञानभावना से उदय योग्य प्रकृति को संक्रांत कर देता है और फिर उदय रहता है तो उसका अव्यक्त परिणाम रहता है । इस कारण सम्यग्दृष्टि जीव को जुगुप्सा के कारण होनेवाला बंध नहीं होता है । वह जुगुप्सा प्रकृति कुछ रस देकर छूट जाती है । वह आगामीकाल के लिए बंध का कारण नहीं बनती । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अपने आपकी भावना में सावधान है और दूसरे जीव से द्वेष, घृणा, ईर्ष्या आदि बातों को नहीं करता है । ऐसे निर्विचिकित्सक अंग का धारी ज्ञानी सम्यग्दृष्टि पुरुष निःशंक होकर अपने आपमें सदा प्रसन्न रहता है ।
ग्लानि भाव से आत्मघात―ग्लानि करना एक आत्मघातक दोष है । बाह्यपदार्थों से ग्लानि करते हुए में इस जीव को स्वरूप की दृष्टि तो रहती नहीं । बाह्यपदार्थों में द्वेष और जगता है । ग्लानि का मूलकारण द्वेष है । द्वेष की प्रेरणा में ग्लानि की उत्पत्ति होती है । जीव जब सर्व एकस्वरूप हैं, उनका सहज सत्त्व सहज लक्षण एक समान है, फिर उनमें से किसी को अपना मान लिया, किसी को पराया मान लिया, ऐसी जो अंतर में वृत्ति जगती है यही महाविष है । यह सारा संसार झूठा है अर्थात् परमार्थरूप नहीं है, विनाशीक है और दो पदार्थों के संयोग के निमित्तनैमित्तिक भाव से होने वाला इंद्रजाल है । यहाँ कोई चीज विश्वास के योग्य नहीं है । किसका विश्वास करें, किसका शरण मानें, यह जीव मोह में विश्वास करता है अपने परिजनों का, कुटुंब का, मित्रों का और चाहे वे परिवार के लोग मित्र जन भी अंतर से अपने कषाय के अनुसार प्रेम दिखाते हों, आज्ञा मानते हों, पर वस्तु के स्वरूप को मेट कौन देगा? जब पाप का उदय आयेगा तब सब ही विपत्ति बन जायेंगी अथवा जब आयुकर्म के विनाश का समय होगा तो कितना ही कोई प्रेम करने वाला हो, कोई बचा नहीं सकता ।
यथार्थज्ञान की हितकारिता―भैया ! यथार्थ ज्ञान जीव को रहे तो विह्वलता नहीं हो सकती । अपने पुत्र परिवार में विशेष राग और मोह परिणाम रहेगा तो उसमें वेदना ही बढ़ेगी, शांति नहीं हो सकती है । जो मिला है उसके ज्ञाताद्रष्टा रहो, घर में ये पुत्र हैं, रहो, उनके ज्ञाता रहो । हैं वे भी एक जीव । और संयोगवश इस घर में आकर जन्मे हैं, पर ये ही मेरे हैं बाकी सब गैर हैं, इस प्रकार की जो अंतरंग में श्रद्धा है यह श्रद्धा ही इस जीव को अंधेरे में पटक देती है । उससे कोई सारभूत बात नहीं निकली । जैसे किसी से राग करना आत्मा का विनाश है, इसी प्रकार किसी से द्वेष करना भी आत्मा का विनाश है । राग और द्वेष इन दो पाटों के बीच यह जीव पिसता चला आया है । करना कुछ पड़े पर ज्ञान यथार्थ रखो । जो बात जैसी है वैसी ही मानने में कोई श्रम नहीं होता है । घर है, वही है, ठीक है, रहना पड़ रहा है, रहना ठीक है । बात वही करना है जो कर रहे हो इस गृहस्थावस्था में, पर यथार्थ ज्ञान भी अंतर में बनाए रहो तो उसमें फर्क कहां आता है कोई संपत्ति घटती है या परिवार नष्ट होता है? बल्कि यथार्थ ज्ञान होने के कारण न तो राग की वेदना सतायेगी और न चिंताएं सतायेगी । इस कारण यथार्थ ज्ञान रखना इसमें ही अपने आपकी रक्षा है ।
सम्यग्ज्ञान से ही आत्मरक्षा―आप जीवों की रक्षा का उपाय इस लोक में और कुछ दूसरा नहीं है । किससे अपनी रक्षा हो सकती है? सभी दूसरे अरक्षित हैं । जिनको हम दूसरा मानते हैं और पर्याय की मुख्यता से जो हम ढाँचा देखते हैं वह ढाँचा ही स्वयं अरक्षित है । जो स्वयं मर मिटने वाले हैं वे हमारी रक्षा कैसे कर सकते हैं? हमारी रक्षा का करने वाला न तो कोई अन्य चेतन पदार्थ है और न कोई अचेतन पदार्थ है । हमारी रक्षा करने वाला हमारा सम्यग्ज्ञान है । हम स्वयं सुरक्षित हैं, अरक्षित हैं कहाँ जो हम घबड़ाएँ । हां व्यर्थ की हठ की परपदार्थ मेरे तो कुछ नहीं हैं और उनमें हठ कर जायें कि ये मेरे ही हैं, इन्हें मेरे ही पास रहना चाहिए था, इन्हें मेरे पास रहना पड़ेगा, इस प्रकार का एक व्यर्थ का हठ, व्यर्थ का ऊधम मचायें तो अपने ही इस दुराचार से हम स्वयं दुःखी हो जाते हैं । हमारा स्वरूप सुरक्षित है, ऐसे सुरक्षित ज्ञानानंद मात्र सहज आनंद का निधान शुद्ध ज्ञायकस्वरूप से विमुख होना यह परमार्थ से बड़ी जुगुप्सा है । अपने आपके प्रभुस्वरूप से मुख मोड़े रहना यही परमार्थ से ग्लानि है ।
स्वरूपविमुखता में अशरणता―अपने आपके स्वरूप से प्रभुरूप से ग्लानि करके यह जीव कहाँ शरण पायेगा? जहाँ जायेगा वहाँ ही फुटबाल की तरह ठोकर खाकर वापिस आयेगा । किसकी शरण मैं जाऊँ? ये दिखने वाले चेतन पदार्थ जीव त्रस आदिक, मनुष्य आदिक पशु पक्षी, ये स्वयं कषाय से भरे हुए हैं । इनके स्वार्थ में जहाँ धक्का लगा तहाँ ही आप से मुख मोड़ लेंगे । कोई भी हो, स्वरूप को कहां टाला जा सकता है? जो पुत्र, मित्र आपको बहुत अधिक प्रिय लग रहे हैं उनके स्वार्थ में कुछ धक्का तो लगे, फिर देखो आप से वात्सल्य रखते हैं कि नहीं । नहीं वात्सल्य रख सकते हैं । तो यह समस्त व्यवहार कषाय से कषाय मिलने का है । यहाँ कोई किसी से प्रीति नहीं करता । कोई भी हो । भगवान है वह तो प्रीति रंच भी नहीं करता है । और भक्त है सो व्यवहारभाषा में ऐसा कहा जाता है कि भक्त भगवान से प्रीति करता है । पर वास्तव में भक्त अपने ही मंद कषाय से जो स्वयं भक्त में होने वाली वेदना है, परमात्मस्वरूप के स्मरण का जो अनुराग है उसको दूर करने के लिए उस पीड़ा को शांत करने के लिए चेष्टा करता है । और वास्तव में अनुराग करता है तो अपने गुणों के विकास में अनुराग करता है ।
परमार्थ जुगुप्सा महान् अपराध―अपने आपकी प्रभुता के स्वरूप से प्रतिकूल रहना यह सबसे बड़ा दोष है । यही परमार्थ से जुगुप्सा है । धर्मस्वरूपमय निजपरमात्मतत्त्व से ग्लानि करना मुख मोड़े रहना यह अपराध है और केवल अपने आपके प्रभु पर अन्याय करने मात्र का ही अपराध नहीं है, किंतु जगत के समस्त जीवों पर सर्व प्रभुओं पर यह अन्याय है, अपने आपके स्वरूप का पता न हो सके, यही निज प्रभु पर अन्याय है, अनंत प्रभुओं पर अन्याय है । सम्यग्दृष्टि पुरुष अपने आपके स्वभाव से विमुख नहीं होता, अपने स्वरूप से जुगुप्सा नहीं रखता किंतु रुचि रखता है । इस धर्ममय आत्मप्रभु की सेवा में रहकर कोई कष्ट भी भोगना पड़े, उपद्रव उपसर्ग भी सहना पड़े तो भी उनमें विषाद नहीं मानता, अपने परिणामों को म्लान नहीं करता, ग्लान नहीं होता । यही है परमार्थ से निर्विचिकित्सक अंग का दर्शन ।
परमार्थनिर्विचिकित्सित अंग की मूर्तियां―गजकुमार, सुकुमार, सुकौशल और-और भी अनेक मुनिराज, पांडव, सनत्कुमार, चक्री, अभिनंदन आदि चतुर्थकाल में कितने ही विरक्त मुनिराज ऐसे हुए हैं जिन पर घोर संकट आया था । स्यालनी आदि पैरों का भक्षण कर रहे थे । तो क्या उनसे थोड़ा फुंकार भी नहीं देते बनता था? अरे उन स्याल-स्यालिनियों को अगर तेज आंखों से देख लेते तो कभी के भाग जाते । क्या उनके हटाने में बड़े बल की जरूरत थी? किंतु उन सुकुमार मुनिराज ने अपने आपमें जो निर्विकल्प परमात्मस्वरूप का दर्शन पाया था उस परमात्म प्रभु के मिलने में, उस परमात्म प्रभु की उपासना में इतने रुचिया थे कि जिस रुचि को भंग करने के लिए उन्हें स्यालनी हटाने का विकल्प भी नहीं आया । वे थे परमार्थ से निर्विचिकित्सा की मूर्ति, जो धर्म स्वभावमय, अपने आपके प्रभु की उपासना से रंच भी विचलित नहीं हुए । बड़े-बड़े बली सूर, वीर, सुभट मुनिराज जो हजारों सैनिकों का मुकाबला करने में लीलामात्र से सफल हो जाते थे, अब जब विरक्त होकर इस परमात्म स्वभाव की साधना में लगे तब उन्हें इस प्रभुस्वरूप से इतनी महती रुचि जगी कि इसमें भंग करना उन्हें सुहाया नहीं । चाहे शरीर जले, गले, कटे, मिटे, छिदे-भिदे, जहाँ चाहे तहां जावे, पर अपने आनंद को, अपने प्रभुस्वरूप की उपासना को छोड़ने का उन्हें भाव नहीं जगा ।
वर्तमान विकल्प बनाकर भविष्य में निर्विकल्पता की आशा व्यर्थ―यहां सामायिक करते हुए में एक चींटी ऊपर चढ़ी हो, चाहे वह काट न रही हो, केवल बैठी हो या जरा चलती हो तो इतना भी कितने ही भाई सहन नहीं कर पाते हैं और उसको अलग हटाते हैं और ऐसी मुद्रा बनाते हैं कि इसके हट जाने के बाद फिर बढ़िया ढंग से सामायिक में मस्त हो जायेंगे । अरे जब पहिले ही ग्रास में मक्खी गिर गई तो अब भोजन का क्या ठिकाना? जब इस पहिले ही अवसर में चींटी के चढ़ने के उपद्रव को नहीं सह सकते, विकल्पों का उपादान रखा तो अब आगे निर्विकल्पता का क्या भरोसा? सम्यग्दृष्टि जीव अपने इस शुद्ध ज्ञानस्वरूप की रुचि में इतना दृढ़ है कि वह इसकी साधना के समक्ष अन्य सब बातों को अत्यंत असार और हेय समझता है । ऐसे निर्विचिकित्सक अंग के साक्षात् मूर्ति मुनिराज ज्ञानी संत हैं । वे ज्ञानी संत न तो क्षुधा तृषा आदि वेदना में विषाद मानेंगे, न अपने को ग्लान करेंगे और न बाहरी पदार्थ हड्डी, माँस, मल, मूत्र, आदि गंदे पदार्थों को देखकर वे उनसे द्वेष करेंगे । ग्लानि न करेंगे । अब भी देखा जाता है कि जो विवेकी, धीर, उदार, विरक्त आत्मतत्त्व के रुचिया श्रावकजन होते हैं वे भी व्यवहार के अपवित्र पदार्थों को देखकर नाक, भौंह सिकोड़ने की आदत नहीं रखते हैं ।
वास्तविक अपवित्रता का स्थान―इस जगत में अपवित्र पदार्थ है क्या? किसे कहते हैं अपवित्र पदार्थ, युक्तिपूर्वक निरखिये । नालियों में जो गंदगी बहती है उसे अपवित्र कहते हैं क्या? भला बतलाओ कि जो अपवित्र कहे जाने वाले स्कंध हैं उनमें अपवित्रता आयी कहां से? मल, मूत्र, बहता होगा अथवा कुछ कीड़े मकोड़े आदि जानवरों का विध्वंस हुआ होगा । इन सारी बातों का जो मिश्रण है वही तो नालियां हैं, अर्थात् शरीर के संबंध वाली चीजों का वह समूह है । तो शरीर गंदा हुआ । जिस शरीर के मांस, मज्जा, मल, मूत्र, हड्डी, चर्बी आदि अपवित्र माने जाते हैं वह शरीर ही अपवित्र है । अब और विचारिये कि यह शरीर क्यों अपवित्र हो गया? जिन परमाणुओं से यह शरीर बना वे परमाणु जब तक शरीररूप नहीं बने थे तब तक लोक में बड़े शुद्ध स्वच्छ थे । जब तक शरीररूप परमाणु न बने थे तब तक उन आहारवर्गणाओं के परमाणुओं का क्या स्वरूप था? क्या हड्डी माँस आदिरूप ही थे, जिनसे अब हम ग्लानि किया करते हैं? नहीं थे । जीव का संबंध हुआ, शरीर की रचनाएँ हुई और इस शरीर में ऐसी गंदी, अपवित्र मांस आदिक धातुयें उत्पन्न हुई तो शरीर का जो मूल आधार है, स्कंध है, परमाणु पुंज है, औदारिक वर्गणायें आहार वर्गणायें ये तो बड़ी अच्छी थीं, पवित्र थीं । पवित्र होने पर कोई अपवित्र का संबंध हो जाये तो अपवित्र बना करता है । शुद्ध नहाये धोए लड़के को नाली से भिड़ा हुआ लड़का छू ले तो वह नहाया धोया लड़का अपवित्र माना जाता है । अन्य पवित्र बालकों को एक गंदे बालक ने स्पर्श कर लिया ना, तो ये जो आहारवर्गणायें लोक में बड़ी अच्छी विराज रही थीं उनको इस मोही जीव ने छू लिया, ग्रहण कर लिया, छू तो नहीं सकता, ग्रहण तो नहीं कर सकता, पर ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि ऐसे मोही मलिन जीवों का प्रसंग होने से यही वर्गणाएँ शरीररूप परिणम कर बुरी हो जाया करती हैं । तब शरीर के परमाणुओं को जिसने छू कर गंदा बनाया है वह गंदा हुआ या शरीर गंदा है । वह मोही जीव गंदा हुआ ।
जीव पदार्थ में अपवित्र भाव―अब उस मोही जीव की भी चर्चा सुनो वह जो जीव है, द्रव्य है, एक चेतन पदार्थ है, वे द्रव्य तो सब एक चेतन समान हैं, केवल ज्ञायकस्वरूप है, चैतन्यस्वभावरूप हैं । उनके स्वभाव में कहां गंदगी बसी है? ये जीवद्रव्य भी अपने स्वभाव से मलिन नहीं है । पर इस जीव का जो विकारपरिणमन हुआ है, रागद्वेष मोहभाव जगा है यही अपवित्र परिणमन है । तो लोक में सारी अपवित्र चीजों के कारण को विचारा जाये तो अंत में मिलेगा सबसे अधिक अपवित्र तो रागद्वेष मोह मिलेगा । इन तीनों में रागद्वेष तो एक शाखा की तरह है और मोह उनकी जड़ है । इन तीनों में भी अधिक अपवित्र क्या है? अपेक्षाकृत बात देखो―लोग द्वेष से बड़ी घृणा करते हैं । कोई जीव द्वेषी है, बैर रखता है, लड़ाई झगड़ा करता है, द्वेष दिखाता है तो उसके द्वेष से लोगों को बड़ी नफरत होती है । कैसा बेढंगा आदमी है, द्वेष ही द्वेष करता है । द्वेषभाव को लोग बुरी दृष्टि से देखते हैं, किंतु यह तो बतलाओ कि यह द्वेष क्या द्वेष के लिए ही आया है? द्वेष का प्रयोजन क्या द्वेष करना है? नहीं । द्वेष किसी राग के कारण आया है । द्वेष का प्रयोजन किसी राग का पोषण है । किसी बात में राग आये बिना पर से द्वेष की उत्पत्ति नहीं हुआ करती है । जो मनुष्य बैठे ही ठाढ़े प्रकृत्या किसी भी धर्मात्मा जीव से द्वेष और ईर्ष्या का परिणाम बनाते हैं और अपने आप में जलते भुनते हैं, अपनी परिणति का राग, अपने आपकी पर्याय को आपा मानकर, उसके बड़प्पन रखने का परिणामरूप जो राग है उस राग की प्रेरणा से वह धर्मात्माजनों से भी द्वेष रखता है । तब द्वेष से अधिक गंदा राग हुआ ना ।
राग का मूल मोह―अब राग की भी बात देखिये―इस जीव को खामखां राग हो क्यों गया? जब कोई वस्तु अपनी नहीं है, किसी परपदार्थ से अपना हित नहीं है तो यह रागभाव जग क्यों गया? इस रागभाव के जगने का कारण है मोहभाव । इसे अज्ञान है, स्व और पर का विवेक नहीं है, भिन्न-भिन्न स्वरूपास्तित्व की निरख नहीं है । वह जानता है कि किसी पदार्थ से किसी दूसरे पदार्थ का कुछ काम होता है, बनता है । मैं किसी दूसरे का कुछ भी कर सकता हूँ, कोई दूसरा मुझे कुछ भी कर सकता है । निमित्त-नैमित्तिक भावपूर्वक अपने आपके चतुष्टय में परिणमन होते रहने की बात इसके उपयोग में नहीं है । कर्तृत्व बुद्धि और स्वामित्व बुद्धि समाई हुई है । इस कारण यह जीव पर से राग करता है । तो उस रागभाव का कारण है अज्ञानभाव, मोहभाव । इस मोहभाव के वश होकर जो जीव सहज ज्ञानानंद निधान निज परमात्म-स्वरूप की रुचि नहीं करता, उससे अरुचि रखना, विमुख रहना, वही है परमार्थ से विचिकित्सक प्राणी ।
निर्विचिकित्सित अंग की मूर्ति जयवंत हो―जो महान् आत्मा प्रत्येक परिस्थितियों में अपने आपके प्रभुस्वरूप की रुचि में दृढ़ रहता है इस धर्म स्वभावमय आत्मतत्त्व की उपासना में इतना रुचिवान है कि उपद्रव उपसर्ग कुछ भी आए तो भी विषाद नहीं करता, खेद नहीं मानता, वही है परमार्थ से निर्विचिकित्सा अंग का दर्शन । जैसे माँ अपने बच्चे में रुचि रखती है तो बच्चे के नाक निकले, मलमूत्र निकले तो भी उस स्थिति में विषाद नहीं मानती । जैसे कि और माँ किसी दूसरे पुत्र से ऐसी बात हो जाये उसके शरीर पर, कपड़ों पर, तो वह खेद मानती है, झल्ला जाती है । इस माँ को झुंझलाहट नहीं होती है, खेद नहीं होता है, इसी प्रकार अन्य धर्मात्माजनों की सेवा में रहते हुए ऐसी ही बात आए तो वह धर्मात्मा पुरुष खेद नहीं मानता और चैतन्यस्वभाव धर्ममय अपने आत्मतत्त्व की उपासना में रहते हुए क्षुधा, तृषा, निंदा, दरिद्रता कुछ भी बातें उपस्थित हों, तो उन परिस्थितियों में खेद नहीं मानता, विषाद नहीं मानता । अपनी रुचि की धुन में ही बना रहता है । ऐसे निर्विचिकित्सक अंग की मूर्तिरूप ये ज्ञायकस्वभावी जयवंत हों और इनके उपासना के लिए ऐसा बल प्रकट हो कि हम धर्मात्मा पुरुषों की सेवा में रहते हुए खेद, विषाद, थकान न मानें और उनके रत्नत्रय गुण स्वरूप की महिमा में हमारा उपयोग बना रहे । भैया ! दोष ग्रहण करना, घृणा करना, ग्लानि करना, विमुख रहना, ईर्ष्या करना ― इन दोषों से इन विपत्तियों से दूर बना रहूं, ऐसा यत्न करना, सो मोक्षमार्ग का इस निर्विचिकित्सक अंग में एक महान् पुरुषार्थ है ।
अब अमूढ़दृष्टि अंग का वर्णन करते हैं ।